गरीबी पूरी फिल्मी है
(संजय तिवारी)
तब एक फिल्मी गाने ने शीला की जवानी का
ऐसा बखान किया था कि पूरी दुनिया दीवानी हो चली थी। लेकिन दिल्ली प्रदेश की
मुख्यमंत्री कोई कम प्रतिभाशाली राजनेता नहीं है कि उनकी दीवानगी में कोई कोर कसर
रखी जाए। मिराण्डा हाउस की पोस्ट ग्रेजुएट शीला दी कहानी दा जवाब नहीं। केन्द्र की
कैश सब्सिडी को सबसे पहले अपने यहां लागू करवाकर उन्होंने न केवल केन्द्र की नजर
में अपनी नाक ऊंची कर दी बल्कि छह सौ रूपये की रेजगारी को अकूत धरोहर बताकर साबित
भी कर दिया कि वे जिस दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं उस दिल्ली को कितने तहे दिल से
जानती हैं।
उन्हें जानने की जरूरत भी क्या है? जाने वें जिन्हें गांव गरीब की राजनीति
करनी हो। वे जिस मेट्रोपोलिटन शहर की राजनीति करती हैं उस शहर में न गांव आते हैं
और न ही गरीब। जो आते भी हैं वे शीला दी को नजर नहीं आते। जो नजर आते हैं उन्हें
उनकी नजरों से दरबदर कर दिया जाता है। यकीन नहीं होता तो दिल्ली के नये सचिवालय
परिसर के बुर्ज पर चढ़कर दिल्ली का नजारा ले लीजिए। कल वहां से जहां जहां तक गरीबी
और झोपड़ियां नजर आती थीं आज वहां एक घुमावदार सड़क नजर आती है जो सिर्फ कॉमनवेल्थ
गेम्स के दौरान पैसा खाने के लिए बना दी गई है। इसलिए शीला दी से यह उम्मीद कोई
क्यों पाले कि वे गरीबी को समझेंगी? गरीबी को उन्हें समझने की जरूरत है।
शीला का ताजा संदेश भी यही है। गरीबी वह नहीं है जो होती है गरीबी वह है जिसे शीला
दी समझाती हैं।
और यह कहने में कोई संकोच नहीं होना
चाहिए कपूरथले वाली शीला दी की गरीबी पूरी फिल्मी है। बंगाल के गवर्नर रह चुके
स्वतंत्रता सेनानी उमाशंकर दीक्षित के आईएएस बेटे की पत्नी बनकर उन्नाव होते हुए
दिल्ली पहुंची शीला दीक्षित ने स्वाभाविक तौर पर गरीबी की वह ट्रेनिंग कभी नहीं ली
है जो राजनीति में गरीब और गरीबी को समझने के लिए जरूरी होता है। राजनीति में हाथ
आजमाने के लिए उनके पास बेहतर बैकग्राउण्ड था। इसलिए धंधे बिजनेस से निजात पाकर जब
राजनीति के धंधे में पग धरा तो सीधे उन्नाव से एमपी का चुनाव लड़ा और 1984 में इंदिरा की हत्या में उठी सहानुभूति
लहर में चुनाव जीतकर संसद पहुंच गईं। पहले ही चुनाव की पहली ही जीत में राजीव
गांधी के कैबिनेट में जगह मिल गई और संसदीय कार्यमंत्री बन गईं। राजीव गांधी
परिवार से शीला की नजदीकियों के कारण ही बाद में उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय में
राज्यमंत्री का प्रभार दे दिया गया। इसके बाद की राजनीति जगजाहिर है।
अब वे उन्नाव की राजनीति को त्यागकर
दिल्ली में सक्रिय हुईं और दिल्ली दरबार के नेताओं को किनारे करते हुए 1998 में दिल्ली की जो मुख्यमंत्री बनीं तो
आज तक उस पद पर कायम हैं। इस बीच उनकी दस जनपथ की नजदीकियों के कारण कभी कभी
