मंगलवार, 14 जून 2011

राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के . . .

राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के . . .

(लिमटी खरे)

कांग्रेसनीत केंद्र सरकार को भले ही न लगता हो कि देश मंहगाई को मंहगाई का दावानल निगल रहा है, किन्तु हालात यही बता रहे हैं कि देश में आम आदमी की कमर मंहगाई ने तोड़ रखी है। एक रूपए को छोड़कर एक एक करके कम मूल्य के सिक्के बाजार से बाहर हो गए हैं। अब सरकार ने चवन्नी की आधिकारिक बिदाई की घोषणा भी कर दी है, फिर भी वजीरे आजम को लग रहा है कि देश में मंहगाई है ही नहीं। सवाल तो यह है कि चवन्नी बिना सवाया प्रसाद कैसे लग पाएगा? चवन्नी छाप, चवन्निया मुस्कान आदि मुहावरे मार्केट से गायब हो जाएंगे। आने वाले समय में गांव, मजरों टोलों मे चवन्नी की चाकलेट, केण्डी आदि लेने वाले गरीब गुरबों की आल औलादों को परचून या मनिहारी की दुकान वाला बनिया घुड़क कर भगा देगा। वैसे आजकल महानगरों सहित बड़े शहरों में पचास पैसे का सिक्का भी दौड़ से बाहर ही है, तथा एक के सिक्के का भी अवमूल्यन हो चुका है। अब लोग शादी ब्याह शगुन आदि में 11, 21, 51, 101 के बजाए 10, 20, 50 या 100 रूपए ही देने का रिवाज बना चुके हैं। केंद्र सरकार ने सिक्का निर्माण अधिनियम 1906 की धारा तीन के तहत पच्चीस पैस या उससे कम मूल्यवर्ग के सिक्कों को चलन से बाहर करने का निर्णय लिया है।


एक एक करके बाजार से सिक्के गायब होते जा रहे हैं। कागज के नोट का स्थान अब प्लास्टिक मनी ने ले लिया है। एक समय था जब लोग सैर सपाटा या दूसरे शहर जाते थे तो पास में आने जाने के साथ ही साथ खर्च के लिए पर्याप्त धनराशि ‘अंटी‘ में बांधकर ले जाया करते थे। आज समय बदल गया है। लोग कम ही पैसा अपने पास रखते हैं। जरूरत पड़ने पर एटीएम डेबिट या क्रेडिट कार्य के माध्यम से पैसा निकाल लिया जाता है। आज की युवा पीढ़ी के लिए आने या एक, दो, तीन, पांच, दस, बीस पैसे के सिक्के क्या होते हैं यह कोतुहल का विषय हो सकता है। अस्सी के दशक तक आते आते रूपहले पर्दे पर जब खलनायक अजीत ‘पांच हजार‘ के हीरे की स्मगलिंग करता था तब लोग उसे कोसा करते थे। आज पांच हजार की औकात क्या बची है?

एक पैसे का चैकोर, दो पैसे और दस पैसे का अष्टकोण, तीन और बीस पैसे का षटकोण, पांच पैसे का चैकोर तथा गोल चवन्नी यानी चार आने के सिक्के बाजार की शान हुआ करते थे। बीस पैसे का पीला पीतल का सिक्का जिस पर कमल का फूल बना होता था की शान देखते ही बना करती थी। 15 अगस्त 1950 से सिक्कों का आजाद भारत गणराज्य में बाजार में प्रचलन आरंभ हुआ। उस वक्त एक पैसे से लेकर एक रूपए जिसे बोलचाल की भाषा में ‘कलदार‘ भी कहा जाता था के माध्यम से खरीदी बेचना आरंभ किया गया।

एक आना मतलब छः पैसे हुआ करता था। इस लिहाज से पच्चीस पैसे को चार आना या चवन्नी, पचास पैसे को आठ आना या अठन्नी और दोनों सिक्के मिलकर होते थे बारह आने। फिर एक रूपए का मतलब सोलह आना हुआ करता था। किशोर कुमार अभिनीत सिनेमा में ‘पांच रूपैया बारह आना . . . तो राज दिल मांगे चवन्नी उछाल के. . .। जैसे गीतों की बहार हुआ करती थी गुजरे जमाने में। नायिका के ठुमके या नायक के डायलाग सुनकर दर्शक पर्दे की ओर सिक्के उछाला करते थे। अनेक एसे दृश्य हुआ करते थे जिनमें सिक्कों की खनक टाकीज में सुनाई दे ही जाती थी।

