कैसे लगे धनवन्तरी के वंशजों पर अंकुश
अपने कौल को भूल चुके हैं चिकित्सक
दवा कंपनियों पर नकेल कसना जरूरी
(लिमटी खरे)
अपने कौल को भूल चुके हैं चिकित्सक
दवा कंपनियों पर नकेल कसना जरूरी
(लिमटी खरे)
पीडित मानवता की सेवा का संकल्प लेने वाले हिन्दुस्तान के चिकित्सकों की मानवता कभी की मर चुकी है। आज के युग में चिकित्सा का पेशा नोट कमाने का साधन बन चुका है। आज के समय को देखकर कहा जा सकता है कि मरीज की कालर एक डाक्टर द्वारा बिस्तर पर ही पकडी जाती है। दवा कंपनियों की मिलीभगत के चलते मरीजों की जेब पर सीधे सीधे डाका डाला जा रहा है। चिकित्सकों और दवा कंपनियों ने मिलकर तन्दरूस्ती हजार नियामत की पुरानी कहावत पर पानी फेरते हुए अपना नया फण्डा इजाद किया है कि स्वास्थ्य के नाम पर जितना लूट सको लूट लो। इसी तारतम्य में स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव ने बिना मेडीकल रिपर्जेंटेटिव ही स्वास्थ्य की उपजाउ भूमि पर न केवल अपना साम्राज्य स्थापित किया है, वरन् अब तो वे देश पर राज करने का सपना भी देखने लगे हैं। संस्कृत की एक पुरानी कहावत है, ``न दिवा स्वप्नं कुर्यात`` अर्थात दिन में सपने नहीं देखना चाहिए, किन्तु बाबा रामदेव को लगता है कि योग के बल पर उन्होंने जो आकूत दौलत और शोहरत एकत्र की है, उसे वे भुना सकते हैं।
बहरहाल मेडीकल काउंसलि ऑफ इण्डिया द्वारा इसी माह एक कोड लाने की तैयारी की जा रही है, जिसके तहत दवा कंपनियों से तोहफा लेने वाले चिकित्सकों का लाईसेंस रद्द किए जाने का प्रावधान है। एमसीआई द्वारा स्वास्थ्य के देवता भगवान धनवन्तरी के वर्तमान वंशजों अर्थात चिकित्सकों पर लगाम कसने की कवायद की जा रही है। एमसीआई अपने इस कोड के निर्णय को अमली जामा कैसे पहनाती है, यह तो वक्त ही बताएगा किन्तु इस सबमें दवा कंपनियों की मश्कें कसने की बात कहीं भी सामने नहीं आई है। अर्थात कहीं न कहीं चोरी करने के लिए थोडी सी जमीन जरूर छोड दी गई है।
एमसीआई कोड के अनुसार चिकित्सक और उसके परिजन अब दवा कंपनियों के खर्चे पर सेमीनार, वर्कशाप, कांफ्रेंस आदि में नहीं जा सकेंगे। कल तक अगर चिकित्सक एसा करते थे, तब भी वे उजागर तौर पर तो किसी को यह बात नहीं ही बताते थे। इसके अलावा दवा कंपनियों के द्वारा चिकित्सकों को छुटि्टयां बिताने देश विदेश की सैर कराना प्रतिबंधित हो जाएगा। चिकित्सक किसी भी फार्मा कंपनी के सलाहकार नहीं बन पाएंगे तथा मान्य संस्थाओं की मंजूरी के उपरान्त ही शोध अथवा अध्ययन के लिए अनुदान या पैसे ले सकेंगे।
एमसीआई कोड भले ही ले आए पर चिकित्सकों के मुंह में दवा कंपनियों ने जो खून लगाया है, उसके चलते चिकित्सक इस सबके लिए रास्ते अवश्य ही खोज लेंगे। देखा जाए तो दुनिया का चौधरी अमेरिका इस मामले में बहुत ही ज्यादा सख्त है। अमेरिका में अनेक एसे उदहारण हैं, जिनको देखकर वहां के चिकित्सक और दवा कंपनी वालों की हिम्मत मरीजों की जेब तक हाथ पहुंचाने की नहीं हो पाती है। अमेरिका की एली लिली कंपनी ने तीन हजार चार सौ चिकित्सकों और पेशेवरों के लिए 2.20 करोड डालर (एक अरब रूपए से अधिक) दिए, बाद में गडबडियों के लिए उस कंपनी को 1.40 अरब डालर (64.40 अरब रूपए से अधिक) की पेनाल्टी भरनी पडी।
