बिना वर्ण के सवर्ण
(संजय तिवारी)
नई दिल्ली (साई)।
भारत में जाति व्यवस्था उतनी ही बड़ी सच्चाई है जितना इसे नकारा जाता है. पिछले सौ
डेढ़ सौ सालों में नई विचारधाराओं और नये तरह के पेशों ने इस व्यवस्था को खण्डित
करने की कम कोशिश नहीं की है लेकिन यह व्यवस्था विद्यमान है. भले ही पेट के लिए
दिमाग का धंधा करनेवाले विद्वान इसे खारिज करते हों लेकिन इसकी अपरिहार्यता इतनी
व्यापक है कि इसे पूरी तरह खतुम कर पाना अभी फिलहाल निकट भविष्य में तो बिल्कुल
संभव नहीं है. भारत में जाति व्यवस्था तब जटिल स्वरूप अख्तियार कर लेती है जब वह
वर्ण के साथ विलय कर लेती है. चार वर्ण और हर वर्ण के अपने गोत्र. उन गोत्र के
अलावा वर्ण के साथ जाति का घालमेल. वर्ण और गोत्र का जातियों में विभाजन जाति को
एक व्यवस्था बना देता है.
चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अपने अपने
गोत्र हैं. हर वर्ण के कई कई गोत्र. ऊपरी तौर पर देखने में हमें यह विभाजन दिखता
है लेकिन अगर आप गहराई में उतरते हैं यह एक व्यवस्था नजर आती है. आज के समय में
हमारी जरूरतों में भले ही यह व्यवस्था उचित न बैएती हो लेकिन इसके व्यवस्था होने
से इंकार नहीं किया जा सकता. वर्ण और गोत्र विभाजन में जातियों का समावेश कब और
कैसे हो गया, इसे जानने
की जरूरत है. कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने ब्रिटिश शासनकाल के दौरान जो अध्ययन किये
हैं वे बताते हैं कि जातियों का अस्तित्व बेहद करीब का विकास है. कर्म के आधार पर
जातियों का निर्धारण किया गया. जाति को कास्ट शब्द से चिन्हित करने और स्थापित
करने का काम भी ब्रिटिश हुक्मरानों ने ही किया. कास्ट शब्द पुर्तगाली के कास्टा
शब्द से प्रेरित है जो वास्तव में समाज व्यवस्था थी, कर्म व्यवस्था
नहीं. ब्रिटिश हुक्मरानों ने भारत की जाति और वर्ण दोनों को कास्ट से ही परिभाषित
करने का परिणाम हुआ कि सौ साल के अंदर ही जाति और वर्ण दोनों ही गाली बन गये.
अन्यथा कबीर भी कभी कहते ही थे कि ष्जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान.ष्
निश्चित तौर पर कबीर पुर्तगाली कास्टा की बात नहीं कर रहे हैं जो सामाजिक रौब कायम
करने के लिए स्थापित की गयी थी.
भारत में इंसान और
जानवर ही नहीं पेड़ पौधों की नस्ल को भी आम बोलचाल की भाषा में जाति से ही परिभाषित
किया जाता है. यह सोशल हेरारकी नहीं, बल्कि वर्गीकरण के द्वारा सटीक पहचान की एक
प्रक्रिया है. कब और कैसे चार वर्णों में ही सारी जातियों को समेट दिया गया यह भी
बड़ा सवाल है जिसका जवाब पाने की जरूरत है. एक सवाल और है कि क्या ऐसी जातियां आज
भी विद्यमान हैं जो इन चार वर्णों के दायरे में नहीं आती है? देशभर में कुछ जाति
व्यवस्थाएं ऐसी भी है जो इन चार वर्णों के दायरे से बाहर है. समूचे उत्तर भारत में
पाई जानेवाली कायस्थ जाति वर्ण व्यवस्था के दायरे से बाहर हैं. 1947 के बाद भारत सरकार
ने इस जाति को सवर्ण माना है लेकिन यह जाति न तो ब्राह्मण वर्ण में हैं, न क्षत्रिय और न ही
वैश्य में. कुछ विद्वानों ने सत् शूद्र नाम से अलग वर्ण निर्धारित करने की कोशिश
जरूर की है लेकिन जब खुद सरकार इन्हें सवर्ण मान रही है तो ऐसे दावे अपने आप खारिज
हो जाते हैं. कायस्थ समाज के बीच यह बहस बड़ी है कि वे जाति हैं या फिर वर्ण. भारत
सरकार उन्हें सिर्फ सवर्ण मानकर इतिश्री कर लेती है लेकिन जातीय अस्मिता सिर्फ
सरकार के सवर्ण कह देने से ही साबित नहीं हो जाती. शायद यही कारण है कायस्थ समाज
अपने आपको पहले पांचवा वर्ण घोषित करता है उसके बाद जातियों और उपजातियों का
वर्गीकरण करता है. यह जाति जो खुद को पांचवा वर्ण मानती है न तो भारतीय जाति
व्यवस्था से परे है और न ही इसका आगमन बाहर से हुआ है. फिर आखिर क्या कारण है कि
यह वर्ण व्यवस्था से परे है?