पच्चीस पैसे का लोगों से गहरा नाता है, जिसे सरकार ने बंद करने की घोषणा कर दी है। सालों से मार्केट से गायब लोगों की प्यारी चवन्नी 30 जून के बाद आधिकारिक तौर पर बाजार में नजर नहीं आने वाली। अगर पच्चीस पैसे के महत्व को अपने जीवन में देखा जाए तो सरकार का यह फैसला पीड़ादायक ही लगता है। सालों साल से ‘सवा‘ शब्द को सुनने और जीवन में महत्वपूर्ण इस सवा का अब अंत हो जाएगा। बाजार से चवन्नी के गायब होने से श्रद्धालुओं को सवा रूपए का भोग प्रसाद लगाने में तकलीफ का सामना करना पड़ेगा। आस्था के साथ ही साथ चवन्नी से लोगों का अपनापन का नाता गहरा हो चुका है। उमर दराज हो रही पीढ़ी तो इस चवन्नी का भरपूर उपयोग कर चुकी है।

चवन्नी के खत्म होने से अब पचास पैसे से कम का सामान पचास पैसे में ही दिया जाएगा पचास से अधिक का सामान अब एक रूपए का होगा। आने वाले दिनों में वस्तुओं पर मूल्य पैसों के बजाए पूरे पूरे रूपयों में ही दर्ज होगा। इसमें तीन रूपए पेंतीस पैसे के बजाए चार रूपए ही दर्ज मिलें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जिस तेज गति से मंहगाई बढ़ रही है उसे देखकर लगने लगा है कि आने वाले दिनों में अठन्नी और एक रूपए का सिक्का भी चवन्नी की तरह ही बंद कर दिया जाएगा।

देश में भारत गणराज्य के सिक्कों का प्रचालन 15 अगस्त 1950 से आरंभ किया गया। 1957 में दशमलव पद्यति के आने के बाद आना को समाप्त कर एक रूपए को सोलह आने के बजाए सौ पैसे के समतुल्य माना गया। 1963 में तीन पैसे के सिक्के की शुरूआत तो 1968 में बीस पैसे का सिक्का प्रचलन में आया। मंहगाई के बढ़ने के साथ ही 1970 में एक दो और तीन पैसे के सिक्कों को प्रचलन से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। 1982 में एशियाड के वक्त दो रूपए का सिक्का बाजार में उतारा गया। 1992 में चवन्नी से थोड़ा बड़ा पांच रूपए का सिक्का चलन में लाया गया। अनेक मर्तबा तो पांच रूपए और चवन्नी में बहुत ज्यादा समानता होने पर कन्फयूजन की स्थिति निर्मित हो जाती थी। 2006 में सरकार ने दस रूपए सममूल्य के सिक्के को बजार में उतारा किन्तु अचानक ही यह अघोषित तौर पर बाजार से गायब ही हो गया।

कहा जाता था कि मेरे घर कोई ‘टकसाल‘ लगी है। दरअसल सिक्के ढालने की जगह को टकसाल कहा जाता है। भारत में हैदराबाद में दो, मुंबई, कोलकता और नोएडा में एक एक टकसाल काम कर रही है। चिल्लहर की समस्या बढ़ने पर ब्रिटेन, रूस, कोरिया, कनाडा और दक्षिण आफ्रीका से भी सिक्के ढलवाए गए। वर्ष 1990 में स्टील के दाम बढ़ने पर सिक्कों की कीमतें भी बढ़ गईं। केंद्र सरकार ने सिक्का निर्माण अधिनियम 1906 की धारा तीन के तहत पच्चीस पैस या उससे कम मूल्यवर्ग के सिक्कों को चलन से बाहर करने का निर्णय लिया है, जिसकी अधिसूचना पिछले साल 20 दिसंबर को जारी की जा चुकी है। केंद्र के निर्देश पर देश के बैंक में 29 जून तक पच्चीस पैसे को बदलकर रूपए लिए जा सकते हैं। या यूं कहा जाए कि 29 जून तक पाई पाई की कीमत वसूली जा सकती है।

आजादी के पहले जिन लोगों ने आना पाई का सिक्का देखा और चलाया है, और इसके बाद दशमलव पद्यति के उपरांत पैसा और नया पैसा देखा है उनकी भावनाएं आज भी सिक्कों से बेहद जुड़ी हुई हैं। आज भी बुजुर्गवारों की जुबान पर ‘हमारे जमाने में एक आने में एक सेर घी मिलता था‘, ‘उस सस्ताई के जमाने में सवा आने में सिनेमा देखते थे‘ आदि बरकरार है। सवा, आना, पैसा को लेकर न जाने कितनी कहानियां आज भी मौजूद ही हैं। रूपए के अवमूल्यन के साथ ही लोगों ने अब शादी ब्याह, जन्म दिन आदि में शगुन के एक रूपए को देना बंद कर दिया है। अब या तो भेंट के लिफाफे पर ही एक का कलदार चस्पा होता है, या फिर यह मान लिया जाता है कि एक रूपए का लिफाफा है शेष राशि में उसमें रख देने से एक रूपए का शगुन भी पूरा हो जाएगा।

