सहिष्णुता की आड़ में कायरता हो रही हावी
(लिमटी खरे)
भारत गणराज्य में रहने वाला हर नागरिक सहिष्णु रहा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। जीयो और जीने दो के सिद्धांत को प्रतिपादित कर इस पर अमल करने में हिन्दुस्तान का कोई सानी नहीं है। भारत की न्याय प्रणाली कहती है कि भले ही सो मुजरिम छूट जाएं पर एक बेगुनाह को सजा नहीं होना चाहिए। जिस पर आरोप सिद्ध हो चुके हों उसे दया माफी या अन्य रास्तों से बचने के मार्ग प्रशस्त कहीं होते हैं तो यह भारत गणराज्य ही है। अजमल कसाब, अफजल गुरू, अजहर मसूद जैसे अनेक उदहारण हमारे सामने हैं जिनमें भारत गणराज्य की सरकारें बेबस ही नजर आती हैं। जम्मू काश्मीर लिब्ररेशन फ्रंट के पांच आतंकियों को इसलिए छोड़ दिया गया था क्योंकि उस वक्त एक मंत्री की बेटी अगुआ कर ली गई थी। एक गरीब को जब किसी डकैत द्वारा पकड़ा जाता है तो उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता है, पर दूसरी ओर जब किसी नेता के वंशज को पकड़ा जाता है तब सरकार सारे नियम कायदों को ताक पर रखने से नहीं चूकती। जब धमाके होते हैं तो मरने वालों और घायलों को सरकार मुआवजा देती है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या नेहरू गांधी परिवार के वंशजों ने स्व.इंदिरा गांधी और स्व.राजीव गांधी की नृशंस हत्या के बाद मुआवजा कबूल किया था?
कहते हैं कि शत्रु वहीं सबसे अधिक आक्रमण करते हैं जहां एकता नहीं होती। जहां लोगों के बीच एकता का अभाव होगा वहां शत्रुओं को सर छिपाने और छिपकर वार करने मे सहूलियत होती है। ‘अनेकता में एकता, भारत की विशेषता‘ यह नारा आजादी के बाद तेजी से बुलंद हुआ था। अस्सी के दशक के उपरांत एकाएक भ्रष्टाचार ने सर उठाना आरंभ किया। इसके उपरांत देश पर शासक करने वालों ने ही देश को लूटना आरंभ किया। अपने संचित धन को कथित तौर पर इन नेताओं ने स्विस सहित विदेशी बैंकों में जमा करना आरंभ कर दिया। कहा जाता है कि इसके साथ ही साथ हिन्दुस्तान में भी स्विस बैंक की तर्ज पर एक कंपनी का उदय हुआ। इस कंपनी ने रातों रात तरक्की की। इस कंपनी में भी नेताओं, अफसरों और व्यवसाईयों का बेनामी पैसा लगा हुआ है। यही कारण है कि केंद्र और सूबाई सरकारें भी चाहकर इसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती हैं।
बहरहाल, देश की नपुंसक सरकार को एक के बाद एक धमाकों ने जमकर दहलाया है। दिल्ली उच्च न्यायालय बम विस्फोट की पहली जवाबदारी हूजी ने ली। हूजी का कहना है कि अफजल गुरू की फांसी की सजा अगर माफ नहीं हुई तो इस तरह के धमाके और भी होते रहेंगे। इसके बाद इंडियन मुजाहिद्दीन ने इसकी जवाबदारी ले ली है। इसने यह धमाका क्यों किया है इसे साफ नहीं किया है। इंडियन मुजाहिद्दीन क्या कहता है यह और हूजी की धमकी का क्या असर होगा इस बारे में अभी से कुछ कहना जल्दबाजी ही होगी।
पिछले दो दशकों में एक बात तो उभरकर सामने आई है कि भारत गणराज्य की सरकार को फैसला न लेने या टालने की आदत हो गई है। नब्बे के दशक में इसकी शुरूआत कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिंम्हाराव के शासनकाल से हुई। उनके प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने फैसले जमकर टाले। फिर क्या था नरसिम्हाराव के उपरांत सरकारों का प्यारा शगल बनकर रह गया है फैसलों को टालना। मसला चाहे आम आदमी की रोजी रोटी से जुड़ा हो या फिर आम आदमी की सुरक्षा से, हर मामले में सरकार मूक दर्शक ही बनी बैठी दिखती है।
आज बम धमाकों के पीछे यह कारण उभरकर सामने आया है कि अफजल गुरू की फांसी की सजा को माफ किया जाए। कल अगर यही बात किसी और कारण से अजहर मसूद और अजमल कसाब के लिए सामने आए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वोट बैंक की घ्रणित राजनीति के चलते राजनेता कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। स्व.राजीव गांधी की पुत्री प्रियंका वढ़ेरा खुद चलकर अपने पिता की हत्यारिन नलिनी से मिलने जेल गईं और मीडिया की सुर्खियां बटोरी। सालों बीतने पर भी प्रियंका ने यह नहीं बताया कि आखिर क्या वजह थी, कि वे अपने पिता के कातिल से मिलने जेल गईं थीं। आखिर कौन से प्रश्न प्रियंका के मानस पटल पर घुमड़ रहे थे जिनका जवाब लेने वे नलिनी से मिलने गई थीं।