कायस्थ समाज की
जाति व्यवस्था पर एस ए अस्थाना ने एक अध्ययन किया है. अपने अध्ययन की भूमिका में
वे लिखते हैं कि ष्स्मरण करो एक समय था जब आधे से अधिक भारत पर कायस्थों का शासन
था। कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी
कायस्थ राजवंश, दक्षिण में
चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्य भारत में
सतवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। अतरू हम सब उन राजवंशों की
संतानें हैं, हम बाबू
नने के लिए नहीं, हिन्दुस्तान
पर प्रेम, ज्ञान और
शौर्य से परिपूर्ण उस हिन्दू संस्कृति की स्थापना के लिए पैदा हुए हैं जिन्होंने
हमें जन्म दिया है।ष्
एक घटना का जिक्र
करते हुए अस्थाना अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि एक बार स्वामी विवेकानन्द से भी एक
सभा में उनसे उनकी जाति पूछी गयी थी. अपनी जाति अथवा वर्ण के बारे में बोलते हुए
विवेकानंद ने कहा था ष्मैं उस महापुरुष का वंशधर हूं, जिनके चरण कमलों पर
प्रत्येक ब्राह्मण यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमरू का उच्चारण करते हुए
पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विशुद्ध रूप से क्षत्रिय हैं। यदि अपनें
पुराणों पर विश्वास हो तो, इन समाज सुधारको को जान लेना चाहिए कि मेरी जाति ने पुराने
जमानें में अन्य सेवाओं के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक आधे भारत पर शासन किया था।
यदि मेरी जाति की गणना छोड़ दी जाये, तो भारत की वर्तमान सभ्यता का शेष क्या
रहेगा ? अकेले
बंगाल में ही मेरी जाति में सबसे बड़े कवि, सबसे बड़े इतिहास वेत्ता, सबसे बड़े दार्शनिक, सबसे बड़े लेखक और
सबसे बड़े धर्म प्रचारक हुए हैं। मेरी ही जाति ने वर्तमान समय के सबसे बड़े
वैज्ञानिक से भारत वर्ष को विभूषित किया है।
वर्ण व्यवस्था में
कायस्थों के स्थान के बारे में विवरण देते हुए वे खुद स्पष्टीकरण देते हुए लिखते
हैं कि ष्अक्सर यह प्रश्न उएता रहता है कि चार वर्णों में क्रमशरू ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र
में कायस्थ किस वर्ण से संबंधित है। स्पष्ट है कि उपरोक्त चारों वर्णों के खांचे
में, कायस्थ
कहीं भी फिट नहीं बैठता है। अतरू इस पर तरह-तरह की किंवदंतियां उछलती चली आ रही
है। उपरोक्त यक्ष प्रश्न ष्किस वर्ण के कायस्थष् का माकूल जबाब देने का आज समय आ
गया है कि सभी चित्रांश बन्धुओं को अपने समाज के बारे में सोचने का अपनी वास्तविक
पहचान का ज्ञान होना परम आवश्यक है।ष्
शिव आसरे अस्थाना
ने इस संबंध में जो तथ्य जुटाएं है और अध्ययन किया है वे महत्वपूर्ण हैं. अहिल्या
कामधेनु संहिता और पद्मपुराण पाताल खण्ड के श्लोकों और साक्ष्यों से वे साबित करते
