बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

जेनेरिक दवाएं क्यों नहीं लिखते चिकित्सक


जेनेरिक दवाएं क्यों नहीं लिखते चिकित्सक

(लिमटी खरे)

देश में इस समय सबसे ज्यादा परेशानी से जूझ रहे हैं मरीज। मरीजों की जेब में डाका डाल रहीं हैं दवा कंपनियां। इनके औजार बने हुए हैं भगवान धन्वंतरी के वंशज यानी चिकित्सक। चिकित्सा जैसी व्यवसायिक पढ़ाई के दाखिले के दरम्यान चिकित्सकों को पीडित मानसिकता की सेवा का संकल्प दिलाया जाता है। जब तक ये पढ़ाई पूरी करते हैं तब तक तो इन्हें यह कौल याद रहता है किन्तु जैसे ही इनकी जेब में मरीजों को देखकर फीस आने लगती है इनका ईमान डोल जाता है। दवा कंपनियां भी मौज कर रही हैं। चिकित्सकों को भारी भरकम पैकेज देकर उनसे मनमानी दवा लिखवाकर मुनाफा कमाने से नहीं चूक रही हैं दवा कंपनिया। अनेक दवा कंपनियां तो चिकित्सकों के घर का पूरा खर्च तक उठा रही हैं। चिकित्सक भी जेनरिक दवाओं के बजाए ब्रांडेड दवाएं लिख रहे हैं। एक दवा बाजार में अगर आठ पैसे की है तो वही दवा नामी कंपनी की होकर अस्सी रूपए की हो जाती है। हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय का एक फैसला इस मामले में नजीर साबित हो सकता है जिसमें चिकित्सकों को जेनरिक दवाएं ही लिखने को ताकीद किया गया है।

पीडित मानवता की सेवा का संकल्प लेने वाले हिन्दुस्तान के चिकित्सकों की मानवता कभी की मर चुकी है। आज के युग में चिकित्सा का पेशा नोट कमाने का साधन बन चुका है। आज के समय को देखकर कहा जा सकता है कि मरीज की कालर एक डाक्टर द्वारा बिस्तर पर ही पकडी जाती है। दवा कंपनियों की मिलीभगत के चलते मरीजों की जेब पर सीधे सीधे डाका डाला जा रहा है। चिकित्सकों और दवा कंपनियों ने मिलकर तंदरूस्ती हजार नियामत की पुरानी कहावत पर पानी फेरते हुए अपना नया फंडा इजाद किया है कि स्वास्थ्य के नाम पर जितना लूट सको लूट लो। इसी तारतम्य में स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव ने बिना मेडीकल रिपर्जेंटेटिव ही स्वास्थ्य की उपजाउ भूमि पर न केवल अपना साम्राज्य स्थापित किया है, वरन् अब तो वे देश पर राज करने का सपना भी देखने लगे हैं। संस्कृत की एक पुरानी कहावत है, ‘‘न दिवा स्वप्नं कुर्यात‘‘ अर्थात दिन में सपने नहीं देखना चाहिए, किन्तु बाबा रामदेव को लगता है कि योग के बल पर उन्होंने जो आकूत दौलत और शोहरत एकत्र की है, उसे वे भुना सकते हैं।

बहरहाल मेडीकल काउंसलि ऑफ इंडिया द्वारा इसी माह एक कोड लाने की तैयारी की जा रही है, जिसके तहत दवा कंपनियों से तोहफा लेने वाले चिकित्सकों का लाईसेंस रद्द किए जाने का प्रावधान है। एमसीआई द्वारा स्वास्थ्य के देवता भगवान धनवंतरी के वर्तमान वंशजों अर्थात चिकित्सकों पर लगाम कसने की कवायद की जा रही है। एमसीआई अपने इस कोड के निर्णय को अमली जामा कैसे पहनाती है, यह तो वक्त ही बताएगा किन्तु इस सबमें दवा कंपनियों की मश्कें कसने की बात कहीं भी सामने नहीं आई है। अर्थात कहीं न कहीं चोरी करने के लिए थोडी सी जमीन जरूर छोड दी गई है।

