शुक्रवार, 26 जून 2009

रूपहले पर्दे के स्याह धब्बे

(लिमटी खरे)

हालीवुड का नाम जेहन में आते ही विश्व के सबसे शक्तिशाली सिनेमा के संसार का चित्र जीवंत हो जाता है। हर कोई हालीवुड में जाकर एक बार परफारमेंस दिखाने को आतुर दिखता है। वहीं दूसरी ओर हिन्दुस्तान के वालीवुड में काम करना हर भारतीय का सपना ही है।वालीवुड का क्रेज सत्तर के दशक के पहले उतना अधिक नहीं था, इसका कारण भारत की पुरातन संस्कृति का जिंदा होना था। तब मायानगरी लोगों के लिए आकर्षण और जिज्ञासा का विषय हुआ करता था। अस्सी के दशक के आरंभ में जैसे ही एशियाड के दौरान 1982 में रंगीन टेलीविजन ने भारत में पदार्पण किया और उसके बाद एक के बाद एक वर्जनाएं टूटती ही चली गईं। उसके बाद हिन्दुस्तान में पश्चिमी संस्कृति हावी होती चली गई।पहले महिलाओं की अदाकारी में भी पुरूष ही दाड़ी मूंछ मुंडाकर काम किया करते थे। उस दौरान महिलाओें का घर की दहलीज से बाहर कदम रखना अथवा पुरूषों के साथ घुलना मिलना वर्जित माना जाता था। भारत सदा से ही पुरूष प्रधान देश रहा है, इसीलिए यहां इस तरह की संस्कृति का जन्म हुआ है।आज की पीढी निश्चित तौर पर इसे दखियानूसी विचारधारा का घोतक मानती है, किन्तु आज जो फूहड़ प्रदर्शन चल रहा है, क्या वह हूबहू पश्चिमी संस्कृति है? जाहिर है नहीं यह वेस्टर्न कल्चर का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। आज की संस्कृति में टूटती सामाजिक मर्यादाएं और वर्जनाएं क्या उचित मानी जा सकती हैंत्रबहरहाल आज पर्दे पर हम नायक नायिकाओं को उन गढ़े हुए रोल में अदाकारी करते देख उनके जैसा बनने की चाहत दिल में पालते है, किन्तु असल जिंदगी में वे क्या कर रहे हैं, जब यह बात हमारे सामने उजागर होती है तो हमारा मुंह कसैला होना स्वाभाविक ही है।गेंगस्टर के नायक शाइनी आहूजा पर उनकी ही नौकरानी ने बलात्कार का आरोप लगा दिया। वह बलात्कार था या आपसी सहमति यह पुलिस की जांच का विषय है, किन्तु शादी शुदा शाईनी ने अगर इस तरह की नापाक हरकत की है तो इसके लिए निश्चित रूप से हमारी वर्तमान गंदी सड़ांध मारती दिग्भ्रमित संस्कृति ही पूरी तरह जिम्मेदार है। आने वाले दिनों में शाईनी के इस कृत्य को बढ़ा चढ़ा कर इस कदर प्रस्तुत किया जाएगा कि लोग इसके मूल की कहानी को भूल ही जाएंगे। पहले शादीशुदा मर्द अन्य ओरतों की ओर देखने से गुरेज ही करते थे, किन्तु टीवी सीरियल में हमेशा दिखाए जाने वाले ``एक्सट्रा मेरेटल अफेयर्स`` ने आज सारी परिभाषाएं ही बदलकर रख दी हैं।वालीवुड में देह शोषण की बात यह कोई नई नहीं है। सबसे पहले 2004 में प्रीति जैन नामक एक माडल ने फिल्मकार मधुर भण्डारकर पर देह शोषण का आरोप लगाया था। इसके बाद यह अनवरत सिलसिला शक्तिकपूर, आदित्य पंचोली, अमन वर्मा महेश भटकर आदि के रास्ते होकर चलता ही जा रहा है।वालीवुड में ``कािस्ंटग काउच`` के चर्चे चटखारे लेकर किए जाते हैं। यह सच है कि वालीवुड के सुनहले पर्दे के दूसरी और कालिख ही कालिख पुती हुई है। यह वह हमाम है जिसमें कमोबेश हर कोई शख्स नंगा ही खड़ा है। जिसकी चोरी पकड़ी गई वही चोर करार दिया गया है बाकी सब साहूकार बने बैठे हैं।मीडिया ने भी अपनी पाठक संख्या या टीआरपी बढ़ाने की गरज से ``पेज थ्री`` आरंभ कर दिया है, जिसमें सेलिब्रिटीज को रात की रंगीनियों में कैद कर लोगों के सामने परोसा जाता है। कल तक देश प्रेम का जज्बा जगाने वाली खबरों से अटा पड़ा मीडिया और फिल्म जगत आज क्या परोस रहा है?निश्चित तौर पर हमारी सराउंडिंग (आसपास का माहौल मिलने जुलने वाले) जैसी होगी हमारी सोच वैसी ही बनेगी। वालीवुड के बारे में जिस तरह की बातें मीडिया हमारे सामने लाएगा हमारी मानसिकता वालीवुड के बारे में वैसी ही बनेगी। रूपहले पर्दे पर ``गुड ब्वाय`` का किरदार निभाने वाले निजी जिंदगी में रातों रात ``बेड ब्वाय`` कैसे बन जाते हैं इसका उदहारण पिछले लगभग पांच सालों से देखने को मिल रहा है।एसा नहीं कि वालीवुड की तारिकाएं कास्टिंग काउच से अछूती हों। बदनामी के डर से वे अपना मुंह बंद रखने को मजबूर हैं। नीतू चंद्रा ने तो खुद को इससे दूर रखकर यह तक कह डाला था कि वालीवुड में कािस्ंटग काउच चरम पर है। अब देखना यह है कि शाईनी के बाद कौन सा चेहरा बेनकाब होता है, क्योंकि अब तक के हादसों से सबक लेकर वालीवुड के सुधरने की उम्मीद करना तो बेमानी ही होगा।]

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कहां गईं टिकिट बिकने की शिकायतें!

0 आत्म मंथन में भी नही हो रहा टिकिटों के बिकने का जिकर

0 अपनी पीठ ठोंकर अनियमितताओं पर धूल डाल रही है कांग्रेस

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली सहित अन्य राज्यों में बीते साल हुए विधानसभा चुनाव और देश के आम चुनावों में पार्टी फंड में कथित तौर पर चन्दा दिलवा कर कांग्रेस की टिकिट दिलाने वाले घालमेल की शिकायतों अब ठंडे बस्ते के हवाले कर दी गई हैं। ये शिकायतें जितनी तेजी से उठी थीं, उससे दुगनी गति से दफन कर दी गई हैं।कांग्रेस के राष्ट्रीय मुख्यालय में चल रही चर्चाओं के अनुसार पार्टी के कुछ रसूखदार दलालनुमा नेताओं ने इस बार चुनावों में टिकिट का घालमेल जमकर किया। इसमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा आदि राज्यों में टिकिट बिकने की खबरें पहले जमकर उछलीं थीं।पार्टी के उच्च पदस्थ सूत्रों ने बताया कि आम चुनाव के पूर्व पार्टी ने लोकसभा सीटों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया था। इनमें से ``अ`` श्रेणी की लोकसभा सीट को सबसे अधिक धनराशि मुहैया करवाई गई थी। इसके उपरांत गुणोत्तर क्रम में ब और स श्रेणी के संसदीय क्षेत्रों को उससे कम राशि दी गई थी।सूत्र बताते हैं कि इन दलालों ने पार्टी फंड के नाम पर टिकिट बेचकर पैसे बनाए ही बनाए साथ में पार्टी से चुनाव लड़ने के लिए सहायता के तौर पर रूपयों की हेराफेरी भी कर डाली। उत्तर प्रदेश के एक सांसद जिनके नाम पर पार्टी के बहीखाते में 25 लाख रूपए दर्ज हैं, वे आवक हैं, क्योंकि रकम उन्होंने ली ही नहीं। अल्पसंख्यक कोटे के इन सांसद ने अपनी शिकायत पार्टी मुखिया के पास दर्ज करा दी है। यही आलम एक अन्य मुस्लिम सांसद का है जिनके खाते में पार्टी से पांच लाख रूपए की सहायता दर्ज है।पार्टी के एक नेता ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा कि अगर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी टिकिट बिकने और पार्टी फंड के बंदरबांट की शिकायतों पर समय रहते कदम उठा लेतीं तो कांग्रेस पार्टी सवा दो सौ से अधिक सीटों पर विजयश्री का परचम फहराती। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सुप्रीमो को उनकी किचिन केबनेट के सदस्य जिस रंग का चश्मा लगाकर सियासत दिखा रहे हैं, वे उसी रंग में सियासत को देख रही हैं, यही कारण है कि एक के बाद एक करके कांग्रेस के हाथ से देश के सूबे फिसलते ही जा रहे हैं।

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. . . मतलब निरंकुश हो गए हैं मनमोहन!

0 सोनिया ने मनमोहन को लिखा खत, वादे याद दिलाए

नई दिल्ली। देश की सबसे शक्तिशाली महिला अगर डॉ. मनमोहन सिंह को देश के सबसे शक्तिशाली संवैधानिक पद पद बिठाएं और फिर खतो खिताब के जरिए उनसे बात करें तो यही माना जाएगा कि मनमोहन दूसरी पारी में पूरी तरह निरंकुश हो गए हैं, और अब सोनिया को उनसे बातचीत के लिए पत्रों का सहारा लेना पड़ रहा है।गौरतलब होगा कि माना जाता है कि सरकार का रिमोट कंट्रोल सोनिया गांधी के पास ही है। अगर चुनावी वादे याद दिलाने के लिए सोनिया गांधी ने मनमोहन को खत लिखा है तो इसके पीछे कोई न कोइ्रZ कहानी जरूर है। या तो यह पब्लिसिटी स्टंट है या फिर खतो खिताब के बाजीगर कुंवर अजुZन सिंह के किसी जहर बुझे तीर को निष्फल करने का कोई नया पैंतरा।बहरहाल कांग्रेस के आम कार्यकर्ता को हर महीने खत लिखने वाली कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस महीने पार्टी के एक खास कार्यकर्ता को पत्र लिखा है। सोनिया ने यह खत लिखा है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को। इसमें प्रधानमंत्री को कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में किए गए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने के वादे की याद दिलाई है। सोनिया ने लिखा है कि यूपीए के पिछले कार्यकाल में बनाए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून की तर्ज पर यह कानून भी बनाया जाए। सोनिया खाद्य सुरक्षा को यूपीए के दूसरे कार्यकाल की प्रमुख योजना बनाना चाहती हैं। देश में इस साल मॉनसून के लेट हो जाने के कारण खरीफ की फसल पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका के बीच सोनिया का यह पत्र बहुत ही अहम है। हालांकि इस समय देश के सरकारी गोदाम अनाजों से ठसाठस हैं, मगर गरीबों के पास इसे खरीदने के लिए पैसा नहÈ। विÜव बैंक के मुताबिकए भारत में 45 करोड़ 60 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं।स्थिति की गंभीरता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया के कुल गरीबों में एक तिहाई भारतीय हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 20 करोड़ लोगों को दोनों वक्त भोजन उपलब्ध नहÈ होता है। 50 प्रतिशत कुपोषण के शिकार हैं। इनमें 20 फीसदी की हालत बहुत ही गंभीर है। इस पृष्ठभूमि में यूपीए सरकार द्वारा कानून बनाकर 25 किलोग्राम गेहूं या चावल 3 रुपये प्रति किलो के हिसाब से उपलब्ध करवाना क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। सोनिया और प्रधानमंत्री द्वारा संयुक्त रूप से जारी कांग्रेस के घोषणा पत्र में किए वादे में कहा गया है कि खाने को अधिकार बनाया जाएगा।कानून बनाकर सब लोगों खासतौर से समाज के कमजोर तबके के लोगों को पूरा भोजन देने की गारंटी होगी।

गुरुवार, 25 जून 2009

दिल्ली, डेल्ही या नई दिल्ली!

(लिमटी खरे)

पूर्व चुनाव आयुक्त और वर्तमान केंद्रीय खेल मंत्री एम.एस.गिल ने पिछले दिनों एक नई बहस को जन्म दे दिया है। उन्होंने कहा है कि नई दिल्ली का नाम बदलकर राष्ट्रमण्डल खेलों के पूर्व दिल्ली कर देना चाहिए। कोई इसे नई दिल्ली, कोई दिल्ली तो कोई डेल्ही कहता है।शहरों, प्रदेशों और देशों का नाम बदलने की पंरपरा नई नहीं है। यह काफी अरसे से चलने वाली निरंतर प्रक्रिया है। दिल्ली कभी इंद्रप्रस्थ तो कभी शाहजहांबाद हुआ करती थी। इलहाबाद को पहले प्रयाग के नाम से जाना जाता था, पटना का नाम पाटलिपुत्र और अज़ीमाबाद था। भारत को लोग पहले देवभूमि तो फिर आर्यावर्त के नाम से जाना जाता था। यूं तो भारत के भी कई नाम चलन में हैं। कोई इसे भारत, कोई हिन्दुस्तान तो कोई इंडिया कहता फिरता है।हमारी अपनी नजर में नाम परिवर्तन के सिलसिले के जनक ब्रितानी शासक थे। जिनका उच्चारण ही नामों को बदल गया। दरअसल नाम परिवर्तन की वजह विस्मृत होती संस्कृति ही कही जा सकती है। पहले स्कूली पाठ्यक्रमों में भारत के इतिहास को घोलकर बच्चों के जेहन में बिठाया जाता था। संस्कृत जैसी िक्लष्ठ किन्तु सुमधुर भाषा का ज्ञान आवश्यक तौर पर दिया जाता था। आज पाश्चात संस्कृति की ओर बढ़ते आकर्षण ने सब कुछ समाप्त सा कर दिया है।आज की युवा पीढ़ी से अगर पूछा जाए कि भारत में कितने मुगल शासकों ने शासन किया? मुगल कब भारत पर कब्जा करने आए थे? अंग्रेजों ने किस कदर इस देवभूमि के योद्धाओं पर अत्याचार किए? इन समस्त प्रश्नों के जवाब में युवा पीढ़ी बगलें झांकती ही नजर आएगी।दरअसल आजादी के छ: दशकों में हिन्दुस्तान में राज करने वाले राजनेताओं ने हमारी संस्कृति और विरासत को नई पीढ़ी के दिलो दिमाग से निकालने के वे सारे सरल मार्ग प्रशस्त कर दिए जिनके माध्यम से हम अपने अतीत को जान सकते थे। युवा पीढ़ी को अनुमान ही नहीं होगा कि आजादी के दीवानों ने किस शिद्दत के साथ ब्रितानी हुकूमत के अत्याचार सहते हुए उनसे लोहा लिया और आजादी पाई। दरअसल आजादी की कीमत इन लोगों को पता ही नहीं है।``पदमपुराण`` में महाकाल की नगरी उज्जैन के एक दर्जन से अधिक नामों का उल्लेख किया गया है। इनमें अवन्तिका, उज्जयनी, पदमावत आदि का उल्लेख किया गया है। इन सभी नामों के पीछे अलग अलग वजह है। विदिशा को पहले भेलसा के नाम से जाना जाता था, एवं भेलसा की तोपों का कोई जवाब नहीं था। नाम बदलकर हम अपनी प्राचीन संस्कृति से जुड़े रहने के मार्ग ही प्रशस्त करते हैं।उदहारण के तौर पर श्राद्ध कर्म करते समय हम अपने स्वर्गवासी पुरखों को याद करते हैं। सवाल यह है कि क्या हम यह प्रक्रिया देवी देवताओं को खुश करने के लिए करते हैं? जाहिर है, नहीं, यह अपने पूर्वजों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के साथ ही साथ उनके जीवन से प्रेरणा लेने, उनके साथ बिताए अच्छे बुरे पल याद करने का एक सहज तरीका हो सकता है। बेंगलौर को बंगलुरू, मैसूर को मैसूरू, कलकत्ता को कोलकता, मद्रास को चेन्नई, बंबइ्रZ को मुंबई, त्रिवेंद्रम को तिरूअनंतपुरम, कोचीन को कोच्ची करने के पीछे सांस्कृतिक वजहें ही हैं।अगर आप का नाम कोई गलत पुकारे तो आपको तकलीफ होना स्वाभाविक ही है। यही आलम शहर का है। अंग्रेज शासकों ने अपनी सुविधा के अनुसार शहरों के नए नाम निर्धारित किए थे। वस्तुत: दासता की समाप्ति के उपरांत हिन्दुस्तान के शहरों के पुराने नाम वापस रख दिए जाने चाहिए थे, पर एसा हुआ नहीं। अंग्रेजों के द्वारा दासता के दौरान दिए गए नामों को ही हम आज भी ढो रहे हैं। शहरों के नाम ही क्यों उनके बनाए नियम कायदे कानून यहां तक कि अंग्रेज रविवार को इबादत के लिए अपने आप को मुक्त रखना चाहते थे, सो आज भी सप्ताह का सरकारी अवकाश रविवार ही है। हम आजाद जरूर हो गए हैं, किन्तु आज भी ये सारे सिस्टम दर्शाते हैं कि हम मानसिक दासता से उबर नहीं सके हैं।बहरहाल एम.एस.गिल का कहना कि दिल्ली में यहां के मिजाज और संस्कृति की झलक मिलती है हास्यास्पद ही है। मुख्य चुनाव आयुक्त रहे गिल लंबे समय से दिल्ली में ही निवास कर रहे हैं, और अगर वे यह नहीं जानते कि दिल्ली की मूल पुरातन संस्कृति क्या अब बची है? पाश्चात संस्कृति का सबसे घिनौना और बिगड़ा रूप दिल्ली में ही देखने को मिलता है। हमारा कहना महज इतना ही है कि नाम अवश्य बदला जाए बशतेZ नाम बदलने का मकसद सही हो।


मनमानी के चलते प्रसार भारती कठघरे में!