हैं कि कायस्थ सिर्फ जाति नहीं बल्कि पांचवा वर्ण है. नीचे दिये गये उदाहरण देखिए-
ब्राहस्य मुख मसीद
बाहु राजन्यरू कृतरू।
उरुतदस्य वैश्य, पद्यायागू शूद्रो
अजायतरू।। (अहिल्या कामधेनु संहिता)
अर्थात् नव निर्मित
सृष्टि के उचित प्रबन्ध तथा समाज की सुव्यवस्था के लिए श्री ब्रह्मा जी ने अपनें
मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से
क्षत्रिय, उदर से
वैश्य तथा चरणों से शूद्र उत्पन्न कर वर्ण चतुष्टय (चार वर्णों) की स्थापना की।
सम्पूर्ण प्राणियों के शुभ-अशुभ कार्यों का लेखा-जोखा रखनें व पाप-पुण्य के अनुसार
उनके लिये दण्ड या पुरस्कार निश्चित करने का दायित्ंव श्री ब्रह्मा जी ने श्री
धर्मराज को सौंपा। कुछ समय उपरान्त श्री धर्मराज जी ने देखा कि प्रजापति के द्वारा
निर्मित विश्व के समस्त प्राणियों का लेखा-जोखा रखना अकेले उनके द्वारा सम्भव नहीं
है। अतरू धर्मराज जी ने श्री ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि श्हे देव! आपके द्वारा
उत्पन्न प्राणियों का विस्तार दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। अतरू मुझे एक सहायक
की आवश्यकता है। जिसे प्रदान करनें की कृपा करें।
अधिकारेषु लोका नां, नियुक्तोहत्व
प्रभो।
सहयेन बिना तंत्र
स्याम, शक्तरू
कथत्वहम्।। (अहिल्या कामधेनु संहिता)
श्री धर्मराज जी के
निवेदन पर विचार हेतु श्री ब्रह्मा जी पुनरू ध्यानस्त हो गये। श्री ब्रह्मा जी एक
कल्प तक ध्यान मुद्रा में रहे, योगनिद्रा के अवसान पर कार्तिक शुल्क
द्वितीया के शुभ क्षणों में श्री ब्रह्मा जी ने अपने सन्मुख एक श्याम वर्ण, कमल नयन एक पुरूष
को देखा, जिसके
दाहिने हाथ में लेखनी व पट्टिका तथा बायें हाथ में दवात थी। यही था श्री
चित्रगुप्त जी का अवतरण।
सन्निधौ पुरुषं
दृष्टवा, श्याम कमल
लोचनम्।
लेखनी पट्टिका हस्त, मसी भाजन
संयुक्तम्।। (पद्मपुराण-पाताल खण्ड)
इस दिव्य पुरूष का
श्याम वर्णी काया,
रत्न जटित मुकुटधारी, चमकीले कमल नयन, तीखी भृकुटी, सिर के पीछे तेजोमय
प्रभामंडल, घुघराले
बाल, प्रशस्त
भाल, चन्द्रमा
सदृश्य आभा, शंखाकार
ग्रीवा, विशाल
भुजाएं व उभरी जांघे तथा व्यक्तित्व में अदम्य साहस व पौरूष झलक रहा था। इस
तेजस्वी पुरूष को अपने सन्मुख देख ब्रह्मा जी ने पूछा कि आप कौन है? दिव्य पुरूष ने
विनम्रतापूर्वक करबद्ध प्रणाम कर कहा कि आपने समाधि में ध्यानस्त होकर मेरा
आह्नवान चिन्तन किया, अतरू मैं प्रकट हो गया हूं। मैं आपका ही मानस पुत्र हूं। आप
स्वयं ही बताये कि मैं कौन हूं ? कृपया मेरा वर्ण- निरूपण करें तथा स्पष्ट
करें कि किस कार्य हेतु आपने मेरा स्मरण किया। इस प्रकार ब्रह्माजी अपने मानस
पुत्र को देख कर बहुत हर्षित हुये और कहा कि हे तात! मानव समाज के चारों वर्णों की
उत्पत्ति मेरे शरीर के पृथक-पृथक भागों से हुई है, परन्तु तुम्हारी
