धरने की राजनीति
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान 13 फरवरी से भोपाल में धरने पर बैठ रहे हैं। कारण प्रदेश में पाला पड़ने और ओला वृष्टि से फसल को हुए नुकसान की भरपाई के लिए केन्द्र सरकार से 2442 करोड़ रु0 के विशेष पैकेज की मांग पर समय पर कोई कार्यवाही न होना। श्री चौहान ने इस विषय पर प्रधानमंत्री और केन्द्रीय कृषि मंत्री से मिल कर एक ज्ञापन भी सौंपा था और उसी समय ऐलान भी कर दिया था कि केन्द्र सरकार द्वारा इस विषय पर समय रहते कोई कार्यवाही न होने की स्थिति में वह उपवास पर बैठेंगे। अब यह तो समय ही बताएगा कि शिवराज जी के धरने का क्या हर्ष होगा। हमारी सद्भावनाएं उनके साथ हैं।
अगर हम एक आम नागरिक की भांति इस पूरे प्रकरण को देखे मामला शीशे की तरह साफ दिखता है कि पाला पड़ने और ओला वृष्टि से हुए प्रदेश के 50 जिलों में से 46 जिलों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए राज्य सरकार केन्द्र सरकार से विशेष पैकेज की मांग कर रही है। पर मामला इतना सीधा और साफ नहीं है। धरने की राजनीति देश में अपनाया जाने वाला पुराना हथकंडा है जो विभिन्न पार्टी के नेता समय-समय पर अपनी जरूरत के हिसाब से अपनाते हैं। इस हथकंडे को विभिन्न श्रमिक संगठन और सरकारी संगठन कर्मचारियों के नियमितिकरण का मामला हो या फिर डी.ए. की किश्त जारी करने का मामला हो, सब संगठन पूरी राजनीति करते हैं और इसका भरपूर लाभ उठाते हैं।
यह बात अलग है कि मध्य प्रदेश में पिछले कुछ महीनों से किसान द्वारा आत्महत्या करने के मामलों में बढ़ोत्तरी हुई है, यह एक चिन्ता का विषय है और इसको गंभीरता से लेना चाहिए। इन आत्महत्या के मूल कारणों में जाने की जरूरत है। इसके पीछे आर्थिक और सामाजिक परिवेश में समझने की जरूरत है ताकि किसानों से जुड़ी समस्याओं का निराकरण समय रहते किया जा सके।
इस पूरे विषय पर किसानों के हमदर्द बनने के लिए मानो कोई होड़ सी लगी है, जिसमें सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष भी इससे अछूता नहीं है। विपक्षीय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी पीछे नहीं हटते, वे भी उपवास पर बैठ जाते हैं, किसानों को न्याय दिलाने के लिए। वहीं केन्द्र सरकार भी इस ओछी राजनीति से अछूती नहीं है, वह भी जो राशि सामान्यतः स्वीकृत हो कर राज्य को दी जानी चाहिए, को प्रदेश अध्यक्ष जी के अनशन को समाप्त कराकर, दो केन्द्रीय नेताओं की मौजूदगी में सहायता राशि का ऐलान किया जाता है जिससे इसका श्रेय अनशन पर बैठे प्रदेश अध्यक्ष को देती है। ऐसा लगता है कि यह नाटक का पूर्व नियोजित था।
वहीं दूसरी तरफ एक सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अनशन को एक मेगा शो बनाने की तैयारी कर रही है। अनशन को कांग्रेस के विरूद्ध हथियार बनाने के मकसद से पार्टी हर दिन अलग-अलग इलाकों से एक से दो हजार कार्यकर्ता मुख्यमंत्री का साथ देंगे, उम्मीद है कि दिल्ली से पार्टी के बड़े नेता भी आएंगे। यह बात अलग है कि मध्यप्रदेश सरकार केन्द्र द्वारा आपदा राहत कोष से दी गई राशि को अभी तक पूरी तरह खर्च ही नहीं कर पाई और प्रदेश के कृषि मंत्री किसानों की आत्महत्याओं को उनके पूर्व जन्म के कर्मों से जोड़ रहे हैं। इससे सरकार की मंशा पूरी तरह से साफ हो जाती है कि सरकार किसानों की कितनी बड़ी हितेषी है।
मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान का 13 फरवरी को अनशन पर बैठने पर भी राजनीति है। प्रदेश में 14 फरवरी को दो उप-चुनाव में मतदान की तारीख है और सत्तारूढ़ पार्टी इसका पूरा फायदा उठाना चाहती है। पिछली बार दोनों सीटों पर कांग्रेस काबिज थी। भाजपा के नव निर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष किसी भी प्रकार से इन सीटों पर विजयी होना चाहते हैं, जिससे जीत का सेहरा प्रदेश अध्यक्ष को जाए। प्रदेश अध्यक्ष पद पर काबिज होने के बाद प्रदेश में यह पहला उपचुनाव है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो किसानों की समस्या एक तरफ और सिर्फ राजनीति ही राजनीति है, पार्टी कोई भी हो। किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं हों या किसानों से जुड़ी अन्य समस्याएं हों, इससे किसी को भी कोई मतलब नहीं, सिर्फ विषय उठाकर राजनैतिक रोटियां सेंकना ही मकसद रह गया है। कोई नहीं सोंचता है कि धरने पर बैठने से क्या उनकी मूल समस्याओं का निवारण हो सकेगा। उनकी समस्याएं तो वही कि वही रहेंगी। क्यों नहीं कोई इस विषय पर पार्टी लाइन से हटकर ठोस निर्णय नहीं लेता और अपनी संकीर्ण सोच से परे हटकर किसानों के हित के लिए दीर्घकालीन योजना बनाते जिससे कि किसानों का उद्धार हो, इन्हीं के उद्धार होने से हमारा देश प्रगति के अग्रसर होकर सफलता की नई उचाईयां छुएगा। किसान कोई राजनीति का मोहरा नहीं है, वह हमारे देश के विकास की आधारशिला है।
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