गुरुवार, 7 जनवरी 2010

यर्थाथ के मैदान में चक दे!

यर्थाथ के मैदान में चक दे!


खेलों को बढावा देने भारत सरकार को बनानी होगी व्यवहारिक नीति

(लिमटी खरे)


शहरूख खान अभिनीत ``चक दे`` चलचित्र ने भारत के होनहार किन्तु अवसर न मिलने वाले खिलाडियों के मन में एक आशा की किरण जगाई थी। चलचित्र में कुछ इसी तरह की बातों का शुमार किया गया था। सुदूर ग्रामीण अंचलों में छिपी प्रतिभाओं को लगने लगा था कि इस फिल्म के आने के बाद देश पर राज करने वाले शासकों का ध्यान उनकी ओर जाएगा और वे भी कुछ कर दिखाएंगे।

वस्तुत: एसा कुछ हो नहीं सका। खिलाडियों की आशाओं पर समय के साथ तुषारापात हो गया। गांवों कस्बों में पलने वाले खिलाडी एक बार फिर गुमनामी के अंधेरों में खोने लगे। कभी भारत की आन बान और शान का प्रतीक रही हाकी भी रसातल से अपने आप को उबारने में पूरी तरह नाकाम रही। आज के समय में हाकी का खेल गली मोहल्लों मेें भी दम तोड चुका है।


वहीं दूसरी ओर क्रिकेट का खेल पैसा बनाने का शानदार जरिया बनकर उभरा। देश विदेश में क्रिकेट प्रेमियों की संख्या में दिनों दिन इजाफा होने लगा। टेस्ट क्रिकेट के बाद एक दिवसीय क्रिकेट ने लोगों के दिलो दिमाग पर गहरा प्रभाव डाला। इसके प्रायोजकों की संख्या में जबर्दस्त उछाल दर्ज किया गया। मीडिया ने भी हाकी को उभारने के बजाए क्रिकेट को ही सरताज बनाने का प्रयास किया।


इसके बाद बारी आई फटाफट क्रिकेट की। ट्वंटी ट्वंटी ने लोगों को अपना दीवाना बना लिया। देश में अब तो ट्वंटी ट्वंटी क्रिकेट टीम की बाकायदा बोलियां भी लगने लगीं। देश के धनपतियों ने क्रिकेट के हुनरबाजों की तबियत से बोलियां लगाकर इसे और अधिक हवा दी। जनवेवकों के साथ रूपहले पर्दे के आदाकारों ने भी इस खेल में अपनी जबर्दस्त रूचि दिखाई है। आज क्रिकेट का जादू देशवासियों के सर चढकर बोल रहा है।

चक दे में जब महिला हाकी टीम को चैंपियनशिप में जाने से मना कर दिया जाता है तो उसके बाद ज्यूरी महिला टीम को पुरूष हाकी टीम से खेलने के लिए चुनौति देती है। यद्यपि यह हर प्रकार से अनुचित था कि महिलाओं को पुरूषों के सामने खडा कर उनकी परीक्षा ली जाए। फिर भी महिला हाकी टीम के शानदार प्रदर्शन के आगे कमेटी को झुकना होता है।


कमोबेश इसी तर्ज पर गुजरात में नई परंपरा का आगाज होने जा रहा है। भारतीय क्रिकेट के इतिहास में यह संभवत: पहला मौका होगा जबकि महिला क्रिकेट टीम द्वारा पुरूष क्रिकेट टीम को चुनौति दी जाएगी। बडोदरा में आयोजित डी.के.गायकवाड क्रिकेट प्रतियोगिता में लोग इस तरह का नजारा पहली बार ही देखेंगे।

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) का यह पहला आधिकारिक आयोजन है। इसमें अंडर 14 महिला क्रिकेट टीम अपने हमउमर युवाओं के सामने अपना जौहर दिखाएगी। कहने को तो भारतीय महिला क्रिकेट टीम को सडी गली टीम का दर्जा देने में बीसीसीआई द्वारा कोई कोर कसर नहीं रख छोडी है।