उत्पत्ति मेरी समस्त काया से हुई है इस कारण तुम्हारी जाति कायस्थ होगी।
मम् कायात्स मुत्पन्न, स्थितौ कायोऽभवत्त।
कायस्थ इति तस्याथ, नाम चक्रे
पितामहा।। (पद्म पुराण पाताल खण्ड)
काया से प्रकट
होनें का तात्पर्य यह है कि समस्त ब्रह्म-सृष्टि में श्री चित्रगुप्त जी की
अभिव्यक्ति। अपनें कुशल दिव्य कर्मों से तुम कायस्थ वंश के संस्थापक होंगे। तुम्हें
समस्त प्राणि मात्र की देह में अर्न्तयामी रूप से स्थित रहना होगा। जिससे उनकी
आंतरिक मनोभावनाएं,
विचार व कर्म को समझने में सुविधा हो।
कायेषु
तिष्एतति-कायेषु सर्वभूत शरीरेषु।
अन्तर्यामी यथा
निष्एतीत।। (पद्य पुराण पाताल खण्ड)
ब्रह्माजी ने नवजात
पुत्र को यह भी स्पष्ट किया कि आप की उत्पत्ति हेतु मैने अपने चित्त को एकाग्र कर
पूर्ण ध्यान में गुप्त किया था अतरू आपका नाम चित्रगुप्त ही उपयुक्त होगा। आपका
वास नगर कोट में रहेगा और आप चण्डी के उपासक होंगे।
चित्रं वचो
मायागत्यं, चित्रगुप्त
स्मृतो गुरूवेरू।
सगत्वा कोट नगर, चण्डी भजन
तत्पररू।। (पद्य पुराण पाताल खण्ड)
अपने इन उदाहरणों
के जरिए वे साबित करते हैं कि कायस्थ पांचवा वर्ण है. अगर यह सच है तो कम से कम यह
किताब भारत की वर्ण व्यवस्था को बड़ी चुनौती देती है. अभी तक की स्थापित मान्यताओं
के उलट यह एक पांचवे वर्ण को सामने लाती है जिसका उल्लेख खुद स्वामी विवेकानन्द ने
भी किया है. शिव आसरे अस्थाना मानते हैं कि वे खुद जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं
करते हैं लेकिन इसकी उपस्थिति और प्रभाव को खारिज नहीं किया जा सकता.
लेकिन उनके इस
अध्ययन से वह सवाल और जटिल हो जाता है जो वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में
घालमेल करता है. कायस्थ वर्ण का अस्तित्व कोई आज का नहीं है. यह हजारों साल पुराना
है. उत्तर प्रदेश,
बंगाल, बिहार से लेकर कश्मीर तक किसी न किसी काल
में कायस्थ राजा रहे हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि अयोध्या में रघुवंश से पहले
कायस्थों का ही शासन था. अगर पुरातन भारत में इस जाति/वर्ण का स्वर्णिम इतिहास रहा
है तो आधुनिक भारत में डॉ राजेन्द्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, सुभाष चंद्र बोस और
विवेकानंद इसी वर्ण या जाति व्यवस्था से आते हैं. लेकिन यहां सवाल इन महापुरुषों
का जाति निर्धारण करना नहीं है बल्कि उस चुनौती को समझना है जो जाति और वर्ण का
घालमेल करता है. जाति के नाम पर नाक भौं सिकोड़नेवाले लोग भले ही तात्विक विवेचन से
पहले ही अपना निर्णय कर लें लेकिन शिव आसरे अस्थाना का यह काम निश्चित रूप से
भारतीय जाति व्यवस्था को समझने के लिए लिहाज से एक बेहतरीन प्रयास है.
(लेखक विस्फोट डॉट
काम के संपादक हैं)