केन्द्रीय मंत्री बनाने की अफवाहें भी उड़ीं लेकिन शीला दी की दिल्ली में ऐसी
उपयोगिता सोनिया गांधी को नजर आ रही है कि वे इस पद के लिए हर किसी को अयोग्य ही
समझती हैं। रामबाबू शर्मा नाक रगड़कर रह गये लेकिन शीला दी(क्षित) का बाल भी बांका
नहीं कर पाये। अब जय प्रकाश अग्रवाल भी रामबाबू शर्मा के नक्शेकदम पर हैं लेकिन
सोनिया गांधी शीला की ऐसी दीवानी हैं उन्हें किसी भी कीमत पर दिल्ली की
मुख्यमंत्री पद से पदमुक्त नहीं करना चाहती। कहते हैं कामनवेल्थ खेलों के दौरान दस
जनपथ द्वारा निर्धारित कामों को शीला दी(क्षित) ने इतनी खूबसूरती से अंजाम दिया कि
सबसे बड़ा खेल बजट खर्च करने और सीएजी द्वारा अंगुली उठाये जाने के बाद भी सुरेश
कलमाड़ी तिहाड़ पहुंच गये और शीला दी बाहर रहकर दहाड़ती रहीं।
लेकिन शीला दी की इन महानतम उपलब्धियां
तब तक अधूरी रह जाएंगी जब तक हम यह न जान लें कि हम उन्हें क्यों जान रहे हैं।
शीला दीक्षित कांग्रेस के कैश फॉर वोट प्रोग्राम को आगे बढ़ानेवाली सक्रिय
सिपहसालार हैं। कांग्रेस के कैश फॉर वोट प्रोग्राम को आपका पैसा आपके हाथ नाम दिया
गया है। क्योंकि इसमें हाथ शब्द को जानबूझकर शामिल किया गया है इसलिए कांग्रेस
शासित मुख्यमंत्रियों का पहला कर्तव्य बनता है कि जल्द से जल्द वे इस प्रोग्राम को
अपने अपने स्टेट में शुरू करवाएं। रविवार को सोनिया गांधी ने शीला दीक्षित के साथ
मिलकर दिल्ली में अन्नश्री योजना का शुभारंभ किया था जिसमें यह प्रावधान है कि हर
गरीब के खाते में 600 रूपये की कैश सब्सिडी ट्रांसफर किया जाएगा जिसकी बदौलत एक गरीब परिवार
इसी पैसे से महीने भर छककर खायेगा और बचा हुआ पैसा पानी में भी बहाएगा। शीला दी के
अध्ययन के अनुसार औसत एक परिवार में अगर पांच सदस्य पकड़ लें तो एक परिवार को
प्रतिदिन भोजन में सब्सिडी के लिए 20 रूपये पर्याप्त होगें, बाकी उसकी मेहनत की कमाई और गम खाने की
मानसिकता तो मदद करेगी ही।
कहते हैं उम्र बढ़ने के साथ अंतड़ियां
कमजोर पड़ जाती हैं और हमारी भोजन करने की क्षमता भी कम हो जाती है। खुद शीला दीक्षित
अब 75 पार की हो चली हैं लेकिन क्या माननीय मुख्यमंत्री पूरा दिन 20 रूपये में गुजार सकती हैं? हो सकता है अर्बन पावर्टी उनके लिए
पावरोटी जैसे किसी शब्द का अपभ्रंस हो इसलिए कुछ आकंड़े खुद शीला दी के लिए, ताकि जब वे बाजार जाएं तो उन्हें ज्यादा
मोलभाव न करना पड़े। 21 नवंबर को दिल्ली सरकार के खुदरा मूल्य सूचकांक पर नजर डालें तो खुद
शीला दी की सरकार बता रही है कि दरा गेहूं भी 18.50 रूपये किलो है और परमल चावल पर प्रति
किलो 25.50 रूपये खर्च करने पड़ेंगे। फिर अरहर की दाल 80 रूपये किलो है और चीनी 39.50 रूपये किलो। चीनी न भी खाना चाहें तो
