शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

कौन लेगा रीढ़ की सुध!

कौन लेगा रीढ़ की सुध!

(लिमटी खरे)

भारत गणराज्य की स्थापना के साथ ही यह स्वीकार कर लिया गया था कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान है। इस स्थापित सत्य के उजागर होने के बाद गांवों में विकास की किरण भेजने के मार्ग प्रशस्त होने लगे। पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में तो विकास का रथ ठीक ठाक ही चला, इसके बाद यह रथ आक्रांताओं के हाथ लग गया। जिसके हिस्से जो आया वह उड़ाकर ले गया। किसी के पास इसका पहिया है तो किसी के हाथ लगी लगाम, कोई चाबुक फटकार रहा है तो कोई ध्वाजा उठाए चल रहा है। कुल मिलाकर अस्सी के दशक के उपरांत भारत को एक बार फिर लूटने का सिलसिला ही आरंभ हुआ है। अपने निहित स्वार्थों के चलते प्रजातंत्र के तीनों स्तंभों ने अघोषित चौथे स्तंभ में पूंजीपतियों की पैठ जमवाकर इससे अपनी देहरी पर मुजरा करवाना आरंभ करवा दिया। आज देश की 69 फीसदी जनसंख्या गांवों में रहती है, जो मूलतः बुनियादी सुविधाओं के लिए बुरी तरह तरस रहे हैं।

भारत देश को सोने की चिड़िया यूं ही नहीं कहा जाता था। आज प्रौढ़ और बुजुर्ग हो रही पीढ़ी ने इसे देखा नहीं बस सुना और पढ़ा है, किन्तु युवा पीढ़ी के सामने पदमनाभन मंदिर के खुले खजाने का उदहारण सामने है। इस मंदिर में निकली अकूत दौलत जिसमें सोना चांदी और जेवरात बहुतायत में हैं, ने साफ कर दिया है कि भारत में सनातनपंथियों की ईश्वर में कितनी जबर्दस्त आस्था रही है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस सोने की चिड़िया के उदर से मुगलों और गोरे ब्रितानियों ने न जाने कितनी दौलत लूटी और अपने अपने देश को उड़ गए।
गुलामी की जंजरों को डेढ़ सौ सालों के बाद तोड़ा जा सका। भारत गणराज्य की स्थापना के साथ ही बचे खुचे संसाधनों से देश को विकास के पथ पर लाने के ईमानदार प्रयास आरंभ किए गए। जनता पर करों को लादा गया, ताकि सरकारी खजाना भरे और फिर उससे देश के विकास का पहिया घूम सके। अस्सी के दशक आने तक तो कुछ हद तक गाड़ी ठीक ठाक ही पटरी पर चलती रही किन्तु उसके बाद ईमानदारी हाशिए पर आ गई और उसका स्थान ले लिया निहित स्वार्थों ने।

आज भी एक मर्तबा पंद्रह अगस्त पर देश के वजीरे आजम द्वारा देश की अर्थ व्यवस्था की री़ढ़ किसानों की सुध लाल किले की प्राचीर से अपने संबोधन में अवश्य ली जाती है, फिर उनकी कसमें और वायदे फाईलों में ही गुम हो जाते हैं। अस्सी के दशक के आगाज के साथ ही देश कें घपले, घोटालों, भ्रष्टाचार, अनाचार का जबर्दस्त और कभी न रूकने वाला तांडव आरंभ हुआ। पिछले तीन सालों में तो इसने सारी हदें ही पार कर दीं।

नेहरू गांधी परिवार के वारिसान की आंखों के सामने देश के हर एक आदमी को नंगा कर उसे सरेराह लूटा गया। इटली मूल की गांधी परिवार की बहू सोनिया गांधी और उनके साहेब जादे राहुल गांधी मूक दर्शक बने, टू जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी, कामन वेल्थ, एस बेण्ड आदि जैसे बड़े बड़े घोटालों को अंजाम तक पहुंचाते रहे। काले धन के मामले में जब इक्कीसवीं सदी के योग गुरू बाबा रामदेव ने मुंह खोला तो रामलीला मैदान में उनके साथ रावणलीला खेल दी गई। लोकपाल के मसले में अण्णा हजारे को दबाने का प्रयास किया गया।

आज 2011 की जनगणना के अस्थाई आंकड़े जारी हो चुके हैं। भारत की आत्मा गांवों में बसती है का मुहावरा अब फिकरा हो गया है, इसका कारण यह है कि देश की एक तिहाई आबादी यानी 31.16 फीसदी लोग अब शहरों में बस रहे हैं। 2001 से 2011 के बीच लोगों की गांव से शहर की और दौड़ की गति में बेहताशा बढोत्तरी दर्ज की गई है। देश में शहरों की संख्या भी जमकर बढ़ चुकी है। यह आंकड़ा आठ हजार को छू रहा है। इनमें से आधे शहरों को ही वैधानिक तौर पर शहरों की मान्यता मिली हुई है। जनगणना से गए बात और सामने आई है कि जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़कर साठ फीसदी और कृषि का योगदान घटकर 15 फीसदी पर आ गया है।