एमसीआई कोड के अनुसार चिकित्सक और उसके परिजन अब दवा कंपनियों के खर्चे पर सेमीनार, वर्कशाप, कांफ्रेंस आदि में नहीं जा सकेंगे। कल तक अगर चिकित्सक एसा करते थे, तब भी वे उजागर तौर पर तो किसी को यह बात नहीं ही बताते थे। इसके अलावा दवा कंपनियों के द्वारा चिकित्सकों को छुट्टियां बिताने देश विदेश की सैर कराना प्रतिबंधित हो जाएगा। चिकित्सक किसी भी फार्मा कंपनी के सलाहकार नहीं बन पाएंगे तथा मान्य संस्थाओं की मंजूरी के उपरांत ही शोध अथवा अध्ययन के लिए अनुदान या पैसे ले सकेंगे।
एमसीआई कोड भले ही ले आए पर चिकित्सकों के मुंह में दवा कंपनियों ने जो खून लगाया है, उसके चलते चिकित्सक इस सबके लिए रास्ते अवश्य ही खोज लेंगे। देखा जाए तो दुनिया का चौधरी अमेरिका इस मामले में बहुत ही ज्यादा सख्त है। अमेरिका में अनेक एसे उदहारण हैं, जिनको देखकर वहां के चिकित्सक और दवा कंपनी वालों की हिम्मत मरीजों की जेब तक हाथ पहुंचाने की नहीं हो पाती है। अमेरिका की एली लिली कंपनी ने तीन हजार चार सौ चिकित्सकों और पेशेवरों के लिए 2.20 करोड डालर (एक अरब रूपए से अधिक) दिए, बाद में गडबडियों के लिए उस कंपनी को 1.40 अरब डालर (64.40 अरब रूपए से अधिक) की पेनाल्टी भरनी पडी।

इसी तरह फायजर कंपनी ने चिकित्सकों और पेशेवरों के माध्यम से गफलत करने पर 2.30 अरब डॉलर (एक सौ पांच अरब रूपए से अधिक) का दण्ड भुगता। ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन ने 30909 डालर (14 लाख रूपए से अधिक) के औसत से 3700 डॉक्टर्स को 1.46 करोड डालर (6.71 अरब रूपए से अधिक) दिए तो मर्क ने 1078 पेशेवरों को 37 लाख डालर (सत्रह करोड रूपए से अधिक) का भुगतान किया।

अमेरिका में फिजिशियन पेमेंट सानशाइन एक्ट लाया जा रहा है, जिसके तहत दवा कंपनियों को हर साल 100 डालर से अधिक के भुगतान की जानकारी देनी होगी। जानकारी देने में नाकाम या आनाकानी करने वाली कंपनी को हर भुगतान पर कम से कम 1000 डालर और जानबूझकर जानकारी छिपाने के आरोप में कम से कम दस हजार डालर का भोगमान भुगतना पडेगा।

दरअसल पेंच चिकित्सकों द्वारा लिखी जाने वाली दवाओं में है। निहित स्वार्थ और लाभ के लिए चिकित्सकों द्वारा कंपनी विशेष की दवाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है। दवा कंपनी द्वारा अनेक लीडिंग प्रेक्टीशनर्स को पिन टू प्लेन सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। चिकित्सकों के बच्चों की पढाई लिखाई से लेकर घर तक खरीदकर देती हैं, दवा कंपनियां। इसी बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि दवा कंपनियों द्वारा चिकित्सकों के साथ मिलकर किस कदर मोनोपली मचाई जाती है, और मरीजों की जेब किस तरह हल्की की जाती है।

चिकित्सकों द्वारा सस्ती दवाएं नहीं लिखी जातीं हैं, क्योंकि जितनी मंहगी दवा उतना अधिक कमीशन उसे मिलता है। वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो चिकित्सकों पर होने वाले खर्चे के कारण ही दवाओं की कीमतें आसमान छू रहीं हैं। बीते साल में ही दवाओं की कीमतों में 20 से 30 फीसदी तक इजाफा हुआ है। हृदय रोग के काम आने वाली दवाएं तो 70 फीसदी तक उछाल मार चुकीं हैं। कहा जाता है कि लगभग पचास फीसदी दवाएं तो अनुपयुक्त ही हैं। मर्क कंपनी की अथर्राइटिस की दवा वायोक्स के साईड इफेक्ट के मामले में कंपनी ने मौन साध लिया था। इसके सेवन से हार्ट अटैक की संभावनाएं बहुत ज्यादा हो जाती थीं। अनेक मौतों के बाद इस दवा को वापस लिया गया था।

