कब तक ढोए जाते रहेंगे गुलामी के लबादे
जयराम रमेश की पहल स्वागतयोग्य
उपनिवेशवाद को तिलांजली देने सरकार को उठाना होगा कडे कदम
अंग्रेजी मोह से उबरना जरूरी है भारतवासियों के लिए
(लिमटी खरे)
देश के हृदय प्रदेश में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश ने एक एसी बहस को जन्म दे दिया है, जिसके बारे में उन्होंने शायद ही सोचा हो कि इस बहस की आज कितनी अधिक आवश्यक्ता है। जयराम रमेश ने उन्हें भोपाल पहनाए गए लबादे को उपनिवेशवाद का बर्बर प्रतीक चिन्ह कहकर उतार दिया। बकौल रमेश उन्हें आश्चर्य है कि आजादी के छ: दशकों के बाद भी हम इन निशानियों को सीने से लगाए हुए हैं। यह सच है कि आखिर कब तक हम मुगल और ब्रितानी गुलामी की गायब हो चुकी सांसों को सहेजकर रखेंगे। हो सकता है जयराम रमेश ने सूरज की तपन से उपजी गर्मी के चलते पसीने से तरबतर होकर अपना चोगा उतार फेंका हो, पर उसको जिस तरीके से उन्होंने सही ठहराया वह मुद्दे की बात है।
यह बहस महज भोपाल के दीक्षान्त समारोह तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। आज देश में कितने स्मारक और भवन एसे हैं जिनको ब्रितानी शासकों ने बनवाया था और जब तक उन्होंने राज किया तब तक वे इन्हीं भवनों को कार्यालय और निवास के तौर पर इस्तेमाल करते रहे। आज हमारे देश को आजाद हुए छ: दशक से ज्यादा बीत चुके हैं, विडम्बना देखिए कि आज भी हम आत्मनिर्भर नहीं हो सके हैं।
आज भी देश का पहला नागरिक महामहिम राष्ट्रपति अपना आशियाना उसे ही बनाए हुए हैं जिसे कभी वायसराय जनरल ने बनाया हुआ था। देश के प्रधानमन्त्री से लेकर अधिकांश मन्त्री उन्ही कार्यालयों या निवासों में काम कर रहे हैं जो ब्रितानी शासकों के द्वारा बनवाए गए थे। क्या देश के शासकों को इन भवनों से दासता की बू नहीं आती। आती भी होगी तो निहित स्वार्थों में अंधे जनसेवकों की नैतिकता तो कभी की दम तोड चुकी है। आज भी देश का राजकाज वहीं से संचालित होता है, जिसे ब्रितानी शासनकाल में अंग्रेज वास्तुकार लुटियन ने बनाया था, आज `लुटियन जोन` में रहना स्टेटस सिंबल बन चुका है।
ब्रिटेन और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अधीन रह चुके जमैका, युगाण्डा, हांगकांग, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, न्यूजीलेण्ड आदि में आज भी न्यायधीश अपने पद के अनुरूप सर पर विग पहना करते हैं। भारत में यह प्रथा बन्द हो गई है किन्तु माई लार्ड कहने की प्रथा लंबे समय तक जारी रही। बाद में देश व्यापी बहस के उपरान्त अप्रेल 2006 में बार काउंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा यह व्यवस्था दी गई थी कि न्यायधीशों को माईलार्ड के स्थान पर ``सर`` कहकर संबोधित किया जा सकता है। हिन्दी देश की राष्ट्रभाषा है, बार कांउंसिल अगर चाहता तो सर के अलावा या साथ ही साथ महोदय, मान्यवर जैसे हिन्दी के शब्दों को भी इसमें शामिल कर सकता था।