0 अंदरूनी कर्मचारी ने ही की अनियमितताओं के खिलाफ आवाज बुलंद

0 चर्चाओं में है डी डी भोपाल

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। प्रसार भारती में पिछले दिनों व्यापक स्तर पर हुई अनियमितताओं के चलते इसकी विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लगने लगा है। आम चुनावों के दौरान हुई एंकर्स की भर्ती और मध्य प्रदेश में भोपाल दूरदर्शन में जारी अनियमितताओं ने देश के एक मात्र राष्ट्रीय दृश्य और श्रृव्य ब्राडकास्टर की कलई खोलकर रख दी है।प्रसार भारती से जुड़े उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि प्रसार भारती ने मनमानी करते हुए अनेक एसी शिख्सयतों को वरिष्ठ एंकर के पद पर नियुक्त कर लिया है, जिनके पास अनुभव पांच साल से कम ही का है। इतना ही नहीं चहेतों (कारण चाहे जो भी हो) को उपकृत करने के लिए अनुभव में कोई कमी किए बिना ही इन्हें नियुक्त कर दिया गया है।इनमें से अनेक सामान्य स्नातक या बी टेक हैं, एवं इनके पास श्रृव्य एवं दृश्य मीडिया में काम करने का कोई अनुभव भी नहीं है। प्रसार भारती के ही एक कर्मचारी की याचिका पर केंद्रीय प्रशासनिक पंचाट (केट) ने प्रसार भारती को नोटिस भेजते हुए इसका जवाब चाहा है। याचिकाकर्ता द्वारा प्रसार भारती की समूची भर्ती प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया है।याचिका में कहा गया है कि गत वर्ष जारी विज्ञापनों में दूरदर्शन के लिए सीनियर एंकर, एंकर कम करस्पांडेंट, जूनियर एंकर कम करस्पांडेंट के लिए 13 सितम्बर तक आवेदन मंगाए गए थे। इसमें योग्यताएं क्रमश: पांच, तीन और एक साल के अनुभव के साथ मांगी गई थीं।तीन साल की अवधि के अनुबंध के लिए इनका वेतन भी 65 हजार, 45 हजार तथा 25 हजार रूपए तय किया गया था। मजे की बात तो यह है कि इसमें केंद्रीय मंत्रियों और संतरियों के सगे संबंधियों को भर्ती के लिए पत्रकारिता के अनुभव और पत्रकारिता की शिक्षा में छूट भी दी गई थी।याचिकाकर्ता का आरोप है कि इनमें भर्ती किए गए लोगों ने अपनी इंटरर्नशिप को भी अनुभव के दायरे में दर्शाया गया है, बावजूद इसके उनके पांच या तीन साल का अनुभव पूरा नहीं होता है।
इसी तरह के अनेक मामले मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दूरदर्शन केंद्र में नित सुनने को मिल रहे हैं। मध्य प्रदेश में भी किसी के नाम का भुगतान कोई और के द्वारा लिए जाने की चर्चाएं जमकर हैं। सूचना के अधिकार कानून में लगी एक अर्जी यहां के अधिकारियों के गले की फांस बन गई है। सूत्र बताते हैं कि सूचना के अधिकार की अर्जी के उपरांत आनन फानन यहां रिकार्ड भी दुरूस्त करवाए जा रहे हैं।

बुधवार, 24 जून 2009

यमुना को टेम्स नहीं यमुना ही बना दीजिए शीला जी


(लिमटी खरे)

कभी देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में कल कल बहती यमुना नदी पिछले दो तीन दशकों से गंदे बदबूदार नाले में तब्दील हो गई है। दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार की नाक के नीचे सारी सीमाएं तोड़ते प्रदूषण ने यमुना का गला घोंटकर रख दिया है। आने वाले एक दशक तक इसके पुनुZद्धार की उम्मीद नहीं की जा सकती है।यमुनोत्री से इलहाबाद के संगम तक यमुना 1375 किलोमीटर का लंबा सफर तय करती है। दिल्ली से पहले स्वच्छ निर्मल जल को लेकर आने वाली यमुना दिल्ली के बाद बुरी तरह प्रदूषित हो जाती है। यमुना के प्रदूषण में दिल्ली की भागीदारी 80 फीसदी से भी अधिक है। वजीराबाद से ओखला बैराज तक का 22 किलोमीटर लंबा यमुना का हिस्सा सबसे अधिक प्रदूषण की चपेट में है।यमुना नदी के साथ श्रृद्धालुओं की अगाध श्रृद्धा जगजाहिर है। भगवान श्रीकृष्ण की कथाएं यमुना नदी के बिना अधूरी सी लगती हैं। यमुना नदी का नाम सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण और कालिया नाग की कथा जेहन में जीवंत हो उठती है। मथुरा के बाद यमुना नदी ने श्याम वर्ण ओढ़ लिया है।दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित का यह बयान हास्यास्पद ही माना जाएगा कि यमुना नदी को लंदन की टेम्स नदी नहीं बनाया जा सकता है। हमारा कहना महज इतना ही है कि लंदन की टेम्स नदी ब्रितानी लोगों के लिए गर्व का विषय होगी, वह उन्हीं को मुबारक किन्तु शीला जी हिन्दुस्तान की शान मानी जाने वाली यमुना नदी को टेम्स न बनाकर कम से कम यमुना के रूप में तो ला दीजिए।बकौल शीला दीक्षित -``दशकों से दिल्ली का अव्यवस्थित विकास हुआ है। बाहर से लोग आते हैं, और जहां मन होता है बैठ जाते हैं।`` शीला दीक्षित का यह बयान पूरी तरह गैर जिम्मेदाराना है। देखा जाए तो वे भी उत्तर प्रदेश से ही आईं हैं और दिल्ली पर एक दशक से हुकूमत कर रहीं हैं।अपना इस तरह का बचकाना बयान देने के पहले शीला दीक्षित शायद भूल गईं कि आजादी के बाद के छ: दशकों में से एक दशक से तक तो दिल्ली उन्हीं के कब्जे में है, और बीच का कुछ अरसा अगर छोड़ दिया जाए तो शेष समय तो दिल्ली की गद्दी पर कांग्रेस का ही शासन रहा है। शीला से बयान से लगता है मानो वे कह रहीं हों कि दिल्ली पर काबिज रही कांग्रेस की सरकारों ने यहां की बसाहट पर ध्यान नहीं दिया है।मुख्यमंत्री खुद स्वीकार करतीं हैं कि यमुना नाले में तब्दील हो चुकी है। उन्होंने यह भी कहा कि यमुना एक्शन प्लान एक और दो में 2800 करोड़ रूपए तो खर्च हुए हैं किन्तु ठोस तकनीक न होने से इसका वांछित परिणाम सामने नहीं आया। हम शीला दीक्षित को याद दिलाना चाहते हैं कि जो व्यय हुआ है, वह उन्हीं के शासनकाल में हुआ है, और अगर जनता के गाढ़े पसीने की कमाई को बिना परिणाम या ठोस तकनीक के बहाया गया है तो क्यों न इसे तैयार करने और अमली जामा पहनाने वालों पर जनता के धन के अपव्यय का आपराधिक मुकदमा चलाया जाए?शीला दीक्षित ने कहा कि इसकी सफाई में अभी सात आठ साल और लगेंगे। क्या एक नदी के महज 22 किलोमीटर के हिस्से को संरक्षित करने के लिए शीला दीक्षित को पिछली पारी के 10 साल और अभी के छ: महीने काफी नहीं हैं, जो दिल्लीवासियों को वे सात आठ साल का एक और झुनझुना पकड़ा रहीं हैं।शीला दीक्षित के लिए कामन वेल्थ गेम्स पहली प्राथमिकता बने हुए हैं। क्या शीला दीक्षित सरकार के लिए यह शर्म की बात नही होगी कि विदेशी खिलाड़ी और दर्शक दिल्ली में नाक पर रूमाल रखकर घूंमेंगे और विशेषकर यमुना को देखकर वे हिन्दुस्तान की राजधानी के बारे में क्या धारणा बनाएंगे? क्या शीला दीक्षित की नाक तब नहीं कटेगी जब कामन वेल्थ गेम्स की खबरों के बजाए अंतर्राष्ट्रीय मीडिया दिल्ली की बदहाली और दुर्गंध से बजबजाती यमुना नदी के फोटो और स्टोरी छापेंगे?एक दशक तक सत्ता का सुख भोगकर तीसरी पारी खेलने वालीं दिल्ली की महिला मुख्यमंत्री यमुना के मामले में बेबस ही नजर आईं। तेज तर्रार प्रशासक के तौर पर पहचान बना चुकीं शीला दीक्षित दस सालों मेें यमुना के लिए करोड़ों रूपए पानी में बहते हुए चुपचाप देखतीं रहीं और अब घड़ियाली आंसू बहाकर कह रहीं हैं कि यह शर्म की बात है कि यमुना एक गंदे नाले में तब्दील हो गई है।देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में बहने वाली दिल्लीवासियों के लिए कभी जीवनदायनि रही यमुना नदी को भले ही शीला दीक्षित लंदन की टेम्स नदी बनाना चाहें पर दिल्लीवासियों की ओर से हम श्रीमति शीला दीक्षित से विनम्र गुजारिश करते हैं कि यमुना नदी को टेम्स मत बनाईये इसे पुरानी यमुना के स्वरूप में ही ले आईए।


अंतत: सच साबित हुई जगतगुरू की भविष्यवाणी

स्वामी स्वरूपानंद जी ने कहा था खण्डूरी कार्यकाल पूरा नहीं करेंगे

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। उत्तराखण्ड की भुवनचंद खण्डूरी के मामले में जगतगुरू शंक्राचार्य स्वामी स्वरूपानंद की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई, उन्होंने कहा था कि भुवन चंद खण्डूरी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएंगे। ज्ञातव्य है कि स्वरूपानंद जी ने कहा था कि चूंकि खण्डूरी का राज्याभिषेक रिक्ता तिथि को हुआ था इसलिए वे कार्यकाल पूरा नहीं कर सकेंगे।गौरतलब होगा कि उत्तराखण्ड में विधायकों के पुरजोर विरोध के बावजूद भी खण्डूरी को दो मार्च 2007 को विधायक दल का नेता घोषित कर दिया गया था। बाद में उन्होंने अपने पथ प्रदर्शक और ज्योतिपीठ के एक अन्य दावेदार स्वामी माधवाश्रम की राय पर आठ मार्च को उस समय शपथ ली जब रिक्ता तिथि चल रही थी। खण्डूरी के करीबी सूत्रों का दावा है कि स्वामी माधवाश्रम ने खण्डूरी को सलाह दी थी कि 08 मार्च 2007 को प्रात: दस से बारह बजे के बीच वृष लग्न था, जो काफी समय बाद आया था।इतना ही नहीं, जब यह तिथि घोषित हुई तभी जगतगुरू शंक्राचार्य स्वामी स्वरूपानंद ने शपथ ग्रहण की तिथि के बारे में कह दिया था कि वह तिथि खण्डूरी की मित्र नहीं शत्रु है, क्योंकि उस दिन चतुर्थी थी जिसे रिक्ता तिथि कहते हैं, यह तिथि राज्याभिषेक के लिए सबसे घातक मानी गई है।जगतगुरू शंक्राचार्य स्वामी स्वरूपानंद ने कहा था कि चतुर्थी के स्वामी स्वयं भगवान गणेश होते हैं, जो विघ्न कर्ता और हर्ता दोनों ही होते हैं। रिक्ता तिथि पर आंरभ किया गया काम कभी सफल नहीं होता है। वही हुआ खण्डूरी के कार्यकाल में शत्रुओं ने सिर उठाया, अंतर्विरोध के कारण उन्हें पद का त्याग अंतत: करना ही पड़ा।

मंगलवार, 23 जून 2009

खासोआम है शीला सरकार का बजट

(लिमटी खरे)

मंहगाई बढ़ाने की सारी अटकलों पर विराम लगाते हुए शीला सरकार के वित्त मंत्री डॉ.अशोक वालिया ने इस बार दिल्ली की जनता को विशाल जनादेश का तोहफा सीधा सरल बजट देकर दिया है। तीसरी बार दिल्ली की कुर्सी पर काबिज हुई शीला दीक्षित के सामने चुनौतियों के अंबार के बावजूद इस तरह के बजट की उम्मीद नहीं की जा रही थी।बजट के पिटारे में डॉ.वालिया ने आम आदमी के लिए राहत का पैकेज ही सामने लाया है। सरकार ने किसी भी तरह का अतिरिक्त कर न लगाकर लोगों के अंदर भरोसा जताने का प्रयास किया है कि अगर वे वास्तव में विकास चाहते हैं तो कांग्रेस का दामन न छोड़ें।गौरतलब होगा कि बजट पूर्व अर्थशास्त्रियों के हवाले से मीडिया चीख चीख कर लोगों की नींद में खलल डाल रहा था कि दिल्ली सरकार का बजट इतना भयावह होगा कि आम दिल्लीवासी की रूह कांप जाएगी। वस्तुत: एसा कुछ दिखा नहीं। मीडिया की कपोल काल्पित बातें एक बार फिर उजागर हो गईं।मीडिया अटकलें लगा रहा था कि बजट में बिजली, रसोई गैस, दाल आदि पर दी जाने वाली सब्सीडी को सरकार समाप्त कर देगी, मीडिया के इन कायसों को झुठलाते हुए शीला दीक्षित सरकार ने आम आदमी की ओर एक कदम बढ़ाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है।इस मनभावन बजट में आम आदमी से जुड़ी एक विशेष व्यवस्था ``परिवहन`` पर शीला सरकार ने खासा ध्यान दिया है। आने वाले समय में सड़कों पर लो फ्लोर बस तो भूमिगत एवं उपरी मार्ग पर दिल्ली मेट्रो की सेवा में तेजी से विस्तार हो सकेगा। वैसे भी अगले साल होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों के मद्देेनजर इनका विस्तार आवश्यक हो गया था।शीला सरकार ने आम आदमी से जुड़ी जलआपूर्ति और जल मल निकासी तथा शहरी विकास पर को दूसरी प्राथमिकता पर रखते हुए इसके लिए बजट का कुल 13.66 प्रतिशत हिस्सा आवंटित किया है। उम्मीद की जाएगी कि दिल्ली में इन व्यवस्थाओं को पटरी पर लाया जा सकेगा।2010 में होने वाले कामन वेल्थ गेम्स केंद्र और दिल्ली सरकार की प्रथमिकता में सबसे उपर हैं। यही कारण है कि दिल्ली सरकार ने इनके लिए 245 करोड़ से अधिक का प्रावधान किया है। यह राशि आगे बढ़ाई भी जा सकती है। वैसे भी दिल्ली में इन गेम्स को संपन्न कराना शीला सरकार के लिए एक चुनौति से कम नहीं है।इस बार शीला सरकार ने लोगों के स्वास्थ्य के बारे में भी पहली बार सोचा है। मिलावटी शराब के प्रकरणों में आजीवन कारावास तो सार्वजनिक स्थानों को खुले मदिरालय में तब्दील करने वालों को पांच हजार रूपए के दण्ड से नवाजने का प्रावधान भी किया गया है। गौरतलब होगा कि दिल्ली में जहां तहां लोग खड़े होकर मदिरापान करते नजर आ ही जाते हैं, जिससे रहवासी विशेषकर महिलाएं प्रभावित हुए बिना नहीं हैं।इस बजट के नकारात्मक पहलू भी हैं। राष्ट्रमण्डल खेल से इतर दिल्ली वासियों की जरूरतें भी हैं, जिनका ध्यान रखना दिल्ली सरकार का फर्ज था। आम आदमी के लिए आवश्यक स्वास्थ्य, शिक्षा आदि पर शीला सरकार का ध्यान न जाना दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा।कामनवेल्थ गेम सफलता पूर्वक संपन्न कराना दिल्ली सरकार नहीं वरन दिल्ली की जनता का भी नैतिक दायित्व है, किन्तु अपना पेट काट, बच्चों के मुंह से निवाला छीनकर इसे संपन्न कराना कहां तक उचित माना जाएगा। दिल्ली की आबादी में पिछले कुछ सालों में हुए विस्फोट के उपरंात यहां स्कूली और उच्च शिक्षा के लिए नए संस्थानों की दरकार एक असेZ से है।इतना ही नहीं दिल्ली सरकार के बजट में बाल श्रमिक, श्रम कल्याण, अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी, जेल, कला, पर्यटन, संस्कृति, कला, उद्योग आदि के क्षेत्रों की उपेक्षा अचरज की बात है। दिल्ली सरकार का पूरा ध्यान कामन वेल्थ गेम ही हैं, किन्तु शीला जी आपकी रियाया की इससे इतर जरूरतों को आप नहीं पूरा करेंगी तो अगली मर्तबा यही जनता जनार्दन आपको सत्ता के गलियारे से उठाकर बाहर फेंकने में गुरेज नहीं करेगी।

