मंगलवार, 27 सितंबर 2011

अफसरान को उपकृत करने का ओचित्य


अफसरान को उपकृत करने का ओचित्य

(लिमटी खरे)

तीस से चालीस बरस सरकार की सेवा करने के बाद सेवानिवृत हो जाते हैं सरकारी कर्मचारी। इसके बाद भी इनका मन नहीं भरता। आम क्लर्क या निचले दर्जे के कर्मचारी तो सेवानिवृत्ति के उपरांत भगवान में ध्यान रमाने लगते हैं पर आला अधिकारियों का सुविधाओं का मोह समाप्त नहीं होता है। सेवानिवृति के उपरांत पुर्ननियुक्ति या किसी आयोग, निगम मण्डल आदि में उनकी सेवाएं लेकर उन्हें उपकृत करने की परांपर समाप्त होना चाहिए। अमूमन देखा गया है कि सेवानिवृति के करीब आते ही अफसरों द्वारा नियम कायदों को नेताओं के घर की लौंडी बना दिया जाता है। आला अधिकारियों द्वारा अपने आकाओं को सिद्ध करने के चक्कर में चापलूसी की सारी हदें पार कर दी जाती हैं। देखा जाए तो रिटायरमेंट के बाद चैन से पैंशन लेकर सम्मान के साथ जीवन जीना चाहिए अफसरान को। वस्तुतः पहली पंक्ति के अधिकारी एसा करते नहीं हैं।

समूचे देश में भारतीय प्रशासनिक, पुलिस और न्याय विभाग के आला अधिकारियों की सेवानिवृति के बाद दी जाने वाली पदस्थापनाओं पर देश व्यापी बहस की आवश्यक्ता है। देखा जाए तो रिटायरमेंट के बाद पुर्ननियुक्ति के प्रलोभन में अधिकारी अपने सेवाकाल में ही सत्ता या संगठन में बैठे राजनेताओं को खुश करने में लग जाते हैं। राजनेता भी बड़े चालाक होते हैं वे भी सेवानिवृति के कगार पर पहुंचने वाले अफसरान को इसका लालच देकर मनमाफिक काम करवाने से नहीं चूकते हैं।

लोगों का मानना है कि अधिकारियों को सम्मान और नैतिकता के साथ नौकरी करना चाहिए और सम्मान के साथ ही रिटायर होना चाहिए। यह सच है कि बिना मांगे या लाबिंग के बिना सरकार में अच्छे पद नहीं मिल पाते हैं। ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोकसेवक की पूछ परख कहीं भी नहीं होती है। अब तो कहा जाने लगा है कि जिलों में कलेक्टर और एसपी के पद भी बिकने लगे हैं।

देखा जाए तो जिम्मेदार अफसरान का एक काडर तैयार किया जाना चाहिए। सेवानिवृत अफसरों को कुर्सी या सुविधाओं का लोभ तजना आवश्यक है। रिटायर्ड अफसरों को लोभ लालच को छोड़कर मार्गदर्शक की भूमिका में आना चाहिए। दरअसल सत्तर से उपर वाले आज सांसद विधायक बनकर ठाठ कर रहे हैं जिन्हें देखकर इन आला अफसरान का मन मचल जाता है। रिटायर्ड अफसरों को अपने जीवनकाल के अनुभवों का लाभ आने वाली युवा पीढ़ी को देना चाहिए। युवा पीढ़ी में अनेक लोग हैं जो ईमानदार, मेहनती और कर्तव्यनिष्ठ हैं।

आज के समय में उच्च पदों पर बैठे अफसरों को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जो अधिकारी नेताओं की चौखट चूमकर उनके इशारों पर ठुमके लगता है उसे ईनाम के बतौर अच्छी पदस्थापना या पुर्ननियुक्ति दे दी जाती है। सरकारी कर्मचारी की पुर्ननियुक्ति उसके पुनर्वास के साथ ही साथ उसका पारितोषक भी है। इस तरह सरकार के नुमाईंदे एक युवा का हक मारते हैं। हद तो तब हो जाती है जब सेवानिवृत कर्मचारी को कहीं नियुक्ति देकर उसे मंत्री पद का दर्जा दिया जाता है। यह हर दृष्टिकोण से संविधान की भावना का अनादर ही माना जाएगा। अभी लोग इस बात को भूले नहीं होंगे कि पूर्व में लाल कृष्ण आड़वाणी को कैबनेट मंत्री का दर्जा देने का विरोध और किसी ने नहीं सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले रष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने किया था।

