गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

ईमानदार नहीं बची मनमोहनी छवि

भ्रष्टों के सरदार मनमोहन

खुद को मजबूर बता चख रहे सत्ता की मलाई

सोनिया का मन नही मोह पा रहे मोहन

पीएमओ 10 जनपथ में बढ़ी दूरियां

(लिमटी खरे)

वर्तमान हालातों में यक्ष प्रश्न तो यही है कि भारत गणराज्य के वजीरे आजम होने के नाते डॉ.मनमोहन सिंह और सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया होने के नाते श्रीमति सोनिया गांधी इन घपले घोटालों और मंहगाई के मसले पर जनता को जवाब देने की जहमत उठाएंगे या फिर बिना जवाबदेही के ही खुद को मजबूरबताकर सत्ता की मलाई चखते रहेंगे



नेहरू गांधी परिवार से इतर पांच सालों से ज्यादा देश के प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य पाने वाले वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह की छवि अब धूल धुसारित हो चुकी है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने दूसरी पारी में सरकार इसलिए बना पाई क्योंकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने लाल कृष्ण आड़वाणी को बतौर प्रधानमंत्री पेश किया था, जिन पर मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि भारी पड़ी थी।

विडम्बना देखिए कि आज मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर उनके सहयोगियों के भ्रष्टाचार भारी पड़ते जा रहे हैं। आज मनमोहन सिंह और कांग्रेस चहुंओर घपले घोटालों से पूरी तरह घिर चुकी है। कांग्रेस के सामने अब कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है। सोनिया गांधी खुद पशोपेश में हैं कि आखिर मनमोहन जैसे ईमानदारी का चोला ओढ़ने वाले प्रधानमंत्री के रहते विपक्ष द्वारा भ्रष्टाचार को कैसे मुद्दा बना लिया जा रहा है।

प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के बीच खुदी खाई पटने का नाम ही नहीं ले रही है। सोनिया और मनमोहन के बीच मतभेद जाहिर होने लगे हैं। 2जी घोटाले पर विपक्ष की जेपीसी की मांग पर सोनिया गांधी पहले से ही तैयार थीं, किन्तु मनमोहन सिंह ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। पीएम के इस मामले में न झुकने से सरकार की बुरी तरह किरकिरी हो चुकी है।

आलम यह है कि सात रेसकोर्स (प्रधानमंत्री आवास) और 10 जनपथ (सोनिया गांधी का सरकारी आवास) के बीच अघोषित जंग का आगाज हो चुका है। सियासी बिछात पर नित्य ही नई व्यूह रचनाएं हो रही हैं। मनमोहन से त्यागपत्र मांगने का नैतिक साहस भी सोनिया गांधी नहीं जुटा पा रहीं हैं। वहीं कांग्रेस के आला नेता प्रणव मुखर्जी और राजा दिग्विजय सिंह मनमोहन के सक्सेसरबनकर न केवल उभर रहे हैं, बल्कि इसके मार्ग भी प्रशस्त कर रहे हैं।

दरअसल, मनमोहन के अधीन काम करने में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी अपने आप को असहज ही महसूस करते आए हैं, दादा ने भी पीएमओ के खिलाफ सोनिया की तरह ही अघोषित जंग का एलान कर दिया है। इसका कारण यह है कि जब वे वित्त मंत्री थे, तब उनके अधीन काम करने वाले अफसरान में डॉ.मनमोहन सिंह पांचवे क्रम वाले अफसर हुआ करते थे। तब और अब में जमीन आसमान का अंतर है। उस दर्मयान डॉ.मनमोहन सिंह को सीधे प्रणव मुखर्जी से मिलना बेहद मुश्किल होता था, इसमें प्रोटोकाल आड़े आता था।