महानगरों सहित लगभग समूचे हिन्दुस्तान के बडे शहरों में चिकित्सा की दुकानें फल फूल रही है, आम जनता कराह रही है, सरकारी अस्पताल उजडे पडे हैं, पर सरकारें सो रहीं हैं। नर्सिंग होम में चिकित्सकों के परमानेंट पेथालाजी लेब, एक्सरे आदि में ही टेस्ट करवाने पर चिकित्सक उसे मान्य करते हैं, अन्यथा सब बेकार ही होता है। कितने आश्चर्य की बात है कि सरकारी अस्पतालों में होने वाले टेस्ट को इन्हीं चिकित्सकों द्वारा सिरे से खारिज कर दिया जाता है। अगर वाकई सरकारी अस्पताल के टेस्ट मानक आधार पर सही नहीं होते हैं तो बेहतर होगा कि सरकारी अस्पतालों से इन विभागों को बंद ही कर देना चाहिए। यहां तक कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की कर्मभूमि विदिशा में जिला चिकित्सालय में पदस्थ सिविल सर्जन श्रीमति जैन के पास इतना समय है कि वे अस्पताल के ठीक गेट के सामने अपनी निजी चिकित्सा की दुकान चलाती हैं, और जनसेवक चुपचाप देख सुन रहे हैं।

चिकित्सकों पर अंकुश लगाने के लिए एमसीआई द्वारा नियमावली बनाई जा रही है, कहा जा रहा है कि मार्च माह में उसे लागू भी कर दिया जाएगा। इसके लिए विशेषज्ञों से सुझाव भी आमंत्रित करवाए जा रहे हैं। इस पाबंदी से डायरी, पेन, पेपवेट, कलेंडर जैसी चीजों को मुक्त रखा गया है। वैसे दवा कंपनियों से डी कंट्रोल श्रेणी की दवाओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार छीनकर कुछ हद तक भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।

जब तक सरकार द्वारा चिकित्सकों के साथ ही साथ दवा कंपनियों पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब तक मरीजों की जेब में डाका डालने का सिलिसिला शायद ही थम पाए। सरकार को अमेरिका जैसा कानून ‘‘सख्ती‘‘ से लागू कराना होगा। दवा कंपनियों से यह कहना होगा कि वे किसी चिकित्सक विशेष के बजाए मेडीकल एसोसिएशन या चिकित्सकों की टीम के लिए स्पांसरशिप कर नई दवाओं की जानकारी दे। इसके अलावा एमसीआई को चिकित्सकों और जांच केंद्रों के बीच की सांठगांठ के खिलाफ कठोर पहल करनी होगी। मार्च माह में लागू किए जाने वाले कोड और आचार संहिता का पालन सुनिश्चित करने के लिए कठोर कदम ही उठाने आवश्यक होंगे।

राजस्थान उच्च न्यायालय ने ब्रांडेड जीवन रक्षक दवाओं की आसमान छूती कीमतों पर काबू करने के उद्देश्य से दायर की गई जनहित याचिकाओं का निस्तारण करते हुए सरकारी और निजी चिकित्सकों को साफ हिदायत दी है कि वे जेनेरिक दवाएं ही लिखें। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश अरूण मिश्र और न्यायधीश कैलाश चंद जोशी की युगल पीठ ने आदेश दिया है कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के नियम एवं राज्य सरकार के आदेश दिनांक 7 अक्टूबर 2010 के तहत जेनेरिक दवाएं नहीं लिखने वाले चिकित्सकों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाएगी।

दरअसल देश और प्रदेशों में ज्यादातर इस्तेमाल होने वाली दवाएं एसी हैं जिनकी कीमतों पर सरकारों का कोई नियंत्रण ही नहीं है। इन दवाओं के मूल्यों का निर्धारण दवा कंपनियां स्वयं ही करती हैं यह डीकंट्रोल्ड ड्रग्स की श्रेणी में आता है। इन दवाओं की तादाद पांच सौ से उपर बताई जा रही है। इन दवाओं में कमीशन के खेल का भोगमान अंततः मरीज को ही भुगतना पड़ता है। उधर कंट्रोल्ड दवाओं की श्रेणी में महज सौ से भी कम दवाएं हैं।