दस सालों के आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो देश में कुल आबादी 18.14 करोड़ बढ़ी है जिसमें शहरों में नौ करोड़ दस लाख तो गांवों में नौ करोड़ चार लाख लोगों की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। शहरों की ओर लोगों का रूख करने का प्रमख कारण रोजगार के अच्छे साधन, चिकित्सा, शिक्षा और रहन सहन का बेहतर स्तर है। वैसे समाज शास्त्र में औद्योगीकरण और शहरी करण को एक दूसरे का पर्याय माना गया है। जहां उद्योग धंधे बढ़ेंगे रोजगार के अवसर पैदा होंगे वहां शहरीकरण होना स्वाभाविक ही है। गूगल अर्थ पर ही अगर हिन्दुस्तान के मानचित्र पर शहरों को देखा जाए तो शहरों के आसपास की नई बसाहट साफ तौर पर प्रतीत हो जाती है।

देश में सबसे अधिक ग्रामीण आबादी वाला सूबा है उत्तर प्रदेश जहां 15 करोड़ पचास लाख लोग गांवों में निवास करते हैं। इससे उलट शहरी आबादी के मामले में महाराष्ट्र अव्वल है जहां पांच करोड़ आठ लाख की शहरी आबादी है। शहरी आबादी में महाराष्ट्र इस संख्या के साथ देश की आबादी में 13.5 फीसदी सहयोग करते हुए पहली पायदान पर तो उत्तर प्रदेश 4.44 करोड़ की आबादी के साथ देश में 11.8 फीसदी हिस्सेदारी के साथ दूसरे तो मिलनाडू 3.49 करोड़ एवं देश में 9.3 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ तीसरे नंबर पर है।

जहां तक ग्रामीण आबादी का सवाल है तो उत्तर प्रदेश में देश की 18.6 फीसदी यानी 15.511 करोड़ जनता गांवों में बसती है, इसके उपरांत नंबर आता है बिहार का जहां 11.1 फीसदी हिस्सेदारी के साथ 9.2 करोड़ तो पश्चिम बंगाल में साढ़े सात प्रतिशत यानी 6.2 करोड़ जनता रहती है गांवों में। मेघालय में सबसे अधिक 27 तो बिहार में 24 फीसदी की दर से ग्रामीण आबादी में विस्तार दर्ज किया गया है। बच्चों के मामले में अगर देखा जाए तो दस सालों में बच्चों की आबादी में आधा करोड़ की गिरावट दर्ज की गई है। जिसमें से गांवों में सबसे अधिक लगभग 90 लाख कम हुए तो शहरों में 40 लाख की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।

2001 और 2011 के आंकड़ों में अगर तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो ग्रामीण में क्रमशः 72.19 एवं 68.84 प्रतिशत की दर से साढ़े तीन प्रतिशत की कमी, शहरी में 27.81 एवं 31.16 की दर से 3.35 की वृद्धि दर्ज की गई है। लिंगानुपात के मामले में ग्रामीण स्तर पर यह 946 से बढ़कर 947 तो शहरों में 900 से बढ़कर 926 हो गया है। आधुनिकता की इस दौड़ में साक्षरता सबसे अधिक प्रभावित हुई है। देश में साक्षरता का प्रतिशत तेजी से गिरा है। ग्रामीण स्तर पर 2001 में जो 24.6 फीसदी था वह इस साल घअकर 29.8 हो गया है। वहीं शहरी स्तर पर 13.4 से घटकर 9.8 हो गया है, जो कि चिंताजनक माना जा सकता है।

इस तरह के भयावह आंकड़ों के बाद भी कांग्रेसनीत केंद्र सरकार द्वारा गठबंधन धर्म को निभाना ही परमधर्म माना जा रहा है। देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान को लकवा मार चुका है, वह चलने में अपने आप को असमर्थ पा रहा है किन्तु देश के शासक फिर भी उसे हल में बैल के स्थान पर जोतकर चाबुक से प्रहार करने से नहीं चूक रहे हैं। किसी को किसान की चिंता नहीं है। देश में करोड़ों अरबों रूपयों की बली चढ़ाकर सर्व शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है फिर भी साक्षारता का प्रतिशत गिरता ही जा रहा है। लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर भाग रहे हैं। शहरों से सटे गांवों में मल्टी प्लेक्स और कांक्रीट जंगल खड़े किए जा रहे हैं। केंद्र सरकार अब तक गठबंधन धर्मके चलते भूमि अधिग्रहण कानून नहीं बना पाई है। कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के राज में अब भारत गणराज्य का हर आदमी भगवान भरोसे ही माना जा सकता है।