अब वही अदना सा अफसर (डॉ.मनमोहन सिंह) छः साल से ज्यादा समय से दादा को सीधे निर्देश देने की स्थिति में है। दादा की पीड़ा समझी जा सकती है। पिछले दिनों बैंक चला गांव की ओर कार्यक्रम में प्रणव मुखर्जी ने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को तो बुलावा भेजा किन्तु देश के वजीरे आजम को न्योता भेजना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा। इसके साथ ही साथ मनमोहन सिंह सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री भी हैं, सो इस लिहाज से वित्त मंत्री को उनसे मशविरा कर ही कोई कदम उठाना चाहिए, वस्तुतः एसा हो नहीं रहा है। प्रणव मुखर्जी बिना पीएम की सलाह के ही सारे निर्णय ले रहे हैं। उधर गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम की निष्ठा प्रधानमंत्री में गहरी होती दिख रही है।

भारत गणराज्य में छः से ज्यादा दशकों से लोकतंत्र कायम रहना ही अपने आप में सबसे बड़ी बात और मिसाल है। स्वतंत्र भारत में अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है संप्रग दो की मनमोहन सिंह सरकार। अब तक इस सरकार के तीन लाख करोड़ रूपए से अधिक के घपले घोटाले सामने आ चुके हैं। जब मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जा रहा था, तब उनकी दो योग्यताओं को हाईलाईटेड किया गया था। अव्वल तो वे निहायत ईमानदार हैं, दूसरा वे बड़े अर्थशास्त्री हैं। घपले घोटालों, और रिकार्ड ध्वस्त करती मंहगाई ने मनमोहन सिंह की दोनों ही योग्यताओं पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि देश के कथित ईमानदार प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और कांग्रेस पर सवा दशक से ज्यादा समय से राज करने वाली श्रीमति सोनिया गांधी ने स्वतंत्र भारत के वर्तमान को दागदार किया है। सोनिया की नाक के नीचे प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री का कार्यालय, मंत्रियों और अन्य सहयोगियों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। टूजी घोटाले के बाद देश की न्यायपालिका को विधायिका से प्रश्न पर प्रश्न करने पर मजबूर होना पड़ा।

देश के इतिहास में पहली बार हुआ जब शीर्ष अदालत ने प्रधानमंत्री से यह पूछा था कि इतने बड़े घोटाले के बाद भी आदिमत्थू राजा अब तक मंत्री पद पर कैसे बैठे हैं? अदालत ने यह भी कहकर प्रधानमंत्री को शर्मसार कर दिया था कि राजा पर मुकदमा चलाने की मांग पर पीएमओ ने दो साल तक कार्यवाही क्यों नहीं की?

इसके बाद एक अदालत ने फिर देश के कथित ईमानदार प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह को शर्मसार होने पर यह कहकर मजबूर कर दिया कि घपलेबाज विलासराव देशमुख को मंत्री बनाना शर्मनाक है! ये सारे मामलों में अखबारों की रोशनाई अभी सूखी भी नहीं थी कि एस बेण्ड घोटाले की आग में पीएमओ झुलस गया। यह मामला अंतरिक्ष विभाग का है, जिसके मुखिया कोई और नहीं डॉ.मनमोहन सिंह ही हैं।

प्रधानमंत्री की पसंद के चलते सीवीसी बने थामस ने प्रधानमंत्री को कम शर्मसार नहीं किया। चोरी और सीना जोरी की कहावत को चरितार्थ करते हुए थामस ने देश की सर्वोच्च अदालत में यह कहकर सभी को चौंका दिया कि संसद में कानून बनाने वाले 153 सांसदों पर आपराधिक और 74 पर तो गंभीर आरोप हैं, फिर उनके सीवीसी बनने पर किसी को क्या आपत्ति होना चाहिए। प्रधानमंत्री ने थामस को सीवीसी बना दिया है, जिस विभाग में सभी की जन्म कुण्डलियां हैं, जो थामस के हाथ लग चुकी हैं। आज की तारीख में थामस बारगेनिंग की स्थिति में आ गए हैं, और सरकार बेकफुट पर। हालात देखकर कहा जा सकता है कि अब थामस को हिलाने की स्थिति में सरकार कतई दिखाई नहीं पड़ रही है। अव्वल तो सरकार ने आरंभ में थामस का बचाव कर उनके हौसले बुलंद कर दिए जिसके परिणामस्वरूप आज अदना सा नौकरशाह न केवल देश की शीर्ष अदालत को चुनौति दे रहा है, वरन् सरकार और देश की सबसे बड़ी पंचायत के पंच (सांसदों) को ही आंख दिखाने की स्थिति में आ गया है।