नेता भी अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। 1993 से 2003 तक मध्य प्रदेश पर लगातार राज किया था राजा दिग्विजय सिंह ने। इस दौरान अफसर भी कांग्रेसी हो चले थे। 2003 दिसंबर में जब चुनावों के बाद जनता ने कांग्रेस को उठाकर सत्ता के गलियारे से बाहर फेंका तब तेज तर्रार फायर ब्रांड साध्वी उमा भारती के मुख्यमंत्री बनते ही एमपी काडर के भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अफसरों ने प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली की दौड़ लगा दी थी। उस वक्त का दिल्ली का नजारा देखकर लगने लगा था मानो दिल्ली में भी मध्य प्रदेश का राज्य सचिवालय वल्लभ भवन बन गया हो।

जनता द्वारा जनादेश देकर नेताओं को व्यवस्था को सुचारू तौर पर चलाने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। अपने हितों की खातिर नेता इन व्यवस्थाओं के सामने आत्म समर्पण कर देते हैं। नौकरशाही को लोगों द्वारा लोक हितैषी कभी नहीं माना गया है। जीवन भर पद का सुख भोगने वाले अफसरों द्वारा सेवानिवृत होते ही जोड़ तोड़ कर राजनैतिक पद हथिया लिया जाता है। यह उस कार्यकर्ता के हक पर सीधा सीधा डाका है जो अपना समूचा जीवन पार्टी के कामों में उसके झंडे बेनर बांधने में प्रोग्राम में दरी फट्टा उठाने, नेताओं की जय जयकार करने में बिता देता है। नौकरशाह वैसे भी जनता के बीच नहीं रहते और जनता से उनका कोई सरोकार नहीं होता है। वे जब जिस जिले में पदस्थ होते हैं वह जिला उनका अपना परिवार हो जाता है और तबादले के बाद कम ही अफसर हैं जो मुड़कर अपनी पदस्थापना वाले जिलों में जाते हैं।

प्रशासनिक सेवा और न्यायिक सेवा के सेवानिवृत अफसरों को निगम मण्डल या आयोगों में रखकर लाल बत्ती से नवाजा जाना उचित नहीं है। इसके लिए आवश्यक्ता है कि सरकार कानून बनाए और इसे रोके। वैसे देश में दो बार से ज्यादा चुनाव लड़ने पर भी रोक लगना आवश्यक है। जब इस तरह की पुर्ननियुक्ति की बात आती है तो किसी अफसर से भला ईमानदारी के साथ नौकरी करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। यह काम वाकई लोकतंत्र के साथ मजाक से कम नहीं है।

नेताओं में सत्तर साल की उमर के बाद भी कुर्सी से चिपके रहने की ललक समझ में आती है किन्तु नौकरशाहों में इस तरह की प्रवृति का पनपना दुखद है। नौकरशाह जब भी पुर्ननियुक्ति पाते हैं वे अपने रौब और प्रभाव का प्रयोग कर अधीनस्थों को खुलकर काम नहीं करने देते हैं। मध्य प्रदेश में ही मुख्य सचिव रहे राकेश साहनी को बिजली विभाग में नियुक्ति दी गई। इतना ही नहीं उन्हें मंत्री पद का दर्जा भी मिला। बाद में उन पर गंभीर आरोप लगे। कुल मिलाकर इस तरह की प्रवृति रोकने के लिए देश व्यापी बहस के साथ ही साथ कड़े कानून की महती आवश्यक्ता महसूस होने लगी है।