सोमवार, 22 जून 2009

जमीनी लोगों की तरफ कांग्रेस के बढ़ते कदम

(लिमटी खरे)

देश में गणतंत्र की स्थापना के छ: दशक हो चुके हैं। आधी सदी से ज्यादा इस देश पर कांग्रेस ने ही राज किया है। बाबजूद इसके आज भी सामंतशाही व्यवस्थाएं बदस्तूर जारी हैं। कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी ने कांग्रेस में सामंती उपाधियों का चलन बंद करने का सराहनीय फरमान जारी कर दिया है। लगता है आने वाले समय को देखते हुए जमीनी लोगों की तरफ कांग्रेस का यह बढ़ने वाला पहला कदम है।कांग्रेस अध्यक्ष ने पार्टी की पे्रस विज्ञप्तियों, बैठकों की कार्यवाही के विवरण, दस्तावेज आदि में नेताओं के नाम के पूर्व उनके राजा, महाराजा, कुंवर, नवाब, बेगम, श्रीमंत, रानी जैसे संबोधनों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी है। वस्तुत: इस तरह की उपाधियां सामंती जमाने की यादें ताजा करने के लिए पर्याप्त कही जा सकती हैं। वैसे भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इनका चलन ओचित्यहीन ही कहा जाएगा।आजाद भारत में जब एक के बाद एक रियासतों को भारत गणराज्य के अधीन राज्यों का हिस्सा बनाया गया था, तब राजा महाराजाओं को ``प्रिवी पर्स`` की सुविधा राजकीय खजाने से दिए जाने की व्यवस्था दी गई थी। लगभग चार दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया था।उस वक्त संभवत: श्रीमति इंदिरा गांधी की सोच यही रही होगी कि कांग्रेस को आम आदमी अपने से जुड़ी अपने हितों को साधने वाली पार्टी माने। श्रीमति सोनिया गांधी ने भी शायद उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए यह कदम उठाकर संदेश देना चाहा है कि कांग्रेस पार्टी आज भी आम आदमी की ही पार्टी है।वैसे देखा जाए तो बोल चाल, पोस्टर बेनर आदि में राजसी संबोधनों का उपयोग आज भी जारी है। नेताओं के मना करने के बाद भी उनके अनुयायी उनके नामों के आगे इस तरह के संबोधनों का प्रयोग कर आम आदमी को कांग्रेस से दूर कर दासता की याद दिलाने पर मजबूर कर देते हैं।पूर्व में मध्य प्रदेश में शिवराज सरकार का एक फरमान कि तत्कालीन खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया के नाम के आगे ``श्रीमंत`` लगाया जाए काफी चर्चित हुआ था, इतना ही नहीं राजस्थान में वसुंधरा राजे के कार्यकाल में राजसी उपाधियों का चलन बहुत तेजी से हो रहा था।लगता है कांग्रेस आलाकमान ने राजस्थान की गहलोत सरकार द्वारा रजवाड़ी शब्दावली के लिए जारी निषेधाज्ञा के बाद यह कदम उठाया होगा। वैसे कांग्रेस में राजसी संबोधनों का इतिहास रहा है। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजा दििग्वजय सिंह, कुंवर अजुZन सिंह, केद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, कर्ण सिंह, प्रतापगढ़ की सांसद रत्ना सिंह आदि अनेक उदहारण हैं, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पूर्व राजधराने की रही है।उधर जैसी कि आशंका थी सोनिया के इस कदम का विरोध भी उसी शिद्दत से आरंभ हो गया है। स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी की केबनेट के नगीने और गोवा के राज्यपाल रहे पूर्व महाराजा भानु प्रकाश सिंह ने सोनिया के इस कदम की मुखालफत की है। बकौल सिंह सोनिया का यह कदम राजनैतिक वंशवाद से ध्यान हटाने का तुच्छ कदम है। इतना ही नहीं छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी एवं सतारा से राकपां सांसद ने भी सोनिया के इस कदम का विरोध किया है।वैसे यह अकाट्य सत्य है कि किसी अन्य पार्टी की तुलना में वंश को तरजीह देने की परंपरा, चाटुकारिता की संस्कृति और नेहरू गांधी परिवार को सर्वोच्च मानने का मानस कांग्रेस में अधिक है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपना उल्लू सीधा करने की गरज से कांग्रेसी नेताओं में चापलूसी और जी हजूरी कूट कूट कर भरी हुई है।कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी हों या कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी या फिर अन्य नेता, इन सभी के जन्मदिन के इश्तेहार पोस्टरों में बैगर सामंती संबोधनों के सामंती परंपरा का बखूबी निर्वहन किया जाता है। टिकिट बंटवारे में भी इसकी झलक कहीं न कहीं दिखाई दे ही जाती है।कांग्रेस में अब तक के इतिहास पर नजर डाली जाए तो सामंतशाहों को टिकिट देकर पार्टी ने उनके इलाकों में उनकी पुरानी वफादारी को भुनाने के सारे मार्ग प्रशस्त किए हैं। यही कारण है कि लंबे समय तक पार्टी के लिए समर्पित पार्टी का झंडा उठाकर चलने वाले लोगों को छांछ भी नसीब नहीं होता, जबकि ये सामंतशाही घरानों के वारिस दूध की मलाई ही मलाई चट कर जाते हैं।आजाद हिन्दुस्तान के राजनैतिक परिदृश्य पर अगर नजर डाली जाए तो हम पाएंगे कि भले ही देश के राजनेता या जनप्रतिनिधि राजा या महाराजा न कहलाते हों, पर उनका रहन सहन राजसी ठाठबाट से कम नहीं है। आज भी अनेक सूबों के निजाम अपने अपने यहां ``जनता दरबार`` लगाते हैं। दरबार तो पराधीनता के समय अंग्रेज या मुगल लगाया करते थे। आज भारत आजाद हुए साठ साल से ज्यादा समय बीत चुका है। इन राजनेताओं की सुरक्षा पर भी जरूरत से ज्यादा ही खर्च होता है।बहरहाल कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी ने सामंती उपाधियों को पार्टी से समाप्त करने का निर्णय तो ले लिया है किन्तु अगर वाकई वे कांग्रेस को आम आदमी की पार्टी बनाना चाह रहीं हैं तो पार्टी में मलाईदार पदों पर मनोनयन के बजाए उन्हें सीधा चुनाव कराना होगा। वर्तमान में सूबों के पार्टी प्रमुखों को कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ से सीधा थोपा जाता है, जो अनुचित है।


कांग्रेस में सूबों के कायकल्प पर विचार

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। देश की सबसे ताकतवर महिला और कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी ने अब राज्यों में कांग्रेस के संगठन को और अधिक ताकतवर बनाने की दिशा में कदम उठाने आरंभ कर दिए हैं। माना जा रहा है कि जल्द ही आधा दर्जन से अधिक सूबों में कांग्रेस के मुखिया बदले जाएंगे।कांग्रेस के शक्ति के केंद्र 10 जनपथ के सूत्रों का दावा है कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता से आलाकमान बहुत ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आ रहा है। यही कारण है कि लोकसभा चुनाव परिणामों की राज्यवार समीक्षा के बाद आलाकमान ने अब सूबों की हालत पर जोर देने का मन बनाया है। इसके लिए कोर कमेटी ने अपना होमवर्क को अंतिम रूप भी दे दिया है।सूत्रों के अनुसार पर्दे के पीछे के सबसे शक्तिशाली कांग्रेसी अहमद पटेल ने आलाकमान को मशविरा दिया है कि जल्द ही जमीनी स्तर पर कांग्रेस की हालत सुधारी जाए। यही कारण है कि आलाकमान ने महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और बिहार में कांग्रेस के निजामों के पद पर नई तैनाती करने का मन बना लिया है।वैसे कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को कहा गया है कि वे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पर विशेष ध्यान दें। मध्य प्रदेश जहां से कि कांग्रेस के दिग्गज कुंवर अजुZन िंसंह, राजा दििग्वजय सिंह, कमल नाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुभाष यादव, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया आदि आधार स्तंभ माने जाते हैं, वहां विधान और लोकसभा में पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक क्यों रहा है।इसके साथ ही साथ छत्तीगढ़ में जहां कि मोतीलाल वोरा, अजीत जोगी, विद्याचरण शुक्ल जैसी नामी गिरामी हस्तियां हों वहां कांग्रेस पिछले दस सालों से आैंधें मुंह क्यों गिर रही है। जोगी विरोधियों ने अब कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल के इस मामले में कान भरने आरंभ कर दिए हैं कि आखिर क्या वजह है कि अजीत जोगी अपनी पित्न को भी चुनाव नहीं जितवा सके हैं।गौरतलब होगा कि राजस्थान के सी.पी.जोशी और कर्नाटक के एम.ए.खरगे के मंत्री बन जाने के बाद ये पद रिक्त जैसे ही माने जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में प्रणव मुखर्जी के पास पहले भी मंत्री पद रहा है किन्तु अहमद पटेल चाहते हैं कि मुखर्जी किसी एक दायित्व का निर्वहन करें। केंद्र सरकार में महाराष्ट्र को बेहतर प्रतिनिधित्व देने के बाद अब चुनावों को देखते हुए संगठन में भी कसावट लाने की कवायद की जाएगी। पश्चिम बंगाल कांग्रेस की नजर में इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां चुनाव होने वाले हैं, और ममता बनर्जी सरकार में सहयोगी भी हैं, सो तालमेल बनाकर चलने वाले को इस सूबे में तरजीह दी जा सकती है।रही बात बिहार की सो नितीश कुमार की चमक कम न कर पाने वाले अनिल शर्मा से जवाब तलब किया गया है। गुजरात में हिन्दुत्व के पुरोधा माने जाने वाले नरेंद्र मोदी की चमक को कम न कर पाने वाले प्रदेशाध्यक्ष सिद्धार्थ पटेल के स्थान पर तेज तर्रार नेता की तलाश जारी है।इसके साथ ही साथ उड़ीसा में केपी सिंहदेव जिन्हें चुनाव के ठीक पहले बागडोर थमाई थी के इस बार बचने की संभावनाएं कुछ बलवती दिख रहीं हैं, वैसे तो उड़ीसा में पार्टी ने वांछित प्रदर्शन नहींं किया है, किन्तु अहमद पटेल से उनके संबध कहीं न कहीं काम आ सकते हैं। यही आलम झारखण्ड का है, वहां भी प्रदीप बालमुचू की गद्दी डांवाडोल ही लग रही है।


निर्मल ग्राम में पिछड़ा मध्य प्रदेश!

0 ग्रामीण विकास मंत्रालय ने निर्मल ग्राम पुरस्कार राशि छ: राज्यों को दी

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की महात्वाकांक्षी योजना निर्मल ग्राम में मध्य प्रदेश बुरी तरह पिछड़ गया है। वर्ष 2008 के लिए जारी राशि में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का दूर दूर तक नामोनिशान नजर नहीं आ रहा है। इस योजना में दक्षिण भारत के राज्यों ने बाजी मार ली है।ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 3219.5 लाख रुपए वर्ष 2008 के दौरान छह राज्यों केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और महाराष्ट्र के निर्मल ग्राम पुरस्कार (एनजीपी) विजेता पंचायतों को नकद भुगतान करने हेतु जारी किया है।केरल को सबसे सफल पंचायती राज संस्थान राज्य के लिए एनजीपी पुरस्कार की बाकी बची नकद राशि का 5.00 लाख रुपया मंजूर कर दिया गया है। इस राशि को मिलाकर केरल राज्य को 2008 में एनजीपी पुरस्कारों के तहत 2992.00 लाख रुपए जारी कर दिए गए हैं।तमिलनाडु राज्य को सफल पंचायती राज संस्थान राज्यों में निर्मल ग्राम पुरस्कार (एनजीपी) के तहत नकद पुरस्कार के रूप में बाकी बची 2757.00 लाख रुपए की अंतिम एवं पूर्ण राशि जारी कर दी गई। आंध्र प्रदेश को एनजीपी पुरस्कार की बाकी बची 29 लाख रु0 की नकद राशि मंजूर कर दी गई है। इस राशि को मिलाकर आंध्र प्रदेश को एनजीपी पुरस्कारों के तहत 878.00 लाख रुपए जारी कर दिए गए हैं।बिहार को बाकी बची 4 लाख रुपए की एनजीपी पुरस्कार राशि जारी की गई है। इसके साथ ही 658 लाख रुपए की पूर्ण एवं अंतिम राशि जारी हो गई है। कर्नाटक को बाकी बची 188.00 लाख रुपए की एनजीपी पुरस्कार राशि जारी कर दी गई है। इसके साथ ही 1401.00 लाख रुपए की पूर्ण एवं अंतिम राशि एनजीपी पुरस्कारों के तहत कर्नाटक राज्य को जारी कर दी गई है।इसी प्रकार, महाराष्ट्र को 236 लाख रुपए की शेष राशि जारी कर दी गई है। इसके साथ ही 4959.50 लाख रुपए की पूर्ण एवं अंतिम राशि जारी कर दी गई है।इन छह राज्यों में बिहार के सफल पंचायती राज संस्थानों को 20 अक्तूबर, 2008 को गुवाहाटी में आयोजित एक समारोह में पुरस्—त किया गया, जबकि बाकी बचे पांच राज्यों -- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु को 8 दिसम्बर, 2008 को पुणे में आयोजित एक समारोह में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीÇसह पाटिल द्वारा पुरस्—त किया गया।सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत निर्मल ग्राम पुरस्कार और स्वच्छ गांव अवार्ड 2005 में शुरू किए गए थे। अपने परिचालन क्षेत्र में पूर्ण स्वच्छता हासिल करने वाली पंचायती राज संस्थाओं को सम्मानित और प्रोत्साहित करने के लिए ये पुरस्कार दिए जाते हैं। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान को जन आन्दोलन बनाने के लिए खुले में शौच करने से मुक्त होने तथा स्वच्छ गांव बनने वाले गांवों को स्वच्छ गांव अवार्ड दिया जाता है। इस वर्ष 12,075 ग्राम पंचायतों को निर्मल ग्राम पंचायत पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीÇसह पाटिल ने हरियाणा (हिसार), असम (गुवाहाटी) और महाराष्ट्र (पुणे) में ये पुरस्कार प्रदान किए। विज्ञान भवन में 21 नवम्बर, 2008 को हुए समारोह में 105 ब्लॉक पंचायतों और 8 जिला पंचायतों को भी निर्मल ग्राम पुरस्कार से सम्मानिल किया गया। निर्मल ग्राम पुरस्कार जीतने वाले इन गांवों ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के ध्वजवाही स्वच्छता कार्यक्रम सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत हुई प्रगति को प्रदर्शित किया।

रविवार, 21 जून 2009

ये है दिल्ली मेरी जान

(लिमटी खरे)

दस जनपथ में मध्य प्रदेश की भागीदारी समाप्त!

