शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

सहिष्णुता की आड़ में कायरता हो रही हावी


सहिष्णुता की आड़ में कायरता हो रही हावी

(लिमटी खरे)

भारत गणराज्य में रहने वाला हर नागरिक सहिष्णु रहा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। जीयो और जीने दो के सिद्धांत को प्रतिपादित कर इस पर अमल करने में हिन्दुस्तान का कोई सानी नहीं है। भारत की न्याय प्रणाली कहती है कि भले ही सो मुजरिम छूट जाएं पर एक बेगुनाह को सजा नहीं होना चाहिए। जिस पर आरोप सिद्ध हो चुके हों उसे दया माफी या अन्य रास्तों से बचने के मार्ग प्रशस्त कहीं होते हैं तो यह भारत गणराज्य ही है। अजमल कसाब, अफजल गुरू, अजहर मसूद जैसे अनेक उदहारण हमारे सामने हैं जिनमें भारत गणराज्य की सरकारें बेबस ही नजर आती हैं। जम्मू काश्मीर लिब्ररेशन फ्रंट के पांच आतंकियों को इसलिए छोड़ दिया गया था क्योंकि उस वक्त एक मंत्री की बेटी अगुआ कर ली गई थी। एक गरीब को जब किसी डकैत द्वारा पकड़ा जाता है तो उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता है, पर दूसरी ओर जब किसी नेता के वंशज को पकड़ा जाता है तब सरकार सारे नियम कायदों को ताक पर रखने से नहीं चूकती। जब धमाके होते हैं तो मरने वालों और घायलों को सरकार मुआवजा देती है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या नेहरू गांधी परिवार के वंशजों ने स्व.इंदिरा गांधी और स्व.राजीव गांधी की नृशंस हत्या के बाद मुआवजा कबूल किया था?

कहते हैं कि शत्रु वहीं सबसे अधिक आक्रमण करते हैं जहां एकता नहीं होती। जहां लोगों के बीच एकता का अभाव होगा वहां शत्रुओं को सर छिपाने और छिपकर वार करने मे सहूलियत होती है। अनेकता में एकता, भारत की विशेषतायह नारा आजादी के बाद तेजी से बुलंद हुआ था। अस्सी के दशक के उपरांत एकाएक भ्रष्टाचार ने सर उठाना आरंभ किया। इसके उपरांत देश पर शासक करने वालों ने ही देश को लूटना आरंभ किया। अपने संचित धन को कथित तौर पर इन नेताओं ने स्विस सहित विदेशी बैंकों में जमा करना आरंभ कर दिया। कहा जाता है कि इसके साथ ही साथ हिन्दुस्तान में भी स्विस बैंक की तर्ज पर एक कंपनी का उदय हुआ। इस कंपनी ने रातों रात तरक्की की। इस कंपनी में भी नेताओं, अफसरों और व्यवसाईयों का बेनामी पैसा लगा हुआ है। यही कारण है कि केंद्र और सूबाई सरकारें भी चाहकर इसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती हैं।

बहरहाल, देश की नपुंसक सरकार को एक के बाद एक धमाकों ने जमकर दहलाया है। दिल्ली उच्च न्यायालय बम विस्फोट की पहली जवाबदारी हूजी ने ली। हूजी का कहना है कि अफजल गुरू की फांसी की सजा अगर माफ नहीं हुई तो इस तरह के धमाके और भी होते रहेंगे। इसके बाद इंडियन मुजाहिद्दीन ने इसकी जवाबदारी ले ली है। इसने यह धमाका क्यों किया है इसे साफ नहीं किया है। इंडियन मुजाहिद्दीन क्या कहता है यह और हूजी की धमकी का क्या असर होगा इस बारे में अभी से कुछ कहना जल्दबाजी ही होगी।

पिछले दो दशकों में एक बात तो उभरकर सामने आई है कि भारत गणराज्य की सरकार को फैसला न लेने या टालने की आदत हो गई है। नब्बे के दशक में इसकी शुरूआत कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिंम्हाराव के शासनकाल से हुई। उनके प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने फैसले जमकर टाले। फिर क्या था नरसिम्हाराव के उपरांत सरकारों का प्यारा शगल बनकर रह गया है फैसलों को टालना। मसला चाहे आम आदमी की रोजी रोटी से जुड़ा हो या फिर आम आदमी की सुरक्षा से, हर मामले में सरकार मूक दर्शक ही बनी बैठी दिखती है।