दस सांसद भी नहीं ला पाए सिवनी में ब्राडगेज



0 सिवनी से चलेगी पेंच व्हेली ट्रेन . . . 3

दस सांसद भी नहीं ला पाए सिवनी में ब्राडगेज

गार्गी दादा और विमला वर्मा रहीं केंद्र में मंत्री

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। सिवनी का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दस संसद सदस्य देने वाले इस जिले का ब्राडगेज से जोड़ने का जतन किसी भी सांसद ने नहीं किया। सिवनी के नेताओं ने जिस चालाकी से परिसीमन में दिखावटी विरोध कर लोकसभा सीट का अवसान करवा दिया उससे अब बड़ी रेल लाईन आने की धूल धुसारित हुई संभावनाओं में रेल्वे बोर्ड ने एक रोशनी दिखाई है। अगर नेताओं ने अपना स्वार्थ साधने के चक्कर में फच्चर नहीं फसाया तो आने वाले दिनों में सिवनी से ब्राडगेज का गुजरना तय माना जा रहा है।

गौरतलब है कि 1962 में सुरक्षित सिवनी लोकसभा सीट पर कांग्रेस के नारायण राव वाड़ीवा विजयी हुए थे। इसके उपरांत 1967 और 1971 में यह लोकसभा सीट अस्तित्व में नहीं थी। 1977 में दुबारा अस्तित्व में आई सिवनी लोकसभा सीट पर भारतीय लोकतंत्र के निर्मल चंद जैन तो 1980 में कांग्रेस के गार्गीशंकर मिश्र यहां से जीते थे। पंडित गार्गीशंकर मिश्र केंद्र में मंत्री भी रहे हैं। 1894 के चुनावों में एक बार फिर पंडित गार्गी शंकर मिश्र पर सिवनी की जनता ने भरोसा जताया था।

1989 के आम चुनावों में गार्गीशंकर मिश्र के बजाए जनता द्वारा युवा तुर्क और भाजपा के बागी प्रहलाद सिंह पटेल पर भरोसा करते हुए उन्हें लोकसभा की दहलीज तक पहुंचाया। प्रहलाद सिंह पटेल ने संस्कारधानी जबलपुर से छात्र राजनीति की शुरूआत की थी। इसके बाद 1991 में हुए आम चुनावों में जनता ने कांग्रेस की वरिष्ठ नेत्री सुश्री विमला वर्मा पर दांव खेला और फिर 1996 में हुए चुनावों में विमला वर्मा से लोगों का मोह भंग हुआ तो दुबारा प्रहलाद पटेल को जिता दिया गया।

1998 में एक बार फिर विमला वर्मा ने बाजी मारी किन्तु साल भर बाद हुए मध्यावधि चुनावों में 1999 में भाजपा के रामनरेश त्रिपाठी की लाटरी निकल गई। फिर आईं 2004 में श्रीमति नीता पटेरिया। श्रीमति पटेरिया सिवनी लोकसभा की अंतिम सांसद साबित हुईं। विडम्बना यह है कि दस लोकसभा सदस्यों ने भी सिवनी की किस्मत में ब्राडगेज नहीं लिखने का जतन किया। इन सांसदों ने क्या प्रयास किए यह तो वे ही जाने पर यह सच है कि इनके प्रयास ईमानदारी से नहीं किए गए थे जिसके परिणामस्वरूप आज भी सिवनी वासी ब्राडगेज से वंचित हैं। वहीं सिवनी की सीमा से लगे महाराष्ट्र के नागपुर, एमपी के छिंदवाड़ा, बालाघाट, जबलपुर और नरसिंहपुर जिलों में ब्राडगेज पर रेलगाड़ी फर्राटे भर रही है।

वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो छिंदवाड़ा के सांसद कमल नाथ ने परासिया आमला ब्राडगेज को न केवल छिंदवाड़ा तक लाया गया वरन् पेंच नेशनल पार्क के करीब से जाने वाले नागपुर छिंदवाड़ा रेलखण्ड का अमान परिवर्तन भी करवा दिया। यही नहीं अपने प्रभाव वाले बालाघाट जिले के लिए भी कमल नाथ ने सौगातों की पोटली खोली। बालाघाट को भी ब्राडगेज से उन्होंने जोड़ ही दिया। पता नहीं क्यों सिवनी पर उन्होंने सदा ही कुदृष्टि रखी है? सिवनी में कमल चालीसा का पाठ करने वाले अनगिनत अनुयाईयों के बाद भी कमल नाथ का सिवनी के लिए प्रसन्न न होना आश्चर्य का ही विषय माना जा रहा है।

(क्रमशः जारी)

संदीप पर क्यों मेहरबान हैं शिव!


संदीप पर क्यों मेहरबान हैं शिव!

