प्रधानमंत्री कहां से आए अगले या पिछले दरवाजे से
0 प्रधानमंत्री कौन चुनेगा, जनता या प्रदेश के विधायक
0 डॉ.मनमोहन सिंह देश के वजीरे आज़म हैं, या असम के!
(लिमटी खरे)
राजग के पीएम इन वेटिंग एल.के.आड़वाणी,, अरूण जेतली सहित वाम नेता सीताराम येचुरी, प्रकाश करात की यह चिंता बेमानी नहीं कही जा सकती जिसमें उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को लोकसभा सदस्य होने की अनिवार्यता की बात उछाली है। आड़वाणी ने 14वीं लोकसभा के अंतिम सत्र के आखिरी दिन इस बात को रेखांकित किया था, इसके बाद बहस न रूकने वाली बहस चल पड़ी है।
वस्तुत: देश में संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था के तहत दो सदन बनाए गए हैं। पहला लोकसभा है जहां सांसद सीधे जनता द्वारा चुनकर भेजा जाता है, और दूसरी राज्य सभा जहां सांसद किसी प्रदेश के विधायकों द्वारा चुना जाता है। यह भी सच है कि राज्य सभा जिसे आम बोलचाल की भाषा में पिछला दरवाजा भी बोला जाता है, से चुनकर आने वाला सांसद सीधे जनता के संपर्क में नहीं होता है। उसका चुनावी क्षेत्र भी विधायकों तक ही सीमित होता है।
देश का संविधान कहता है कि कोई भी सांसद प्रधानमंत्री हो सकता है, किन्तु उसके नेतृत्व वाली सरकार सिर्फ लोकसभा के प्रति जवाबदेह होगी। संविधान के निर्माण के समय शायद निर्माणकर्ताओं ने यह सोचा भी न होगा कि कभी इस तरह की परिस्थिति भी पैदा हो सकती है कि देश का पीएम राज्य सभा से चुन लिया जाए।
लोकतंत्र के साथ यह कितना भद्दा मजाक है कि प्रधानमंत्री को उस सदन में अपना मत देने का अधिकार ही नहीं है, जिसके प्रति उसकी सरकार संवैधानिक तौर पर सीधे सीधे जवाबदार है। यही स्थिति अविश्वास प्रस्ताव के तौर पर आती है। जो व्यक्ति अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रहा होता है, उसे उस सदन में मत देने का हक ही नहीं होगा! कितने शर्म की बात है कि परमाणु करार मसले पर अविश्वास के दौरान भाजपा सांसद अनंत कुमार की मांग पर लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी से साफ कहा था कि इस सदन में जो भी राज्यसभा सदस्य हो वह उठकर बाहर चला जाए क्योंकि उसे इस सदन में मत देने का अधिकार नहीं है।
वैसे राज्यसभा के सांसद के मंत्री बनने के बाद उसे दोनों सदनों में शिरकत करने का अवसर अवश्य मिलता है, पर मत देने का अधिकार उसे सिर्फ राज्यसभा में ही होता है। राज्य सभा से प्रधानमंत्री चुनने का सीधा सा मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि देश के सबसे शक्तिशाली पद पर आसीन राजनेता या मंत्री का ओहदा पाने वाले नेता के अंदर इतना भी माद्दा नहीं है कि वह जनता के बीच जाकर चुनकर आए?
वैसे आज के परिवेश में राज्यसभा सांसद होने के सीधे मायने यह लगाए जाने लगे हैं कि व्यक्ति विशेष का रसूख कितना है? यही कारण है कि आज उद्योगपति, कथित मीडिया मुगल, सेवानिवृत नौकरशाह सभी पिछले दरवाजे से जाकर उन सभी सुख सुविधाओं और स्टेटस का भरपूर दोहन करते हैं, जो जनता के बीच जाकर तलवार की धार पर चलकर कई पापड़ बेलने के उपरांत एक राजनेता लोकसभा के रास्ते संसदीय सौंध तक पहुंचता है।
हमारा डॉ.मनमोहन सिंह के प्रति कोई दुराग्रह कतई नहीं है किन्तु उनको बतौर प्रधानमंत्री पांच साल तक चलाने के उपरांत पुन: चुनाव न लड़वाकर पीएम प्रोजेक्ट करने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस यह भूल जाती है कि उसके ही पूर्व प्रधानमंत्रियों ने पीछे के बजाए अगले दरवाजे का उपयोग कर प्रधानमंत्री पद की गरिमा को बरकरार रखा था।
डॉ.एम.एम.सिंह असम से राज्य सभा सदस्य हैं। इस नाते उनकी प्रथमिकता असम के वे विधायक अवश्य होंगे जिन्होने उन्हें चुनकर भेजा है। अगर वे किसी लोकसभा सीट से जीतकर आते तो उनके निर्वाचन क्षेत्र के प्रति उनकी जिम्मेवारी बनना स्वाभाविक है, किन्तु जब आप आम मतदाता के बजाए चुने हुए विधायकों के प्रतिनिधि हैं, तो फिर आपकी मतदाताओं के प्रति सीधी जवाबदेही कैसी?
पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद 1967 में जब स्व.इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तब वे राज्यसभा सदस्य थीं, इसके तुरंत बाद पहली ही फुर्सत में उन्होंने भी चिकमंगलूर से चुनाव जीता और पीएम पद पर बनीं रहीं। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के उपरांत जब स्व.पी.व्ही.नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने थे, उस वक्त वे कांग्रेस अध्यक्ष हुआ करते थे, उन्होंने भी आंध्र प्रदेश से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। इतना ही नहीं 30 मई 1996 को जब एच.डी.देवगोड़ा ने कर्नाटक के मुख्यमत्री का प्रभार छोड़कर पीएम की कुर्सी संभाली उसके बाद उन्होंने भी लोकसभा का चुनाव ही लड़ा था।
वस्तुत: तुष्टीकरण और नाराज नेताओं के अहं के पोषण के लिए बनाए गए थे उपरी सदन। केंद्र में चाहे राज्य सभा हो या फिर प्रदेशों में विधानसभा के समतुल्य विधान परिषद। इनका गठन इसी उद्देश्य को मद्ेनजर रखकर किया गया होगा ताकि दलों में असंतोष को कम किया जा सके।
हमारा अपना यह मानना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे शक्तिशाली पद प्रधानमंत्री, पर उसी शिख्सयत को काबिज होना चाहिए जो सीधे सीधे जाकर जनता का सामना कर सके और जनता के बीच से चुनकर संसदीय सौंध तक पहुंचने का माद्दा रखता हो, न कि उच्च सदन के रास्ते प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की मंशा रखता हो।
पर्यावरण के लिए कतई संजीदा नहीं थे सांसद
0 ग्लोबल वार्मिंग को बला ही मानते रहे जनप्रतिनिधि
0 पांच सालों में महज 74 सवाल ही पूछ सके 543 सांसद!
0 अपने मतलब के 81 हजार सवाल पूछे सांसदों ने
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। आज जहां ग्लोबल वार्मिंग को लेकर समूची दुनिया के हर देश की सरकारें बुरी तरह चिंतित नज़र आ रही है, वहीं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को इससे कोई लेना देना नहीं रहा। पिछले पांच सालों में सांसदों द्वारा पूछे गए 80 हजार 831 सवालों में से महज 74 सवाल ही पर्यावरण से संबंधित थे।
एक गैर सरकारी संस्था (एनजीओ) ने इस बात का खुलासा करते हुए बताया कि सत्ता पाने की गलाकाट स्पर्धा में जुटे भारतीय राजनैतिक दलों को ग्लोबल वार्मिंग या पर्यावरण से संबंधी मुद्दों से कोई लेना देना नहीं रहा है। संस्था के अनुसार दलों द्वारा पर्यावरण की चिंता किए बिना जिस तरह के विकास के लुभावने वादे जनता के समक्ष किए जा रहे हैं, उससे खतरा और बढ़ने की उम्मीद है।
उक्त संस्था ने कहा कि सरकार बनाने का दावा करने वाले दलों द्वारा बिजली उत्पादन बढ़ाने के वादे किए जा रहे हैं। बिजली उत्पादन बढ़ाने का सीधा मतलब है कि कोयले से चलने वाले बिजली के संयंत्र बढ़ाना। इससे एक ओर जलवायु को नुकसान होगा दूसरे अधिक कार्बन पैदा होने से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा।
तापमान और मौसम में होने वाला असमान्य परिवर्तन आम जनता के लिए चिंताजनक हो सकता है, किन्तु जनता के चुने हुए नुमाईंदों के लिए नहीं। यही कारण है कि अधिक कार्बन उत्सर्जित करने वाले उद्योगोें को भी दनादन लाईसेेंस मिलते जा रहे हैं। इंफ्रास्टचर में सड़क, बांध आदि के निर्माण के लिए हरे भरे जंगलों की बली चढ़ा दी जा रही है, किन्तु इनके बदलें में नए पौधे लगाने का काम अभी तक आरंभ नहीं किया गया है।
स्विर्णम चतुभुZज के साथ ही साथ उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम सड़क गलियारे के निर्माण के लिए भी असंख्य झाड़ काट दिए गए, किन्तु इनके स्थान पर नया वृक्षारोपण आज तक नहीं किया गया है। अगर वृक्षारोपण का काम पांच साल बाद किया जाता है तो इन पांच सालों में पर्यावरण के हुए नुकसान का भोगमान कौन भोगेगा?
नारायणन को गोद में बिठाने आतुर हैं सभी दल
0 पीएम के सिक्यूरिटी एडवाईजर को बनाया जा सकता है एम्बेसडर या लाट साहेब
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। प्रधानमंत्री डॉ.एम.एम.सिंह के सुरक्षा सलाहकार एम.के.नारायणन की इन दिनों चांदी है। हर एक राजनैतिक दल उन्हें उपकृत करना चाह रहा है। अगर कांग्रेस दुबारा सत्ता में नहीं आई तो उन्हें किसी प्रदेश का राज्यपाल अथवा किसी देश का राजदूत बनाकर भेजा जा सकता है, ताकि उनकी जिन्दगी शान से कट सके।
बताया जाता है कि नारायणन को इस कदर हाथों हाथ लिए जाने से कांग्रेस के कान खड़े हो गए हैं। गौरतलब होगा कि जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई थी, तब नारायणन इंटेलीजेंस ब्यूरो के प्रमुख थे। उस दौरान भी इनकी भूमिका पर संदह किया गया था। राजीव गांाधी की हत्या की जवाबदारी जिन पांच अफसरान पर ठहराई गई थी, उसमें नारायणन के नाम का भी शुमार था।
इतना सब होने के बाद भी पांच सालों तक वे कांग्रेेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री के सुरक्षा सलाकार के बतौर काम करते रहे। चर्चा है कि शायद नारायणन कोई गहरा राज जानते हैं, या वे किसी विशेष आपरेशन का अंग रहे हैं, जिसके चलते कांग्रेस ने इतना सब कुछ उन्हें दिया और अब विपक्ष उन्हें हाथों हाथ लेने पर आमदा दिखाई दे रहा है।