आज बम धमाकों के पीछे यह कारण उभरकर सामने आया है कि अफजल गुरू की फांसी की सजा को माफ किया जाए। कल अगर यही बात किसी और कारण से अजहर मसूद और अजमल कसाब के लिए सामने आए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वोट बैंक की घ्रणित राजनीति के चलते राजनेता कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। स्व.राजीव गांधी की पुत्री प्रियंका वढ़ेरा खुद चलकर अपने पिता की हत्यारिन नलिनी से मिलने जेल गईं और मीडिया की सुर्खियां बटोरी। सालों बीतने पर भी प्रियंका ने यह नहीं बताया कि आखिर क्या वजह थी, कि वे अपने पिता के कातिल से मिलने जेल गईं थीं। आखिर कौन से प्रश्न प्रियंका के मानस पटल पर घुमड़ रहे थे जिनका जवाब लेने वे नलिनी से मिलने गई थीं।

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को लेकर तमिलनाडू विधानसभा द्वारा जो किया है उसकी गूंज अनुगूंज समूचे भारत वर्ष को पार करती हुई जम्मू और काश्मीर तक सुनाई पड़ी है। जम्मू काश्मीर के निजाम उमर अब्दुल्ला ने गरम तवे पर रोटी सेंकते हुए एक प्रश्न जड़ ही दिया कि अगर यही मामला जम्मू काश्मीर विधानसभा द्वारा अफजल गुरू के संबंध में किया होता तो क्या देश में इसी तरह की शांति रहती? उमर के प्रश्न में दम है? क्या मानव मानव में भेद उचित है। यह जात पात, धर्म, मजहब, क्षेत्रवाद का मानवता में कोई स्थान है? जाहिर है नहीं, फिर एसा क्यों? उत्तर साफ है राजनेता ही हमें आपस में भेद करना सिखाते हैं। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हमवतन हैं हिन्दोस्तां हमारा।

अल्प संख्यक समुदाय को प्रमुख राजनैतिक दलों ने अपना वोट बैंक माना है। यही कारण है कि आतंकी गतिविधियों में लिप्त लोगों द्वारा अल्प संख्यकों की भावनाओं को भड़काने का प्रयास किया जाता है। राजीव के हत्यारों के मामले में खुद उनकी अर्धांग्नी और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी एवं राजीव पुत्र तथा कांग्रेस की नजर में भविष्य के वजीरे आजम राहुल गांधी ने भी खामोशी ही अख्तियार कर रखी है। जब उनके परिजन ही मौन हैं तब कांग्रेसियों की फौज के साथ ही साथ बाकी देश का मौन रहना स्वाभाविक ही है।

वहीं दूसरी ओर चूंकि जम्मू काश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अफजल गुरू के बारे में एक साधारण सा प्रश्न किया तो देश भर के सियासी लोगों की भवें तन गईं। देखा जाए तो अफजल गुरू का अपराध कमोबेश राजीव के हत्यारों के समकक्ष ही माना जा सकता है। फिर अपराधियों के मामले में दोहरे मापदण्ड आखिर क्यों? आज समूचे देश में अफजल गुरू का मामला फिर जीवंत हो गया है। चौक चौराहों पर एक बार फिर लोग अफजल के मामले की जुगाली करते दिखने लगे हैं।

दिल्ली में हुए हालिया विस्फोट से इसे जोड़ा जा रहा है। बताया जाता है कि दिल्ली विस्फोट मामले में संकेत जुलाई में ही मिल चुके थे। संभावना यह भी है कि इस मामले में अफजल गुरू का नाम लाने से मामला हॉट बनाया जा सकता है। अगर अफजल को पहले ही फांसी दे दी गई होती तो आज यह मामला उठता ही नहीं कि उसकी फांसी की सजा को माफ नहीं किया तो और धमाके होंगे। आने वाले समय में अगर कोई अनहोनी हो और उनमें अजहर मसूद और अजमल कसाब को जोड़ा जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

