संविधान की मर्यादा से खेलने की इजाजत किसने दी राज ठाकरे को
(लिमटी खरे)
महाराष्ट्र विधानसभा के सत्र के पहले ही दिन महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के विधायकों ने सदन के अंदर हाथापाइ्र कर न केवल अशोभनीय आचरण किया है वरन् एक असंवैधानिक कदम उठाया है। कांगेस हो या भाजपा हर दल द्वारा इसका मौन समर्थन ही किया जा रहा है।
महाराष्ट्र में क्षेत्रीयता को लेकर बवंडर बहुत उपर उठ चुका है, हालात देखकर लगता नहीं है कि यह बवंडर जल्द ही शांत हो सकेगा। जनाधार बढाने के चक्कर में राजनेता प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तोर राज ठाकरे की इस गुंडागदीZ को प्रश्रय दे रहे हैं, जिसे निंदनीय कहा जाएगा। पूर्व में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित, फिर मध्य प्रदेश के मख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान और अब केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ ने भी इंदौर में राज की बात पर ठप्पा ही लगा दिया।
कुछ सालों पहले शिवसेना सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे ने मराठी मानुस को अस्त्र बनाकर राजनीति आरंभ की थी। उस समय अपनी अपनी कुर्सी बचाने के लिए सभी राजनैतिक दलों ने बाला साहेब के कदम को परोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया था। क्षेत्रीयता की आग कब शोलों में तब्दील हो गई किसी को पता तक नहीं चला। समूचा महाराष्ट्र इसकी आग में सुलग रहा है।
सवाल यह उठता है कि देश के नीति निर्धारकों को क्या शिवसेना या मनसे का यह तांडव दिखाई नहीं दिया। जाहिर सी बात है कि हर किसी ने इसे देखा, पर निहित स्वार्थों के चलते इस पर चुप रहना ही बेहतर समझा। आज राज ठाकरे के हौसले इतने बुलंदी पर हैं कि उनके समर्थक सरेआम सदन की गरिमा को तार तार करने से नहीं चूक रहे हैं।
समाजवादी नेता अबू आजमी और मनसे चीफ राज ठाकरे के बीच इस तरह की तकरार नई नहीं है। इससे पहले भी दोनों के बीच कई बर तलवारें खिच चुकीं हैं। पिछले साल जब उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे जहर उगल रहे थे तब आजमी ने उत्तर भारतियों का पक्ष लेते हुए उनके बीच बचाव के लिए लाठियां बांटने का वक्तव्य दिया था। राज ने इसके जवाब में मराठियों को तलवारें बाटने की गर्जना कर दी थी।
क्या देश के नीति निर्धारकों को यह नहीं दिखा कि किस तरह क्षेत्रीयता के नाम पर जहर उगलकर सियासत बिछाई जा रही थी। राज ठाकरे निश्चित तौर पर हर मामले में अपने आप को मजबूत पा रहे हैं, तभी तो प्रजातांत्रिक देश में आजादी के बासठ सालों बाद भी देश के अन्य हिस्सों के लोग महाराष्ट्र में अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। सवाल तो यह उठ रहा है कि राज ठाकरे और उनके नहले दहले सरेआम संविधान से खिलवाड किए जा रहे हैं, और संविधान के रक्षक धृतराष्ट्र की भूमिका में हैं।
मराठी भाषा की अिस्मता के नाम पर राज ठाकरे एण्ड पार्टी जो नंगा नाच नाच रही है, उसकी सिर्फ निंदा करने से काम नहीं चलने वाला है। इसके लिए ठोस कदम सुनिश्चित करना ही होगा। आने वाले समय में अगर राज ठाकरे को राष्ट्रगान या तिरंगे पर ही आपत्ति हो जाए तो कोई बडी बात नहीं।
हालात देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि देश की आन बान और शान का प्रतीक रहे महाराष्ट्र की कानून और व्यवस्था अब किसी सरकार नहीं वरन् राज ठाकरे की चरणों की दासी बनकर रह गई है। राज ठाकरे की गुडागदीZ और लचर कानून व्यवस्था का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल हजारों की तादाद में हिंदी भाषी महाराष्ट्र से पलायन कर गए थे। सिर्फ नासिक शहर से ही पंद्रह हजार लोगों ने रातों रात नासिक छोड दिया था।
राज ठाकरे ने ``जो कहा सो किया``। राज ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि जो हिन्दी में शपथ लेने की कोशिश करेगा, वह परिणाम भुगतेगा। लानत है देश और राज्य की सरकार पर। राज को उस वक्त ही माकूल जवाब मिल गया होता तो आज देश की संवैधानिक मर्यादा तार तार होने से तो बच जाती।
अगर राज ठाकरे शालीनता से इसी बात को चेतावनी के बजाए अपील के तौर पर कहते तो संभवत: यह हादसा नहीं होता। यह हमला अबू आजमी पर नहीं भारत की संवैधानिक मर्यादा पर है। देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है, और हिन्दी की ही इस कदर चिंदी उडती रहे, साथ ही केंद्र और राज्य सरकारें खामोशी का लबादा ओढे रहें तो चल चुका देश।
कें्रद्र सरकार में बैठे मराठा क्षत्रप शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, सुशील कुमार शिंदे की आखिर क्या मजबूरी है, कि वे ठाकरे परिवार के खिलाफ कम से कम इन ज्याद्तीयों के बाद भी मुंह सिले बैठे हैं। किसी ने कहा है कि राजनीति की परिभाषा है `` जिस नीति से राज हासिल हो वह राजनीति है``। अगर इस तरह की ही राजनीति करनी है तो बख्श दें देशवासियों को।
विडम्बना ही कही जाएगी कि एक अकेला राज ठाकरे इस स्वतंत्र भारत में अपनी मनमनी करने पर आमदा है, और हमारे देश के नपुंसक जनप्रतिनिधि मूक दर्शक बने उसके तांडव को चुपचाप देख रहे हैं। नया कुछ नहीं है, इससे पहले राज के चाचा बाबा साहेब ने चमडे के सिक्के चलवाए थे, और उन्हीं के पदचिन्हों पर अब राज ठाकरे चल रहे हैं। तब भी देश के नामर्द राजनेता सहमे हुए थे और आज भी चुप्पी साधे हुए हैं।