बहरहाल वन एवं पर्यावरण मन्त्री का साहस प्रशंसनीय है कि उन्होंने कम से कम इस बारे में न केवल सोचा वरन् उसे खुद भी अमली जामा पहनाया। दरअसल जो लबादा पहनाया जाता है वह मसीही समुदाय के धर्मगुरू के द्वारा पहने जाने वाल पोशाक से बहुत मेल खाता है। वैसे भी किसी धर्म के धर्मगुरू की पोशाक को पहनना अनैतिक ही है। यह पहनावा उस वक्त आरम्भ हुआ जब पश्चिमी सभ्यता के अनुसार धार्मिक स्थल ही शिक्षा के केन्द्र हुआ करते थे। प्राचीन भारत के गुरूकुल की व्यवस्थाओं में धर्म स्थलों के आसपास ही इन्हें स्थापित करने की अवधारणा थी, किन्तु धर्मगुरू या राजगुरू की अपनी एक पोशाक होती थी, जिसे कोई और धारण नहीं कर सकता था। रमेश ने इस गाउन को पोप और पादरियों से जोडा तो कुछ मसीही संगठनों ने अपनी नाराजगी जताई और दूसरी ओर पूर्व मानव संसाधन मन्त्री मुरली मनोहर जोशी और बिहार के निजाम नितिश कुमार उनके समर्थन में सामने भी आए हैं।
इस मामले को किसी सियासी दल में बांधकर देखना ठीक नही ंहोगा। जयराम रमेश कांग्रेस के सिपाही हैं, छत्तीसगढ में भाजपा की सरकार है, फिर भी छत्तीसगढ के गुरू घासीदास विश्वविद्यालय ने एक अनोखा फैसला लेते हुए यह व्यवस्था दी है कि किसी भी दीक्षान्त समारोह में वहां के छात्र या अतिथि कन्वोकेशन गाउन के स्थान पर कुर्ता पायजामा वह भी खादी का ही पहनेंगे। यहां के छात्रों के सर पर बांस की वह टोपी होगी जिसे आदिवासी समुदाय खुमरी कहता है और अपने सर पर धारण करता है। इस विवि का पहला दीक्षान्त समारोह 26 अप्रेल को है, तब यह अलग ही अन्दाज में नज़र आएगा। इस तरह बिलासपुर का यह डेढ दशक पुराना विश्वविद्यालय देश में पहला विश्वविद्यालय बन जाएगा जो उपनिवेशवाद का तिरस्कार कर भारतीय संस्कृति को सहेजकर आगे बढाने का काम करेगा।
देश की व्यवस्थाओं पर अगर गौर फरमाया जाए तो सरकारी तन्त्र में हर कदम पर ब्रितानी सभ्यता की ही झलक दिखाई पडती है। और तो और अनेक जिलों के जिलाधिकारी (रेवन्यू कलेक्टर) के दूरभाष आज भी जिला कलेक्टर के स्थान पर डिप्टी कमिश्नर के नाम पर ही अंकित हैं। आजादी के छ: दशकों बाद भी किसी को इसमें नाम सुधरवाने की सुध नहीं आना आश्चर्य का ही विषय है। हमारी न्यायपालिका से लेकर शिक्षा प्रणाली तक में ब्रितानी लटके झटके साफ दिखाई दे जाते हैं।
दुख का विषय तो यह कहा जाएगा कि आज भी देश में सरकारी तन्त्र अंग्रेजी में ही काम को तवज्जो देता है। जयराम रमेश खुद भी अंग्रेजी में ही काम करते हैं। इस तरह की व्यवस्थाओं में राष्ट्रभाषा के साथ ही साथ आम भारतीय भाषाएं तो दम ही तोड देंगी। हमें यह कहने में कोई संकोच नही कि आज अंग्रेजी देशवासियों पर थोपी जा रही है। आज जिन स्कूलों में सीबीएसई पाठ्यक्रम लागू है वहां अंग्रेजी माध्यम अनिवार्य किया गया है, जिसका ओचित्य समझ से परे है। एक तरफ सरकार कहती है कि सारे कामकाज हिन्दी में करो और दूसरी तरफ अंग्रेजी की अनिवार्यता!
