लाचार प्रधानमंत्री का उबाउ उद्बोधन!
भारत गणराज्य में आजादी के उपरांत यह परंपरा चल पड़ी है कि स्वाधीनता दिवस के रोज वजीरे आजम द्वारा स्वायत्त सत्ता के प्रतीक लाल किले में तिरंगा फहराया जाएगा और उसके बाद वे उसी लाल किले की प्राचीर से आवाम ए हिन्द को संबोधित करेंगे। अब तक के प्रधानमंत्रियों में डॉ. मनमोहन सिंह के इस साल के उद्बोधन को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि देश के लाचार प्रधानमंत्री का यह उबाउ उद्बोधन था। नक्सल, माओवाद आतंक और कमर तोड़ मंहगाई की समस्या पर उनके विचारों को सुनकर हमारे कुछ मीडिया के मित्र उनका सारगर्भित उद्बोधन अवश्य कह रहे हों, किन्तु सच्चाई इस सबसे जुदा है।
(लिमटी खरे)
एतिहासिक लाल किले की प्राचीर से भारत के गणराज्य के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सातवीं बार झंडा वंदन कर देश में नेहरू गांधी परिवार से इतर पहले व्यक्ति होने का खिताब अवश्य पा लिया हो पर उनका उद्बोधन राष्ट्र को क्या संदेश दे गया इस बारे में देश व्यापी बहस की आवश्यक्ता महसूस की जाने लगी है। देश के सबसे ताकतवर पद पर विराजमान राजनेता ही जब जनता द्वारा सीधे चुना न गया हो, वह पिछले दरवाजे यानी राज्य सभा से आया हो तब उसकी मजबूरी समझी जा सकती है। कैसी विडम्बना है कि देश का प्रधानमंत्री लोगों के द्वारा चुने जाने वाले सांसदों और देश की सबसे बड़ी पंचायत में अपना वोट तक नहीं डाल सकता है!
देश के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह एक योग्य, काबिल, शालीन, समझदार, शांत और सौम्य व्यक्तित्व के धनी हैं इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु देश के वर्तमान हालातों को देखकर बतौर प्रधानमंत्री उनकी कार्यप्रणाली और प्रशासनिक क्षमताओं पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है। देश में मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है। हजारों टन अनाज भण्डारण के अभाव में सड़ रहा है। गरीब गुरबे दो वक्त की रोटी के लिए मारा मारी कर रहे हैं। जनसेवक एक रात में ही लाखों की पार्टियां उड़ा रहे हैं। देश में चुने गए सांसद और विधायकों के वेतन भत्ते आसमान छू रहे हैं। इन सबके बाद भी मनमोहन सिंह फरमा रहे हैं कि मंहगाई कम होने वाली है। सदन में मंहगाई पर चर्चा के दौरान नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज का वक्तव्य बहुत प्रासंगिक है कि मंहगाई है तो पर इतने अधिक दिन टिकी कैसे है? अगर किसी कारण विशेष से मंहगाई बढ़ रही थी तो निश्चित तौर पर वे कारण स्थाई तो कतई नहीं रहे होंगे, तब मंहगाई का ग्राफ नीचे आना चाहिए था, वस्तुतः एसा हुआ नहीं।
बहरहाल प्रधानमंत्री ने माओवादियों और नक्सलवादियों को हिंसा का रास्ता छोड़कर सरकार के साथ बातचीत का आव्हान किया है, जो दर्शाता है कि उच्च स्तर पर इस समस्या को लेकर लोग संजीदा हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि कानून और व्यवस्था के तहत हर नागरिक को सुरक्षा देना सरकार का कर्तव्य है, वहीं दूसरी ओर माओवाद और नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में आम निरीह नागरिक और सुरक्षा बलों के जवानों के मारे जाने से सरकार असहाय ही दिखाई पड़ती है। प्रधानमंत्री को इस बात को भी याद रखना चाहिए कि पूर्व में देश में चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो, उसने आतंकवादियों के सामने घुटने टेककर उन्हें छोड़ा भी है। एक समय जब आतंकवादी चेहरे ढांककर सरकार से बात करने आए थे, तब आज नक्सलवादियों या माओवादियों से बिना शर्त बात क्यों नही हो सकती है।
क्या भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री यह नहीं जानते हैं कि नक्सलवाद के पीछे मूल समस्या क्या है? अनजान परदेसी नक्सलवादी गावों के लोगों के साथ आखिर हिल मिल कैसे जाते हैं। उनका निशाना मुख्यतः कौन लोग होते हैं? जाहिर है कि जो गांव के लोगों को उनके अधिकारों के साथ छेड़छाड़ कर अत्याचार और जुल्म करता है, उसे ही नक्सलवादी अपना निशाना बनाते हैं। आंकड़े गवाह हैं कि नक्सलवादियों के निशाने पर मुख्यतः पुलिस, वन और राजस्व विभाग के कर्मचारी ही होते हैं। ये तीन विभाग ही हैं, जिनसे ग्रामीणों का रोज रोज वास्ता पड़ता है। भ्रष्टाचार की सड़ांध मारते हिन्दुस्तान के हर एक सरकारी कर्मचारी और जनसेवक की रग रग में बस चुका है भ्रष्टाचार का कैंसर। यही कारण है कि नक्सलवाद जैसी समस्या को पैदा होने के लिए उपजाउ माहौल मिल रहा है।