भगवान धनवंतरी के आधुनिक वंशजों द्वारा मानवता की सेवा के लिए लिए गए संकल्प को पूरी तरह से भुला दिया गया है। आज सरकारी और गैरसरकारी चिकित्सकों द्वारा मरीजों को जमकर लूटा जा रहा है। चिकित्सकों और दवा कंपनियों द्वारा अपनी इस लूट से ‘‘जनसेवकों‘‘ को मुक्त रखा गया है। कोई भी जनसेवक जब बीमार पडता है तो उसे देखने जाने वाले चिकित्सक द्वारा सैंपल में मिली दवाएं इंजेक्शन दिए जाते हैं, जिससे जनसेवक को पता ही नहीं चल पाता कि आम आदमी की कमर इन दोनों ही ने किस कदर तोडकर रखी है। इसके अलावा अगर चिकित्सकों को दिए जाने वाले नाट फार सेल वाले सैंपल और बाजार में मिलने वाली दवाओं के कंटेंट्स को ही मिला लिया जाए तो गुणवत्ता की कलई खुलने में समय नहीं लगे। एमसीआई द्वारा पहल जरूर की जा रही है, पर यह परवान चढ सकेगी इस बात में संदेह ही नजर आता है।

घोटाले ठोंकेंगे मनमोहन के कार्यकाल में आखिरी कील


बजट तक शायद चलें मनमोहन . . . 6
घोटाले ठोंकेंगे मनमोहन के कार्यकाल में आखिरी कील

भ्रष्टों के ईमानदार संरक्षक मनमोहन सिंह से खफा हैं कांग्रेस के आला नेता

दूसरा कार्यकाल साख पर बट्टा लगा गया मनमोहन की

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की दूसरी पारी में हुए घपलों और घोटालों के महासागर ने कांग्रेस विशेषकर अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह की मट्टी पूरी तरह खराब कर दी है। केंद्र में इतना कीचड़ मच चुका है कि अब राहुल गांधी की परछांईं भी प्रधानमंत्री पद संभालने से कतरा रही है। राहुल के लिए प्रधानमंत्री का रोड़ मेप बानने में जुटी सोनिया गांधी खुद भी मनमोहन सिंह के इस तरह के व्यवहार से बेहद खफा हैं।

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि यूपीए सरकार अब पूरी तरह से पंगु, निकम्मी और नपुंसक हो चुकी है। सोनिया गांधी यह नहीं समझ पा रही हैं कि मनमोहन सिंह जब अपना पहला कार्यकाल पूरा कर रहे थे तभी कांग्रेस के चतुर सुजान और उपेक्षित चाणक्य मनमोहन सिंह और कांग्रेस के लिए ताबूत तैयार करवा रहे थे। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत की एक वेब साईट ने इसका खुलासा भी किया था कि एकाएक घपले और घोटाले सामने आने के पीछे कौन है।

उन्होंने कहा कि यद्यपि अब वह चाणक्य इस दुनिया में नहीं है फिर भी कांग्रेस को उनकी उपेक्षा का दंश तो झेलना ही पड़ रहा है। 2004 से 2009 तक जिन घोटालों को अंजाम दिया गया उनमें प्रमुख तौर पर एयरसेस मेक्सिस, टू जी, इसरो, कामन वेल्थ, एस बेण्ड आदि हैं। वैसे कामन वेल्थ का बड़ा घोटाला यूपीए पार्ट टू में हुआ है पर इसकी शुरूआत पहले ही हो चुकी थी।

कांग्रेस के अंदर ही अंदर यह बात जमकर खदबदाने लगी है कि मनमोहन सिंह अच्छी, टिकाउ और स्वच्छ सरकार नहीं दे सकते हैं। अगर मनमोहन सरकार ठीक से काम करती तो आज यह दिन न देखना पड़ता। मनमोहन सिंह को कांग्रेस के लोग अब ईमानदार व्यक्ति के बजाए भ्रष्टाचार के ईमानदार संरक्षक कहने लगे हैं। वैसे भी मनमोहन सिंह ने संपादकों की टोली के सामने खुद को कमजोर और बेबस साबित किया था। इतना ही नहीं मनमोहन सिंह और कांग्रेस के लिए राष्ट्र धर्म से बड़ा गठबंधन धर्म हो गया है।

रथ यात्रा भाजपा या उत्तराधिकारी के लिए!


रथ यात्रा भाजपा या उत्तराधिकारी के लिए!