कांग्रेस के सत्ता के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ में अब मध्य प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं का दबदबा लगभग पूरी तरह ही समाप्त हो गया है। कल तक इस बंग्ले की नाक के बाल माने जाने वाले कुंवर अजुZन सिंह और सुरेश पचौरी भी अब हाशिए पर ही आ गए हैं। अपनी कारगुजारियों और पे्रशर टेिक्टस के चलते कुंवर अजुZन सिंह को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है तो दूसरी और मध्य प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा में अपेक्षाकृत कम प्रभावी प्रदर्शन ने पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी के प्रवेश के मार्ग में शूल बो दिए हैं। रही बात अन्य क्षत्रपों की तो दििग्वजय सिंह राहुल गांधी के अघोषित गुरू का काम संभाले हैं, तो अहमद पटेल की हट के चलते कमल नाथ भी सोनिया गांधी के करीब नहीं जा पा रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया से कुछ उम्मीद की जा रही थी, किन्तु उन्हें युवा होने के नाते राहुल गांधी के कोटे में ही रखा गया है। इस तरह आज के परिदृश्य में सोनिया गांधी की कोटरी में मध्य प्रदेश की भागीदारी नहीं बचती दिख रही है।

मंत्री जी जुआ जीते, केसीनों ने उन्हें बनाया

कितने आश्चर्य की बात है कि भारत गणराज्य के एक मंत्री ने जुंआ खेला और जीता भी। जी हां गोवा के पर्यटन मंत्री फ्रांसिस्को पचेको ने गोवा में एक जुंआघर में जाकर जमकर जुंआ खेला। रात भर चला दांव पेंच का सिलसिला थमा तो मंत्री जी लगभग एक करोड़ 53 लाख रूपए का दांव जीत चुके थे। अब बारी थी माल चुकाने की। केसीनो ने मंत्री जी से कुछ समय की मोहलत मांगी और जैसे तैसे कर 28 लाख चुका दिए। शेष रकम के लिए उसने अंगूठा दिखा दिया। मंत्री जी भी कम नहीं थे। उन्होंने केसीनो मालिक के खिलाफ रपट ही लिखवा दी। तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज पर केसीनो मालिक ने मंत्री जी और उसके साथी पर धमकी देने का आरोप लगा दिया। मंत्री जी के मित्र गिरफ्तार हो गए। इसमें आश्चर्य यह कि क्या पर्यटन मंत्री को केसीनो वालों ने नहीं पहचाना! और अगर मंत्री के साथ धोखाधड़ी तो बाहर से आने वाले पर्यटकों का क्या हाल होता होगा?

गोरी भाउ की कार्यप्रणाली चर्चाओं में

मध्य प्रदेश के सहकारिता मंत्री गौरी शंकर बिसेन की कार्यप्रणाली इन दिनों राजधानी दिल्ली में चर्चा का विषय बनी हुई है। कभी वे आचार संहिता के दौरान घड़ी बांटकर चर्चा में आते हैं, तो कभी होली मिलन समारोह में बिना अनुमति डीजे बजाने या नोट लहराने को लेकर। कुछ दिनों पहले उन्होंने किसानों का ऋण माफ नहीं कर सकने जैसा बयान दे डाला। इस बार मामला कुछ अलग ही है। राजधानी भोपाल में सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान के साथ हुई सहकारी बैंकों के अध्यक्षों की एक बैठक के उपरांत सतना जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष और गौरी भाउ आपस में उलझ गए। दोनों और से अश्लील शब्दावली के तीर चलने लगे। बताते हैं कि चोर, बेईमान, लफंगे, पोंगापण्डित जैसे शब्दों के बाणों का भी जबर्दस्त इस्तेमाल हुआ। 11 अशोक रोड़ स्थित भाजपा के राष्ट्रीय कार्यालय में इस पंगे के चर्चाएं लोग नमक मिर्च लगाकर कर रहे हैं।

एनआईए में मध्य प्रदेश काडर के आईपीएस

नेशनल इंवेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) में मध्य प्रदेश काडर के भारतीय पुलिस सेवा की पदस्थापना की गई है। माना जा रहा है कि दर्जन भर से ज्यादा आईपीएस इसके लिए लाबिंग कर रहे थे, किन्तु सफलता मिली पुलिस मुख्यालय में पदस्थ महानिरीक्षक कानून व्यवस्था संजीव कुमार िंसंह को। बताया जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री दििग्वजय सिंह के विशेष कृपापात्र उक्त अधिकारी को पूर्व में एनआईए में उप पुलिस महानिरीक्षक का पद दिया जा रहा था जिसके लिए उन्होने अपनी असहमति जता दी थी। बाद में आकाओं की जोड़ तोड़ के उपरांत संजीव कुमार सिंह को विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी के पद पर नियुक्ति के आदेश जारी किए गए हैं।

कमल नाथ की तर्ज पर सुषमा!

विदिशा से जबर्दस्त विजय हासिल करने के बाद अब सुषमा स्वराज इस संसदीय क्षेत्र को छोड़ना कतई नहीं चाह रहीं हैं। यही कारण है कि उन्होंने केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की ही तर्ज पर काम करना आरंभ कर दिया है। वे अब विदिशा के दौरे समय निकाल कर रहीं हैं। इतना ही नही उन्होंने अपने दिल्ली स्थित आवास में विदिशा को लेकर एक अलग सेल भी बना दिया है, ताकि उनके संसदीय क्षेत्र का कोई भी मतदाता दिल्ली आकर खाली हाथ वापस न जाए। गौरतलब होगा कि केंद्रीय मंत्री कमल नाथ के बारे में उनके संसदीय क्षेत्र में किंवदंती है कि उपर भोलेनाथ नीचे कमल नाथ। अथाZत कोई भी कमल नाथ के दरबार से खाली हाथ कभी भी वापस नहीं आता हैं। कमल नाथ संसदीय क्षेत्र के मसले में कोताही बर्दाश्त नहीं करते हैं। यह अलहदा बात है कि 1997 में सुंदर लाल पटवा ने उन्हें छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र से ही करारी शिकस्त दी थी। अब देखना यह है कि कमल नाथ के पदचिन्हों पर चलकर सुषमा स्वराज कितनी सफलता पातीं हैं।

फिजूलखर्च शिवराज सरकार!

जहां एक ओर मध्य प्रदेश सरकार आर्थिक बदहाली का रोना रो रही है, वहीं दूसरी ओर सूबे के निजाम और उनके सहयोगी हवाई यात्रा पर करोड़ों रूपए फूंक रही है। जी हां यह सच्चाई है जनाब। 2006 से इस साल फरवरी तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 770 घंटे हवा में रहकर दो करोड़ 63 लाख रूपए खर्च किए। जगदीश देवड़ा 3 घंटे, नारायण सिंह कुशवाह 16, हिम्मत कोठारी 11, रामपाल सिंह और जगन्नाथ सिंह 8 - 8, विजय शाह 06, मोती कश्यप और रंजना बघेल ने 5 - 5, तो पारस जैन और अखंड प्रताप सिंह ने 4, 4 घंटे हवा में रहकर कुल पोने तेरह करोड़ की चपत मध्य प्रदेश के खजाने को लगाई है। यह तो वही बात हुई कि जिस तरह सूखा ग्रस्त घोषित सिवनी जिले के जिला मुख्यालय में फव्वरों से पानी उगला जा रहा है, उसी तरह आर्थिक तंगी में सूबे की सरकार हवा में उड़कर गरीबों का खून पसीने का पैसा हवा में उड़ा रही है।

साडी दिल्ली दिलवालों की दिल्ली

केंद्रीय युवा मामलों के मंत्री एम.एस.गिल ने पिछले दिनों नई दिल्ली के नाम को बदलने की बात कहकर शांत पानी में कंकर मार दिया है। गिल ने गेंद को दिल्ली में तीसरी बार सत्तारूढ हुईं शीला दीक्षित की ओर उछालते हुए इस मामले में पहल करने को भी कह दिया है। उधर शीला ने मंद मंद मुस्कुराकर इस बात को ज्यादा हवा नहीं दी है। गिल ने नई दिल्ली का नाम फिर से दिल्ली करने का पुरजोर आग्रह किया है। इसके साथ ही उन्होंंने कोलकता, चेन्नई, मुंबई और बेंगलुरू का भी उदहारण दिया है। गिल ने इसे कामन वेल्थ गेम के पहले बदलने की मंशा भी जताई है। अब देखना यह है कि वाकई गिल साहेब दिल्ली का नाम परिवर्तन करना चाह रहे हैं या फिर शीला विरोधियों को एक नई तलवार पकड़ा रहे हैं।

योन शोषण की शिकार मप्र की स्कूली छात्राएं

मध्य प्रदेश में शालेय स्तर पर योन शोषण के मामले वैसे तो कम ही प्रकाश में आते हैं किन्तु मध्य प्रदेश राज्य महिला आयोग को मिली शिकायतों पर अगर गौर किया जाए तो यहां माध्यमिक स्तर पर छात्राओं के योन शोषण के मामले बहुत ही अधिक हैं। दरअसल विभागीय स्तर पर बनाई जाने वाली जांच समितियां इस तरह के मामलों को तत्काल ही किसी न किसी दबाव के चलते ठंडे बस्ते के हवाले कर देती हैं। वैसे शिकायतों की जांच और सुनवाई के बाद मामला पुलिस के हवाले कर दिया जाता है। पुलिस भी पुलिस ही ठहरी। इन परिस्थितियों में विभागीय समितियों को हाथी के बेशकीमति दांतों सेे कमतर नहीं आक रहा है महिला आयोग। दूसरा पहलू यह है कि मध्य प्रदेश में शिव का राज है, जहां महिलाओं के लिए अधिक से अधिक कल्याणकारी योजनाएं लाने की जुगत लगाई जा रही है। इसी को कहते हैं यारों दिया तले अंधेरा।

जाखड़ बने रहेंगे मध्य प्रदेश के लाट साहेब

मध्य प्रदेश में महामहिम राज्यपाल बलराम जाखड़ की कुर्सी के पाए अब शायद ही हिल सकें। पहले उन्हें महाराष्ट्र भेजे जाने का ताना बाना बुना जा रहा था। उनके स्थान पर राजस्थान के शीशराम ओला का नाम चल रहा था। कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ के भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि अब कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी ने अपने राजनैतिक सचिव अहमद पटेल की सलाह पर शीशराम ओला को राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाने का मन बना लिया है। वैसे मंत्रीमण्डल में शामिल न हो सके बालासाहेब विखे, अजुZन सिंह, हंसराज भारद्वाज, अनिल शास्त्री आदि गर्वनर बनने वालों की लाईन में खड़े दिख्.ााई दे रहे हैं। इनमें से अजुZन सिंह शायद ही कहीं जाकर लाट साहबी करने अपनी सहमति दें।

पुच्छल तारा

कभी सत्ता की गाड़ी हांकने में महारथी माने जाने वाले कुंवर अजुZन सिंह आज बेबस नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में शिरकत करने व्हील चेयर पर पहुंचे कुंवर साहेब ने पत्रकारों के किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया। बस शांत भाव से सभी को देखते रहे, मानो कह रहे हों अभी मैं शांत मुद्रा में हूं! गौरतलब होगा कि कुंवर साहेब की चुप्पी जब भी टूटती है, वह राजनैतिक हल्कों में सैलाब ही लाती है। अजुZन सिंह की चुप्पी से कांग्रेस के बड़े नेता अंदर ही अंदर बुरी तरह डरे सहमे नजर आ रहे हैं।


शनिवार, 20 जून 2009

20 june 2009

इससे बेहतर तो गुलामी ही थी. . . .

(लिमटी खरे)

पहले मुगल फिर ब्रितानी हुकूमत की दासता की जंजीरों से मुक्त हुए भारत को छ: दशक से अधिक समय बीत चुका है, किन्तु आज इक्कीसवीं सदी के भारत में देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली मेें अगर किसी महिला को अपने शिशु को सड़क पर जन्म देना पड़े तो यह केंद्र और सूबे की सरकार को शर्मसार करने वाली बात है।गत दिवस राजधानी दिल्ली के गुरू तेग बहादुर अस्पताल में इसी तरह का एक वाक्या पेश आया। गर्भवती महिला अपने परिजनों के साथ चिकित्सालय के गेट पर सुरक्षा कर्मी से अंदर जाने मिन्नत करती रही। बाद में मदमस्त चिकित्सकों ने उसके पति को कागजी खानापूर्ती के लिए भेज दिया गया।इस दौरान गर्भवती महिला सड़क पर ही पड़ी तड़पती रही। अस्पताल में अराजकता का आलम यह था कि उसके पति को स्टेचर तक नसीब नहीं हुआ। परिणामस्वरूप महिला ने सड़क पर ही नवजात को जन्म दे दिया। यह अलहदा बात है कि जैसे ही अस्पताल प्रशासन को इस बात की इत्तेला मिली आनन फानन उस महिला को अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया।जब देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली के अस्पतालों में चिकित्सकों की मुगलई चल रही है, तो फिर सुदूर ग्रामीण अंचलों में चिकित्सा सुविधा की भयावहता की कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सच ही है, आम हिन्दुस्तानी आज भी नीम हकीमों के भरोसे ही अपनी सेहत को रखे हुए है।सरकारें इस बारे में कुछ सोचें अथवा नहीं किन्तु सुखद बात यह है कि देश की पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल इस बारे में अपनी पीड़ा अनेक बार जाहिर कर चुकीं हैं। महामहिम ने अनेकों बार देश में बिगड़ेल चिकित्सा व्यवस्था पर नाराजगी भी जताई है, किन्तु देश के मोटी चमड़ी वाले राजनेताओं पर इसका कोई असर होता नहीं दिख रहा है।एसा नहीं कि महामहिम ने कोरी कागजी बातें की हों। महामहिम ने कहा था कि देश के 271 मेडिकल कालेज से प्रतिवर्ष 31 हजार चिकित्सक उपाधि ग्रहण करते हैं। उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि इसके बावजूद भारत में आज भी छह लाख डाक्टरों व 10 लाख नसो± कÊ कमी है। राष्ट्रपति ने कहा था कि वैसे तो ग्यारहवÈ पंचवषÊय योजना में डाक्टरों के अभाव वाले राज्यों में 60 मेडिकल कालेज व 225 निर्र्सग कालेज खोलने का लक्ष्य है, लेकिन केवल संख्या बढ़ा देने से ही काम नहÈ चलेगा।सरकारी आंकड़े चाहे जो कहें पर ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। मजरे, टोले, गांव या छोटे शहरों में रहने वाला आम भारतीय आज भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे पर ही है। इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं सरकारें। कितने आश्चर्य की बात है कि आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी सरकारों द्वारा चिकित्सकों को ग्रामों की ओर भेजने के मार्ग प्रशस्त नहीं किए जा सके हैं।अपने अपने मतदाताओं को लुभाने के लिए सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी), उप स्वास्थ्य केंद्र या सिटी डिस्पेंसरी तो स्वीकृत करा लेते हैं किन्तु इन अस्पतालों में कितना अमला वास्तव में कार्यरत है, इस बारे में देखने सुनने की फरसत किसी को भी नहीं है। सत्ता के मद में चूर ये जनप्रतिनिधि चुनावो की घोषणा के साथ ही एक बार फिर सक्रिय हो मतदाताओं को लुभावने वादों से पाट देते हैं।नेशनल रूलर हेल्थ मिशन के प्रतिवेदन पर अगर नज़र डाली जाए तो देश की साठ फीसदी से अधिक पीएचसी में सर्जन नहीं हैं, इतना ही नहीं पचास फीसदी जगह महिला चिकित्सक गायब हैं, तो 55 फीसदी जगह बाल रोग विशेषज्ञ। क्या ये भयावह आंकड़े सरकार की तंत्रा तोड़ने के लिए नाकाफी नहीं हैं।दिया तले अंधेरा की कहावत देश की सबसे बड़ी पंचायत में साफ हो जाती है। यूं तो सभी दल आरक्षण का झुनझुना बजाकर वोट बैंक तगड़ा करने की फिराक में रहते हैं किन्तु सांसदों के इलाज के लिए तैनात चिकित्सा कर्मियों में महज 22 फीसदी चिकित्सक ही आरक्षित वर्ग के हैं। हाल ही में सूचना के अधिकार में निकाली गई जानकारी से यह कड़वा सच सामने आया है। सांसदों के लिए तैनात 49 चिकित्सकों मेंसे नौ अनुसूचित जाति, एक एक अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं।बहरहाल प्रश्न यह उठता है कि आखिर चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे के माध्यम से जनसेवा को उतारू युवा गांव की ओर रूख क्यों नहीं करना चाहते? संभवत: विलासिता के आदी हो चुके युवाअों को गांव की धूल मिट्टी और अभाव का जीवन रास नहीं आता होगा इसी के चलते वे गांव नहीं जाना चाहते। इसके साथ ही साथ शहरों में सरकारी चिकित्सकों के आवासों पर लगने वाली मरीजों की भीड़ भी उन्हें आकषिZत करती होगी। हर जिला मुख्यालय का नामी सरकारी डॉक्टर किसी न किसी अध्यनरत चिकित्सक का `पायोनियर` भी होता होगा। उसके दवाखाने में लगी मरीजों की भीड़ उसे चिकित्सा पेशे को अपनाने को बेबस करती होगी।एक ही जगह पदस्थ रहकर अपनी निजी प्रेिक्टस (दुकान) जमाकर ये चिकित्सक अनिवार्य सेवानिवृत्ति (वीआरएस) लेकर बड़े बड़े आलीशान नर्सिंग होम की स्थापना कर मरीजों की जेबें हल्की करने से नहीं चूकते हैं। गाहे बेगाहे सांसद, विधायक, मंत्री के बीमार पड़ने पर उनकी तीमारदारी कर उनकी गुडबुक में अपना स्थान बनाकर ये तबादलों से अपने आप को बचाए रखते हैं।कहने को तो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज तक न जाने कितने नेताओं ने कहा है कि भारत का दिल गांव में बसता है। पर गांव की सुध लेने वाला आखिर है कौन? इस सबके आभाव में अप्रशिक्षित चिकित्सा कर्मी आज भारत के दिल के स्वास्थ्य के साथ सरेआम खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे हैं।महामहिम ने अपनी पीड़ा कुछ इस शब्दों में भी बयां कर सरकारोंं को चेताने का काम किया है कि उनके पिता भी जनसेवा के लिए चिकित्सक बनना चाहतीं थीं, किन्तु जलगांव में आयुZविज्ञान कालेज के न होने से उनके पिता का सपना अधूरा ही रह गया। मुद्दा मेडीकल कालेज का न होना नहीं है, मुद्दा तो यह है कि महामहिम ने आखिर देश के आखिरी आदमी के बारे में सोचकर अपनी भावनाओं से सरकारों को आवगत कराया है, मगर हमारी सरकारें भी महामहिम की मंशा पर पानी डालने से नहीं चूक रही हैं।देश की राजनैतिक राजधानी में केंद्र और राज्य सरकार की नाक के नीचे जब महिला को सड़क पर प्रसव के लिए मजबूर होना पड़ा तो शेष भारत की बात करना बेमानी ही होगी। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह बेलगाम दौड़ते चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे को अपनी स्वार्थसिद्ध बनाने वाले चिकित्सकों के घोड़ों की रकाब कसें, वरना आने वाले समय में हालात को संभालना किसी भी सरकार के बस में नहीं होगा।


घर वापसी के बाद भी उपेक्षित हैं भाजपा नेता!