इसी तरह फायजर कंपनी ने चिकित्सकों और पेशेवरों के माध्यम से गफलत करने पर 2.30 अरब डॉलर (एक सौ पांच अरब रूपए से अधिक) का दण्ड भुगता। ग्लेक्सोिस्मथक्लाइन ने 30909 डालर (14 लाख रूपए से अधिक) के औसत से 3700 डॉक्टर्स को 1.46 करोड डालर (6.71 अरब रूपए से अधिक) दिए तो मर्क ने 1078 पेशेवरों को 37 लाख डालर (सत्रह करोड रूपए से अधिक) का भुगतान किया।
अमेरिका में फिजिशियन पेमेंट सानशाइन एक्ट लाया जा रहा है, जिसके तहत दवा कंपनियों को हर साल 100 डालर से अधिक के भुगतान की जानकारी देनी होगी। जानकारी देने में नाकाम या आनाकानी करने वाली कंपनी को हर भुगतान पर कम से कम 1000 डालर और जानबूझकर जानकारी छिपाने के आरोप में कम से कम दस हजार डालर का भोगमान भुगतना पडेगा।
दरअसल पेंच चिकित्सकों द्वारा लिखी जाने वाली दवाओं में है। निहित स्वार्थ और लाभ के लिए चिकित्सकों द्वारा कंपनी विशेष की दवाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है। दवा कंपनी द्वारा अनेक लीडिंग पे्रक्टीशनर्स को पिन टू प्लेन सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। चिकित्सकों के बच्चों की पढाई लिखाई से लेकर घर तक खरीदकर देती हैं, दवा कंपनियां। इसी बात से अन्दाज लगाया जा सकता है कि दवा कंपनियों द्वारा चिकित्सकों के साथ मिलकर किस कदर मोनोपली मचाई जाती है, और मरीजों की जेब किस तरह हल्की की जाती है।
चिकित्सकों द्वारा सस्ती दवाएं नहीं लिखी जातीं हैं, क्योंकि जितनी मंहगी दवा उतना अधिक कमीशन उसे मिलता है। वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो चिकित्सकों पर होने वाले खर्चे के कारण ही दवाओं की कीमतें आसमान छू रहीं हैं। बीते साल में ही दवाओं की कीमतों में 20 से 30 फीसदी तक इजाफा हुआ है। हृदय रोग के काम आने वाली दवाएं तो 70 फीसदी तक उछाल मार चुकीं हैं। कहा जाता है कि लगभग पचास फीसदी दवाएं तो अनुपयुक्त ही हैं। मर्क कंपनी की अथर्राइटिस की दवा वायोक्स के साईड इफेक्ट के मामले में कंपनी ने मौन साध लिया था। इसके सेवन से हार्ट अटैक की संभावनाएं बहुत ज्यादा हो जाती थीं। अनेक मौतों के बाद इस दवा को वापस लिया गया था।
महानगरों सहित लगभग समूचे हिन्दुस्तान के बडे शहरों में चिकित्सा की दुकानें फल फूल रही है, आम जनता कराह रही है, सरकारी अस्पताल उजडे पडे हैं, पर सरकारें सो रहीं हैं। नर्सिंग होम में चिकित्सकों के परमानेंट पेथालाजी लेब, एक्सरे आदि में ही टेस्ट करवाने पर चिकित्सक उसे मान्य करते हैं, अन्यथा सब बेकार ही होता है। कितने आश्चर्य की बात है कि सरकारी अस्पतालों में होने वाले टेस्ट को इन्हीं चिकित्सकों द्वारा सिरे से खारिज कर दिया जाता है। अगर वाकई सरकारी अस्पताल के टेस्ट मानक आधार पर सही नहीं होते हैं तो बेहतर होगा कि सरकारी अस्पतालों से इन विभागों को बन्द ही कर देना चाहिए। यहां तक कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र और मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान की कर्मभूमि विदिशा में जिला चिकित्सालय में पदस्थ सिविल सर्जन श्रीमति जैन के पास इतना समय है कि वे अस्पताल के ठीक गेट के सामने अपनी निजी चिकित्सा की दुकान चलाती हैं, और जनसेवक चुपचाप देख सुन रहे हैं।
