42 साल के अमेच्योर पालीटिशियन राहुल
गांधी
(लिमटी खरे)
कांग्रेस में सत्ता की धुरी नेहरू गांधी
परिवार की पांचवी पीढ़ी के नुमाईंदे राहुल गांधी की ओर देश के कांग्रेसी देख रहे
हैं, उन्हें लगता है कि कांग्रेस का अगर कुछ हो सकता है तो वह राहुल गांधी के
कर कमलों से ही संभव है। राहुल गांधी को जयपुर के चिंतन शिविर में बड़ी फिकर के साथ
उपाध्यक्ष के पद पर महिमामण्डित किया गया है। राहुल के उपाध्यक्ष बनने के साथ ही
सोई पड़ी कांग्रेस में उत्साह का संचार परिलक्षित हो रहा था। अचानक ही पिछले दिनों
राहुल गांधी ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते
हैं। कांग्रेस के सिपाहियों के साथ ही साथ थिंक टेंक्स भी चिंता में पड़ गए हैं कि
आखिर राहुल गांधी का गुरू कौन है जो इस तरह की अनर्गल बयानबाजी करवा रहा है। अगर
राहुल को पीएम नहीं बनना है तो फिर कांग्रेस की सत्ता की धुरी क्यों संभाल रहे हैं
वे!
आजादी के पहले मोती लाल नेहरू, फिर पंडित जवाहर लाल नेहरू, इसके उपरांत इंदिरा नेहरू जो फिरोज
गांधी की अर्धांग्नी बनने के उपरांत इंदिरा गांधी बनीं, के बाद राजीव गांधी और अब राहुल गांधी
कांग्रेस की सत्ता की धुरी बने हुए हैं। आजादी के उपरांत कांग्रेस का किला शनैः
शनैः दरकता चला गया। आज कांग्रेस के संगठन की नींव काफी हद तक कमजोर हो चुकी है इस
बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
राहुल गांधी के महिमा मण्डन के लिए चतुर
सुजान कांग्रेस के प्रबंधकों और रणनीतिकारों ने पैसे को पानी की तरह बहाया। राहुल
गांधी का रोड़ शो प्रहसन हो या फिर उनका दलितों की झोपड़ी में रात गुजारने का मामला।
हर मामले में कांग्रेस की मानसिकता वाले मीडिया को जमकर उपकृत करने की बातें सामने
आती रही हैं। कभी प्रियंका वढ़ेरा में स्व.इंदिरा गांधी की छवि दिखा देता है यह
जरखरीद मीडिया।
मीडिया इस बात को रेखांकित कभी नहीं
करता है कि नेहरू से गांधी उपनाम देने वाले फिरोज गांधी को आखिर क्यों भूल जाती
हैं नेहरू परिवार की वर्तमान पीढ़ी। फिरोज गांधी एक पत्रकार और राजनेता थे। फिरोज
गांधी को भारतीय पत्रकारिता में एक नया आयाम जोड़ने के लिए सदा याद किया जाएगा।
आजादी के उपरांत संसदीय कार्यवाही की रिपोर्टिंग में पत्रकारों को अपनी रिस्क पर
ही छापना होता था।
1956 में एक फिरोज गांधी के प्रयासों से एक
कानून अस्तित्व में आया जिसमें विधायिका से संबंधित मामलों की रिपोर्टिंग बेहद
आसान हो गई। इसके तहत संसदीय कार्यवाही को पत्रकार निर्भीक होकर प्रकाशित कर सकता
था। भ्रष्टाचार के खिलाफ फिरोज गांधी ने जमकर आवाज बुलंद की। जिस कोने में फिरोज
गांधी बैठा करते थे, उसे फिरोज कार्नर नाम दिया गया था।
फिरोज गांधी ने एलआईसी के घोटाले के
खिलाफ आवाज बुलंद की, तो हंगामा मच गया। शेयर दलाल हरिदास मूंदड़ा को पुलिस ने धर दबोचा और
नेहरू कैबनेट के बड़े कद्दावर मंत्री टी.टी.कृष्णमाचारी को पद छोड़ना पड़ा। बताते हैं
कि जवाहर लाल नेहरू पर यह पहला आरोप था, जिसके साथ ही नेहरू की तल्खी फिरोज के
लिए बढ़ी और इंदिरा गांधी तथा फिरोज गांधी के बीच दूरियां बढ़ना आरंभ हो गया।
देखा जाए तो भ्रष्टाचार मुक्त भारत के
लिए इंदिरा, राजीव, सोनिया, राहुल को गांधी उपनाम देने वाले फिरोज गांधी ही कृत संकल्पित थे।
विडम्बना देखिए गांधी नाम का उपयोग करने वाली सोनिया और राहुल आज भ्रष्टाचार पर
मौन साधे हुए हैं। ना केवल ये मौन साधे हैं वरन् फिरोज गांधी के जन्म दिवस 12 सितम्बर को कोई भी कांग्रेस का नेता
उन्हें याद नहीं करता है। सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस में अब भाटचारण को ही मूल
मंत्र बना दिया गया है।
हाल ही में कांग्रेस के युवराज राहुल
गांधी ने संसद के कें्रद्रीय कक्ष में कहा कि उन्हें पीएम बनने की लालसा नहीं है।
युवराज के उपाध्यक्ष बनाए जाने से उत्साहित कांग्रेसियों की मानो हवा ही निकल गई।
पंचर गुब्बारे जमीन पर आ गिरे। सोनिया विदेशी मूल के चलते प्रधानमंत्री नहीं बन
पाईं तो उन्होंने मनमोहन सिंह पर दांव लगाया। अब राहुल स्वदेशी होते हुए पीएम पद
से दूर भाग रहे हैं तो चर्चा चलना स्वाभाविक ही है कि राहुल का मनमोहन कौन होगा?