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी से टूटकर फायर ब्रांड साध्वी उमाश्री भारती के नेतृत्व वाली भारतीय जनशक्ति पार्टी को मजबूत करने के बाद पुन: भाजपा में वापस आए नेताओं के मन में सत्ता और संगठन के रवैए को लेकर निराशा के भाव जन्म लेने लगे है। इन नेताओं को घरवासपी के बाद तोहफे के तौर पर अगर कुछ मिला है तो महज उपेक्षा। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी इस मुद्दे के उछलने की संभावना जताई जा रही है।गौरतलब होगा कि भाजश से नाता तोड़कर रघुनंदन शर्मा, प्रहलाद सिंह पटेल, गोरीशंकर शेजवार जैसे कद्दावर नेताओं के साथ बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं और नेताओें ने भाजपा में पुर्नवापसी की है। मान मनौव्वल और सेटिंग की राजनीति के चलते हुई घरवापसी के बाद उम्मीद की जा रही थी कि इन नेताओं को कम से कम संगठन में महती जवाबदारी दी जाएगी, किन्तु एसा हुआ नहीं।इतना ही नहीं इन नेताओं के प्रभाव वाले क्षेत्रों में भी भाजपा ने लोकसभा चुनावों में इन्हें नहीं उतारा। एक ओर भाजपा ने रघुनंदन शर्मा को राज्य सभा के रास्ते संसद में भेजा है, किन्तु यह भाजपा की मजबूरी माना जा रहा है। भरोसेमंद सूत्रों के अनुसार भाजश में निष्ठा रखने वाले भाजपाई विधायकों को पैजामे के अंदर ही रखने की गरज से रघुनंदन शर्मा को राज्य सभा का टिकिट दिया गया था, अन्यथा उमाश्री में निष्ठा रखने वाले विधायक उस दौरान सीधे सीधे कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार विवेक तन्खा के पक्ष में मतदान कर देते।मजे की बात तो यह है कि रघुनंदन शर्मा का मालवा, प्रहलाद सिंह पटेल का महाकौशल में जबर्दस्त प्रभाव है किन्तु लोकसभा चुनावों में पार्टी ने इन दोनों को कोई विशेष जवाबदारी नहीं दी, और तो और गोरीशंकर शेजवार को रायसेन में ही काम करने की सलाह तक दे डाली।पार्टी सूत्रों का कहना है कि जवाबदारी के बिना खाली बैठे तीनों नेताओं द्वारा उपेक्षा के दंश से मुक्ति के मार्ग खोजे जा रहे हैं। काडर बेस्ड पार्टी और फिर नई आमद होने के कारण ये नेता सार्वजनिक तौर पर टीका टिप्पणी करने से अपने आप को बचाए हुए हैं, किन्तु इनकी पीड़ा कहीं न कहीं किसी और रूप में सामने आ ही जाती है।

शुक्रवार, 19 जून 2009

19 june 2009

दमनकारी नीतियों का परिणाम है लालघाट का आतंक

(लिमटी खरे)

आजाद भारत के इतिहास में संभवत: यह पहला मौका होगा जबकि केंद्र या राज्य सरकार से इतर कोई संगठन किसी क्षेत्र विशेष में अपनी सल्तनत चला रहा हो। पश्चिम बंगाल सूबे में कुछ इसी तरह की तस्वीर उभरकर सामने आई है। वैसे तो नक्सलवाद प्रभावित जिलों के कुछ इलाकों में भी उनका अपना कानून चलता है, किन्तु वह अघोषित तौर पर, सरकारी नुमाईंदे भी नक्सली कानून मानने को बाध्य रहते हैं, किन्तु सब कुछ दबे छुपे ही चलता रहता है।
उड़ीसा और झारखण्ड से लगे पश्चिम बंगाल के चार जिलों पश्चिमी और पूर्वी मिदनापुर, परूलिया, बांकुड़ा में पिछले तीन दिनों मेें जो कुछ हुआ वह पश्चिम बंगाल की बुद्धदेव सरकार को शर्मसार करने के लिए काफी कहा जा सकता है। सियासी लड़ाई में भले ही एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप मढ़कर ठीकरा किसी के भी सर फोड़ने का कुित्सत प्रयास किया जाए, किन्तु यह निंदनीय है कि राज्य सरकार हालातों पर काबू पाने में पूरी तरह विफल रही है।
वैसे तो पिछले साल जब पश्चिमी मिदनापुर में मुख्यमंत्री और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के काफिले पर शालबनी में जो बारूदी सुरंग का हमला हुआ था, तभी बुद्धदेव सरकार को नक्सलवाद की भयावहता को समझ लेना चाहिए था, वस्तुत: एसा हुआ नहीं। सरकार की अनदेखी के चलते पिछले लगभग सात आठ माह से इस इलाके में पुलिस का घुसना ही मुश्किल हो गया है। सरकारी सूचना 25 गांव पर माओवादियों के कब्जे की है, किन्तु वास्तविकता में इनकी संख्या कहीं ज्यादा है।
माओवादियों की जुर्रत तो देखिए उन्होंने लालगढ़ को आजाद घोषित कर दिया है। सुरक्षा बलों को वहां पहुंचने में एड़ी चोटी एक करनी पड़ रही है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि माओवादियों ने उत्तर पूर्व से दक्षिण पूर्व के गलियारे को ``आजाद क्षेत्र`` बनाने का मंसूबा भी पाल रखा है। इस गलियारे में पड़ने वाले सूबों की सरकारों ने अगर िढलाई बरती तो आने वाले दिनों में अखण्ड भारत के एक हिस्से में माओवादी अपना साम्राज्य स्थापित कर लेंगे।
सरकारी ढील पोल के चलते माओवादियों के बुलंद होसलों की बानगी है पिछला लोकसभा चुनाव। निष्पक्ष और निभीZक चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध चुनाव आयोग भी आम चुनावों के दौरान यहां मतदान केंद्र नहीं बना सका था। यहां से बाहर मतदान केंद्र बनाकर चुनाव संपन्न कराए गए। इस साल अप्रेल और मई में हुए लोकसभा चुनाव में जब हालात इतने संगीन थे, तब केंद्र और राज्य सराकर की चुप्पी रहस्यमय ही कही जाएगी।
सियासी नफा नुकसान के गणित में कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल के मसले में सदा से ही अनिश्चय का रूख अिख्तयार किया हुआ है। पिछले पांच सालों में वामदलों की बैसाखी पर चलने वाली कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने नंदीग्राम और सिंगूर की हिंसा पर कोई सकारात्मक पहल तक नहीं की। वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस का पश्चिम बंगाल में अस्तित्व और राज्य के विधानसभा चुनाव एक बड़ी मजबूरी के तौर पर सामने आ रहे हैंं।
यह विडम्बना से कम नहीं है कि माओवादियों के आतंक वाले राज्यों में जब भी कोई वारदात होती है तो वामदल पूरी तरह खामोश रहा करते हैं, किन्तु जब अपने प्रभावक्षेत्र वाले पश्चिम बंगाल की बात आती है तो सरकार तुरंत इस पर कार्यवाही करने तैयार हो जाती है। मतलब साफ है कि माओवादियों का नृत्य कहीं न कहीं किसी न किसी सियासी पार्टी के इशारों पर ही हो रहा है।
हालात देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि सूबे में माओवादियों का उद्देश्य बुद्धदेव सरकार को हिलाना है। उनके अधिकार वाले क्षेत्र में राज्य सरकार पर उपेक्षा का आरोप लगाकर माओवादियों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, बिजली आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमान अपने हाथों में ले ली है।
लाख टके का सवाल यह है कि आखिर भोले भाले आदिवासी और ग्रामीण इन अलगाव वादी, माओवादी, नक्सलवादियों का साथ देने तैयार कैसे हो जाते हैं? जाहिर है जब सरकार उन्हें उनके मूलभूत अधिकार का संरक्षण और सुविधाओं को उपलब्ध नहीं कराएगी तो इस तरह की ताकतें इसका बेजा इस्तेमाल कर ग्रामीणों को अपने शिकंजे मेंं कसेंगी ही।
माओवादी सरेआम कह रहे हैं कि उन्हें कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का समर्थन प्राप्त है, वहीं देश के गृह मंत्री पी.चिंदम्बरम कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को इस मामले में क्लीन चिट देने से नही चूक रहे हैं। आज सवाल सिर्फ पश्चिम बंगाल का नहीं है। माओवादियों, के निशाने पर छत्तीगढ़, महाराष्ट्र, झारखण्ड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, बिहार आदि हैं। अगर इन पर अभी लगाम नहीं लगाई गई तो आने वाले समय में ये केंद्र और सूबे की सरकारों के लिए एक नासूर बनकर ही उभरेंगे।
वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में अखण्ड भारत का बुर्ज कहा जाने वाला काश्मीर का कुछ हिस्सा अलग कर दिया गया है। इंटरनेट के किसी भी सर्च इंजन में अगर भारत के मानचित्र को सर्च किया जाए तो उपरी हिस्सा पहले की तुलना में काफी छोटा दिखाई देता है। वस्तुत: भारत सरकार को इन सर्च इंजन को चलाने वाले संगठनों को नोटिस देकर पूछना चाहिए कि भारत के मानचित्र के साथ छेड़छाड़ करने का अधिकार उन्हें किसने दिया? जब भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही इसकी फिकर नहीं है तो अंदरूनी मामलात के मामले में तो उससे कोई उम्मीद करना बेमानी ही होगा।



आर पार की लड़ाई मूड में दिख रहे वोरा और महंत

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीसीसी) के बीच आने वाले दिनों में आर पार की लड़ाई के आसार दिखने लगे हैं। दरअसल एआईसीसी के कोषाध्यक्ष एवं छग के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मोती लाल वोरा और सांसद तथा पीसीसी के कार्यकारी अध्यक्ष चरण दास महंत के बीच वर्चस्व को लेकर चल रही जंंग गहरा गई है।
केंद्रीय मंत्रीमण्डल विस्तार में छग के इकलोते कांग्रेसी सांसद चरण दास महंत को न लिए जाने के पीछे राजनैतिक फिजां में तरह तरह की चर्चाओं का बाजार गर्मा गया था। इसमें अजीत जोगी के अलावा मोतीलाल वोरा द्वारा महंत के विरोध में अभियान चलाए जाने को प्रमुख वजह माना गया था।
उधर महंत के करीबी सूत्रों का कहना है कि चरण दास महंत को पूरी उम्मीद थी कि 15वीं लोकसभा में चुने जाने के उपरांत कांग्रेस सुप्रीमो उन्हें लाल बत्ती से नवाजेंगी। सूत्रों ने कहा कि इस मामले में वोरा द्वारा लगाए गए फच्चर के बाद महंत काफी सदमें में हैं। हाल में मोती लाल वोरा की रायपुर यात्रा के दौरान दोनों के बीच मेल मिलाप न होने की चर्चाएं एआईसीसी में गर्माने लगी हैं।
एआईसीसी सूत्रों का कहना है कि निजी यात्रा पर कांग्रेस कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा रायपुर गए थे, जहां वे पीसीसी भी कुछ देर के लिए गए। वोरा के आगमन की सूचना कार्यकारी अध्यक्ष महंत को दी गई किन्तु महंत ने तब तक कार्यालय की ओर रूख नहीं किया जब तक वोरा वहां रहे।
कल तक एक साथ कदमताल करने वाले चरण दास महंत और मोती लाल वोरा के बीच शीत युद्ध गहराने का सीधा सीधा लाभ प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को होने वाला है। बिना प्रयासों के ही उनके दो विरोधी महंत और वोरा एक दूसरे की जड़ें काटते नजर आ रहे हैं।

सोमवार, 15 जून 2009

DIARY 15 JUNE 2009

अंकुरित हो सकते हैं गैर संघ विचारधारा वाली भाजपा के बीज

लाल कृष्ण आड़वाणी के पीएम इन वेटिंग की टिकिट आरएसी या कनर्फम न होने से क्षुब्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खासा खफा नजर आ रहा है। पिछले दिनों संघ प्रमुख भागवत के कदमतालों से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सकते में है। भागवत की दिल्ली यात्रा के उपरांत बनते बिगड़ते समीकरणों में यह माना जा रहा था कि आने वाले समय में संघ द्वारा भाजपा को सीधे सीधे अपने नियंत्रण में ले लिया जाएगा। इसके लिए संध ने भाजपाध्यक्ष के उपर एक ``पालक`` पद सृजित कर उस पर संघ के नेता को बिठाने की तैयारियां की जा रही थीं। इस नए कदम से भाजपा के अंदरखाने में खिचड़ी उबलना आरंभ हो गई है। भाजपा में गैर संघीय विचारधारा वालों को संघ का दखल बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है। कहा जा रहा है कि जल्द ही भाजपा दो फाड़ होने वाली है, जिसमें संघ विचारधारा वाले लोग संघ के नियंत्रण वाली भाजपा में तो गैर संघीय विचारधारा वाले लोग अपना रास्ता अलग चुन लेंगे।

राजा की एक और फतह
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजा दििग्वजय सिंह ने भले ही दस सालों तक सक्रिय राजनीति से तौबा करने का कौल लिया हो पर उनके एक के बाद एक विजयी कदमों से लगने लगा है कि वे भी भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की तरह एक दो रन के बजाए सिक्सर मारने में ही ज्यादा विश्वास रखते हैं। कांग्रेस की नजर में देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी के अघोषित राजनैतिक गुरू की उपाधि पाने के उपरांत अब पीएम के सामने भी उनकी नाक उंची हो गई। मध्य प्रदेश में दिग्गी राजा के भरोसे चुनाव जीते राजगढ़ के सांसद नारायण सिंह आमलावे जो कि परंपरागत वेशभूषा में बड़ी सी पगड़ी लगाए हुए थे, को जब राजा ने वजीरे आजम से मिलवाया तो पीएम ने दििग्वजय सिंह की ओर देखकर चुटकी लेते हुए कहा -``भई वाह, आपकी पगड़ी तो मेरी पगड़ी से भी बड़ी है।

``परिवार के भरोसे जटिया!