भारतीय महिला क्रिकेट टीम 2005 में वूमेंस वल्र्ड कप में रनरअप, 2009 में आइसीसी ट्वंटी ट्वंटी में सेमीफाईनल तक पहुचंी थी। महिलाओं के एशिया कप पर भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने चार बार अपना नाम लिखा है। फिर क्या कारण है कि जया शर्मा, झूलन गोस्वामी, नीतू डेविड आदि नामी गिरमी महिला खिलाडियों को सचिन तेंदुलकर और महेंद्र सिंह धोनी की तरह लोगो की जुबान पर नहीं चढ सकीं। हमें इसके कारण खोजने ही होंगे।

एक तरफ जहां देश को इंदिरा गांधी जैसी सफल और सुलझी महिला प्रधानमंत्री, 2007 में पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति के तौर पर श्रीमति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, लोकसभाध्यक्ष के तौर पर मीरा कुमार और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की आसंदी पर सुषमा स्वराज जैसी नेत्रियां मिलीं हैं तब फिर हाकी और क्रिकेट में महिलाएं प्रसिद्धि पाने से क्यों चूक रहीं हैं।

देखा जाए तो टेबिल टेनिस, बेडमिंटन और लॉन टेनिस में महिलाओं को मिक्स डबल्स खेलने की इजाजत है। सिंगल्स में भी महिलाओं ने पुरूष क्रिकेट खिलाडियों को प्रसिद्धि के मामले में काफी पीछे छोड दिया है। रही बात क्रिकेट और शतरंज की तो महिलाओं को कमतर आंककर उन्हें पुरूषों के सामने खडे होने का मौका क्यों नहीं दिया जाता है यह बात आज भी यक्ष प्रश्न की तरह ही खडी हुई है।


पुरूष प्रधान भारतीय संस्कृति में महिलाओं के साथ दोयम दर्ज का ही व्यवहार सदा से होता आया है। महिलाओं को आज भी बच्चे पैदा करने की मशीन और चौका चूल्हा करने के लिए ईश्वर की रचना ही माना जा रहा है। भारतीय पुरूष भूल जाता है कि अंतरिक्ष में जाने वाली कल्पना चावला भी इसी भारत देश में जन्मी एक कन्या थी।

बहरहाल बीसीसीआई द्वारा गुजरात के बडोदरा में आयोजित होने वाले इस विपरीत लिंगी क्रिकेट मैच की सराहना की जानी चाहिए। मीडिया को चाहिए कि इस मैच को पूरा कवरेज दे भले ही बीसीसीआई इस मामले में प्रायोजक उपलब्ध कराए अथवा नहीं। इस मैच में चाहे महिला क्रिकेट टीम हारे या जीते उसका मनोबल बढाने के लिए लोगों को आगे आना होगा।

तरह के मैच से एक तरफ युवतियों के मन से यह बात निकल सकेगी कि वे किसी भी मामले में पुरूषों के पीछे हैं और दूसरी तरफ उन्हें अपने फन को निखारने का मौका भी मिलेगा। कहने को खेल एवं युवक कल्याण विभाग द्वारा जिला स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक क्रीडा प्रतियोगिताओं का आयोजन कराया जाता है, पर इनकी असलियत किसी से छिपी नहीं है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अनेक जिलों में इस तरह के आयोजन सरकारी धन के अपव्यय के अलावा और कुछ भी नहीं हैं। आज वक्त आ गया है कि जब पुरानी धारणाओं और वर्जनाओं को धवस्त कर नई ईबारत लिखी जाए।

ब्रितानियों के समय से चली आ रही नौकरशाही ने भारत में कम से कम खेलों के बढावे के लिए कोई ठोस कार्ययोजना तैयार नहीं की है। विडम्बना यही कही जाएगी कि भारत गणराज्य के शासन तंत्र में खेलों को गंभीर काम का दर्जा नहीं मिल सका है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भारत में खेल महकमा खिलाडियो को बेहतर सुविधाएं और संसाधन मुहैया करवाने के लिए नही वरन् इससे जुडे जनसेवकों के लिए विदेश यात्राएं, भोग विलास, मीडिया की सुर्खियों में बने रहने का साधन बनकर रह गया है।