अब कांग्रेस के आम कार्यकर्ता के मन में
यह प्रश्न कौंधना स्वाभाविक ही है कि कांग्रेस की बागडोर पंद्रह सालों से सोनिया
गांधी के हाथ में है। वंशवाद का राहुल गांधी विरोध करते आए हैं। वे अक्सर कहा करते
हैं कि अगर वे कांग्रेस में सिस्टम से आए होते तो इतने उपर नहीं पहुंच पाते, वैगरा वैगरा। ये सारी बातें वे दिल से
नहीं करते, जाहिर है कि उन्हें जो भाषण में लिखकर दिया जाता है वे वही कहते हैं।
अगर एसा नहीं होता तो कांग्रेस या देश
के आम नागरिक के मन में यह प्रश्न कतई नहीं घुमड़ता कि वंशवाद का विरोध करने वाले
राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष बनने कैसे राजी हो गए। जाहिर है उन्हें उनकी
माता श्रीमति सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी के बतौर चुना गया है। वे इस बात को भली
भांति जानते हैं कि कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ताओं की पार्टी नहीं वरन नेहरू
गाध्ंाी परिवार प्राईवेट लिमिटेड बनकर रह गई है। इस पार्टी पर उनके परिवार का पूरा
पूरा नियंत्रण है।
कांग्रेस का अगर चार दशकों का इतिहास
देखा जाए तो स्वर्गीय श्रीमति इंदिरा गांधी के उपरांत गांधी परिवार के
उत्तराधिकारियों ने इस पार्टी के साथ मनमाना व्यवहार किया है। कांग्रेस में
वरिष्ठता या वजनदारी का पैमाना सिर्फ और सिर्फ 10, जनपथ से निकटता के अधार को ही माना जाता
रहा है, इसका कारण यह है कि कांग्रेस के अंदर अहम से अहम फैसला भी इसी बंग्ले के
अंदर से होता है जिसमें कभी राजीव गांधी रहा करते थे और अब श्रीमति सोनिया गांधी
को यह आवास आवंटित है।
राहुल गांधी 42 के हो गए पर उनमें परिपक्वता का अभाव
साफ दिखाई पड़ता है। उनके अंदर विरोधाभास भी कूट कूट कर भरा है। जब वे शिक्षा के
बारे में बात करते हैं तो लगता है उनकी जुबान में वामपंथी दल बैठ गए हैं।
भ्रष्टाचार की बात आते ही मानो उन्हें सांप सूंध जाता है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व
में देश पूरी तरह लुट चुका है पर राहुल गांधी ने एक शब्द भी नहीं बोला इस मामले में।
लगता है मानो राहुल गांधी के अलग अलग
शिक्षक उन्हें अलग अलग दिशा में खींच रहे हों। पार्टी में उस हाईकमान संस्कृति के
खिलाफ वे आवाज बुलंद कर रहे हैं जिसके वे एक अभिन्न अंग हैं। पार्टी के अंदर चल
रही चर्चाओं के अनुसार कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा पूरी तरह चरमरा चुका है, वे जानते हैं कि अगली बार पार्टी का
बहुमत में आना संभव नहीं है, इसलिए उन्होंने साफ साफ इस पद के प्रति
अपनी बेरूखी जाहिर कर दी है। यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है कि अगर उन्हें पीएम
नहीं बनना है तो फिर अपनी मां के अध्यक्ष रहते हुए वे सत्ता की धुरी क्यों संभाल
रहे हैं। (साई फीचर्स)