मीडिया से मीडिया में भेद करना छोडना होगा
एक दूसरे को नीचा दिखाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला
आधुनिक युग में बदलेगा ही मीडिया का स्वरूप
(लिमटी खरे)
इलेक्ट्रानिक मीडिया के एक पत्रकार का एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्र (प्रिंट मीडिया) में 28 दिसंबर को एक आलेख ``अपने अंदर के हस्तिनापुर को माराना होगा`` पढकर बडा ही आश्चर्य हुआ। उक्त ईमीडिया के उक्त पत्रकार ने अपनी बात की शुरूआत यहीं से की है, ``जिन्हें टेलीवीजन पर नाज नहीं है वो आजकल कहां हैं। ये सवाल मेरे दिल में पिछले एक हफ्ते से घूम रहा है। मन उन टिप्पणीकारों को खोज रहा है जाक अकसर टीवी को अपने कालम में कोसते रहते हैं। इसके बाद उक्त पत्रकार ने टीवी द्वारा रूचिका केस को मुकाम तक पहुचाने के लिए जवाबदेह ठहराया है।
देश में पहले प्रिंट मीडिया का एकाधिकार था, यह बात किसी से छिपी नही है। समय के साथ जब टीवी ने हिन्दुस्तान में कदम रखा तब देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अपनी आमद दर्ज करवाई। एशियाड के दौरान 1982 में हिन्दुस्तान में कलर टीवी आया। इसके बाद एक के बाद एक मनोरंजन चेनल्स फिर समाचार चेनल्स ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। नब्बे के दशक के आरंभ में ही समाचार चेनल्स काफी हद तक लोकप्रिय हो चुके थे।
इसके बाद प्रगति के सौपान तय करते हुए मीडिया तीसरी स्टेज अर्थात ``वेव मीडिया`` की ओर बढ गया है। आज न्यूज वेव पोर्टल्स की तादाद में एकाएक इजाफा साफ दिखाई पड रहा है। आज इंटनेट पर न्यूज बेस्ड वेव पोर्टल्स की बाढ सी आई हुई है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों ने भी वेब मीडिया को अपने रथ के पहियों के समान जोड लिया है।
उन्नीस साल पहले जब रूचिका और एसपीएस राठौर का केस हुआ था तब देश में प्रिंट मीडिया का बोलबाला था, किन्तु इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज न कराई हो एसा नहीं था। उन्नीस साल तक घिसटने के बाद इस मामले में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने चीख चीख कर राठौर के खिलाफ सबूत दर सबूत पेश कर रूचिका के परिजनों को न्याय दिलवाने की सराहनीय पहल की है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
आज निश्चित तौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया की चीत्कार के कारण ही सरकारों को न केवल कटघरे में खडा किया गया है, वरन इस मामले में न्याय होने की उम्मीद जागी है। इलेक्ट्रानिक मीडिया आज जो कुछ भी दिखा रहा है वह आज कल में गढा हुआ नहीं है। यह सब कम से कम नौ साल पुराने तथ्य ही हैं जिन्हें अब नए स्वरूप में पेश किया जा रहा है।
हमारा कहना महज इतना ही है कि अगर उक्त पत्रकार को टीवी पत्रकारिता पर इतना ही नाज है तो उन्हें अपने इस आलेख को बजाए प्रिंट मीडिया के किसी इलेक्ट्रानिक मीडिया में ही स्थान दे देना चाहिए था। प्रिंट के टिप्पणीकार अगर टीवी को कोसते होंगे तो निस्संदेह उसमें कहीं न कहीं कोई खामी होगी तभी टीवी के बारे में कुछ तल्ख टिप्पणियां स्थान पाती होंगी, वरना पत्रकार को क्या पडी है कि वह अपनी बिरादरी (छोटे भाई इलेक्ट्रानिक मीडिया) के बारे में ही उल्टा सीधा लिखे।
उक्त लेखक को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी पहले प्रिंट मीडिया में ही कार्यरत रहे होंगे। इसके साथ ही साथ जब इलेक्ट्रानिक मीडिया अस्तित्व में नहीं था तब प्रिंट के माध्यम से ही आंदोलन खडे हो जाते थे। प्रिंट भी जब शैशवकाल में था तब आजादी के मतवाले हिन्दुस्तानियों ने हाथ से अखबार लिख लिख कर न केवल जन जागृति पैदा की वरन् उन ब्रितानियों के दांत भी खट्टे किए जिनके बारे में यह कहा जाता था कि उनके राज में सूरज डूबता ही नहीं है।
आज इलेक्ट्रानिक मीडिया का जादू लोगों के सर चढकर बोल रहा है, इस बात में कोई संदेह नहीं। कल प्रिंट का जमाना था, आज इलेक्ट्रानिक का और आने वाले समय में हो सकता है दोनो को पीछे छोडते हुए वेब मीडिया कोसों दूर निकल जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