इस पंगु व्यवस्था के बीच प्रधानमंत्री का कहना है कि सरकार योजना आयोग के माध्यम से आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए नई योजनाएं बनाई जाएंगी। प्रधानमंत्री ने यह बात तो बड़ी सफाई से कह दी कि योजना बनाई जाएगी, किन्तु यह योजना कब बनेगी?, इसे अमली जामा कब पहनाया जाएगा? इस बारे में वे पूरी तरह से मौन ही रहे। मान लिया जाए कि आदिवासी क्षेत्र के लिए विकास की नई योजनाएं बनाई जाएंगी, किन्तु इस बात की गारंटी कौन लेगा कि जमीनी स्तर पर इस तरह की योजनाए एक बार फिर जनसेवकों, नौकरशाहों और ठेकेदारों का ग्रास नहीं बन पाएंगी।
प्रधानमंत्री को इस तरह की बात करने के पहले आत्मावलोकन करना चाहिए था। सबसे पहले उन्हें आदिवासी मामलों के मंत्री कांति लाल भूरिया को बुलाकर उनसे चर्चा करनी चाहिए थी कि देश भर में केंद्र पोषित कितनी योजनाएं अस्तित्व में हैं और उनकी जमीनी हकीकत क्या है? अगर प्रधानमंत्री एक दिन का समय निकालकर इन योजनाओं में केंद्रीय आवंटन और जमीनी हकीकत के ब्योरे पर नजर डालेंगे तो निश्चित तौर पर उनकी आंखे फटी की फटी रह जाएंगी।
मामला महज आदिवासी विकास विभाग का ही नहीं है। भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से ही स्वीकार किया है कि केंद्र सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून बनाया पर आज देश के 45 लाख बच्चे स्कूल जाने से वंचित हैं। अगर हालात इस कदर हैं तो कानून बनाने का फायदा ही क्या है? केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही सारी योजनाओं मंे धांधलियों की खबरों से मीडिया अटा पड़ा है। सत्तर के दशक तक किसी के खिलाफ भ्रष्टाचार की खबर छपना सामाजिक तिरस्कार का कारण बन जाता था। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज के जनसेवकों के खिलाफ मीडिया चाहे जितना चिल्ला ले उनकी मोटी चमड़ी पर इसका कतई असर नहीं होता है।
आदिवासी बाहुल्य जिलों में सूबों के आदिवासी विकास विभाग, जिला, जनपद, ग्राम पंचायतें और राजस्व के अधिकारी मिलकर इन योजनाओं में आने वाले धन का बंदर बांट करते हैं। कागजों पर आदिवासियों की हालत अमेरिका या ब्रिटेन के नागरिकों से ज्यादा बेहतर है, किन्तु वास्तविकता कुछ और ही कहानी कहत नजर आती है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कांग्रेस के ही पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी द्वारा दो दशक पहले कही गई बात को याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि वे जानते हैं कि केंद्र से भेजा जाने वाला एक रूपया गांव तक पहुंचते पहुंचते 15 पैसे में तब्दील हो जाता है।
वैसे भी केंद्र से मिलने वाली इमदाद बर्फ के मानिंद ही होती है। वह जितने हाथों में जाती है हाथ की गर्मी उसका कुछ अंश पिघला देती है, जिससे कुछ पानी हाथ में ही रह जाता है, फिर जब वह अंत में गंतव्य तक पहुंचती है, बर्फ का छोटा से टुकड़ा ही बचता है। समस्या कहीं और नहीं समस्या भारत के अपने सिस्टम में है। देश की लगभग सवा सौ करोड़ की आबादी में पच्चीस करोड़ लोगों के पास पैसा है, किन्तु अस्सी करोड़ से ज्यादा लोग बस किसी तरह दिन काटने पर मजबूर हैं।
कुल मिलाकर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा लाल किले की प्राचीर से जो संदेश देने का प्रयास किया है, वह एकदम अस्पष्ट है। देश पर राज करते हुए प्रधानमंत्री सिंह को यह सातवां साल है, फिर भी नक्सलवाद, माओवाद, अलगाववाद, के साथ ही साथ काश्मीर समस्या जस की तस खड़ी हुई है, क्या यह उनकी असफलता की दुहाई नहीं दे रही है? क्या देश की जनता लालकिले से यह सुनने के लिए ही जाती है कि अभी हम बातचीत करेंगे? यक्ष प्रश्न तो यह है कि आखिर देश के और कितने सपूत सुरक्षा बालों के जवान और निरीह लोगों की बली के बाद सरकार द्वारा कोई कदम उठाया जाना सुनिश्चित किया जाएगा?