पच्चीस पैसे के सिक्के के चलन से बाहर हो जाने के बाद चवन्नी छाप, चवन्निया जैसे मुहावरे भी बाजार से गायब हो जाएंगे। आने वाली पीढ़ी चवन्नी को महज एक सिक्का मानकर ही चर्चा का हिस्सा बनाएगी। वह इस बात को कतई नहीं समझ पाएगी कि चवन्नी या पच्चीस पैसा महज एक सिक्का नहीं है, यह पूरे एक काल या समय का प्रतिनिधित्व किया करती थी। आज भी देश के अनेक हिस्सों में पच्चीस पैसे में गरीब मजदूरों के बच्चे चाकलेट, बिस्किट, कैण्डी, आईसक्रीम जैसी चीजों को खरीदा करते हैं। महानगरों में भले ही छोटे सिक्कों का चलन बंद हो गया हो पर ग्रामीण अंचलों में इनका प्रचलन जारी है। आधिकारिक तौर पर इस सिक्के की रूखसती से अब गरीब गुरूबों के बच्चों को मनिहारी या परचून की दुकान वाला मोटे पेट का बनिया हड़का कर भगा दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

एमपी में उड़ रही आरटीई की धज्जियां

एमपी में उड़ रही आरटीई की धज्जियां

सवा तीन लाख बच्चे हैं शिक्षा से महरूम

देश के एक करोड़ बच्चों को नहीं मिल पा रही है शिक्षा

शिक्षा का अधिकार कानून का उड़ रहा माखौल

शालाओं में नहीं मिल पा रहा बीपीएल को दाखिला

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। कांग्रेसनीत केंद्र सरकार द्वारा देश के नौनिहालों को शिक्षा मुहैया करवाने के लिए शिक्षा के अधिकार काननू (आरटीई) को लागू किए जाने के बाद भी देश भर में लगभग एक करोड़ बच्चों को शिक्षा दीक्षा मुहैया करवाने में राज्यों की सरकारें पूरी तरह सुस्त ही दिखाई दे रही हैं। मध्य प्रदेश के लगभग सवा तीन लाख बच्चों ने पिछले साल स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है, जबकि राज्यों में निजी तौर पर संचालित होने वाली शालाओं के प्रबंधनों ने सरकारों से अनेक रियायतें प्राप्त कर रखी हैं।

मानव संसाधन मंत्रालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार वैसे तो निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकारी अधिनियम 2009 के कार्यान्वयन द्वारा सरकार द्वारा विभिन्न कदम उठाए गए हैं जिसमें निशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार नियमावली 2010, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद को अध्यापकों की अहर्ताएं निर्धारित करने के लिए शैक्षिक प्राधिकरण के रूप मेें, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद को पाठ्यचर्चा और मूल्यांकन प्रक्रिया निर्धारित करने हेतु शैक्षिक प्राधिकरण के रूप में और अधिनियम के अंतर्गत राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को अधिसूचित करना शामिल है। उधर एचआरडी मिनिस्ट्री के आला दर्जे के सूत्रों का कहना है कि मंत्रालय द्वारा माॅडल नियम तैयार कर राज्यों को परिचालित कर दिए गए हैं, ताकि राज्य अपनी सुविधाओं के मुताबिक नियम बना सकें।

भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि भारतीय बाजार अनुसंधान ब्यूरो (आईएमआरबी) द्वारा वर्ष 2009 में करवाए गए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार 6 से 13 साल आयु वर्ग के स्कूल न जाने वाले बच्चों की तादाद भारत भर में 81 लाख पचास हजार 618 थी। यह संख्या कुल बाल जनसंख्या का 4.28 फीसदी था।

आरटीई का पालन न करने वालों में मध्य प्रदेश छटवीं पायदान पर है। 27 लाख 69 हजार 111 बच्चों को शाला का मुंह न दिखा पाने वाला उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है। दूसरे नंबर पर बिहार है जहां इनकी संख्या 13 लाख 45 हजार 697 है। राजस्थान में इनकी तादाद दस लाख 18 हजार 326 तो पश्चिम बंगाल में सात लाख छः हजार 713 बच्चों के साथ चैथी पायदान पर है। इसके बाद नंबर आता है उड़ीसा का जहां इनकी तादाद चार लाख 35 हजार 560 है। इसके बाद मध्य प्रदेश में 3 लाख 28 हजार 692 बच्चे स्कूल जाने से वंचित रहे हैं।

इसके साथ ही साथ आरटीई के अनुसार शाला को अपनी कुल छात्र क्षमता का पच्चीस फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवार के बच्चों को पढ़ाने के लिए सुरक्षित रखकर उन्हें प्रवेश देना अनिवार्य किया गया है। देखा जा रहा है कि मंहगे स्कूल इस नियम से पूरी तरह मुंह मोड़े हुए हैं। जिन शालाओं द्वारा इस नियम का पालन भी किया जा रहा है, उसमें भी फर्जीवाड़ा ज्यादा किया जा रहा है।