वैसे भी प्रिंट मीडिया में अगर नजरों से कोई खबर छूट जाए तो बाद में उसकी सहेजी हुई प्रति से ढूंढकर पढी जा सकती है। वेब मीडिया में भी इस तरह की व्यवस्थाएं सहज सुलभ हैं किन्तु जहां तक रही इलेक्ट्रानिक मीडिया की बात अगर आपसे कोई खबर छूट गई और वह तीन चार बार चल चुकी है तो उसे देखने के लिए कोई सहज सुलभ व्यवस्था नहीं है। इस लिहाज से आने वाले समय में प्रिंट और वेब मीडिया का महत्व बढने की ही उम्मीद है। यह अलहदा बात है कि इन दोनों मीडिया से ज्यादा ग्लेमर आज इलेक्ट्रानिक मीडिया का इसलिए है क्योंकि इसमें दृश्य एवं श्रृव्य (आडियो विज्जुअल) दोनों ही बातें एक साथ मिल जाती हैं।
रूचिका जैसे एक नहीं अनेक मामले हैं जिनमें इलेक्ट्रानिक मीडिया ने संज्ञान लेकर सरकारों को कदम उठाने पर मजबूर किया है। आगे भी इसका यह सफर जारी रहना चाहिए। वैसे भी मीडिया को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। चूंकि प्रिंट पहले था अत: वह घर के बुजुर्ग और मार्गदर्शक की भूमिका में है। इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया आया सो वह जवान है जिसके कांधों पर बहुत भार है रही बात वेब मीडिया की सो वह अभी शैशव काल में है, और आने वाले दिनों में मीडिया का भविष्य बनेगा। कुल मिलाकर आधुनिक युग में मीडिया का स्वरूप बदलेगा ही किन्तु इस बदलते स्वरूप में अगर घर के अंदर ही एक दूसरे पर लानत मलानत भेजने का काम आरंभ कर दिया गया तो मीडिया के पैर जमीन के बजाए छत से लगने में समय नहीं लगेगा।
बोरवेल में गिरे बच्चे, निठारी कांड, रूचिका या आरूषी प्रकरण के साथ और न जाने कितने एसे मामले हैं जिन पर से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ही पर्दा उठाया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अगर यह किया है तो यह किसी पर कोई अहसान नहीं किया है। उसने मीडिया के एक अंग होने का महज फर्ज ही अदा किया है। देश की बिगडैल व्यवस्थाओं पर चोट कर उन्हें सुधारने के मार्ग प्रशस्त करना ही मीडिया का प्रथम दायित्व है।
प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और वेब मीडिया में एक दूसरे को ही नीचा दिखाने का जतन आरंभ हो जाएगा तो घर की इस फूट का फायदा कोई उठाए या न उठाए राजनेता अवश्य ही उठा लेंगें। हमारा सुझाव है कि मीडिया चाहे जैसा भी हो अब तक एक जुट रहा है, इसे एकजुट ही रहने दिया जाए, भागों में न बांटा जाए। वैसे भी आज मीडिया के ग्लेमर में फंसकर न जाने कितने युवक युवतियों ने मीडिया की ओर रूख कर लिया है।
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज अनेक मीडिया पर्सन्स ने प्रजातंत्र के इस चौथे स्तंभ को ढहाने के लिए निहित स्वार्थों को प्राथमिकता देकर मीडिया के विरोधियों से हाथ मिला लिए हैं। कल तक मीडिया के मालिक संपादक स्वयं पत्रकार ही हुआ करते थे, किन्तु आज मीडिया की कमान कार्पोरेट सेक्टर के धनाड्यों के हाथों में आ गई है, जो अपने हिसाब से देश को हांकने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। विडम्बना ही कही जाएगी कि हमारे देश के बुद्धिजीवि पत्रकार भी अपने आप को इन्ही के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं।
जिलों में कवरेज और नान कवरेज के साथ ही साथ प्रिंट और इलेक्ट्रानिक के बीच में वर्गभेद देखना आम बात हो गई है। जिलों के साथ ही साथ प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रेस कांफ्रेंस आदि में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए अलग अलग व्यवस्थाएं बनवा दी गईं हैं।
हमारा कहना महज इतना ही है कि प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और वेब मीडिया तीनों ही भारतीय मीडिया घराने के ही अंग हैं, इन तीनों के बीच में फर्क करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। हो सकता है कल तक कोई बुलंदियों पर रहा हो आज कोई हो और आने वाले समय में और कोई सरमौर बन सकता है। आपस में ही भेद करके हम प्रजातंत्र के इस चौथे स्तंभ को मजबूत करने के बजाए उस बट वृक्ष के आसपास की मिट्टी ही खोदकर उसकी जडें कमजोर करेंगे।