लगता है भाजपा के कद्दावर नेता सत्यनारायण जटिया की कुंंंडली में शनि ने जमकर अड्डा जमा लिया है। आम चुनावों में बुरी तरह पराजित हुए सत्यनारायण जटिया के पास अब कार्यकर्ताओं का टोटा साफ दिखने लगा है। आजकल वे अपने परिवार के लोगों के साथ ही घूमते नजर आ रहे हैं। जटिया इस बार बारहवीं मर्तबा चुनाव मैदान में थे और यह उनका आठवां चुनाव था जिसमें वे धूल चाट गए। चुनाव हारने के उपरांत मीडिया ने काफी खोजबीन की किन्तु जटिया का कहीं पता नहीं चला। वे मोबाईल रखते नहीं सो उनसे संपर्क होने का सवाल ही नहीं उठता। पिछले दिनों जटिया अपने भाई और पुत्र के साथ ही नजर आए। उनके साथ उनके संसदीय क्षेत्र के कार्यकर्ताओं का टोटा साफ दिखाई पड़ रहा था। भाजपाई कहने से नहीं चूक रहे थे कि पराजित जटिया अब परिवारवाद को हवा देने का काम कर रहे हैं, माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में जटिया परिवार का कोई अन्य सदस्य भी भाजपाई राजनीति में पदार्पण कर सकता है।

जोगी को वाकई जोगी बनाने की तैयारी
छत्तीसगढ़ सूबे के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी को अब राजनैतिक बिसात बिछाकर बाबा बैरागी अथाZत जोगी बनाने की तैयारियां की जा रही हैं। जोगी विरोधियो ंने नपे तुले कदमो ंसे जोगी के मामले में कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के कान भरने आरंभ कर दिए हैं। कहा जा रहा है कि जल्द ही अजीत जोगी को झारखण्ड का लाट साहब (राज्यपाल) बनाकर भेजने की तैयारियां की जा रही हैं। सोनिया को तर्क दिया गया है कि जोगी के राज्यपाल बनकर जाने से झारखण्ड के आदिवासियों में कांग्रेस के प्रति अच्छा संदेश जाएगा। वैसे दूसरा गुट यह प्रयास कर रहा है कि जोगी को सक्रिय राजनति से किनारा करवा तो दिया जाए पर झारखण्ड का राज्य पाल न बनाया जाए, क्योंकि जोड़ तोड़ के महारथी जोगी अगर झारखण्ड गए तो वहां अपना व्यापक जनाधार तैयार कर लेंगे। जोगी समर्थकों का कहना है कि जोगी को राज्यपाल न बनाकर उन्हें स्टार प्रचारक के तौर पर झारखण्ड भेजा जाए।

अजुZन हंसराज के लिए नई जवाबदारी की तलाश
मनमोहन सिंह सरकार में शामिल न किए गए कद्दावर नेता अजुZन सिंह, हंसराम भारद्वाज के लिए अब नई जवाबदारी की खोज की जा रही है, दोनों ही नेताअों ने राज्यपाल बनने से साफ इंकार कर दिया है। यह काम इसलिए भी किया जा रहा है क्योंकि कांग्रेस के आला नेताओं को खतरा है कि अगर ज्यादा दिन तक विन्ध्य के ठाकुर को खाली रखा गया तो आने वाले समय में विस्फोट ही विस्फोट होने की संभावनाएं हैं। कहा भी जाता है खाली दिमाग शैतान का घर। पहले अजुZन सिंह को उत्तर प्रदेश भेजा जा रहा था, पर उनके इंकार के बाद अब यूपी के लिए राहुल गांधी के सलाहकार कनिष्क के पिता एवं राजस्थान के राज्यपाल एस.के.सिंह का नाम आगे चल रहा है। वैसे भी यूपी युवराज के टारगेट में है। शीशराम ओला को मध्य प्रदेश, बलराम जाखड़ को महाराष्ट्र एवं अनिल शास्त्री को राजस्थान का लाट साहब बनाया जा सकता है।

पंच वषीZय योजना है इंदौर दाहोद रेलमार्ग
कांग्रेस भले ही आदिवासियों की कितनी भी हिमायती अपने आप को बताती रहे किन्तु जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है। इसका जीता जागता उदहारण इंदौर दाहोद रेलखण्ड है। मक्सी, देवास, इंदौर, दाहोद गोधरा रेल मार्ग है। इस योजना को 1989 - 90 में स्वीकृति प्रदाय की गई थी। इसके बाद जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के चलते यह रेल खण्ड ठण्डे बस्ते के हवाले हो गया। रतलाम के नए सांसद और केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री कांतिलाल भूरिया ने इस रेल लाईन को आरंभ कराने हेतु हरी झंडी अवश्य ही दिखाई है, किन्तु उन्होंने इस रेल खण्ड को पंच वषीZय योजना के रूप में पांच सालों में पूरा करने की बात कहकर सभी को चौंका दिया है। वैसे भी यह योजना पिछले बीस सालों से रेल मंत्रालय में पड़ी पड़ी धूल ही खा रही है। आदिवासियों के हितों का शोषण आखिर कांग्रेस कब तक करती रहेगी, यह यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है।

सोमदा बिन वामदल सूने
कम्युनिष्ट नेता एवं पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के बिना वामदलों की सांसे उखड़ती प्रतीत हो रही हैं। सोमनाथ चटर्जी को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद औंधे मुंह गिरी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अब सोमदा की वापसी के मार्ग प्रशस्त करने वाली है। दरअसल माकपा नेतृत्व पर सोमदा को वापस लेने का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगामी 19 जून को पार्टी पोलित ब्यूरो की बैठक एवं उसके बाद 20 एवं 21 जून को होने वाली दो दिवसीय केंद्रीय कमेटी की बैठक में सोमदा को वापस लेने का मामला जोर शोर से उठ सकता है। केंद्रीय नेतृत्व इस आशंका के चलते सोमदा की वापसी के सारे मार्ग पहले ही्र प्रशस्त करने के मूड में दिखाई दे रहा है। माना जा रहा है कि माकपा के गढ़ पश्चिम बंगाल में चुनावों के चलते पार्टी की दुर्दशा के लिए सोमदा को दरकिनार करना भी एक बड़ा कारण है।

आक्सीजन पर है छग कांग्रेस
पिछले एक दशक से छत्तीगढ़ में कांग्रेस का संगठन आईसीसीयू में ही पड़ा दिख रहा है। अजीत जोगी की प्रदेश में सरकार बनने के उपरांत छत्तीसगढ़ प्रदेश में कांग्रेस का नामलेवा भी नहीं बचा है। छग में कांग्रेस के रसातल में जाने की प्रमुख वजह यहां पसरी गुटबाजी है। छग के इकलौते कांग्रेसी सांसद चरण दास महंत को केंद्र में मंत्री नहीं बनाया गया। इस पर छग कांग्रेस को प्रलाप, विलाप अवश्य करना चाहिए था, वस्तुत: एसा हुआ नहीं। छग में इस बात को लेकर जलसा हुआ। अनेक कांग्रेसियों के घर रोशन भी हुए। जब वे सांसद बने तो कई घरों में मातम भी मना था। दूसरी ओर दिल्ली में कांग्रेस के बड़े नेता छग के कांग्रेसियों को तवज्जो नहीं दे रहे हैं। जब भी कोई कांग्रेसी मिलने का प्रयास करता है तो उसकी बारी सबसे अंत में ही आती है। अगर आलम यही रहा तो नगरीय निकायों में भी लोकसभा की तरह ही सीट ढूंढना होगा।

चर्चित रहा संघ का महाकौशल सम्मेलन
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हाल ही में महाकौशल स्तरीय एक सम्मेलन का आयोजन जिला मुख्यालय सिवनी में किया। यह सम्मेलन देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली तक में चर्चा का विषय बना। हुआ यह कि संघ के इस कार्यक्रम के अंतिम दिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सिवनी शहर में रहने के बावजूद भी उन्होंने इस कार्यक्रम मे ंशिरकत नहीं की। वे आधे रास्ते से ही अपने उड़न खटोले की ओर गए और राजधानी भोपाल के लिए उड़ लिए। इसके उपरांत स्थानीय मिशन उच्चतर माध्यमिक शाला में आयोजित सम्मेलन में भी शाला के शिखर पर संघ के भगवा ध्वज को देखकर लोग यह कहने से नहीं चूके कि कहीं यह संघ का ब्रितानी विचारधारा के साथ मिलाप तो नहीं!

पुच्छल तारा
लगता है कि कभी ``भाई साहेब, भाई साहेब``, कहकर न थकने वाले नेताओं ने अब अपनी निष्ठा बदल दी है। पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के एक पूर्व केंद्रीय मंत्री के सिवनी प्रवास के दौरान भाजपा के उनके बड़े दो समर्थक जिनके पहले पूर्व लगा हुआ है की अनदेखी सियासी गलियारों में चर्चित हो रही है। हुआ यूं कि निजी यात्रा पर निकले भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री जिला मुख्यालय सिवनी में अल्प प्रवास पर रूके। उनके वहां से जाने के उपरांत उसी जगह से पूर्व विधायक डॉ.ढाल सिंह बिसेन फिर पूर्व सांसद एवं वर्तमान विधायक श्रीमति नीता पटेरिया गुजरीं, नीता पटेरिया गुजरीं। श्रीमति पटेरिया तो वहां रूकीं पर डॉ.बिसेन फर्राटे के साथ वहां से गुजर गए। भाजपाईयों में चल रही कानाफूसी के अनुसार कहीं दोनों पूर्व की निष्ठा तो नहीं बदल गई है।

शनिवार, 6 जून 2009

दिल्ली बेदिल वालों की

(लिमटी खरे)

क्या गुल खिलाएगी वादियों में भी पसरी कुंवर साहेब की खामोशी

कांग्रेस की राजनीति में अस्सी के दशक के बाद एकाएक तेजी से उभर कर आए कांग्रेसी राजनीति के चाणक्य समझे जाने वाले कुंवर अजुZन सिंह इन दिनों पर्वतों की शरण में हैं। इन दिनों उन्होंने सपरिवार कुमाउं की वादियों में अपना आशियाना बना रखा है। रामगढ़ के एक रिसोर्ट में कुंवर साहेब इन दिनों कमरे में ही कैद हैं, वे न तो किसी से मिल जुल ही रहे हैं, और न ही कहीं आ जा ही रहे हैं। लोग कह रहे हैं कि अगर एयर कंडीशनंड कमरे में ही बंद रहना था तो मनमोहन मंत्रिमण्डल से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद उनके लिए दिल्ली की कोठी क्या बुरी थी? वैसे अभी भी उनके अकबर रोड़ स्थित सरकारी आवास के सामने उनके नाम के आगे मानव संसाधन एवं विकास मंत्री की दप्ती हटाई नहीं गई है। लोग कयास लगा रहे हैं कि वहां से लौटने के बाद पता नहीं अजुZन सिंह क्या चाल चलने वाले हैं।

मीनाक्षी की मिसाल दे रहे हैं कांग्रेसी

डाउन टू अर्थ का असली मतलब जानना हो तो कोई मीनाक्षी नटराजन से पूछे। सूती सलवार कमीज, हाथ में टिफिन और मोबाईल रखे, आखों पर चश्मा लगाए आम भारतीय छवि वाली समझदार नेता हैं मीनाक्षी। इन चुनावों में उन्होंने लगातार छ: बार चुने गए लक्ष्मीनारायण पाण्डे को पटखनी दी वह भी कांग्रेसियों के भारी विरोध के बावजूद। कहते हैं कि पार्टी की ओर से मिले 75 लाख रूपयों में से उन्होंने 25 लाख रूपए लौटाकर एक मिसाल पेश की है, जिसकी चर्चा एआईसीसी में जमकर हो रही है। राजनीति को मनी और मसल पावर से मुक्त करने की आकांक्षी मीनाक्षी की इस मिसाल से अनेक नेताओं पर बन आई है। दरअसल उनके पैसे लौटाने के बाद वे उम्मीदवार जो चुनाव के बाद खर्च की अधिकता जताकर कांग्रेस से और पैसे की चाहत रख रहे थे, उनके सारे रास्ते अब बंद हो चुके हैं।

खून आखिर खून ही होता है

संजय और राजीव गांधी की पित्नयों में भले ही अनबोला हो किन्तु लोकसभा में सदस्यता ग्रहण करने के दौरान नेहरू गांधी परिवार में खून ने एक दूसरे को आखिर पुकार ही लिया। शपथ ग्रहण करने जब राहुल गांधी जा रहे थे, तब उन्होंने अपनी चाची मेनका को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। मेनका ने जरूर मन ही मन ढेर सारा आशीZवाद दिया हो या न दिया हो पर उन्होंने मुस्कुरा कर उनका अभिवादन स्वीकार अवश्य किया। इतना ही नहीं शपथ ग्रहण के दौरान उन्होंने मेज थपथपाकर राहुल का उत्साह भी बढ़ाया। वहीं वरूण गांधी ने अपनी ताई सोनिया गांधी को प्रणाम किया तो उन्होंने भी मुस्कुराकर अपने भतीजे का मान रखा। वरूण के शपथ ग्रहण के दौरान उनकी चचेरी बहन प्रियंका और बहनोई राबर्ट वढ़ेरा भी मुस्कुराकर वरूण का उत्साह ही बढ़ाते नजर आए। यह अलहदा बात रही कि देवरानी मेनका और जेठानी सोनिया ने एक दूसरे से नजरें मिलाना मुनासिब नहीं समझा।

आईएफएस का बोलबाला है सदन में

देश के उच्च और निचले सदन में भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) का बोलबाला साफ दिखाई दे रहा है। इस बार गजब का इत्तेफाक सामने आया है। महामहिम राष्ट्रपति की कुर्सी पर पहली बार महिला, उपराष्ट्रपति अल्पसंख्यक मुसलमान, लोकसभाध्यक्ष महिला तो उपनेता भी महिला। इसके साथ ही एक और इत्तेफाक है इस पंद्रहवीं लोकसभा में। और वह है राज्य सभा और लोकसभा दोनों ही के नेता भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी हैं। एक ओर जहां महामहिम उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी पूर्व में भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी के तौर पर अनेक देशों में भारत के राजदूत रहे हैं, वहीं लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार 1973 बेच की आईएफएस हैं, तथा वे स्पेन, ब्रिटेन, मारीशस जैसे अनेक देशों में भारतीय उच्चायोग और दूतावासों में काम कर चुकी हैं।

देखना है मिनी कमल नाथ क्या करते हैं

15वीं लोकसभा के गठन के उपरांत प्रधानमंत्री डॉ.एम.एम.सिंह ने मंत्रियों को शपथ दिलाई और विभागों का बंटवारा किया। इसमें सिर्फ एक वाणिज्य और उद्योग विभाग ही एसा है, जो मध्य प्रदेश के खाते में बरकरार रहा है। इस विभाग की महती जवाबदारी पीएम ने ग्वालियर के युवा तुर्क ज्योतिरादित्य सिंधिया को दे दी है। मध्य प्रदेश से आए नेता इस जवाबदारी को मध्य प्रदेश के खाते में आने से खुश तो हैं, साथ ही उन्होंने महराज का नया नामकरण कर दिया है। चूंकि विभाग कमल नाथ के पास था अत: अब महराज को मिनी कमल नाथ की संज्ञा दी जा रही है। लोग यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमल नाथ से इतर कुछ नया कर दिखाया तब तो ठीक वरना वे कमल नाथ की छवि से इस विभाग से मुक्त नहीं हो सकेंगे।

गुड्डू की नजर अब आर्थिक राजधानी पर!

उज्जैन में सत्यनारायण जटिया को धूल चटाने वाले कांग्रेसी सांसद प्रेमचंद गुड्डू की नजरें अब मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी माने जाने वाले इंदौर शहर पर है। वे चाहते हैं कि इंदौर से उज्जैन का फासला कम हो जाए। सांसद बनते ही उन्होंने इंदौर उज्जैन रेलखण्ड का दोहरीकरण और विद्युतिकरण का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है। इतना ही नहीं अपने कार्यक्षेत्र में विस्तार की गरज से उन्होंने यह तक कह डाला कि इंदौर में नए रेल्वे स्टेशन की दरकार है, जो महू और एमआर (मेजर रोड़) 10 के पास बन सकता है। उज्जैन के विकास के बारे में तो उनकी सोच जायज कही जा सकती है, किन्तु प्रदेश की कमर्शियल केपिटल इंदौर की ओर उनकी नजरें इनायत होने के अनेक अर्थ लगाए जा रहे हैं। सनद रहे देवास से सांसद बने सज्जन सिंह वर्मा की कर्म स्थली भी इंदौर ही रही है।

उल्टे बांस बरेली के

विदिशा में भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज को खाली मेदान देने वाले मध्य प्रदेश के पूर्व मंत्री राजकुमार पटेल के साथ उल्टे बांस बरेली के की कहावत चरितार्थ होती दिख रही है। पटेल शायद यह नहीं जानते थे कि कांग्रेस महासचिव एवं मध्य प्रदेश प्रभारी बी.के.हरिप्रसाद को मोबाईल से एसएमएस करना कितना मंहगा पड़ेगा! पार्टी सूत्र बताते हैं कि पार्टी पर्यावेक्षक हरकेश बहादुर और सईद अहमद ने जब विदिशा कांड की पूरी रिपोर्ट आलाकमान को सौंपी तब पटेल के खिलाफ एसएमएस का भी गजब रोल रहा। सूत्र बताते हैं कि पटेल ने हरिप्रसाद को एसएमएस किए थे, जिनका मजमून था कि वे विदिशा के बजाए होशंगाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं। इन संदेशों को आलाकमान ने पार्टी की प्रतिबद्धता के खिलाफ माना है, कि पटेल मैदान छोड़ने का मन पहले ही बना चुके थे।ा गा

तुलनात्मक चार्ट बना चर्चा का केंद्र

विधानसभा और लोकसभा चुनावों में तुलनात्मक चार्ट इन दिनों अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। बात हो रही है मध्य प्रदेश की। मध्य प्रदेश के एक कांग्रेसी नेता ने एआईसीसी सुप्रीमो को एक तुलनात्मक चार्ट ईमेल और फेक्स के माध्यम से भेजा है, जिसमें जमीनी हकीकत को बयान किया गया है। मध्य प्रदेश की विलोपित हुई सिवनी लोकसभा सीट के मण्डला लोकसभा क्षेत्र में आने वाले विधानसभा के बारें उक्त चार्ट में कुछ रोचक तथ्य दिए गए हैं। चार्ट में 2003 विधानसभा में कांग्रेस को 16416 मत तो 2004 के लोकसभा में 16340 मत भाजपा को उसी विधानसभा से मिलना बताया गया है। इतना ही नहीं इस बार 2008 में उसी विधानसभा से कांग्रेस को 20680 मत मिलना तो 2009 में लोकसभा में भाजपा को 6989 मत मिलने की बात कही गई है। कांग्रेसी कहते हैं कि आंकड़ों में दम भी है। अब लोग कयास लगा रहे हैं कि इस तरह की जादूगरी आखिर कौन दिखा सकता है!