दिल्ली के इस विस्फोट में मारे गए और घायलों को सरकार ने मुआवजे के तौर पर चंद लाख रूपए देने की पेशकश की है। हर बार एसा ही होता है। एक प्रश्न आज भी दिमाग में जस का तस ही बना हुआ है कि जब इस तरह के हादसे, उदहारण के तौर पर राजीव गांधी की बम धमाके में हुई हत्या के उपरांत सरकार द्वारा दिए गए मुआवजे को क्या उनकी पत्नि श्रीमति सोनिया गांधी, उनकी पुत्री प्रियंका और पुत्र राहुल ने स्वीकार किया था? क्या इंदिरा जी की हत्या के बाद सरकार ने उनके परिजनों को मुआवजा दिया था? क्या मध्य प्रदेश में नक्सलियों द्वारा नृशंस तरीके से गला रेतकर जब तत्कालीन परिवहन मंत्री लिखी राम कांवरे की हत्या की थी तब उनके परिजनों को सरकार ने मुआवजा दिया था? क्या ये सभी गरीब जनसेवक नहीं थे? अगर थे तो क्या इनके परिजनों को मुआवजे की दरकार नहीं?

दरअसल भारत गणराज्य की नपुंसक सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति के चलते ही यह सब हो पा रहा है। जिस देश का प्रधानमंत्री ही जनता द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर न चुना गया हो, जिसे जनता ने दो बार नकार दिया हो, जो पिछले दरवाजे यानी राज्य सभा के रास्ते संसद पहुंचा हो, जिसे खुद लोकसभा में मत देने का अधिकार ही न हो, जिस पर सरेआम आरोप लगें कि वह सोनिया गांधी के चाबी वाले खिलौने की तरह चल रहा हो, जो देश के सामने अपने आप को मजबूर बताए, जिसके लिए राष्ट्र धर्मसे बड़ा गठबंधन धर्महो उसके नेतृत्व वाली बिना रीढ़ की सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है।

शिवराज की लिस्ट को आलाकमान की हरी झंडी का इंतजार

शिवराज की लिस्ट को आलाकमान की हरी झंडी का इंतजार


अक्टूबर में होगा शिवराज सरकार का अंतिम फेरबदल


चार मंत्रियों की रवानगी तय


लाल बत्ती पाने उठापटक तेज


लखनादौन से शशि ठाकुर की लग सकती है लाटरी


(लिमटी खरे)


नई दिल्ली। 2013 में होने वाले मध्य प्र्रदेश के विधानसभा चुनावों के पूर्व अंतिम बार मंत्रीमण्डल फेरदबल अक्टूबर माह में होने के संकेत मिले हैं। हृदय प्रदेश के निजाम शिवराज सिंह चौहान अपने मंत्रीमण्डल में फेरबदल की सूची भाजपा हाईकमान को अनुमोदन के लिए भेज दी है। अब इंतजार नितिन गड़करी की हरी झंडी का है। इस फेरबदल में चार मंत्रियों पर गाज गिरना तय माना जा रहा है। उधर लाल बत्ती के जुगाड़ के लिए विधायकों ने अपने अपने आकाओं को सिद्ध करना आरंभ कर दिया है।


भारतीय जनता पार्टी के नेशनल हेडक्वार्टर के सूत्रों ने बताया कि शिवराज सिंह चौहान ने अपनी पिछली दिल्ली की यात्रा के दौरान ही झंडेवालान स्थित संघ मुख्यालय केशव कुंजऔर नितिन गड़करी से मंत्रीमण्डल फेरदबल के संबंध में चर्चा की है। उन्होंने अपनी प्रस्तावित सूची भी आला नेताओं को सौंप दी है। अगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मद्देनजर संघ और भाजपा के आला नेताओं से शिवराज सिंह चौहान का काफी मंथन हो चुका है।