राष्ट्र के पिता होने का गोरव पाने वाले मोहन दास करमचन्द गांधी के नाम को आधी सदी से ज्यादा इस देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने तबियत से भुनाया है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। विडम्बना है कि सरकारी कामकाज की भाषा और शिक्षा के भाषाई माध्यम के बारे में बापू के क्या विचार थे, इस मामले में कांग्रेस पूरी तरह मौन साध लेती है। चेन्नई उच्च न्यायालय के वकीलों ने स्थानीय बोलचाल की भाषा तमिल में बहस की अनुमति चाही। इसके लिए उन्होंने आन्दोलन किया और हडताल भी की। न्यायधीशों ने उन्हें मूक समर्थन तो दिया पर औपचारिक निर्णय के लिए यह ब्रितानी शासनकाल में बने वायसराय जनरल के तत्कालीन आशियाने और वर्तमान राष्ट्रपति भवन में हिचकोले खा रही है। यह बात कहां तक उचित है कि स्थानीय कम पढा लिखा आदमी अपने केस की बहस सुनने जाए और उसे बहस समझ ही में न आए। क्या यह उपनिवेशवाद की भद्दी प्रस्तुति नहीं है।
आज प्रोढ हो चुकी पीढी ने अंग्रेजों की बर्बरता नहीं देखी। हमारा इतिहास भी अब वही पढाया जा रहा है, जो शासकों की पसन्द हो। आजादी कितने सितम सहने के बाद मिली इस बात को प्रोढ होने वाली पीढी नहीं समझ सकती है। दिल्ली में एक मर्तबा चाय की दुकान पर बूढे बाबा से चर्चा के दौरान जब हमने बूढे बाबा से अंग्रेजों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि जाते वक्त अंग्रेजों ने उनके प्रयोग में आने वाली साईकिलों को एक साथ जमीन पर रखकर उन पर गाडिया चलवां दी थीं, ताकि भारतवासी आजादी के बाद चलने के लिए साईकिल के लिए मोहताज रहें। यह अलहदा बात है कि आज भारत में ही साईकिल से लेकर कारों तक का निर्माण होने लगा है। एक और वाक्ये का जिकर यहां लाजिमी होगा। प्राचार्य रहे हमारे ताया से जब हमने अंग्रेजी शासनकाल के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि अंग्रेज आकर कर वसूला करते थे, पर जब हम पानी की बात करते तो वे कहते कि पानी मुहैया कराना सरकार की जवाबदारी नहीं है, आप अपने घर में ही कुआं खोदें और पानी पिएं। इतने बर्बर थे ब्रितानी।
आज समय आ गया है, जब हम इन बातो पर गौर फरमाएं कि उपनिवेशवाद के बर्बर प्रतीक चिन्हों और व्यवस्थाओं को तिलांजली देकर देश की भाषाओं को बढाने की दिशा में कदम उठाएं। हालात देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि अंग्रेजों की गुलामी से तो हम मुक्त हो चुके हैं, पर उनकी मानसिकता से मुक्ति में अभी सदियां लग सकती हैं। देश के हृदय प्रदेश मध्य प्रदेश की तारीफ करना चाहिए जहां पूर्व मुख्यमन्त्री राजा दिग्विजय सिंह ने विधानसभा के मिन्टो हाल से इसे मुक्त कराकर अरेरा हिल्स पर बनवा दिया इसी तरह इस सूबे का सचिवालय भी ब्रितानी सभ्यता का प्रतीक नहीं आजाद भारत में निर्मित किया गया है। सरकार को चाहिए कि हिन्दी के साथ ही साथ देश की स्थानीय भाषाओं के उत्थान और प्रोत्साहन के लिए कठोर कदम सुनिश्चित करे, वरना आने वाले समय में हिन्दी सहित देश की स्थानीय भाषाओं का नामलेवा भी कोई नहीं बचेगा।
यह बहस महज भोपाल के दीक्षान्त समारोह तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। आज देश में कितने स्मारक और भवन एसे हैं जिनको ब्रितानी शासकों ने बनवाया था और जब तक उन्होंने राज किया तब तक वे इन्हीं भवनों को कार्यालय और निवास के तौर पर इस्तेमाल करते रहे। आज हमारे देश को आजाद हुए छ: दशक से ज्यादा बीत चुके हैं, विडम्बना देखिए कि आज भी हम आत्मनिर्भर नहीं हो सके हैं।
आज भी देश का पहला नागरिक महामहिम राष्ट्रपति अपना आशियाना उसे ही बनाए हुए हैं जिसे कभी वायसराय जनरल ने बनाया हुआ था। देश के प्रधानमन्त्री से लेकर अधिकांश मन्त्री उन्ही कार्यालयों या निवासों में काम कर रहे हैं जो ब्रितानी शासकों के द्वारा बनवाए गए थे। क्या देश के शासकों को इन भवनों से दासता की बू नहीं आती। आती भी होगी तो निहित स्वार्थों में अंधे जनसेवकों की नैतिकता तो कभी की दम तोड चुकी है। आज भी देश का राजकाज वहीं से संचालित होता है, जिसे ब्रितानी शासनकाल में अंग्रेज वास्तुकार लुटियन ने बनाया था, आज `लुटियन जोन` में रहना स्टेटस सिंबल बन चुका है।