एक प्रमाणपत्र भूला , दूसरे ने पैर पड़े!

लाल बत्ती का जलवा कुछ इस तरह होता है कि आदमी अपनी सुध बुध खो बैठता है। हाल ही में जब मध्य प्रदेश के रतलाम से चुने गए सांसद कांतिलाल भूरिया बतौर सांसद शपथ लेने पहुंचे तो उन्हें याद आया कि उनकी जीत का प्रमाणपत्र तो वे अपनी गाड़ी में ही भूल आए हैं। दरअसल बिना प्रमाणपत्र शपथ लेना मुश्किल होता है। बाद में उन्होंने अपने सहायक को फोन कर तत्काल वाहन से प्रमाणपत्र बुलवाया। इसी तरह उज्जैन के सांसद प्रेमचंद गुड्डू ने तो सारी हदें ताक पर रखकर शपथ लेने के पूर्व कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के पैर छूकर आशीZवाद चाहा। हक्की बक्की सोनिया बोल पड़ीं, ``अरे, सब देख रहे हैं!`` बाद में जब वे वापल लौट रहे थे, तब इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन ने मेज थपथपाकर जोरदार लहजे में कहा, ``गुड्डू, बधाई हो बधाई।``

पुच्छल तारा

भाजपाईयों को पैजामे के अंदर रखने में मास्टर माने जाने वाले कमल नाथ ने सूबे के निजाम शिवराज सिंह को भी शीशे में उतारने की कवायद आरंभ कर दी है। मुख्यमंत्री द्वारा मध्य प्रदेश भवन में आयोजित सांसद भोज में पधारे मंत्रियों में ज्योतिरादित्य सिंधिया की कमी अवश्य खली किन्तु इसमें कमल नाथ का जलजला अलग ही दिखा। घूम घूम कर सांसदों की मिजाज पुरसी करने वाले कमल नाथ ने सभी के सामने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पानी पानी कर दिया। बार बार केंद्र की उपेक्षा का आरोप लगाने वाले शिवराज की ओर मुखातिब कमल नाथ ने कहा, ``मुख्यमंत्री जी, अब मैं मध्य प्रदेश की सड़कों के उन्नयन का काम इतनी तेजी से करूंगा कि आप पर आरोप लगने लगेंगे कि आप अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा पैसा खींचकर ले गए हैं।`` साथ ही कमल नाथ ने मध्य प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी इशारा करते हुए कहा कि यह तभी संभव हो सकेगा जब आप और आपका मंत्रीमण्डल पवित्र भावना से काम करेगा।

6 june 2009

कैसे लगे सांसदों के असंसदीय व्यवहार पर लगाम?


(लिमटी खरे)


देश की दिशा और दशा तय करने वाली देश की सबसे बड़ी पंचायत में संसद सदस्यों का आचरण अब तमाम वर्जनाओं को धूल धूसारित करता जा रहा है। सांसद नैतिकता खोने की पराकाष्ठा तक पहुंच चुके हैं। जब से लोकसभा ने अपना टीवी चेनल आरंभ किया है तब से समूचा देश संसद में होने वाले नंगे नाच को आसानी से देख पा रहा है, पर देशवासी बेबस हैं।भारत गणराज्य के गठन के दौरान सांसदों के आचरण के लिए भी नियम कायदे निर्धारित किए गए थे। लोकसभा सचिवालय ने बाकायदा पुस्तिका जारी कर संसदीय नियम कायदों का ब्योरा इसमें दिया था। पहली बार चुने गए सांसद के लिए इनकी जानकारी महत्वपूर्ण है, किन्तु अनेक बार चुने गए सांसद ही जब इसका माखौल उड़ाएंगे तो नवागत सांसद क्या सीख लेंगे।इस पुस्तिका में साफ उल्लेखित है कि सदस्यों को किसी सदस्य के बोलने के दौरान व्यवधान उत्पन्न नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं सदन में नारेबाजी, धरना, विरोध या कागजों को फाड़ने जैसे कदमों को नियम विरूद्ध बताया गया है। इस पुस्तिका में सदन की गरिमा को ध्यान में रखते हुए सदन में प्रवेश से लेकर उठने बैठने और बाहर जाने तक के तौर तरीकों को रेखांकित किया गया है।सदन में अध्यक्ष का दर्जा सबसे उपर है यह अकाट् सत्य है। यही कारण है कि न्यायालयों की भांति ही सदन में प्रवेश और निर्गम के समय अध्यक्ष के आसन को सर नवाने की ताकीद दी गई है। अध्यक्ष के संबोधन के दौरान सदन से बाहर नहीं जाना चाहिए साथ ही साथ अगर अध्यक्ष आसन ग्रहण कर रहे हों तो प्रवेश करने वाले सदस्य उनके आसन ग्रहण करने के उपरांत ही सदन में प्रवेश करें यह व्यवस्था भी रखी गई है।पुस्तिका में यह व्यवस्था भी दी गई है कि जब अध्यक्ष अपनी बात कहने के लिए खड़े हों तो सदस्यों को तत्काल अपने स्थान पर बैठ जाना चाहिए। विडम्बना ही कही जाएगी कि शार्ट टेंपर्ड सांसद उत्तेजना में आपा खो देते हैं, तो उनसे संसदीय आचरा के पालन की उम्मीद की जाना बेमानी ही होगा। संसदीय आचरण की इस हेण्ड बुक में तो यहां तक कहा गया है कि रोजगार या व्यवसायिक संपर्क वाले लोगों के लिए सिफारिशी पत्र लिखना भी नियम विरूद्ध ही है।पिछले दो दशकों में संसद की गरिमा तार तार हुए बिना नहीं रही है। जनादेश प्राप्त जनप्रतिनिधि संसद में जिस तरह का अशोभनीय व्यवहार करते आए हैं, उसकी महज निंदा से काम नहीं चलने वाला। आखिर वे देश के नीति निर्धारक हैं। देशवासियों के लिए वे अगुआ (पायोनियर) से कम नहीं हैं।चौदहवीं लोकसभा ने देशवासियों का सर शर्म से झुकाया है, इस बात में कोई संदेह नहीं है। पिछली मर्तबा लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को कई बार कोफ्त का सामना करते देखा गया। सांसदों के व्यवहार से क्षुब्ध होकर सोमदा की टिप्पणी कि इन सांसदों न तो जनता का एक पैसा दिया जाना चाहिए और न ही इन्हें दुबारा चुनकर आना चाहिए, वास्तव में जनता के दर्द को पूरी तरह रेखांकित करने के लिए काफी कही जा सकती है। सोमदा की निष्पक्षता की कीमत उन्हें पार्टी की सदस्यता खोकर चुकानी पड़ी जो वाकई एक नज़ीर कही जा सकती है।सदन में पैसे के बदले सवाल पूछने पर हुआ स्टिंग आपरेशन हो या सदन में नोट लहराने का मामला, हर मसले में संसदीय परंपरा तार तार हुए बिना नहीं रही है। कबूतर बाजी में फंसे संसद बाबू भाई कटारा ने तो सारी हदों को पार कर दिया। पिछली लोकसभा में सदन की न्यूनतम 332 बैठकों में कार्यवाही 423 घंटे बाधित रही यह अपने आप में एक रिकार्ड ही कहा जा सकता है। पूरे घटनाक्रमों को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि संसद की गरिमा और मर्यादा काफी हद तक कम हुई है, इसके अलावा सांसदों में गंभीरता का साफ आभाव भी देखा गया। इन सारी बातों से साफ हो जाता है कि संसद अपनी महत्ता पूरी तरह खोती जा रही है, इन प्रतिकूल परिस्थितियों में लोकतंत्र के अक्षुण्ण रहने की उम्मीद करना बेमानी ही होगा।अब लोकसभाध्यक्ष के आसन पर भारतीय विदेश सेवा की पूर्व अधिकारी सुशिक्षित, सुसंस्कृत और मृदुभाषी मीरा कुमार आसीन हैं। उन्होंने सदन की गरिमा को बरकरार रखने का भरोसा दिलाया है, किन्तु पहले ही दिन सदन में यादवी संघर्ष की हल्की सी झलक दिखाई पड़ी। सदन के बाहर लोग कहने से नहीं चूके आगाज यह है तो अंजाम क्या होगा?हमारे अपने मतानुसार जिस तरह देश में कानून के पालन के लिए हर नागरिक को बाध्य किया जाता है उसी तरह संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधियों के लिए बने कानून का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करने के लिए नया कानून बनाया जाना चाहिए, ताकि जनप्रतिनिधि अपनी हदों को पहचानकर लक्ष्मण रेखा पार करने की गुस्ताखी न कर सकें। इसके लिए जनप्रतिनिधियों को ही आगे आना होगा, जिसमें संशय ही लगता है।


संघ के हाथ में होगी भाजपा की कमान!

संघ का ``पालक`` होगा भाजपा सुप्रीमो

अब फैसला लेकर नहीं, पहले बताना होगा संघ को

भाजपा से उमर दराज नेताओं की सेवानिवृति की तैयारी

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी के आला नेताओं की झींगा मस्ती के दिन जल्द ही समाप्त होने वाले हैं। राजग के घोषित पीएम इन वेटिंग के चेहरे के सामने आम चुनावों में औंधे मुंह गिरी भाजपा के पितृ संगठन ने अब भाजपा की कमान सीधे सीधे अपने हाथों में लेने का फैसला ले निया है।संघ के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि भाजपा को सीधे नियंत्रण में लेने की गरज से संघ ने अपनी रणनीति को अंतिम रूप दे दिया है। इसके लिए ``पालक`` नामक पद का सृजन करने की संघ में सैद्धांतिक सहमति बन गई है। संघ की प्रतिनिधि सभा में सह सरकार्यवाहक स्तर के पदाधिकारी की इस पद पर नियुक्ति का प्रस्ताव पेश करने की तैयारी चल रही है।सूत्रों ने बताया कि भाजपा को किसी भी बड़े फैसले को लेने के पूर्व पालक की अनुमति की दरकार होगी। अगर पालक को भाजपा की बात जमी तभी भाजपा उसकी घोषणा करेगी, अन्यथा भाजपा को अपने निर्णय में संशोधन करना होगा या फिर मामला निरस्त कर दिया जाएगा। गौरतलब होगा कि वर्तमान में भाजपा द्वारा पार्टी स्तर पर कोई भी फैसला लिया जाकर बाद में उससे संघ को आवगत कराया जाता है।संघ के सूत्रों ने कहा कि संघ प्रमुख इस बात से आश्वस्त हैं कि इस नई व्यवस्था के लागू होने के उपरांत भाजपा में अंदर और सतही तौर पर फैली खेमेबाजी पर अंकुश लगने के साथ ही साथ भाजपा अनुशासन के दायरे में रहेगी। उल्लेखनीय होगा कि सबसे अनुशासित पार्टी मानी जाने वाली भाजपा में वर्तमान में अनुशासन की सीमाएं टूटती नजर आ रही हैं।गौरतलब होगा कि भाजपा की करारी शिकस्त के उपरांत संघ प्रमुख ने भाजपा के कायाकल्प का जिम्मा खुद ही संभाला है। इसी गरज से वे पिछले दिनों राजधानी दिल्ली प्रवास पर भी थे, जहां झंडेवालान स्थित संघ मुख्यालय ``केशव कुंज`` में उन्होंने लाल कृष्ण आड़वाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज आदि से विस्तार से चर्चा भी की थी।उधर भाजपा में अंदर ही अंदर बुजुर्ग नेताओं की मुखालफत का काम आरंभ हो गया है। उत्तर प्रदेश में भाजपा विधायकों की बैठक के दौरान यह मांग पुरजोर तरीके से उठी कि उमरदराज नेता केवल आशीZवाद और सलाह देने की भूमिका स्वीकार कर सक्रिय राजनीति से किनारा कर लें, यह समय की मांग भी है और पार्टी का उत्थान इसी से संभव है।


ग्रीन सिग्नल के लिए तैयार राहुल एक्सप्रेस

टेलेंट सर्च पार्ट टू किसी भी समय

एमपी, यूपी, टीएन, बिहार और राजस्थान होगा पड़ाव

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। कांग्रेस की नजर में देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने प्रतिभाशाली युवाओं की तलाश का दूसरा एपीसोड आरंभ करने की तैयारियां कर ली हैं। इस बार राहुल गांधी के निशाने पर मध्य प्रदेश, तमिलनाडू, बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश सूबे हैं।राहुल गांधी के करीबी सूत्रों का कहना है कि पिछली मर्तबा हुए टेलेंट सर्च और लोकसभा में युवाओं की बढ़ी भागीदारी से राहुल गांधी काफी आशिन्वत नजर आ रहे हैं। राहुल की टीम जल्द ही इन पांच राज्यों में प्रतिभाशाली युवा खोजने का अभियान आरंभ करने जा रही है।सूत्रों के अनुसार टेलेंट सर्च भाग दो का प्रसारण महज चार माह ही होगा अथाZत युवाओं की खोज का काम नवंबर तक ही चलेगा, इसके उपरांंत दिसंबर में युवक कांग्रेस के चुनाव में इन युवाओं को पदों से नवाजा जाएगा। एसा नहीं कि देश के अन्य सूबों में राहुल एक्सप्रेस नहीं जाएगी, किन्तु यह काम अगले साल से आरंभ होगा।सूत्रों ने संकेत दिए कि सूबों में होने वाले विधानसभा चुनावों के पहले राहुल गांधी देश भर में अपनी टीम तैयार करना चाह रहे हैं। इसके उपरांत अगले आम चुनाव में ज्यादा से ज्यादा युवाओं के भरोसे राहुल गांधी कांग्रेस की सरकार बनाने का जतन करेंगे।

शुक्रवार, 5 जून 2009

जागो! हमें कीटनाशक पिला रही है सरकार!