पिछले दिनों शिवराज सिंह चौहान द्वारा वन टू वन अपने मंत्रियों से की गई चर्चा इसी मंथन का परिणाम मानी जा रही है। इस फेरबदल में जिन मंत्रियों की कुर्सी जाने की उम्मीद है उनमें बयानों के जरिए विवादों में रहने वाले गौरी शंकर बिसेन, नारायण सिंह कुशवाह, पारस जैन एवं वित्त मंत्री राघवजी भाई के नाम प्रमुख तौर पर सामने आए हैं। वहीं दूसरी ओर लाल बत्ती की कतार में खड़े नेताओं में जिन्हें उपकृत किया जा सकता है उनमें आदिवासी बाहुल्य सिवनी जिले की लखनादौन सीट से भाजपा का परचम लहराने वाली शशि ठाकुर, पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा, प्रेम नारायण ठाकुर, शरद जैन, गिरीश गौतम, ओम प्रकाश सकलेचा, मीना सिंह के नाम प्रमुख तौर पर सामने रहे हैं।

नरेंद्र मोदी हो सकते हैं राजग के पीएम इन वेटिंग

नरेंद्र मोदी हो सकते हैं राजग के पीएम इन वेटिंग


आड़वाणी की किस्मत में नहीं लाल किले की प्राचीर से संबोधन


रथ यात्राओं ने अब नहीं बदलने वाली आड़वाणी की किस्मत


(लिमटी खरे)


नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक बार फिर हिन्दुत्व के एजेंडे को वापस लाने के मूड में दिखाई दे रहा है। समूचे भारत में भारतीय जनता पार्टी की मट्टी पलीत से संघ के आला नेता नाखुश ही दिख रहे हैं। संघ के नेताओं का मानना है कि राजग के पीएम इन वेटिंग की गलत नीतियों का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ रहा है। संघ के रणनीतिकारों का मानना है कि अगर 2014 में भी भाजपा सत्ता से दूर रही तो आने वाले दिनों में भाजपा के साथ संघ का भी सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। मिशन 2014 के लिए भाजपा की ओर से अपेक्षाकृत युवा चेहरे नरेंद्र मोदी पर दांव लगाया जा सकता है।


गुजरात में सत्ता का परचम लहराने वाले नरेंद्र मोदी की छवि खाटी हिन्दुवादी नेता के तौर पर स्थापित हो चुकी है। भाजपा के समस्त मुख्यमंत्रियों में नरेंद्र मोदी को एक कुशल राजनेता और प्रशासक के तौर पर देखा जा रहा है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा कि नरेंद्र मोदी का प्रबंधन कमाल का है। गुजरात सरकार को छः लोग मिलकर ही चला रहे हैं। पर्दे के पीछे रहने वाले इन लोगों की नीतियों से नरेंद्र मोदी खुद को स्थापित कर पाए हैं। गुजरात में पिछले दिनों हुए निवेश ने सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए हैं।


गौरतलब है कि पिछले दिनों विकीलीक्स केबल में भी इस बात के संकेत मिले थे कि गुजरात के निजाम नरेंद्र मोदी केंद्र में बड़ी भूमिका की तलाश में हैं। यद्यपि यह केबल 2005 के आधार पर था किन्तु 2009 के आम चुनावों में पुनः इस बात के संकेत मिले थे कि मोदी ही भाजपा के सबसे पसंदीदा चेहरा बनकर उभरे हैं। भाजपा के शिवराज सिंह चौहान की इमेज साधारण ग्रामीण की है किन्तु उनके दामन पर लगे भ्रष्टाचार के दागों के चलते वे पीएम मटेरियल नहीं बन पा रहे हैं। यह अलहदा बात है कि शिवराज की पीआर देख रहे लोग दिल्ली में उन्हें पीएम मटेरियल बनाने से नहीं चूक रहे हैं। इसके पीछे एमपी में तख्ता पलट की बात भी कही जा रही है। रही बात रमन सिंह की तो रमन सिंह ने अपने आप को छत्तीसगढ़ के औरे में ही कैद कर रखा है।