पुत्र पुत्री मोह में हो रही आड़वाणी की रथ यात्रा

दादा की दुलारी प्रतिभा हो सकती हैं उनकी उत्तराधिकारी

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। राजग के पीएम इन वेटिंग रहे लाल कृष्ण आड़वाणी की रथयात्रा को लेकर तरह तरह की चर्चाएं और अफवाहें गर्माने लगी हैं। भाजपा में ही लोगों का मानना है कि जब आड़वाणी ने खुद को ही प्रधानमंत्री की दौड़ से हटा लिया है तब वे इस उमर में भाजपा के लिए क्या संजीवनी लाने का काम कर पाएंगे। दबी जुबान से चल रही चर्चाओं के अनुसार यह रथ यात्रा आड़वाणी का उत्तराधिकारी तय करने के लिए है।

आड़वाणी जुंडाली में चल रही चर्चाओं को अगर सही माना जाए तो रथ यात्रा के पहले आड़वाणी के घर में जमकर द्वंद हुआ। आड़वाणी की पत्नि श्रीमति कमला आड़वाणी चाह रही थीं कि उनका पुत्र जयंत आड़वाणी दादा (एल.के.आड़वाणी) के साथ जाए। अगर वैसा होता तो देश भर में जयंत को पहचाना जाने लगता और फिर भगवा राजनीति के द्वार उनके लिए खुद ब खुद ही खुल जाते। उधर प्रतिभा का मानना था कि जयंत राजनीति के हिसाब से अनफिट हैं।

सूत्रों ने कहा कि अंत में आड़वाणी ने अपनी दुलारी प्रतिभा के पक्ष में ही अपना फैसला सुना दिया। यही कारण है कि रथ यात्रा में प्रतिभा अपने दादा यानी पिता एल.के.आड़वाणी के साथ हैं। यात्रा के दौरान वे भाजपा के नेताओं से बाकायदा घुल मिल कर बात कर रही हैं। भाजपा में चल रही सियासी हवाओं के अनुसार ढलती उमर के कारण अब एल.के.आड़वाणी जल्द ही सन्यास लेने का मन बना रहे हैं। उनके बाद उनका राजनैतिक उत्तराधिकारी उनकी पुत्री प्रतिभा ही होंगीं।

आखिर घाटा क्यों उठा रहा है आईडिया


एक आईडिया जो बदल दे आपकी दुनिया . . .  3
आखिर घाटा क्यों उठा रहा है आईडिया

सस्ती सिम बेचने मंहगे वाहनों पर प्रचार कर रही आईडिया टीम

दिन भर का खर्च दस हजार और आवक महज सौ रूपए

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। मोबाईल सेवा प्रदाता आईडिया कंपनी का बिजनिस प्रमोशन प्लान अन्य मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों के पल्ले ही नहीं पड़ रहा है। आईडिया की सिम बेचने के लिए देश भर में गांव गांव में मंहगे किराए के वाहनों को हायर कर कंपनी का प्रचार प्रसार कर सिम बेचने का काम किया जा रहा है। औसतन एक दिन में एक वाहन से महज सौ रूपए की सिम ही बिक पाती हैं, फिर उनका खर्च कहां से निकल रहा है यह शोध का ही विषय हैं

गौरतलब है कि आईडिया कंपनी द्वारा प्रतिदिन के भाड़े के हिसाब से देश भर में सिम बेचने और बिजनिस प्रमोशन का काम किया जा रहा है। एक वाहन में आईडिया कंपनी के कम से कम चार से पांच मुलाजिम गांव गांव जाकर सिम बेचने का काम करते हैं। इन मुलाजिमों का भत्ता वेतन और गाड़ी का किराया ही अगर जोड़ लिया जाए तो वह प्रतिदिन सात से दस हजार रूपए बैठता है।

अगर इनके द्वारा दिन भर में बेची गई सिम का आंकलन किया जाए तो प्रति गाड़ी सौ से दो सौ रूपए तक की सिम ही बेची जा पाती हैं। इन परिस्थितियों में प्रति गाड़ी प्रतिदिन हजारों का घाटा उठाकर आईडिया कंपनी अपने उपभोक्ताओं की सेवा में रत है। निश्चित तौर पर इस तरह की समाज सेवा के लिए आईडिया कंपनी के संचालकों को गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के हाथों पुरूस्कृत किया जाना चाहिए।

निजी क्षेत्र के मोबाईल सेवा प्रदाताओं के बीच इस बात को लेकर चर्चा चल रही है कि आखिर आईडिया कंपनी के हाथों कौन सा अलीबाबा का गढ़ा खजाना लग गया है कि वह प्रति दिन प्रति वाहन पर हजारों रूपए का घाटा उठाकर भी अपने कर्मचारियों को मोटी पगार दे रही है?

(क्रमशः जारी)