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को लेकर तमिलनाडू विधानसभा द्वारा जो किया है उसकी गूंज अनुगूंज समूचे भारत वर्ष को पार करती हुई जम्मू और काश्मीर तक सुनाई पड़ी है। जम्मू काश्मीर के निजाम उमर अब्दुल्ला ने गरम तवे पर रोटी सेंकते हुए एक प्रश्न जड़ ही दिया कि अगर यही मामला जम्मू काश्मीर विधानसभा द्वारा अफजल गुरू के संबंध में किया होता तो क्या देश में इसी तरह की शांति रहती? उमर के प्रश्न में दम है? क्या मानव मानव में भेद उचित है। यह जात पात, धर्म, मजहब, क्षेत्रवाद का मानवता में कोई स्थान है? जाहिर है नहीं, फिर एसा क्यों? उत्तर साफ है राजनेता ही हमें आपस में भेद करना सिखाते हैं। ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हमवतन हैं हिन्दोस्तां हमारा।
अल्प संख्यक समुदाय को प्रमुख राजनैतिक दलों ने अपना वोट बैंक माना है। यही कारण है कि आतंकी गतिविधियों में लिप्त लोगों द्वारा अल्प संख्यकों की भावनाओं को भड़काने का प्रयास किया जाता है। राजीव के हत्यारों के मामले में खुद उनकी अर्धांग्नी और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी एवं राजीव पुत्र तथा कांग्रेस की नजर में भविष्य के वजीरे आजम राहुल गांधी ने भी खामोशी ही अख्तियार कर रखी है। जब उनके परिजन ही मौन हैं तब कांग्रेसियों की फौज के साथ ही साथ बाकी देश का मौन रहना स्वाभाविक ही है।
वहीं दूसरी ओर चूंकि जम्मू काश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अफजल गुरू के बारे में एक साधारण सा प्रश्न किया तो देश भर के सियासी लोगों की भवें तन गईं। देखा जाए तो अफजल गुरू का अपराध कमोबेश राजीव के हत्यारों के समकक्ष ही माना जा सकता है। फिर अपराधियों के मामले में दोहरे मापदण्ड आखिर क्यों? आज समूचे देश में अफजल गुरू का मामला फिर जीवंत हो गया है। चौक चौराहों पर एक बार फिर लोग अफजल के मामले की जुगाली करते दिखने लगे हैं।
दिल्ली में हुए हालिया विस्फोट से इसे जोड़ा जा रहा है। बताया जाता है कि दिल्ली विस्फोट मामले में संकेत जुलाई में ही मिल चुके थे। संभावना यह भी है कि इस मामले में अफजल गुरू का नाम लाने से मामला हॉट बनाया जा सकता है। अगर अफजल को पहले ही फांसी दे दी गई होती तो आज यह मामला उठता ही नहीं कि उसकी फांसी की सजा को माफ नहीं किया तो और धमाके होंगे। आने वाले समय में अगर कोई अनहोनी हो और उनमें अजहर मसूद और अजमल कसाब को जोड़ा जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दिल्ली के इस विस्फोट में मारे गए और घायलों को सरकार ने मुआवजे के तौर पर चंद लाख रूपए देने की पेशकश की है। हर बार एसा ही होता है। एक प्रश्न आज भी दिमाग में जस का तस ही बना हुआ है कि जब इस तरह के हादसे, उदहारण के तौर पर राजीव गांधी की बम धमाके में हुई हत्या के उपरांत सरकार द्वारा दिए गए मुआवजे को क्या उनकी पत्नि श्रीमति सोनिया गांधी, उनकी पुत्री प्रियंका और पुत्र राहुल ने स्वीकार किया था? क्या इंदिरा जी की हत्या के बाद सरकार ने उनके परिजनों को मुआवजा दिया था? क्या मध्य प्रदेश में नक्सलियों द्वारा नृशंस तरीके से गला रेतकर जब तत्कालीन परिवहन मंत्री लिखी राम कांवरे की हत्या की थी तब उनके परिजनों को सरकार ने मुआवजा दिया था? क्या ये सभी गरीब जनसेवक नहीं थे? अगर थे तो क्या इनके परिजनों को मुआवजे की दरकार नहीं?
दरअसल भारत गणराज्य की नपुंसक सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति के चलते ही यह सब हो पा रहा है। जिस देश का प्रधानमंत्री ही जनता द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर न चुना गया हो, जिसे जनता ने दो बार नकार दिया हो, जो पिछले दरवाजे यानी राज्य सभा के रास्ते संसद पहुंचा हो, जिसे खुद लोकसभा में मत देने का अधिकार ही न हो, जिस पर सरेआम आरोप लगें कि वह सोनिया गांधी के चाबी वाले खिलौने की तरह चल रहा हो, जो देश के सामने अपने आप को मजबूर बताए, जिसके लिए ‘राष्ट्र धर्म‘ से बड़ा ‘गठबंधन धर्म‘ हो उसके नेतृत्व वाली बिना रीढ़ की सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है।