डंपर मामले में क्लीन चिट दी थी नावलेकर ने शिवराज को

पीसीसी जाकर जमुना देवी का कर्ज उतारा शिव ने

तीन चार माह की कार्यवाही हो गई चुटकी में

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की चीन यात्रा में सूबे के लोकायुक्त पी.पी.नावलेकर के सुपुत्र संदीप को साथ ले जाने का मामला कांग्रेस ही नहीं भाजपा में भी गरमाने लगा है। भाजपा में भी अब संदीप नावलेकर की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कैलाश विजयवर्गीय के साथ की गई यात्रा को डंपर कांड से जोड़कर देखा जाने लगा है। इस मामले को तूल पकड़ते देख अब शिवराज विरोधी तेजी से सक्रिय होने लगे हैं।

ज्ञातव्य है कि शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ पिछले विधानसभा चुनाव के पहले ही डंपर कांड की काली छाया पड़ गई थी। चुनाव में मध्य प्रदेश के प्रभारी महासचिव व्ही.नारायणसामी द्वारा शिवराज को डंपर सिंह चौहान की संज्ञा भी दी जाने लगी थी। उस वक्त नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी ने भी बड़ी मुखरता के साथ शिवराज सिंह चौहान का विरोध किया था।

चुनावों के उपरांत डंपर मामले में लोकायुक्त संगठन द्वारा आनन फानन शिवराज सिंह चौहान को क्लीन चिट दे दी गई थी। भाजपा के उच्च पदस्थ सूत्रों का दावा है कि इसके लिए शिवराज सिंह चौहान द्वारा सभी दृष्टिकोण से मोर्चाबंदी की गई थी। कहा जा रहा है कि क्लीन चिट के मामले में शिवराज ने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी को भी सिद्ध कर लिया था, ताकि वे इसका विरोध न करें। हाल ही में प्रदेश कांग्रेस कमेटी के भोपाल स्थित कार्यालय जाकर जमुना देवी को सार्वजनिक तौर पर श्रृद्धांजली देकर शिवराज ने सभी को चौंका दिया है। सियासी गलियारों में चर्चा है कि शिवराज सिंह ने अपने उपर लगे डंपर कांड के दाग धुलने का कर्ज इसी बहाने अदा कर दिया है।

सूत्रों ने यह भी कहा कि अमूमन इस तरह के मामलों की जांच में काफी लंबा वक्त लग जाता है किन्तु जिस दु्रत गति से इस काम को अंजाम दिया गया वह हैरत अंगेज ही रहा। इतना ही नहीं मध्य प्रदेश के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के खिलाफ भी लोकायुक्त में मामला अभी लंबित है। कहा जा रहा है कि लोकायुक्त पर दबाव बनाने और उन्हें उपकृत करने की गरज से शिवराज सिंह चौहान ने लोकायुक्त पुत्र संदीप को अपने साथ चीन ले जाया गया था। सच्चाई क्या है यह तो संदीप जाने या शिवराज पर विधानसभा के शीतकालीन सत्र में इस मामले से विधानसभा गूंज सकती है।

संदीप को साथ ले जाने के मामले में पीसीसी चीफ कांतिलाल भूरिया की दिलचस्पी के चलते अब शिवराज को घेरने की रणनीति बनने लगी है। आरोपित है कि इसके पहले शिवराज सिंह चौहान को अनेक मामलों में घेरने में कांग्रेस पूरी तरह असफल रही है। कांग्रेस पर शिवराज सिंह चौहान से मैनेज होने के आरोप भी लगते रहे हैं।

हर जिले के लिए मानसिक चिकित्सा केंद्रों की व्यवस्था


हर जिले के लिए मानसिक चिकित्सा केंद्रों की व्यवस्था

प्राकृतिक आपदा के नाम पर सरकारी अमला बढ़ाने की कवायद

आपदा से निपटने के बजाए बाद के गैरजरूरी उपायों में लगा स्वास्थ्य मंत्रालय

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। भूकंप, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए मानक आधार पर सुविधाएं आज भी उपलब्ध नहीं है। इस दिशा में पहल करने के बजाए केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा अब इस तरह की आपदा के उपरांत लोगों को मानसिक तौर पर व्यवस्थित करने की गरज से देश के 641 जिलों में मानसिक चिकित्सा केंद्र खोलने की कवायद की जा रही है। एक तरफ जिलों में स्वास्थ्य सुविधाएं पूरी तरह पटरी से उतर चुकी हैं। वहीं दूसरी और केद्र सरकार द्वारा इस तरह का गैरजरूरी प्रयास किया जा रहा है।

