मेरे देष का न्याय
अभी कुछ दिन पूर्व एक प्रतिप्ठित अखबार में प्रकाषित खबर ‘जांजगीर छत्तीसगढ में एक व्यक्ति ने जज के सामने पैसा रख कर जल्दी फैसला सुनाने की गुहार लगाई, जिसे जज साहब की षिकायत पर पुलिस व्दारा गिरफ्तार कर लिया गया ’
इस घटना में माननीय जज साहब ने ईमानदारी का आदर्ष पेष कर उस गरीब दुखुराम को पुलिस के हवाले कर दिया ।
पहली नजर में यह लगता है कि यह क्या हुआ ? और इसका पटाक्षेप ऐसा ही होना था, पर दुबारा सोचने पर उस पीडित की मनःस्थिति पर ध्यान जरुर जाता है जो जमीन के एक टुकडे के लिए पिछले 6 साल से कोर्ट के चक्कर काट रहा था ।
क्या वजह थी कि उसके केस का निर्णय नहीं हो पा रहा था ?
कारण - सरकारी तंत्र की परिभापा में हजारों होंगे । कोई भी व्यक्ति खासकर ग्रामीण और गरीब जब सब जगह से थक हार जाता है तभी कोर्ट कचहरी की तरफ रुख करता है, जहॉं पर उसे अभिनेता सनी देवल के प्रसिध्द डॉयलाग ‘‘ तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख’’ ही मिलती है बनिस्बत न्याय के । यह प्रक्रिया इतनी लंबी और दुखदायी होती है कि न्याय तत्काल मिल भी जाता तो आज वर्पों बाद मिले न्याय से सस्ता ही होता ।
दुखुराम का कृत्य न्यायालीन प्रक्रिया पर करारा तमाचा इस संदर्भ में है कि पहला तो वह इस उम्मीद भरी लंबी होती न्याय से बेजार हो चुका है एवं दूसरा इसलिए कि कहीं न कहीं वर्तमान में न्याययलीन कार्यवाहियों के बारे में आमजन और विषिप्टजनों में भी यह बात घर कर गई कि न्याय बिकाउ होता जा रहा है। मुमकिन है कि किसी षुभचिंतक ने या न्यायतंत्र के ही किसी सहायक व्दारा दुखुराम को यह बताया गया हो कि भई, बार बार क्यूॅं परेषान हो रहे हो, कुछ दे-दुआ कर जल्दी निपट लो । दोनों ही स्थिति में यह न्याय की ही हार है । न्यायालीन व्यवस्था में जिन दो बातों पर सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है पहला- सौ गुनाहगार छूट जायें पर एक बेगुनाह को सजा न मिल जावे, दूसरा- देर से मिला न्याय, न्याय ही नहीं है । दोनों ही बातों में श् हर बार सौ गुनाहगार छूट जा रहे हैं और बेगुनाह घनचक्कर बन रहा है और जब तक सत्य को न्याय मिलता है तब तक वह न्याय से इतना बेजार हो चुका होता है कि सत्य को न्याय की जरुरत ही नहीं रह जाती । लाखों निरीह लोग जिनका उस जुर्म से कोई लेना देना ही नहीं है, जिसकी उन्हें सजा मिली है और तत्काल बेगुनाह या गुनाहगार होने पर जो सजा मिलती उससे ज्यादा सजा काट रहे हैं क्योंकि उनका कोई वकील नहीं, जमानतदार नहीं और उनके माथे पर अदृष्य काली स्याही से गुनाहगार लिख दिया गया है क्योंकि न्यायालय ने उन्हें बेगुनाह घोपित नहीं किया है । अभी हाल ही में एक सेवानिवृत्त श्री श्रीवास्तव जी ने अपने पेंषन की दो लाख की राषि जमानत के तौर पर जमा कर कुछ बेगुनाहों को जमानत दिलाकर उस नर्क से बाहर निकाला । क्या यह वाक्या कार्यपालिका और न्यायपालिका को कुछ यथार्थवादी प्रक्रिया अपनाने की बात नहीं बतलाता । वहीं सक्षम एवं कुछ विष्प्टि लोग सार्वजनिक स्थलों पर भी क्रूरतम एवं भ्रप्टतम कृत्य कर, सैकडों सबूतों और गवाहों के बावजूद कुछ ही घंटों में किसी भी स्तर के न्यायालीन व्यवस्था में जमानत पा लेते हैं । आखिर ऐसा क्यूॅं ? क्या दुखुराम पागल था ? क्या अब उसका न्याय का पथ दोराहे पर नहीं खडा हो गया है जहॉं उसे प्राथमिक स्तर पर तो न्याय मिला ही नहीं उल्टा वह दुसरे जुर्म में फॅंस गया ? क्या श्री श्रीवास्मव जी बुध्दिहीन हैं कि अपने वर्पों की नौकरी के पष्चात प्राप्त पैसे को दूसरों की जमानत पर खर्च कर रहे हैं ?
इन दोनों ही घटनाओं को न्याय पथ के बेहद महत्वपूर्ण मोंड मानते हुए न्यायपालिका एवं कार्यपालिका में बदलाव लाना चाहिए अन्यथा चारों तरफ दुष्मन देषों से घिरे हम अपने ही घर में दुष्मन पैदा करते रहेंगे और नक्सलवाद व उग्रवाद को ही पोपित करेंगे जिसकी जिम्मेवारी हम सभी की होगी और हम ही उसको भोगेंगे । ‘ सत्यमेव जयत ’े बहुत ही सुन्दर और सुखद एहसास दिलाता है पर प्रष्न है ‘‘ कब ’’ । इसका जवाब कौन देगा ?