ब्रिटेन और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अधीन रह चुके जमैका, युगाण्डा, हांगकांग, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, न्यूजीलेण्ड आदि में आज भी न्यायधीश अपने पद के अनुरूप सर पर विग पहना करते हैं। भारत में यह प्रथा बन्द हो गई है किन्तु माई लार्ड कहने की प्रथा लंबे समय तक जारी रही। बाद में देश व्यापी बहस के उपरान्त अप्रेल 2006 में बार काउंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा यह व्यवस्था दी गई थी कि न्यायधीशों को माईलार्ड के स्थान पर ``सर`` कहकर संबोधित किया जा सकता है। हिन्दी देश की राष्ट्रभाषा है, बार कांउंसिल अगर चाहता तो सर के अलावा या साथ ही साथ महोदय, मान्यवर जैसे हिन्दी के शब्दों को भी इसमें शामिल कर सकता था।
बहरहाल वन एवं पर्यावरण मन्त्री का साहस प्रशंसनीय है कि उन्होंने कम से कम इस बारे में न केवल सोचा वरन् उसे खुद भी अमली जामा पहनाया। दरअसल जो लबादा पहनाया जाता है वह मसीही समुदाय के धर्मगुरू के द्वारा पहने जाने वाल पोशाक से बहुत मेल खाता है। वैसे भी किसी धर्म के धर्मगुरू की पोशाक को पहनना अनैतिक ही है। यह पहनावा उस वक्त आरम्भ हुआ जब पश्चिमी सभ्यता के अनुसार धार्मिक स्थल ही शिक्षा के केन्द्र हुआ करते थे। प्राचीन भारत के गुरूकुल की व्यवस्थाओं में धर्म स्थलों के आसपास ही इन्हें स्थापित करने की अवधारणा थी, किन्तु धर्मगुरू या राजगुरू की अपनी एक पोशाक होती थी, जिसे कोई और धारण नहीं कर सकता था। रमेश ने इस गाउन को पोप और पादरियों से जोडा तो कुछ मसीही संगठनों ने अपनी नाराजगी जताई और दूसरी ओर पूर्व मानव संसाधन मन्त्री मुरली मनोहर जोशी और बिहार के निजाम नितिश कुमार उनके समर्थन में सामने भी आए हैं।
इस मामले को किसी सियासी दल में बांधकर देखना ठीक नही ंहोगा। जयराम रमेश कांग्रेस के सिपाही हैं, छत्तीसगढ में भाजपा की सरकार है, फिर भी छत्तीसगढ के गुरू घासीदास विश्वविद्यालय ने एक अनोखा फैसला लेते हुए यह व्यवस्था दी है कि किसी भी दीक्षान्त समारोह में वहां के छात्र या अतिथि कन्वोकेशन गाउन के स्थान पर कुर्ता पायजामा वह भी खादी का ही पहनेंगे। यहां के छात्रों के सर पर बांस की वह टोपी होगी जिसे आदिवासी समुदाय खुमरी कहता है और अपने सर पर धारण करता है। इस विवि का पहला दीक्षान्त समारोह 26 अप्रेल को है, तब यह अलग ही अन्दाज में नज़र आएगा। इस तरह बिलासपुर का यह डेढ दशक पुराना विश्वविद्यालय देश में पहला विश्वविद्यालय बन जाएगा जो उपनिवेशवाद का तिरस्कार कर भारतीय संस्कृति को सहेजकर आगे बढाने का काम करेगा।
देश की व्यवस्थाओं पर अगर गौर फरमाया जाए तो सरकारी तन्त्र में हर कदम पर ब्रितानी सभ्यता की ही झलक दिखाई पडती है। और तो और अनेक जिलों के जिलाधिकारी (रेवन्यू कलेक्टर) के दूरभाष आज भी जिला कलेक्टर के स्थान पर डिप्टी कमिश्नर के नाम पर ही अंकित हैं। आजादी के छ: दशकों बाद भी किसी को इसमें नाम सुधरवाने की सुध नहीं आना आश्चर्य का ही विषय है। हमारी न्यायपालिका से लेकर शिक्षा प्रणाली तक में ब्रितानी लटके झटके साफ दिखाई दे जाते हैं।
दुख का विषय तो यह कहा जाएगा कि आज भी देश में सरकारी तन्त्र अंग्रेजी में ही काम को तवज्जो देता है। जयराम रमेश खुद भी अंग्रेजी में ही काम करते हैं। इस तरह की व्यवस्थाओं में राष्ट्रभाषा के साथ ही साथ आम भारतीय भाषाएं तो दम ही तोड देंगी। हमें यह कहने में कोई संकोच नही कि आज अंग्रेजी देशवासियों पर थोपी जा रही है। आज जिन स्कूलों में सीबीएसई पाठ्यक्रम लागू है वहां अंग्रेजी माध्यम अनिवार्य किया गया है, जिसका ओचित्य समझ से परे है। एक तरफ सरकार कहती है कि सारे कामकाज हिन्दी में करो और दूसरी तरफ अंग्रेजी की अनिवार्यता!