भाजपा के उच्च पदस्थ सूत्रों का यह भी कहना है कि भाजपाध्यक्ष नितिन गड़करी ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। अगर वे 2014 तक भाजपाध्यक्ष की कुर्सी पर रहे तो निश्चित तौर पर वे भी नरेंद्र मोदी को ही आगे करेंगे। वैसे भाजपा और संघ में चल रही बयार के अनुसार राजग के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आड़वाणी को अब विश्राम देने के मूड में हैं अधिकांश नेता। इस लिहाज से देखा जाए तो बतौर प्रधानमंत्री आड़वाणी की किस्मत में लाल किले पर ध्वाजारोहण करना शायद नहीं लिखा है।


भाजपा में अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो आने वाले दिनों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा की ओर से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का पीएम इन वेटिंग घोषित कर दिया जाएगा। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनते ही अधिकांश पार्टियां जो धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग रचती हैं वे एक झंडे तले आ सकती हैं। वैसे आज की स्थिति में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ कुंलांचे मारते हुए उपर बढ़ते ही जा रहा है।

बच्चों के प्रति संजीदा नहीं सरकारें

बच्चों के प्रति संजीदा नहीं सरकारें


बुनियादी सुविधाओं का अभाव है आंगनवाड़ियों में


पैसा कमाने का जरिया बनीं आंगनवाड़ियां


राज्यों को भी नहीं परवाह बच्चों की


(लिमटी खरे)


नई दिल्ली। ‘‘सुविधाओं को तरसते देश के अधिकांश बच्चे आज भी कुपोषण से ग्रसित हैं। जनता के गाढ़े पसीने की कमाई से संचित कर सरकारों द्वारा खर्च किए गए अरबों रूपए पानी में ही बह गए हैं।‘‘ उक्ताशय के निश्कर्ष संसदीय समिति ने अपने प्रतिवेदन में निकाले हैं। सरकार को आड़े हाथों लेते हुए इस समिति ने माहिला एवं बाल विकास मंत्री को जमकर घेरा है। समिति ने पाया कि आधे से अधिक आंगनवाड़ियों में बुनियादी सुविधाएं ही नहीं हैं।


महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की महिलाओं को सुदृण और आत्मनिर्भर बनाने संबंधी संसदीय समिति ने अपना आठवां प्रतिवेदन संसद में पेश किया है। इस प्रतिवेदन में बच्चों के विकास के प्रति कोताही बरतने पर सरकार की कड़ी आलोचना की गई है। समिति ने देश में 1975 में आरंभ की गई योजना में कुछ अमूल चूल परिवर्तन करते हुए आंगनवाड़ी और शिशु गृह में पैदा होने के बाद से तीन साल तक के बच्चों को भी शामिल करने का प्रस्ताव दिया है। समिति का मानना है कि इससे एक ओर बच्चों में कुपोषण की समस्या से निजात मिल सकेगी वहीं दूसरी ओर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को भी शिशु गृह की सुविधा मिल सकेगी।


इस प्रतिवेदन में समिति ने पाया कि देश में संचालित आंगनवाड़ियों में आधी से अधिक जगहों पर पेयजल की सुविधा ही नहीं है। बच्चे प्यासे कंठ ही यहां रोते पाए गए। इतना ही नहीं इतनी ही संख्या में आंगनवाड़ियों में शौचालय ही नहीं थे। समिति ने महज पच्चीस फीसदी आंगनवाड़ियों में ही रसोईघर पाए। समिति ने यह भी पाया कि आंगनवाड़ी चलाने वालों के घरों पर ही एक कमरे में ही आंगनवाड़ी केंद्र संचालित हो रहे हैं।


समिति को सबसे अधिक आश्चर्य इस बात पर हुआ कि आंगनवाड़ी कार्यकताओं के लगभग नब्बे हजार और समेकित बाल विकास सेवा में निरीक्षकों के लगभग पंद्रह हजार पद रिक्त होने के बाद भी राज्यों द्वारा इस बारे में केंद्र को अंधेरे में ही रखा जा रहा है। समिति ने इस बात पर भी आश्चर्य व्यक्त किया है कि चार दशकों के बाद भी इसके लिए पात्र लगभग सोलह करोड़ में से महज साढ़े सात करोड़ बच्चों को ही शामिल किया गया है।