. . . मतलब वासनिक से गए गुजरे हैं राहुल

. . . मतलब वासनिक से गए गुजरे हैं राहुल

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। जब जब कांग्रेसनीत संप्रग सरकार का मंत्रीमण्डल विस्तार हुआ तब तब राहुल गांधी के मंत्री बनने के शिगूफे छोड़े गए। अंत में वे मंत्री नहीं बने। इस बार भी यही हुआ। वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह ने कहा कि उन्हें कोई बार राहुल गांधी से कहा (मिन्नतें कीं) कि मंत्रीमण्डल में शामिल हो जाओ, पर उन्होंने इंकार कर दिया। उधर राहुल गांधी का कहना है कि उन पर संगठन की जवाबदारियां हैं।

मंत्रीमण्डल में शामिल होने से वंचित रहे कांग्रेस के एक वरिष्ठ सांसद ने नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि विडम्बना देखिए कि एक तरफ कांग्रेस के सांसद लाल बत्ती लेने के लिए जोड़तोड़ करते रहते हैं और दूसरी ओर थाली में रखकर प्रधानमंत्री खुद ही लाल बत्ती लेकर राहुल के पास जाते हैं और राहुल उसे ठुकरा देते हैं, क्या यही है नेहरू गांधी का सोचा प्रजातंत्र?
इतना ही नहीं दूसरों के इशारांे पर चाबी के गुड्डे की तरह चलने वाले राहुल गांधी क्या मुकुल वासनिक, गुलाम नबी आजाद, ए.के.अंटोनी, वी.नारायण सामी, राजीव शुक्ला, वीरप्पा मोईली, जयराम रमेश, जितंेद्र सिंह जैसे नेताओं से गए गुजरे हैं? जब ये नेता संगठन में कामकाज देखने के साथ ही साथ मंत्री बने रह सकते हैं तो राहुल क्यों नहीं?

उक्त नेता ने कहा कि कांग्रेस अब प्राईवेट लिमिटेड पार्टी मंे तब्दील हो गई है। यहां एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत, युवाओं को आगे लाने की बात, आदिवासियों के हित संवर्धन की बातें, सत्ता और संगठन में महिलाओं की 33 फीसदी की भागीदारी की बातें अब बेमानी हो गई हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने किसी भी स्तर पर इन बातों को लागू नहीं किया है। यहां तक कि आदिवासियों के विकास के मामले में भी सदा ही सत्ता की बागडोर सामंती राजघरानों या सूट बूट वाले कलफ चढ़े नेताओं के हाथ ही सौंपी है।

आरटीई में फिसड्डी बना मध्य प्रदेश

आरटीई में फिसड्डी बना मध्य प्रदेश

लाखों बच्चे पढाई से हैं वंचित

स्कूल शिक्षा विभाग के सर्वे से हुआ फर्जीवाडा उजागर

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। देश के बच्चों को शिक्षित करने की गरज से केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा के अधिकार का कानून (आरटीई) बना दिया है, किन्तु देश का हृदय प्रदेश ही इस कानून का सरेआम माखौल उडा रहा है। मध्य प्रदेश में लाखों, हजारों बच्चे आज भी पढाई से वंचित हैं। केंद्र के कानून को तो छोडिए जब मध्य प्रदेश में खुद का ही जनशिक्षा अधिनियम 2001 लागू है, बावजूद इसके स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा इस संबंध में कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है।

गौरतलब है कि शिक्षा का मौलिक अधिकार अधिनियम 2009 जब से लागू हुआ है तब से छः से 14 साल तक के बच्चों को शिक्षा की अनिवार्यता लागू की गई है। इस अधिनियम के लागू होने के उपरांत स्कूल न जाने वाले समस्त बच्चों को स्कूल भेजकर दाखिला कराया जाना अनिवार्य कर दिया गया है। यह जवाबदारी राज्य सरकार पर आहूत होती है कि वह यह सुनिश्चित करे कि कोई भी बच्चा इससे वंचित न रह जाए।