वर्तमान हालातों में यक्ष प्रश्न तो यही है कि भारत गणराज्य के वजीरे आजम होने के नाते डॉ.मनमोहन सिंह और सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया होने के नाते श्रीमति सोनिया गांधी इन घपले घोटालों और मंहगाई के मसले पर जनता को जवाब देने की जहमत उठाएंगे या फिर बिना जवाबदेही के ही सत्ता की मलाई चखते रहेंगे? राष्ट्रमण्डल खेल, 2जी स्पेक्ट्रम, आदर्श आवासीय सोसायटी, एस बेण्ड घोटाला आदि के साथ ही साथ सीवीसी की नियुक्ति आदि जैसे ज्वलंत मसलों पर देश की जनता अपनी चुनी हुई सरकार से स्पष्टीकरण मांग रही है, देश के कथित ईमानदार प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह, कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के साथ ही साथ कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी भी जनता के द्वारा करों के माध्यम से दिए गए पैसे की इस होली को चुपचाप देखा और सुना जा रहा है। इन सभी की चुप्पी से साफ हो जाता है कि इन घपले घोटालों के जगमगाने वाले लट्टुओं को को करंट, कहीं न कहीं प्रधानमंत्री और नेहरू गांधी परिवार की बेटरी से ही मिल रहा है।

एमपी में एनएसयूआई निष्क्रीय


मीनाक्षी का पत्ता काटने में जुटे कांग्रेसी
 
(लिमटी खरे)
 
नई दिल्ली। कांग्रेस की नजरों में भविष्य के वजीरे आजम राहुल गांधी की करीबी एवं मध्य प्रदेश से मंदसौर संसदीय क्षेत्र की संसद सदस्य सुश्री मीनाक्षी नटराजन सूबे के वरिष्ठ कांग्रेसियों की आखों में खटकने लगी हैं। अंग्रेजी पर बेहतर पकड़ के चलते राहुल गांधी की टीम में शामिल मीनाक्षी को मुख्य धारा से अलग करने के लिए कांग्रेसियों ने उनके खिलाफ गुप्त रूप से विषवमन करना आरंभ कर दिया है।
 
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी ने इस मर्तबा हुए मंत्रीमण्डल फेरबदल में मीनाक्षी नटराजन को कुनबे में शामिल करने का मन बना लिया था। जैसे ही यह बात सूबे के आला कांग्रेसी नेताओं को पता चली उन्होंने आपरेशन मीनाक्षी को अंजाम देना आरंभ कर दिया।
 
बताया जाता है कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी सहित राहुल गांधी को मीनाक्षी के प्रभार वाले एनएसयूआई की हकीकत से दो चार करवा दिया। इसमें विशेष तौर पर मध्य प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन के गर्त में जाने की बात को पेश किया गया। इतना ही नहीं मीनाक्षी के संसदीय क्षेत्र के अंर्तगत आने वाले मंदसौर और नीमच जिलों में एनएसयूआई की जमीनी हकीकत से दो चार करवा दिया। इतना ही नहीं संगठन में चुनावों के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में औंधे मुंह गिरी थी एनएसयूआई।
 
एआईसीसी में चल रही चर्चाओं के अनुसार मीनाक्षी नटराजन की जिद के चलते ही एनएसयूआई के मध्य प्रदेश के निर्वाचित अध्यक्ष आकाश आहूजा को रूखसत होना पड़ा। मीनाक्षी के संसदीय क्षेत्र मंे मंदसौर जिले में एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं की संख्या महज डेढ़ सैकड़ा ही बताई जा रही है।
 