(लिमटी खरे)

योग गुरू बनकर उभरे बाबा रामदेव द्वारा कोल्ड िड्रंक के एक ब्रांड का नाम लेकर उसे ``टायलेट क्लीनर`` की संज्ञा दिए जाने पर काफी बहस हुई थी। जब देश के अनेक हिस्सों में कोल्ड िड्रंक के कुछ ब्रांड से कीटनाशक का काम किया गया तो लोगों की आंखें खुलीं और साथ ही सरकार की भी।विडम्बना ही कही जाएगी कि बाजार में बिक रहे शीतल पेय में कीटनाशक की मिलावट का मामला सामने आने के छ: साल बीत जाने पर भी केद्र सरकार ने इन उत्पादों के मानक तय नहीं किए हैं। जाहिर है शीतल पेय निमात्री कंपनियों के ``भारी दबाव`` के चलते देश की सबसे बड़ी पंचायत में सत्ता और विपक्ष में बैठने वाले संसद सदस्य अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन ही हैं।सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि देश में बिक रहे इन पेय पदार्थों में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय मानकों से 42 गुना अधिक पाई गई थी। इसके लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने भी सरकार से जल्द से जल्द शीतल पेय के संबंध में मानक तय कर उसे लागू करने की पुरजोर सिफारिश की थी।इस समिति की रिपोर्ट फरवरी 2004 में संसदीय पटल पर रखी गई थी। इतना ही नहीं मार्च 2007 में एन.के.गांगुली की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञों की समिति ने केंद्र सरकार को कहा था कि शीतल पेय विशेषकर कोला के उत्पादों में कीटनाशक के मानक लागू किए जाएं। केंद्र ने अप्रेल 2009 तक मानक लागू करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया था।इतना लंबा अरसा बीत गया किन्तु केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने लोगों के स्वास्थ्य की चिंता करना मुनासिब नहीं समझा। हो सकता है इन शीतल पेय उत्पादक निजी कंपनियों द्वारा नेताओं को मुंह बंद रखने के लिए भारी भरकम वजन रखा हो, किन्तु नेताओं को अपनी नैतिकता की वर्जना तो कम से कम याद रखनी चाहिए। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सरकार निजी शीतलपेय निर्माता कंपनियों के आगे घुटने टेक चुकी है।बाबा रामदेव के कथन से अनेक लोग प्रभावित हुए, और उन्होंने अपने अपने शौचालयों को कोला वाले शीतल पेय से साफ कर देखा तो पाया कि वाकई यह कारगर है। फिर क्या था मंहगे टायलेट क्लीनर के स्थान पर लोगों के घरों में शौचालयों में इन शीतल पेय की दो लीटर की बोतल ने अपना स्थान बना लिया।देश में कुछ किसानों ने भी काले वाले शीतल पेय का छिड़काव अपनी फसलों में किया, और पाया कि वाकई में उनकी फसलें कीट पतंगों से सुरक्षित हैं। अनेक स्थानों पर किसानों द्वारा इस शीतल पेय का उपयोग कीट पतंगों से अपनी फसल की रक्षा करने में किया जा रहा है।एक स्थानीय चेनल में शराब के विज्ञापन का जिक्र करना लाजिमी होगा, जिसमें शराब पीते बेटे को चेताने के लिए उसका पिता उसकी शराब के गिलास में एक कीड़ा डाल देता है, और कहता है, देख बेटा शराब पीने से मर जाते हैं। बेटा भी उसका बाप निकलता है और तपाक से जवाब देता है, बापू इसीलिए पी रहा हूं कि पेट के कीड़े मर जाएं।जब केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार जो स्वयं संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष रहे हैं, यह स्वीकार कर चुके हैं कि भारत में बिकने वाले शीतल पेय में कीटनाशक की मात्रा अंतर्राष्ट्रीय मानकों से कई गुना अधिक है, और संसद में इसकी आपूर्ति रूकवा दी गई है, तब फिर क्या कारण है कि देश की सवा सौ करोड़ से अधिक जनता को इस धीमे जहर से मारा जा रहा है?लोगों को धीमे जहर का आदी बनाने वाली कंपनियों के प्रवक्ता भी आग में घी का काम करने से नहीं चूक रहे हैं। पेिप्सको इंडिया के प्रवक्ता का बयान, ``सरकार अगर शीतल पेय के अंतिम उत्पाद पर मानक लाती है, तो कंपनी उसका समर्थन करेगी।`` क्या सरकार को चेतावनी देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। सरकार क्या यह नहीं कर सकती है कि आखिरी उत्पाद तक तो हम बाद मे जाएंगे पहले जो साबित हो चुका है उसे तो बंद किया जाए।सांसदों की सेहत दुरूस्त रखने के लिए सरकार ने संसद में तो शीतल पेय की आपूर्ति रूकवा दी किन्तु देश भर में खुलेआम बिक रही इस धीमी मौत को रोकने की दिशा में सरकार ने कोई कदम नहीं उठाए हैं। जब देश में विशाल जनादेश लेकर रियाया की भलाई अमन चैन का सपना दिखा संसद में पक्ष और विपक्ष की जनता की ओर से मुंह मोड़ लें तो इस तरह की देशी और विदेशी कंपनियां अपने फायदे के लिए सरेराह जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ न करें तो क्या करें?


कांग्रेस में अंदर ही अंदर खदबदा रही है असंतोष की खिचड़ी

इस बार गठबंधन के बजाए अपनों से ही निपटना होगा पीएम को

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। देश में कांग्रेस के इतिहास में नेहरू गांधी परिवार से इतर दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले अर्थशास्त्री डॉ.एम.एम.सिंह पर इस बार घटक दलों के बजाए कांग्रेस के ही क्षत्रपों की नजरें इनायत होने वाली हैं। कांग्रेस के अंदरखाने में असंतोष का लावा धीरे धीरे खदकने लगा है।मंंत्रीमण्डल में वैसे तो काफी लोगों को शामिल कर मनमोहन सिंह ने साधने की कोशिश की है, किन्तु रह गए क्षत्रप अब अपनी आगे की कार्यवाही में जुट गए हैं। राज्यपाल के लालीपाप से भी असंतुष्ट गुट साधते नजर नहीं आ रहे हैं। स्थान पाने से वंचित रहने वाले नेता अब आत्ममंथन में जुट गए हैं कि आखिर उनकी उपेक्षा की असली वजह क्या रही?कांग्रेस के अंदरखाने में चल रही बयार के अनुसार इस बार मुस्लिम समुदाय द्वारा कांग्रेस का समर्थन करने के बाद भी समुदाय को मंत्रीमण्डल में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, गौरतलब होगा कि मंत्रीमण्डल में कांग्रेस की ओर से गुलाम नवी आजाद को ही मंत्री बनाया गया है।वैसे अच्छे आचरण की धनी, नेहरू गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान रहीं कांग्रेस की अनुभवी एवं वफादार मानी जाने वाली मोहसीना किदवई भी लाल बत्ती न मिलने के कारणों पर गौर फरमा रहीं हैं। विडम्बन ही कही जाएगी कि कांग्रेस सुप्रीमो और कांग्रेस के भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी को देने वाला उत्तर प्रदेश सूबा एक भी केबनेट मंत्री बिना ही है। मीरा कुमार के लोकसभाध्यक्ष बनने के बाद बिहार भी मंत्री विहीन हो गया है। आंध्र प्रदेश में भी सीमित प्रतिनिधित्व के कारण वहां कांग्रेस में नारजगी जाहिर है।अजुZन सिंह, शीश राम ओला, मोतीलाल वोरा, चरण दास महंत, जनार्दन द्विवेदी, गिरिजा व्यास, हंसराज भारद्वाज, शिवरजा पाटिल जैसे दिग्गज नेता मंत्री न बन पाने के कारणों को तलाश रहे हैं। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में लाल बत्ती से महरूम रहे कांग्रेस के दिग्गज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ अंदर ही अंदर धार तेज करने वाले हैं।कहा जा रहा है कि आने वाला समय प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के लिए अच्छा नहीं है, क्योंकि इस बार घटक दलों के अनेतिक दबाव से तो वे बच गए हैं, किन्तु अंदर ही अंदर उबल रहे तूफान से बचना उनके लिए आसान नहीं होगा।



मेट्रो उड़कर चली छत्तीसगढ़

दुर्ग भिलाई रायपुर में चल सकती है मेट्रो

होशंगाबाद भोपाल विदिशा में भी हैं मेट्रो की संभावनाएं

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। दिल्ली में अपनी आशातीत सफलता के झंडे गाड़ने के उपरांत ई. श्रीधरन के सपनों की मेट्रो रेल जल्द ही छत्तीगढ़ की राजधानी रायपुर में दिखाई देने वाली है। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इस सिलसिले में गत दिवस दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन (डीएमआरसी) प्रमुख श्रीधरन से भेंट की।डीएमआरसी सूत्रों ने बताया कि रमन सिंह ने प्रस्ताव दिया है कि रायपुर और नए रायपुर के बीच 17 किलोमीटर लंबी मेट्रो चलाई जाए। इसके अलावा रायुपर से बरास्ता पावर हाउस, भिलाई, दुर्ग भी मेट्रो से जोड़ने की योजना भविष्य में बनाई जा सकती है। सूत्रों के अनुसार एक माह बाद डीएमआरसी की टीम जाकर मौका मुआयना कर आगे की कार्यवाही संपादित करेगी। उधर छत्तीसगढ़ सरकार के सूत्रों का कहना है कि छग में मेट्रो रेल भूमिगत के बजाए भूतल पर ही चलेगी।इधर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से सीहोर, विदिशा और होशंगाबाद में रोजाना आने जाने वालो (अपडाउनर्स) की तादाद को देखकर होशंगाबाद से भोपाल होकर विदिशा एवं सीहोर भी मेट्रो रेल चलाई जा सकती है। इसके चलने से इस मार्ग पर वाहनों का दबाव काफी हद तक कम किया जा सकता है।

गुरुवार, 4 जून 2009

4 june 2009

लालू की संजीवनी बिना मुश्किल है बिहार में कांग्रेस का पुर्नवास

(लिमटी खरे)


बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे सूबों में अपना जनाधार बुरी तरह खो चुकी सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस को इन राज्यों में अगर फिर से जीवित होना है, तो उसे राष्ट्रीय जनता दल और लोजपा की बैसाखी पर ही उसे खड़ा होना मजबूरी बन गया है। यद्यपि कांग्रेस के भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश की कमान संभाली है, साथ ही उन्होंने बिहार पर भी नजरें इनायत करने के संकेत दिए हैं, फिर भी अकेले के बूते कांग्रेस इन राज्यों में खड़ी हो जाए इसमें संशय ही लगता है।
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि बिहार में कांग्रेस के वोट बैंक पर राजद ने अपना कब्जा जमा लिया है। जब लालू राबड़ी के खिलाफ राज्य में आवाजें बुलंद हो रहीं थीं उस वक्त कांग्रेस के पास माकूल मौका था, कि वह अपना वोट बैंक फिर वापस पाकर सहेज सकती थी, किन्तु कांग्रेस ने एसा किया नहीं, उस दौरान कांग्रेस के मैनेजर लालू चालीसा के पाठ में लगे हुए थे।
वैसे भी इन चुनावों में उत्तर प्रदेश में पंद्रह तो बिहार में कांग्रेस को महज दस फीसदी वोट ही मिल सके हैं। देखा जाए तो आने वाले विधानसभा चुनावों में वोट प्रतिशत और गिरने की उम्मीद है, क्योंकि मतदाताओं में उनका शुमार है, जो एक तरफ केंद्र मे राहुल गांधी का हाथ मजबूत करना चाह रहे हैं, तो दूसरी ओर सूबे में लालू राबड़ी की शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते हैं।
बिहार में ब्राम्हणों ने कांग्रेस को नकार दिया है। इस जाति के वोटों का प्रतिशत 18 है, जबकि राजग को 69 प्रतिशत वोट मिले हैं। यूपी में कांग्रेस को 21 तो बिहार में महज दो ही मिल सकी हैं। इन दो सीटों पर कांग्रेस का परचम लहराने का कारण सोनिया, राहुल फेक्टर नहीं वरन स्थानीय प्रत्याशियों की अपनी मेहनत कहा जा सकता है।
बिहार में नितीश कुमार की सरकार के खिलाफ अभी तक जनता में किसी तरह का असंतोष नहीं उपजा है। गांव गांव में चौपाल लगाकर सरकारी तंत्र को मैदानी इलाकों में दौड़ाने वाले नितीश कुमार से पार पाना अभी तो कांग्रेस के लिए टेड़ी खीर ही लग रहा है। वैसे कांग्रेस अगर चाहे तो बिहार में सरकारी तंत्र में लगा भ्रष्टाचार का घुन, शिक्षकों की बहाली में बंदबांट और हर गली में खुली शराब की दुकानों को मुद्दा बनाकर जनांदोलन कर सकती है।
भले ही केंद्र सरकार से बाहर का रास्ता दिखाकर कांग्रेस ने लालू प्रसाद यादव को उनकी औकात बता दी है, किन्तु बिहार में अपना जनाधार वापस पाने के लिए उसे लालू प्रसाद यादव जैसे घाघ नेताओं के साथ मिलकर ही सरकार के खिलाफ हल्ला बोलना पड़ेगा। लालू को साधने के लिए दििZग्वजय सिंह, कमल नाथ, कपिल सिब्बल, नारायण सामी, अजीत जोगी, जैसे नेताओं को बिहार के लिए पाबंद करना जरूरी होगा, क्योंकि ये नेता लालू यादव पर नकेल कसकर कांग्रेस के अरमानों को पूरा करने का माद्दा रखते हैं।
कांग्रेस के रणनीतिकारों ने केंद्र में सरकार बनाने में निश्चित तौर पर बेहतर रणनीति का इस्तेमाल किया है। मगर यह आश्चर्य की बात है कि जब सूबों में कांग्रेस की सरकार बनाने की बात आती है तो इनकी मेनेजरी की हवा निकल जाती है। अजुZन सिंह, कमल नाथ, सुरेश पचौरी, दििग्वजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुभाष यादव, हरवंश सिंह, कांतिलाल भूरिया जैसे कुशल सेनापतियों के होते हुए भी मध्य प्रदेश में 2003 के बाद कांग्रेस का सूपड़ा क्यों साफ है, यह बात अभी तक कोई समझ नहीं सका है। बात जब अपने सूबे से इतर दूसरे राज्य की आती है, तब इन सभी की रणनीति कमाल कर देती है।
मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का कमाल था कि 2007 में वे उत्तर प्रदेश में सत्ता पर काबिज हो गईं। वस्तुत: लोकसभा चुनाव में मायावती के कुशासन का फल था कि कांग्रेस ने अपनी सीटों में इजाफा कर लिया। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और उनके अघोषित राजनैतिक गुरू दििग्वजय सिंह उत्तर प्रदेश में 21 सीटें आने पर अपनी पीठ ठोंक अवश्य रहे हों, पर उनके चेहरों की चमक ज्यादा दिन रहने नहीं वाली।




इस बार गौर के नक्शे कदम पर शिवराज

हर मंत्री के दर पर दी दस्तक

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की दिल्ली यात्रा के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल गौर की कार्यप्रणाली उनमें परिलक्षित हुई। इस बार दिल्ली आने पर शिवराज ने न केवल प्रदेश कोटे के सभी मंत्रियों से भेंट की वरन् उन्होंने सांसदों को रात्रि भोज भी दिया।
ज्ञातव्य है कि पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल गौर ने अपने कार्यकाल में जब भी दिल्ली का रूख किया, उनकी केंद्रीय मंत्रियों विशेषकर कमल नाथ के साथ खूब छनी। केंद्रीय मंत्रियों का वे दोहन कर पाते इसके पहले ही उन्हें पदच्युत कर दिया गया था।
शिवराज सिंह चौहान ने कृषि मंत्री शरद पवार, भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ, उर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे, कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायस्वाल, आदिवासी मामलों के मंत्री कांतिलाल भूरिया, युवा मामलों के मंत्री अरूण यादव आदि से भ्ोंट कर प्रदेश का पक्ष रखा। माना जा रहा है कि विशेष रणनीति के तहत चौहान ने अपनी दिल्ली यात्रा को अंजाम दिया है।
गौरतलब होगा कि राज्य की विधानसभा चुनावों के दौरान केंद्र सरकार द्वारा मध्य प्रदेश को दी इमदाद के बारे में कांग्रेस द्वारा विज्ञापनों के माध्यम से मतदाताओं को लुभाने का असफल प्रयास किया था। माना जा रहा है कि अगली बार के लिए शिवराज सिंह चौहान द्वारा इस तरह के कार्य किए जाकर अपना होमवर्क किया जा रहा है। मुख्यमंत्री की दिल्ली यात्रा को बेहतर कवरेज मिले इसके लिए भी व्यापक इंतजामात किए बताए जाते हैं।




ओला मध्य प्रदेश तो जाखड़ होंगे महाराष्ट्र के लाट साहेब

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। केंद्र में सरकार बनाने के उपरांत अब कांग्रेस ने सरकार में शामिल होने से चूक गए नेताओं को अब सूबों में राज्यपाल बनाकर भेजने की तैयारियां आरंभ कर दीं हैं। राज्यपालों के उलटफेर मासांत तक होने की उम्मीद जताई जा रही है।
कांग्रेस की सत्ता के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ के भरोसेमंद सूत्रों ने बताया कि पिछली सरकार में राजस्थान कोटे से खान मंत्रालय संभालने वाले शीशराम ओेला को मध्य प्रदेश के लाट साहब की कुर्सी दी जा सकती है। वर्तमान राज्यपाल बलराम जाखड़ इसी माह 30 जून को पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले हैं।
सूत्रों ने आगे बताया कि हाल ही में बलराम जाखड़ ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी, जिसके बाद पीएम और सोनिया गांधी के बीच हुई मंत्रणा में पीएम ने सोनिया गांधी को बताया कि जाखड़ मध्य प्रदेश में ही रहने के इच्छुक हैं, किन्तु सोनिया गांधी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर उन्हें महाराष्ट्र भेजने की इच्छुक हैं।