यहां उल्लेखनीय होगा कि केंद्र के शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के लागू होने के आठ साल पहले ही मध्य प्रदेश सरकार ने जनशिक्षा अधिनियम 2001 लागू कर दिया था, जिसके तहत सूबे में रहने वाले छः से चौदह साल के बच्चों का स्कूलों में दाखिला करवाना अनिवार्य बना दिया गया था। राजा दिग्विजय सिंह, उमा भारती, बाबू लाल गौर के बाद अब शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश सूबे के निजाम हैं, पर किसी ने भी प्रदेश के उन बच्चों की ओर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा जो स्कूल जाने के बजाए दीगर काम में अपना दिन बिता देते हैं।
मानव संसाधन विभाग के उच्च पदस्थ सूत्रों ने बताया कि मध्य प्रदेश में स्कूल शिक्षा की स्थिति वाकई चिंता जनक है। सूत्रों ने कहा कि जो तथ्य उभरकर सामने आ रहे हैं वे बहुत ही भयावह हैं। मध्य प्रदेश सूबें मे लाखों बच्चे एसे हैं जो आज भी स्कूल जाने से वंचित हैं। मानव संसाधन विभाग के एक आला अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा कि अकेले भोपाल संभाग का ही लें तो वहां दस हजार से अधिक बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। सीहोर में 424, बेतूल 3088, रायसेन 1331, भोपाल 1350, राजगढ 1136, होशंगाबाद 756, हरदा 657, विदिशा 488 बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। ये आंकडे स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा वर्ष 2009 में कराए गए आंकडे हैं।

दरअसल शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो कंेद्र और राज्य सरकारों ने बना दिया है, किन्तु आर्थिक तंगी के कारण शालाओं में गरीब अपने बच्चों का दाखिला कैसे कराए यह समस्या आज भी बरकरार है। वस्तुतः होना यह चाहिए था कि सरकारी शालाओं में बीपीएल परिवारों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा के साथ ही साथ प्रदेश में चल रहे निजी स्कूलों में इस तरह के बच्चों के लिए कुछ फीसदी सीट आरक्षित करा दी जानी चाहिए।

वर्तमान शिक्षण सत्र में शिवराज सरकार ने शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने की औपचारिकता पूरी करने की कवायद की जा रही है जिसमें अखबारों में विज्ञापनों के माध्यम से गरीब तबके का ध्यान इस ओर आकर्षित करने का प्रयास किया जा रहा है। गौरतलब है कि गरीब रोजी रोटी के जुगाड़ में ही इतना व्यवस्त रहता है कि उसे दिन भर अखबार पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता है, साथ ही इनमें से अस्सी प्रतिशत तो अनपढ़ ही हैं। वस्तुतः सरकार को चाहिए कि शिक्षकों को परिवार नियोजन, जनगणना जैसे बेगार के कामों से निकालकर बच्चों को स्कूल लाने प्रेरित करने के काम में लगाएं ताकि देश के नौनिहाल शिक्षित होकर अपना भविष्य संवार सकें।

सोलहवें सावन में बन जाएगा लाईसेंस


सोलहवें सावन में बन जाएगा लाईसेंस

सोलह साल पूरे होते ही अधिकृत तौर पर दुपहिया से फर्राटे भरेंगे युवा

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। युवाओं के बीच दुपहिया वाहनों के बढ़ते क्रेज को देखकर केंद्र सरकार भी व्यवहारिक होती नजर आ रही है। कंेद्र सरकार द्वारा गियर वाले दो पहिया को चलाने के लिए अब आयु सीमा 18 से घटाकर 16 साल करने की तैयारी की जा रही है। इस आशय के प्रस्ताव केंद्र सरकार ने तैयार कर राज्यों को भेजकर उनके मशविरे मांगे हैं। अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो नए साल की पहली किरण के आगाज के साथ ही सोलह साल पूरे करने वालों को वाहन चलाने का लाईसेंस मिल जाएगा।

केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों ने बताया कि विभाग के पास कुछ गैर सरकारी संगठनों के सुझाव आए थे जिसमें युवाओं में दो पहिया वाहनों के प्रति बढ़ते रूझान को देखकर आयु सीमा कम करने की बात कही गई थी। भूतल परिवहन मंत्री सी.पी.जोशी ने तत्काल इस पर संज्ञान लेते हुए प्रस्ताव तैयार करवाया और फिर राज्यों को भेजकर उनका पक्ष जानने का प्रयास किया है।

वर्तमान कानून के अनुसार बिना गियर वाले दो पहिया वाहनों के लिए आयु सीमा सोलह साल और गियर वाले वाहनों के लिए अठ्ठारह साल निर्धारित है। इस प्रस्ताव में बिना गियर के लिए पंद्रह तो गियर वाली के लिए सोलह साल आयु करने की बात कही गई है। अमूमन अस्सी फीसदी युवा बिना अनुज्ञा (लाईसेंस) के ही वाहनों को सड़कों पर दौड़ाकर कानून तोड़ते नजर आते हैं। केंद्र सरकार की मंशा है कि युवाओं के इस गैर कानूनी कदम को आयु सीमा घटाकर कानूनी किया जाए। जोशी के करीबियों का कहना है कि युवाओं को मिलने वाली इस सुविधा के चलते अगले आम चुनावों मंे युवाओं का बड़ा वर्ग कांग्रेस के साथ हो सकता है।