राष्ट्र के पिता होने का गोरव पाने वाले मोहन दास करमचन्द गांधी के नाम को आधी सदी से ज्यादा इस देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने तबियत से भुनाया है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। विडम्बना है कि सरकारी कामकाज की भाषा और शिक्षा के भाषाई माध्यम के बारे में बापू के क्या विचार थे, इस मामले में कांग्रेस पूरी तरह मौन साध लेती है। चेन्नई उच्च न्यायालय के वकीलों ने स्थानीय बोलचाल की भाषा तमिल में बहस की अनुमति चाही। इसके लिए उन्होंने आन्दोलन किया और हडताल भी की। न्यायधीशों ने उन्हें मूक समर्थन तो दिया पर औपचारिक निर्णय के लिए यह ब्रितानी शासनकाल में बने वायसराय जनरल के तत्कालीन आशियाने और वर्तमान राष्ट्रपति भवन में हिचकोले खा रही है। यह बात कहां तक उचित है कि स्थानीय कम पढा लिखा आदमी अपने केस की बहस सुनने जाए और उसे बहस समझ ही में न आए। क्या यह उपनिवेशवाद की भद्दी प्रस्तुति नहीं है।
आज प्रोढ हो चुकी पीढी ने अंग्रेजों की बर्बरता नहीं देखी। हमारा इतिहास भी अब वही पढाया जा रहा है, जो शासकों की पसन्द हो। आजादी कितने सितम सहने के बाद मिली इस बात को प्रोढ होने वाली पीढी नहीं समझ सकती है। दिल्ली में एक मर्तबा चाय की दुकान पर बूढे बाबा से चर्चा के दौरान जब हमने बूढे बाबा से अंग्रेजों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि जाते वक्त अंग्रेजों ने उनके प्रयोग में आने वाली साईकिलों को एक साथ जमीन पर रखकर उन पर गाडिया चलवां दी थीं, ताकि भारतवासी आजादी के बाद चलने के लिए साईकिल के लिए मोहताज रहें। यह अलहदा बात है कि आज भारत में ही साईकिल से लेकर कारों तक का निर्माण होने लगा है। एक और वाक्ये का जिकर यहां लाजिमी होगा। प्राचार्य रहे हमारे ताया से जब हमने अंग्रेजी शासनकाल के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि अंग्रेज आकर कर वसूला करते थे, पर जब हम पानी की बात करते तो वे कहते कि पानी मुहैया कराना सरकार की जवाबदारी नहीं है, आप अपने घर में ही कुआं खोदें और पानी पिएं। इतने बर्बर थे ब्रितानी।
आज समय आ गया है, जब हम इन बातो पर गौर फरमाएं कि उपनिवेशवाद के बर्बर प्रतीक चिन्हों और व्यवस्थाओं को तिलांजली देकर देश की भाषाओं को बढाने की दिशा में कदम उठाएं। हालात देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि अंग्रेजों की गुलामी से तो हम मुक्त हो चुके हैं, पर उनकी मानसिकता से मुक्ति में अभी सदियां लग सकती हैं। देश के हृदय प्रदेश मध्य प्रदेश की तारीफ करना चाहिए जहां पूर्व मुख्यमन्त्री राजा दिग्विजय सिंह ने विधानसभा के मिन्टो हाल से इसे मुक्त कराकर अरेरा हिल्स पर बनवा दिया इसी तरह इस सूबे का सचिवालय भी ब्रितानी सभ्यता का प्रतीक नहीं आजाद भारत में निर्मित किया गया है। सरकार को चाहिए कि हिन्दी के साथ ही साथ देश की स्थानीय भाषाओं के उत्थान और प्रोत्साहन के लिए कठोर कदम सुनिश्चित करे, वरना आने वाले समय में हिन्दी सहित देश की स्थानीय भाषाओं का नामलेवा भी कोई नहीं बचेगा।