गौरतलब है कि भारत में बाढ़, भूकंप, दंगे, बम विस्फोट जैसी बड़ी आपदाओं से आए दिन रियाया दो चार होती रहती है। केंद्र सरकार द्वारा इसकी रोकथाम या इससे निपटने के उपायों की और ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के शासनकाल की महात्वाकांक्षी नदी जोड़ो योजना आज भी ठंडे बस्ते में है। बिहार में कोसी नदी हर साल कहर बरपाती है। केंद्र सरकार द्वारा इस तरह की आपदाओं से निपटने के प्रयास कतई नहीं किए जाते हैं।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि इस तरह की आपदा के उपरांत लोगों को मानसिक तौर पर व्यवस्थित करने के लिए देश के सभी 641 जिलों में मानसिक चिकित्सा केंद्र की स्थापना के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण महकमे ने योजना आयोग से एक हजार करोड़ रूपयों की राशि की मांग की है। सूत्रों ने कहा कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के करीबी एनजीओ को लाभ पहुंचाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा इस तरह की कवायद की जा रही है।

बिरादरी में ही अनजान हैं भूरियाबिरादरी में ही अनजान हैं भूरिया


बिरादरी में ही अनजान हैं भूरिया

भूरिया को नहीं एमपी के 22 आदिवासी विधायक का समर्थन

आदिवासी अंचलों में बेगाने हैं भूरिया

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। रसातल में पहुंच चुकी मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी में नई जान फूंकने के लिए इसकी कमान राज्य सभा की राजनीति करने वाले सुरेश पचौरी के हाथों से लेकर तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया के हाथों में सौंपने के बाद भी सूबाई कांग्रेस की हालत में कुछ सुधार परिलक्षित नहीं हो पा रहा है। आदिवासियों के हितों के संरक्षण का स्वांग करने वाली कांग्रेस ने भूरिया के हाथों कमान सौंपकर आदिवासी वोट बैंक को प्रसन्न करने का असफल प्रयास ही किया है।

अध्यक्ष बनने के बाद कांतिलाल भूरिया द्वारा अब तक मध्य प्रदेश के समस्त जिलों का दौरा भी नहीं किया जा सका है। भूरिया का सारा ध्यान मालवांचल में ही प्रतीत हो रहा है। महाकौशल के आदिवासी बाहुल्य मण्डला, डिंडोरी, बालाघाट, सिवनी और छिंदवाड़ा से भूरिया ने पर्याप्त दूरी बना रखी है।

केंद्र में भले ही भूरिया ने लाल बत्ती का स्वाद चख लिया हो किन्तु जमीनी हकीकत यह है कि आदिवासियों के बीच आज भी वे अनजान चेहरा ही हैं। मध्य प्रदेश कोटे से केंद्र में राजनीति करने वालों के बीच चल रही बयार के अनुसार भूरिया में चमत्कारिक बात नहीं है। कांतिलाल भूरिया एसा चेहरा कतई नहीं हैं जिसके बूते मध्य प्रदेश में कांग्रेस की डूबती नैया को किनारे लगाया जा सके। वैसे भी भूरिया को कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय सिंह का रबर स्टेंप माना जाता है।

गौरतलब है कि वर्तमान में मध्य प्रदेश में 19 फीसदी वोट आदिवासी समुदाय के हैं। प्रदेश में तकरीबन 22 अदिवासी विधायक हैं। कांतिलाल भूरिया के अध्यक्ष बनने के बाद इन्होंने अपनी बिरादरी के सांसद विधायकों तक की सुध नहीं ली है। एमपी कोटे के कांग्रेसी नेताओं का मानना है कि भूरिया की ताजपोशी के बाद मध्य प्रदेश में दिग्गी काल की वापसी हो चुकी है।