गुण भी मियां दिल्ली में चालीस रूपये किलो के हिसाब से बिक रहा है। फिर 70 रूपये किलो का वनस्पति घी और नमक भी
मुंआ 16 रूपये किलो है, आयोडीन वाला।
दिल्ली सरकार के खुदरा मूल्य को अगर
दिल्ली की गरीब बस्ती के साथ मिलान कर दें तो शीला दी को कुछ बातें साफ तौर समझाई
जा सकती हैं। मसलन दिल्ली में गरीबों की संख्या एक दशक पहले की जनगणना में भी 10.02 प्रतिशत थी। जवाहरलाल नेहरू अर्बन
रिनिवेशन स्कीम का जो अध्ययन है उसके अनुसार दिल्ली के गरीब परिवारों की औसत आय 1500 से 2500 के बीच है। इस अध्ययन का निष्कर्ष है
कि दिल्ली के ये गरीब अपनी आय से भी 5 से 10 प्रतिशत अधिक अपने गुजारे पर खर्च करते
हैं। इसमें भी कोढ़ में खाज यह है कि इन 10 प्रतिशत गरीब परिवारों के 45 प्रतिशत के आसपास परिवार 1000 रूपये से कम में अपना गुजारा करते हैं।
यानी अगर शीला दी की सब्सिडी भी इसमें जोड़ दिया जाए तो इन 10 प्रतिशत गरीब परिवारों के खाते में 1600 से 3100 रूपये की आय बैठती है। अब जरा गणित
लगाकर देखिए कि एक गरीब परिवार को शीला दी क्या मदद कर रही हैं?
पांच सदस्यों का एक औसत गरीब परिवार एक
दिन में कितने का खाद्यान्न खरीद सकता है? हम नीचे की आय नहीं बल्कि ऊपर की आय से
भी हिसाब लगाये तो 3,000 रूपये की आयवाला परिवार भी इतने पैसे में सरकार द्वारा तय मानक 2300 कैलोरी की जरूरत पूरा करने के हिसाब से
महीने भर का राशन नहीं खरीद सकता। पांच सदस्यों के एक मेहनतकश परिवार को पेट भरने
के लिए महीने भर में कम से कम 25 किलो चावल (5Û5), 25 किलो आटा, 5 किलो दाल (5Û1) का न्यूनतम आंकड़ा भी निर्धारित कर लें
तो अब इसमें दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित खुदरा दर पर जरा इनकी कीमत जोड़िए।
सरकार के निर्धारित मानकों और सरकार की ही कीमत पर एक एक पांच सदस्यों का मेहनतकश
परिवार बड़े नियम संयम के साथ गुजारा करना चाहे तो सिर्फ चावल, गेहूं, दाल और दूध पर ही महीने में 2400 रूपये खर्च हो जाएंगे। फिर साग सब्जी, तेल नमक और रसोई गैस की बात इसमें शामिल
नहीं है। यानी गरीबी रेखा की उच्चतर सीमा पर बैठा हुआ आदमी भी अपनी कमाई से महीने
भर भरपेट भोजन नहीं कर सकता। तन ढकना और मनोरंजन करना तो उसके लिए दिन में तारे
देखने जैसा ख्वाब है।
तो भला किस आधार पर शीला दी यह कह रही
हैं कि इत्ती सी सब्सिडी देकर उन्होंने गरीबों का पूरा पेट भर दिया है? शायद शीला के गरीबों की परिभाषा भी पूरी
फिल्मी है। जैसे जड़ समाज से कटी हमारी फिल्में फटे कपड़े पहनाकर गरीब पैदा कर देती
हैं वैसे ही शीला दीक्षित जैसी हवा हवाई नेता मनगढ़ंत सरकारी आंकड़ों के सहारे
राजनीतिक बयानबाजी कर देते हैं। और हमारी मजबूरी यह है कि हम सन्न मानकर सुनने के
अलावा कुछ कर नहीं सकते। आखिर एक सफल लोकतंत्र के समर्पित नागरिक जो ठहरे। (लेखक
विस्फोट डॉट काम के संपादक हैं)