(लिमटी खरे)
आजादी के बासठ सालों बाद भी भारत गणराज्य आत्मनिर्भर नहीं बन पाया है। सवा सौ साल पुरानी और भारत पर आधी सदी से ज्यादा शासन करने वाली कांग्रेस के नेताओं ने देश को आत्मनिर्भर बनाने का बेहद प्रयास किया किन्तु उनके प्रयासों में संजीदगी न होने का नतीजा आज सामने ही है कि कांग्रेस के नेता तो आत्मनिर्भर हो गए पर आवाम ए हिन्द आज भी दो वक्त की रोटी के लिए मारा मारी पर मजबूर है। देश की सत्तर फीसदी से अधिक आबादी को दो जून की रोटी और साफ पानी नहीं मिल पा रहा है और अमीर जनसेवकों की एक एक शाम की पार्टी दस लाख रूपए तक की होती है। यह है नेहरू गांधी द्वारा देखे गए भारत के भविष्य की जनसेवकों द्वारा बनाई गई भयावह तस्वीर।
महज तीन माह बाद भारत गणराज्य की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में कामन वेल्थ गेम्स होने वाले हैं। राजधानी दिल्ली को दुल्हन की तरह सजाने की खबरें जब तब मीडिया की सुर्खियां बनी रहती हैं। केंद्र में पिछले छः सालों से कांग्रेसनीत संप्रग सरकार काबिज है तो दिल्ली में शीला दीक्षित ने मुख्यमंत्री के तौर पर तो रिकार्ड ही बना दिया है। आश्चर्य देखिए केंद्र और दिल्ली प्रदेश दोनों ही में कांग्रेस का जलजला है, आम आदमी के लिए फिरकमंद होने का स्वांग रचने वाली केद्र सरकार भले ही रियाया के लिए कोई सुविधा मुहैया कराए न कराए, टेक्स का बोझ अवश्य लाद देती है, कामन वेल्थ के लिए सरकार ने अपनी कथित तौर पर खाली खजाना खोल दिया है, बावजूद इसके दिल्ली आज की तारीख में भी कामन वेल्थ गेम्स के लिए तैयार नहीं है।
अरबों रूपयों में आग लगाकर भारत सरकार वैश्विक दृष्टिकोण से तो बहुत ही अच्छा काम कर रही है। भारत की साख पूरे विश्व में बहुत ही अच्छे मेजबान की बन सकती है बशर्ते कामन वेल्थ की तैयारियां समय पर पूरी हो जाएं। इंटरनेशनल लेबल के स्टेडियम, चमचमाती सडकें, फ्लाई ओवर, फुट ओवर ब्रिज, स्वीमिंग पूल, परिवहन के लिए यात्री बस, बस स्टेंड, मेट्रो रेल, आदि सब कुछ मानकों के आधार पर ही करने की कल्पना की गई थी। मई 2006 में लिखे एक आलेख में हमने साफ तौर पर लिखा था कि कामन वेल्थ गेम्स की तैयारियों के लिए अभी बहुत समय है, इसके लिए सरकार को चेत जाना चाहिए, वस्तुतः एसा हुआ नहीं।
सरकार को अपने मौखटे अर्थात वैश्विक छवि की बहुत ज्यादा चिंता है। वैश्विक स्तर पर छवि मजबूत तो की जा सकती है पर भूखे पेट नहीं। भारत सरकार को चाहिए कि वह अपनी प्राथमिकता वैश्विक छवि की जरूर रखे किन्तु भारत गणराज्य की रियाया का ध्यान भी पूरा पूरा रखे। भारत गणराज्य की रियाया आधे पेट खाकर जीवन यापन कर रही है। हरी और लाल लो फ्लोर बस देखकर विदेशी तो अपने आप को सहज महसूस कर सकते हैं किन्तु भारत की भूखी नंगी जनता का पेट इन विलासिता और भव्य चीजों से भरने वाला नहीं। कितने आश्चर्य की बात है कि भारत गणराज्य की सरकार को अपनी जनता की फिकर होने के बजाए वह दुबली हो रही है वैश्विक छवि की चिंता में। जब यही विदेशी आकर हमारे देश की नंगी भूखी जनता की तस्वीर खीचतें हैं और धरावी जैसी झोपडपट्टी पर फिल्म बनकर आस्कर अवार्ड लाती है तब इन्हें गरीबी के हाल में सालों साल रखने वाली सरकार का सीना चोडा हो जाता है, सरकार द्वारा इनके किरदारों के सम्मान में भोज तक का आयोजन किया जाता है।
जिस दिन भारत को कामन वेल्थ गेम्स की मेजबानी मिली थी, निश्चित तौर पर भारत सरकार के नीतिनिर्धारकों ने रात ढलते ही जाम टकराए होंगे, वाकई बहुत बडी सफलता थी वह। आज के हालात देखकर हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वे ही नीति निर्धारक अब यह कह रहे होंगे कि खेल खेल न होकर जी का जंजाल बनकर रह गए हैं। कामन वेल्थ गेम्स को लेकर इतना शोर शराबा आखिर क्यों?