मध्य प्रदेश के क्षत्रप भी कांतिलाल भूरिया से पर्याप्त दूरी बनाकर ही चल रहे हैं। रविवार को जबलपुर में आयोजित एक कार्यक्रम से महाकौशल के क्षत्रप कमल नाथ ने दूरी ही बनाकर रखी। इस प्रोग्राम में सूबाई कांग्रेसी निजाम भूरिया, नेता प्रतिपक्ष राहुल सिंह, पूर्व सांसद रामेश्वर नीखरा अवश्य पहुंचे पर कांग्रेस के आला क्षत्रप इससे गायब ही रहे। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में चल रही चर्चाओं के अनुसार इन परिस्थितयों में 2013 के चुनावों में मध्य प्रदेश में कांग्रेस से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद करना बेमानी ही होगा।

भारत के बजाए अफ्रीका में होगी जेम्स बॉन्ड की फिल्मों की शूटिंग


भारत के बजाए अफ्रीका में होगी जेम्स बॉन्ड की फिल्मों की शूटिंग

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। जेम्स बॉन्ड की आने वाली फिल्म की शूटिंग अब भारत में नहीं होगी। रेल मंत्रालय की सहमति के बावजूद निर्माता ने इसकी शूटिंग भारत में नहीं करने का निर्णय लिया है। रेल मंत्रालय के सूत्रों ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि फिल्म निर्माण कंपनी इंडिया टेक वन प्रॉडक्शन ने रेल मंत्रालय को सूचित किया है कि वे अगली बॉन्ड फिल्म की भारत में शूटिंग नहीं कर रहे हैं और वे इसके लिए दूसरी जगहों की तलाश कर रहे हैं। फिल्म की शूटिंग अब दक्षिण अफ्रीका में हो सकती है।

सूत्रों ने कहा है कि निर्माण कंपनी ने पिछले कुछ महीनों के दौरान रेल मंत्रालय के सहयोग के लिए धन्यवाद दिया है। इस फिल्म का शीर्षक बॉन्ड 23 रखा गया है। इस फिल्म के निर्माता ने भारतीय रेल पर तेज रफ्तार वाले स्टंट सीन की शूटिंग करने की इच्छा जताई थी। किसी चलती रेलगाड़ी की छत पर, साथ ही एक सुरंग के अंदर शूटिंग के लिए अनुरोध किया गया था। हालांकि उन्हें बचाव और सुरक्षा के मुद्दों के कारण अनुमति हासिल करने में कठिनाई आ रही थी।

हालांकि रेल मंत्रालय ने जनवरी से मार्च 2012 के बीच फिल्म की शूटिंग की अनुमति दे दी है लेकिन समस्या यह आ रही थी कि अधिकारी हर रोज लगातार दिन में सात घंटे के लिए रेल पटरियों को बंद करने की निर्माण कंपनी की मांग को लेकर चिंतित थे। बॉन्ड 23 की यूनिट ने शूटिंग स्थल के रूप में गोवा को भी चुना था।

पचास का हो जाएगा डालर!


पचास का हो जाएगा डालर!

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। रूपए की कीमत में तेजी से गिरावट के चलते अब लगने लगा है कि डालर जल्द ही पचास रूपए का हो सकता है। वैसे भी डालर को वैश्विक मुद्रा का अघोषित दर्जा मिला हुआ है। गिरावट के समय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा विदेशी मुद्रा के भण्डार से डालर को बेचकर सामंजस्य बनाने का प्रयास किया जाता है।

गौरतलब है कि रिजर्व बैंक ने भारतीय मुद्रा की कीमत तय करने का काम एक सीमा तक बाजार पर छोड़ रखा है। मुद्रा बाजार में रुपए की कीमत अन्य विदेशी मुद्रा की तुलना में मांग-आपूर्ति के आधार पर तय होती है। हालांकि, रुपए की कीमत में आने वाले असामान्य उतार-चढ़ाव को थामने के लिए रिजर्व बैंक हस्तक्षेप करता है। जब गिरावट में असमान्य तेजी दर्ज होती है तब उस समय आरबीआई अपने विदेशी मुद्रा भंडार में से डॉलर बाजार में बेचकर रुपए को और गिरने से बचाता है। वहीं असामान्य तेजी के समय आरबीआई बाजार से डॉलर खरीदकर इसे और मजबूत होने से रोकता है।