कितने आश्चर्य की बात है कि आजाद भारत में पहली बार ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहलवान खाशाबा जाधव को देश की महाराष्ट्र की सरकार द्वारा हेलसिंकी के ओलंपिक में भेजने आर्थिक मदद देने से मना कर दिया था। अपने शुभचिंतकों से धन जमा कर वह ओलंपिक में गया। कुल मिलाकर विश्व के सबसे बडे और मजबूत प्रजातंत्र के हर खम्बे को भारत में खेलों को बढावा देने के मार्ग प्रशस्त करना होगा, वरना भारत में गली मोहल्लों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक बस एक ही खेल रह जाएगा और वह होगा क्रिकेट।

आदिवासियों को पट्टे न मिलने से खफा है केंद्र

आदिवासियों को पट्टे न मिलने से खफा है केंद्र


छत्तीसगढ और मध्य प्रदेश काफी पिछडे

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली 05 जनवरी। आदिवासियों को वनभूमि के पट्टे देने की केंद्र सरकार की महात्वाकांक्षी योजना में पलीता लगाने वाले राज्यों पर जल्द ही केंद्र सरकार की नजरें तिरछी हो सकतीं हैं। देश के लगभग डेढ दर्जन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लगभग तीस लाख प्रकरण अभी भी अफरशाही और बाबूराज के चलते लंबित पडे हैं।


केद्रीय आदिवासी कल्याण मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि सबों ने अब तक महज तीस हजार पट्टों के प्रकरणों का ही निष्पादन किया है। सूत्रों ने यह भी बताया कि गैर कांग्रेसी सरकारें जानबूझकर केंद्र सरकार की इस अभिनव योजना में दिलचस्पी नहीं ले रहीं हैं, ताकि कांग्रेस के परंपरागत आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगाई जा सके।

सूत्रों ने यह भी संकेत दिए हैं कि लगभग दो लाख प्रकरण अभी तैयार पडे हुए हैं किन्तु राज्य सरकारें अनावश्यक अडंगेबाजी कर विलंब करने पर आमदा हैं। राज्यों में अफसरशाही और बाबूराज के बेलगाम घोडे इस कदर दौड रहे हैं कि हर माह राज्य सरकारों को पट्टा बांटने के लिए भेजी जाने वाली सूचना का जवाब देना भी सूबों की सरकारें उचित नहीं समझतीं हैं।

प्राप्त जानकारी के मुताबिक छत्तीसगढ में चार लाख, मध्य प्रदेश में पौने चार लाख, महाराष्ट्र में ढाई लाख, आंध्र प्रदेश में सवा तीन लाख, उडीसा में तीन लाख तो पश्चिम बंगाल में लगभग डेढ लाख प्रकरण अभी भी सरकारी मुहर की बाट ही जोह रहे हैं। बताया जाता है कि तमिलनाडू, केरल, बिहार, उडीसा, कर्नाटका, अरूणाचल प्रदेश आदि में तो अभी पट्टे बांटने के काम का श्रीगणेश भी नहीं किया जा सका है।

उधर सूबों की सरकारों की ओर से जो खबरें छन छन कर देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली पहुंच रहीं हैं, उनके मुताबिक सरकारी रिकार्ड में की गई जबर्दस्त हेरफेर के कारण इसमें विलंब हो रहा है। सूबों में अधिकारियों द्वारा आदिवासियों से आय प्रमाण पत्र के साथ ही साथ अन्य दस्तावेजों की मांग की जा रही है, जिसके चलते इस काम में विलंब हो रहा है।

गौरतलब होगा कि कांग्रेसनीत केंद्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्री कांतिलाल भूरिया स्वयं भाजपा शासित मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल से संसद सदस्य चुने गए हैं। उनके अपने सूबे में ही पौने चार लाख प्रकरणों का लंबित होना दर्शा रहा है कि वे केंद्र सरकार में अपनी जवाबदारी के निर्वहन के साथ अपने सूबे के आदिवासी भाईयों को कितना न्याय दिला पा रहे हैं।