चिकित्सकों पर अंकुश लगाने के लिए एमसीआई द्वारा नियमावली बनाई जा रही है, कहा जा रहा है कि मार्च माह में उसे लागू भी कर दिया जाएगा। इसके लिए विशेषज्ञों से सुझाव भी आमन्त्रित करवाए जा रहे हैं। इस पाबन्दी से डायरी, पेन, पेपवेट, कलेण्डर जैसी चीजों को मुक्त रखा गया है। वैसे दवा कंपनियों से डी कंट्रोल श्रेणी की दवाओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार छीनकर कुछ हद तक भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।
जब तक सरकार द्वारा चिकित्सकों के साथ ही साथ दवा कंपनियों पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब तक मरीजों की जेब में डाका डालने का सिलिसिला शायद ही थम पाए। सरकार को अमेरिका जैसा कानून ``सख्ती`` से लागू कराना होगा। दवा कंपनियों से यह कहना होगा कि वे किसी चिकित्सक विशेष के बजाए मेडीकल एसोसिएशन या चिकित्सकों की टीम के लिए स्पांसरशिप कर नई दवाओं की जानकारी दे। इसके अलावा एमसीआई को चिकित्सकों और जांच केन्द्रों के बीच की सांठगांठ के खिलाफ कठोर पहल करनी होगी। मार्च माह में लागू किए जाने वाले कोड और आचार संहिता का पालन सुनिश्चित करने के लिए कठोर कदम ही उठाने आवश्यक होंगे।
भगवान धनवन्तरी के आधुनिक वंशजों द्वारा मानवता की सेवा के लिए लिए गए संकल्प को पूरी तरह से भुला दिया गया है। आज सरकारी और गैरसरकारी चिकित्सकों द्वारा मरीजों को जमकर लूटा जा रहा है। चिकित्सकों और दवा कंपनियों द्वारा अपनी इस लूट से ``जनसेवकों`` को मुक्त रखा गया है। कोई भी जनसेवक जब बीमार पडता है तो उसे देखने जाने वाले चिकित्सक द्वारा सैंपल में मिली दवाएं इंजेक्शन दिए जाते हैं, जिससे जनसेवक को पता ही नहीं चल पाता कि आम आदमी की कमर इन दोनों ही ने किस कदर तोडकर रखी है। इसके अलावा अगर चिकित्सकों को दिए जाने वाले नाट फार सेल वाले सैंपल और बाजार में मिलने वाली दवाओं के कंटेंट्स को ही मिला लिया जाए तो गुणवत्ता की कलई खुलने में समय नहीं लगे। एमसीआई द्वारा पहल जरूर की जा रही है, पर यह परवान चढ सकेगी इस बात में सन्देह ही नज़र आता है।
बहरहाल मेडीकल काउंसलि ऑफ इण्डिया द्वारा इसी माह एक कोड लाने की तैयारी की जा रही है, जिसके तहत दवा कंपनियों से तोहफा लेने वाले चिकित्सकों का लाईसेंस रद्द किए जाने का प्रावधान है। एमसीआई द्वारा स्वास्थ्य के देवता भगवान धनवन्तरी के वर्तमान वंशजों अर्थात चिकित्सकों पर लगाम कसने की कवायद की जा रही है। एमसीआई अपने इस कोड के निर्णय को अमली जामा कैसे पहनाती है, यह तो वक्त ही बताएगा किन्तु इस सबमें दवा कंपनियों की मश्कें कसने की बात कहीं भी सामने नहीं आई है। अर्थात कहीं न कहीं चोरी करने के लिए थोडी सी जमीन जरूर छोड दी गई है।