आखिर क्यों भारत सरकार का खेल मंत्रालय और ओलंपिक संघ अपनी अपनी बांहें चढा रहा है? सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर आखिर ताल क्यों ठोकी जा रही है? खेल मंत्री एम.एस.गिल और ओआईसी के मुखिया सुरेश कलमाडी एक दूसरे के लिए तलवारें क्यों भांज रहे हैं? पुरानी कहवत है कि जर, जोरू और जमीन तीनों से बचकर ही रहना चाहिए। फसाद की जड में पैसा, औरत और प्रापर्टी ही प्रमुख वजह होती है। कामन वेल्थ के मामले में तो प्रापर्टी और औरत का दूर दूर तक कोई नाता नहीं है। रह जाती है बात पैसे की तो भ्रष्टाचार के समंदर मंे आकंठ डूबा दिख रहा है खेलों का यह महाकुंभ।
शायद ही कोई एसा दिन जाता हो जब किसी न किसी समिति, उपसमिति के किसी कारनामें को उजागर न किया जाता हो। समिति, उपसमितियों की खासियत तो देखिए ये भी ओलंपिक संघ और खेल फेडरेशनों के रिश्तेनातेदारों से पटी पडीं हैं। अर्थात भ्रष्टाचार की गंगा बहाने के सारे मार्ग प्रशस्त हो चुके हैं। भारत सरकार की आंख मंे गांधरी की तरह पट्टी बंधी हुई है, और पुत्रमोह (खेल से जुडे राजनेताओं) में भारत सरकार ध्रतराष्ट्र की तरह अंधी हो गई है। आलम यह है कि खेलों से जुडे नेताओं ने अपने अपने रिश्तेदारों को तबियत से रेवडियां बांटी हैं। सारा का सारा खेल गुपचुप तरीके से हुआ है तो किसी को पता भी नहीं चला कि जनता से टेक्स के माध्यम से वसूले गए राजस्व में से बीस हजार करोड रूपयों में कहां, कैसे और कब आग लगा दी गई है?
15 सौ करोड रूपए के आरंभिक बजट वाले इस महाकुंभ का बजट सौ गुना बढकर पंद्रह हजार करोड रूपए हुआ। जिस कदर की लूट खसोट, सेटिंग भ्रष्टाचार, कदाचार चल रहा है, उसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह राशि बढकर पच्चीस सौ करोड भी हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इतनी विपुल राशि खर्च कर एक नए शहर की अधोसंरचना रखी जा सकती थी। वस्तुतः भ्रष्टाचार की गंगा वहां बहाने में थोडी कठिनाई ही होती, सो एसा नहीं किया गया।
सरकार चाहती तो इस पूरे आयोजन को दिल्ली में ही केंद्रित करने के बजाए इसके विभिन्न वर्गों को अलग अलग शहरों में कराती तो अधोसंरचना विकास में तेजी आ जाती। दिल्ली तो पहले से ही समृद्ध है, यहां दो हजार करोड रूपए व्यय करने का क्या ओचित्य। सरकार अगर चाहती तो अलग अलग सूबों के अलग अलग स्टेडियम का कायाकल्प कर देती तो उन शहरों की सुंदरता में चार चांद लग जाते और वहां का विकास द्रुत गति को पकड सकता था। विडम्बना यह है कि देश के निजामों की आखों में बंधी पट्टी में दिल्ली के आलवा और कोई शहर दिखता ही नहीं है।
अफसोस तो तब होता है जब इस पूरे मामले में ‘‘मीडिया‘‘ सहभागी हो जाता है। आयोजकों के चंद टुकडों के बदले उनके आगे पीछे दुम हिलाने वाले मीडिया के मित्रों से हमारा करबद्ध अनुरोध है कि इस पवित्र पेशे को बदनाम करने के बजाए ‘‘परचून की दुकान‘‘ खोल लें तो बेहतर होगा। अपने निहित स्वार्थों के लिए पूंजिपतियों की दहलीज पर माथा रगडने वाला ‘‘मीडिया का सच्चा बंदा‘‘ नहीं हो सकता है, उसे तो ‘‘दल्ला‘‘ अर्थात दलाल की संज्ञा ही दी जा सकती है।
यह बात भी उतनी ही सच है जितनी कि दिन और रात कि इतने बडे आयोजन में सरकार अभी हाथ बांधे खडी है, जैसे ही आयोजन पूरा होगा, सरकार जागेगी और फिर चलेगा जांच का सिलसिला। आयोजन के उपरांत जैसे ही कुर्सियां बटोरने और टेंट उखडने का काम होगा, जांच एजेंसियां आयोजकों और सरकार के मुलाजिमों पर उसी तरह टूट पडेंगी जिस तरह गुड पर मख्खी टूटती है। आयोजन समिति आयोजन की तैयारियों में व्यस्त हैं तो जांच एजेंसियां आयोजन से जुडे दागी लोगों की फाईलें दुरूस्त करने की तैयारियों में लगी हुई हैं।
समूची तैयारियों, गति, भ्रष्टाचार के समुंदर आदि को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आयोजन के उपरांत अगर जांच एजेंसियों ने इसकी जांच बारीकी और ईमानदारी से कर ली तो उजागर होने वाला घोटाला अब तक का सबसे बडा और अनोखा घोटाला होगा, जिसके बारे में भारत गणराज्य की रियाया को पता तक नहीं। सारी स्थिति परिस्थितियों को देखकर एक कहावत का उल्लेख करना लाजिमी होगा:-
‘‘उंट की चोरी निहुरे निहुरे (झुककर) नहीं हो सकती है।‘‘