उधर राहुल गांधी के करीबी सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी ने मीनाक्षी नटराजन को मध्य प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंपने का मन भी बनाया हुआ है, किन्तु जब जमीनी हकीकत से वे दो चार हुए तो उन्होंने अपना इरादा लगभग त्याग ही दिया है। माना जा रहा है कि बजट सत्र के उपरांत गठित होने वाली एआईसीसी से भी मीनाक्षी नटराजन को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। वैसे मीनाक्षी के नेहरू युवा केंद्र के उपाध्यक्ष रहते हुए भी कोई खास उपलब्धियां हासिल न होना भी इसका एक प्रमुख अस्त्र बनाया जा रहा है, उस दौरान भारत के स्वतंत्रता संग्राम के डेढ़ सौ वर्ष पूरे होने पर मेरठ से दिल्ली तक निकली यात्रा में भी व्यपक स्तर पर भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया जा रहा है।
रेल सुविधाओं के प्रति लापरवाह हैं मीनाक्षी

नीमच और मंदसौर जिलों में रेल सुविधाओं के प्रति सांसद मीनाक्षी नटराजन बहुत ज्यादा संजीदा नजर नहीं आ रही हैं। इस रेल बजट में अगर इन जिलों को कुछ मिला तो वह निश्चित तौर पर ‘बिल्ली के भाग से छीका टूटा‘ की कहावत को ही चरितार्थ करेगा। हाल ही में मीनाक्षी नटराजन के कार्यालय से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया था कि रेल सुविधाओं के लिए उन्होंने रेल राज्यमंत्री मुनिअप्पा से भेंट कर उन्हें अनुरोध पत्र सौंपा है। मीनाक्षी नटराजन के पास इतना समय नहीं है कि वे रेल मंत्री ममता बनर्जी से मिलकर क्षेत्र की रेल सुविधाओं के बारे में अनुरोध करें।

कौन होगा दिल्‍ली का नया एलजी


एलजी के उत्तराधिकारी की तलाश तेज

अग्रवाल, चावला, पाल, दुग्गल के नाम आए सामने
 
(लिमटी खरे)
 
नई दिल्ली। दिल्ली की निजाम शीला दीक्षित और उपराज्यपाल (एलजी) तेजिंद्र खन्ना के बीच अनबन किसी से छिपी नहीं है। लगता है जल्द ही शीला दीक्षित को एलजी से छुटकारा मिल सकता है। खन्ना का कार्यकाल इसी माह समाप्त हो रहा है, और उनके उत्तराधिकारी की तलाश तेज हो गई है। कांग्रेस के आला नेताओं ने अपने अपने पसंदीदा नामों के लिए लाबिंग तेज कर दी है।
 
दिल्ली के उपराज्यपाल के लिए जो नाम अब तक उभरकर सामने आए हैं, उनमें केंद्र शासित प्रदेश काडर के 1970 बैच के नौकरशाह रहे एस.पी.अग्रवाल का नाम सबसे आगे चल रहा है, इसके बाद नवीन चावला, विनोद दुग्गल और दिल्ली के पुलिस आयुक्त रहे के.के.पाल के नाम हैं।
 
बताया जाता है कि अग्रवाल और सीबीआई के तत्कालीन निदेशक रहे उनके मित्र ने उनके नाम को हरी झंडी दे दी है। माना जा रहा है कि दिल्ली के अगले उपराज्यपाल अग्रवाल ही होंगे, किन्तु अगर कंेद्र ने अग्रवाल के नाम पर मुहर लगाई तो कांग्रेस को कंेद्रीय सतर्कता आयुक्त थामस की स्थिति से दो चार होना पड़ सकता है।
दामन उजला नहीं है अग्रवाल का
 
हाल में पारसनाथ बिल्डर्स के लिए काम करने वाले एस.पी.अग्रवाल दिल्ली से प्रमुख सचिव स्वास्थ्य के पद से सेवानिवृत हुए हैं। वर्ष 1983 में जब वे खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति महकमे के आयुक्त थे, तब उनके खिलाफ एक जांच आहूत की गई थी। इसके बाद जब 1987 में वे दिल्ली नगर निगम के उपायुक्त थे तब सीवीसी ने उनके खिलाफ जांच का आदेश दिया था। इतना ही नहीं अपनी सेवानिवृत्ति के पहले स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के प्रमुख सचिव की पदस्थापना के दौरान उन पर लोक नायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में एक अधीक्षक की नियुक्ति के मसले में केंद्रीय जांच ब्यूरो में प्रकरण चल रहा है।