एमसीआई कोड के अनुसार चिकित्सक और उसके परिजन अब दवा कंपनियों के खर्चे पर सेमीनार, वर्कशाप, कांफ्रेंस आदि में नहीं जा सकेंगे। कल तक अगर चिकित्सक एसा करते थे, तब भी वे उजागर तौर पर तो किसी को यह बात नहीं ही बताते थे। इसके अलावा दवा कंपनियों के द्वारा चिकित्सकों को छुटि्टयां बिताने देश विदेश की सैर कराना प्रतिबंधित हो जाएगा। चिकित्सक किसी भी फार्मा कंपनी के सलाहकार नहीं बन पाएंगे तथा मान्य संस्थाओं की मंजूरी के उपरान्त ही शोध अथवा अध्ययन के लिए अनुदान या पैसे ले सकेंगे।
एमसीआई कोड भले ही ले आए पर चिकित्सकों के मुंह में दवा कंपनियों ने जो खून लगाया है, उसके चलते चिकित्सक इस सबके लिए रास्ते अवश्य ही खोज लेंगे। देखा जाए तो दुनिया का चौधरी अमेरिका इस मामले में बहुत ही ज्यादा सख्त है। अमेरिका में अनेक एसे उदहारण हैं, जिनको देखकर वहां के चिकित्सक और दवा कंपनी वालों की हिम्मत मरीजों की जेब तक हाथ पहुंचाने की नहीं हो पाती है। अमेरिका की एली लिली कंपनी ने तीन हजार चार सौ चिकित्सकों और पेशेवरों के लिए 2.20 करोड डालर (एक अरब रूपए से अधिक) दिए, बाद में गडबडियों के लिए उस कंपनी को 1.40 अरब डालर (64.40 अरब रूपए से अधिक) की पेनाल्टी भरनी पडी।
इसी तरह फायजर कंपनी ने चिकित्सकों और पेशेवरों के माध्यम से गफलत करने पर 2.30 अरब डॉलर (एक सौ पांच अरब रूपए से अधिक) का दण्ड भुगता। ग्लेक्सोिस्मथक्लाइन ने 30909 डालर (14 लाख रूपए से अधिक) के औसत से 3700 डॉक्टर्स को 1.46 करोड डालर (6.71 अरब रूपए से अधिक) दिए तो मर्क ने 1078 पेशेवरों को 37 लाख डालर (सत्रह करोड रूपए से अधिक) का भुगतान किया।
अमेरिका में फिजिशियन पेमेंट सानशाइन एक्ट लाया जा रहा है, जिसके तहत दवा कंपनियों को हर साल 100 डालर से अधिक के भुगतान की जानकारी देनी होगी। जानकारी देने में नाकाम या आनाकानी करने वाली कंपनी को हर भुगतान पर कम से कम 1000 डालर और जानबूझकर जानकारी छिपाने के आरोप में कम से कम दस हजार डालर का भोगमान भुगतना पडेगा।
दरअसल पेंच चिकित्सकों द्वारा लिखी जाने वाली दवाओं में है। निहित स्वार्थ और लाभ के लिए चिकित्सकों द्वारा कंपनी विशेष की दवाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है। दवा कंपनी द्वारा अनेक लीडिंग पे्रक्टीशनर्स को पिन टू प्लेन सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। चिकित्सकों के बच्चों की पढाई लिखाई से लेकर घर तक खरीदकर देती हैं, दवा कंपनियां। इसी बात से अन्दाज लगाया जा सकता है कि दवा कंपनियों द्वारा चिकित्सकों के साथ मिलकर किस कदर मोनोपली मचाई जाती है, और मरीजों की जेब किस तरह हल्की की जाती है।
चिकित्सकों द्वारा सस्ती दवाएं नहीं लिखी जातीं हैं, क्योंकि जितनी मंहगी दवा उतना अधिक कमीशन उसे मिलता है। वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो चिकित्सकों पर होने वाले खर्चे के कारण ही दवाओं की कीमतें आसमान छू रहीं हैं। बीते साल में ही दवाओं की कीमतों में 20 से 30 फीसदी तक इजाफा हुआ है। हृदय रोग के काम आने वाली दवाएं तो 70 फीसदी तक उछाल मार चुकीं हैं। कहा जाता है कि लगभग पचास फीसदी दवाएं तो अनुपयुक्त ही हैं। मर्क कंपनी की अथर्राइटिस की दवा वायोक्स के साईड इफेक्ट के मामले में कंपनी ने मौन साध लिया था। इसके सेवन से हार्ट अटैक की संभावनाएं बहुत ज्यादा हो जाती थीं। अनेक मौतों के बाद इस दवा को वापस लिया गया था।