यह ‘‘कब ’’ क्या ‘‘ कब्र ’’ ही नहीं बनता जा रहा है । एक छोटा सा
‘‘ र ’’ का फर्क है पर इस देष में जहॉं एक व्यक्ति अरबों रुपयों के आवास में रहता है और करोडों व्यक्तियों के सिर पर छत ही नहीं है,जो कुछ भी उनके सिर पर घास-पूस, पेड- पत्ते है उसे भी उन्हीं करोडों -अरबों के आषियाने वालों को ही न्योता देकर उससे भी बेदखल किया जा रहा है । हमारे अन्नदाताओं-किसानों की उपजाउ जमीनों को उद्योगों के लिए छिना जा रहा है । सीमेंट प्लॉंट , पॅावर प्लॉंट ,लौह प्लॉंट इत्यादि लगाये जा रहे हैं कि इनसे रोजगार बढेंगे । किसे चाहिए सीमेंट , पॉवर , लोहा ? जिसके पास झोंपडी तक नहीं है उसको ? अपनी ही जमीन पर लगे कारखानों में आज हमारे लाखों किसान , आदिवासी दिहाडी के मजदूर हैं । न तो उनके पास आज जमीन है, न ही इज्जत , जितनी रोटी आज खा रहा है उससे ज्यादा पहले उसे मिलती थी । सरकारें कभी बॉंध के नाम पर तो कभी कारखानों के नाम पर , कभी विलुप्त जंगली जानवरों को बसाने के नाम पर सैकडों सालों से बसे सैकडों गावों को खाली करवाया जा रहा है । जोर जबरदस्ती और नियम- कायदे, देष के लिए सोचना , देष के लिए कुर्बानियॉं , क्या ये मात्र गरीबों पर ही लागू होती हैं क्या कभी किसी उद्योगपति या उसके परिवार के सदस्य ने इन चीजों के लिए सोचा भी है या दायित्व निभया है ? क्या सरकार कभी ऐसी नीति बनाऐगी कि बडे उद्योगपति या घराना किसी राप्टीय जरुरतों जैसे स्वास्थ्य, षिक्षा, कृपि,खाद्य,परिवहन की जिम्मेवारी बिना किसी फायदे नुकसान के उठाये ? जिस देष में 12 महिने में से 12 महिनें ही सूर्य निकलता हो वहॉं सौर्य उर्जा पर ध्यान न देकर उन स्रोतों जैसे कोयला, जल, जंगल पर जो सीमित है, महंगे हैं , जिसके कारण पर्यावरण बर्बाद होगा, लाखों गॉंव, करोडों नागरिक व्यस्थापित होंगे पर ही ध्यान क्यों केंद्रित करती रहती है ? क्या सिर्फ इसलिए कि उन उद्योगपतियों से ज्यादा लाभ दिखता है, उन्हें ‘ सस्ते लेबर ’ उपलब्ध हों । क्या कभी किसी भी स्थिति में किसी भी तरह मुंबई गेट वे ऑफ इंडिया के सामने स्थित तॉज होटल से टाटा को व्यस्थापित कर देष हित में नौसेना का मुख्यालय बना सकती है ? नहीं, कभी नहीं , फिर हमारा गरीब, किसान और आदिवासी ही क्यूॅं ?
हममें से कोई नहीं चाहता कि उसका आषियाना उजडे, न ही कोई यह चाहता है कि उद्योगपति सरकार सम्हालें, उसकी व्यवस्था सम्हालें और उन पर उनके
कार्याें को छोडकर कोई और जिम्मेवारी लादी जावे पर यह तो सरासर अन्याय है कि किसान की उपजाउ जमीन चाहिए तो चाहिए क्योंकि सरकार की रजामंदी से वहॉं पर कारखाना लगना है । दिल्ली मुंबई में एक बडा व्यक्ति मर जाये तो सरकारे हिलनें लगतीं हैं ,राप्टीय समाचार बन जाता है पर लाखों किसान आत्महत्या करते हैं, हजारों आदिवासी नक्सली हमलों में मारे जाते हैं, गॉंव का गॉंव किसी अनजानी बीमारी से तबाह हो जाता है , सरकार के कान में जॅंू नहीं रेंगती, खबर बनना तो दूर जिक्र करना भी प्राईम टाईम बौर अखबार के पन्नों की बर्बादी लगती है । इस पूरी व्यवस्था से दो वर्ग तैयार हो रहा है और उनके बीच की दूरी लगातार बढती ही जा रही हैे - हैव्स संचित और हैव नॉट्स वंचित जो आने वाले समय में गृह युध्द की पदचाप भी सुना रही है । इसलिए लोकतंत्र के सभी स्तंभों को अभी से अपनी चतुर्य को, पक्षपातपूर्ण रवैये और मात्र मुठ्ठी भर लोगों की भलाई को छोडकर ज्यादा से ज्यादा लोगों की भलाई ,तरक्की और खुषहाली के लिए सोचना चाहिए वर्ना कितने भी ज्यादा सितारा सुविधाऐं ,हवाओं में सफर , विष्व के अमीरों में गिनती , स्वीस बैंक में जमा पॅंूजी किसी भी तरह से सुरक्षा की गारंटी नहीं है न होगी ।
व्दारा:
डॉ. पी.डी. महंत
पीपुल्स मेडिकल कॉलेज, भोपाल
9300956877
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