महानगरों सहित लगभग समूचे हिन्दुस्तान के बडे शहरों में चिकित्सा की दुकानें फल फूल रही है, आम जनता कराह रही है, सरकारी अस्पताल उजडे पडे हैं, पर सरकारें सो रहीं हैं। नर्सिंग होम में चिकित्सकों के परमानेंट पेथालाजी लेब, एक्सरे आदि में ही टेस्ट करवाने पर चिकित्सक उसे मान्य करते हैं, अन्यथा सब बेकार ही होता है। कितने आश्चर्य की बात है कि सरकारी अस्पतालों में होने वाले टेस्ट को इन्हीं चिकित्सकों द्वारा सिरे से खारिज कर दिया जाता है। अगर वाकई सरकारी अस्पताल के टेस्ट मानक आधार पर सही नहीं होते हैं तो बेहतर होगा कि सरकारी अस्पतालों से इन विभागों को बन्द ही कर देना चाहिए। यहां तक कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र और मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान की कर्मभूमि विदिशा में जिला चिकित्सालय में पदस्थ सिविल सर्जन श्रीमति जैन के पास इतना समय है कि वे अस्पताल के ठीक गेट के सामने अपनी निजी चिकित्सा की दुकान चलाती हैं, और जनसेवक चुपचाप देख सुन रहे हैं।
चिकित्सकों पर अंकुश लगाने के लिए एमसीआई द्वारा नियमावली बनाई जा रही है, कहा जा रहा है कि मार्च माह में उसे लागू भी कर दिया जाएगा। इसके लिए विशेषज्ञों से सुझाव भी आमन्त्रित करवाए जा रहे हैं। इस पाबन्दी से डायरी, पेन, पेपवेट, कलेण्डर जैसी चीजों को मुक्त रखा गया है। वैसे दवा कंपनियों से डी कंट्रोल श्रेणी की दवाओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार छीनकर कुछ हद तक भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।
जब तक सरकार द्वारा चिकित्सकों के साथ ही साथ दवा कंपनियों पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब तक मरीजों की जेब में डाका डालने का सिलिसिला शायद ही थम पाए। सरकार को अमेरिका जैसा कानून ``सख्ती`` से लागू कराना होगा। दवा कंपनियों से यह कहना होगा कि वे किसी चिकित्सक विशेष के बजाए मेडीकल एसोसिएशन या चिकित्सकों की टीम के लिए स्पांसरशिप कर नई दवाओं की जानकारी दे। इसके अलावा एमसीआई को चिकित्सकों और जांच केन्द्रों के बीच की सांठगांठ के खिलाफ कठोर पहल करनी होगी। मार्च माह में लागू किए जाने वाले कोड और आचार संहिता का पालन सुनिश्चित करने के लिए कठोर कदम ही उठाने आवश्यक होंगे।
भगवान धनवन्तरी के आधुनिक वंशजों द्वारा मानवता की सेवा के लिए लिए गए संकल्प को पूरी तरह से भुला दिया गया है। आज सरकारी और गैरसरकारी चिकित्सकों द्वारा मरीजों को जमकर लूटा जा रहा है। चिकित्सकों और दवा कंपनियों द्वारा अपनी इस लूट से ``जनसेवकों`` को मुक्त रखा गया है। कोई भी जनसेवक जब बीमार पडता है तो उसे देखने जाने वाले चिकित्सक द्वारा सैंपल में मिली दवाएं इंजेक्शन दिए जाते हैं, जिससे जनसेवक को पता ही नहीं चल पाता कि आम आदमी की कमर इन दोनों ही ने किस कदर तोडकर रखी है। इसके अलावा अगर चिकित्सकों को दिए जाने वाले नाट फार सेल वाले सैंपल और बाजार में मिलने वाली दवाओं के कंटेंट्स को ही मिला लिया जाए तो गुणवत्ता की कलई खुलने में समय नहीं लगे। एमसीआई द्वारा पहल जरूर की जा रही है, पर यह परवान चढ सकेगी इस बात में सन्देह ही नज़र आता है।