भरे पेट लोग कर रहे भूखों की चिन्ता!
(लिमटी खरे)
मंहगाई के नाम पर देश की एक सौ इक्कीस करोड़ जनता के रिसते, बदबू मारते घावों पर मरहम लगाने की गरज से केंद्र में विपक्ष में बैठी भाजपा ने संसद में बहस करने का काम आरंभ किया है। संसद में मंहगाई पर जिस तरह की चर्चा हुई उसे देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इस तरह की निरर्थक औचित्यहीन बहस से अच्छा था कि इन सड़ांध मारते घावों को बहने ही दिया जाता। जनता के मन में कुछ उम्मीद जगी किन्तु फिर वह अदृश्य रोशनी की तरह विलुप्त ही हो गई। संसद में मंहगाई पर बयानबाजी से ही मंहगाई कम होने वाली होती तो निश्चित तौर पर देश में मंहगाई कभी होती ही नहीं। देश के वजीरे आजम मंहगाई पर काबू करने के लिए ‘‘तारीख पर तारीख‘‘ ही दिए जा रहे हैं। सांसदों, विधायकों को भरपूर वेतन भत्ते और सुविधाएं मिल रही हैं, तो भला फिर भरे पेट लोगों को भूखों की चिन्ता क्यों होने लगी? हां चुनाव पास हैं तो चिन्ता का दिखावा आवश्यक है।
देश में भ्रष्टाचार अब सदाचार और शिष्टाचार का रूप ले चुका है। लोग भ्रष्टाचार को आवश्यक अंग की तरह लेने लगे हैं। अभी ज्यादा समय नहीं बीता है। अस्सी के दशक के आरंभ में सरकारी कार्यालयों में ‘घूस (रिश्वत) लेना और देना दोनों अपराध है, घूस लेने और देने वाले दोनों ही पाप के भागी हैं।‘ के जुमले लिखकर समाज लोगों में रिश्वत के लिए डर पैदा करता था। हमारे एक मित्र के पिता जो सब इंजीनियर (उस वक्त इन्हें ओवरसियर कहा जाता था) थे, वे बताते थे कि एक बार उन्होंने एक पालीस्टिर की शर्ट सिलवाई, पर उसे पहना केवल घर पर ही वह भी चोरी छिपे। डर था कि अगर सार्वजनिक तौर पर पहनकर निकल गए तो जांच बैठ जाएगी कि पालीस्टर जैसा मंहगा कपड़ा खरीदा कहां से। आज नेता हो या अफसर सभी मंहगी चीजों का उपभोग करने से ज्यादा उसके दिखावे में विश्वास करते हैं। अनेक राजनेता एसे हैं जो काम तो ‘जनसेवा‘ का कर रहे हैं पर हैं अनेक कंपनियों के मालिक।
मंहगाई पर सदन में बहस के दरवाजे खुले। यह बात जानकर देश का हर नागरिक खुश हो सकता है। किन्तु जिस तरह से मंहगाई पर बहस कर इसकी हवा निकाल दी गई वह निराशाजनक ही कहा जाएगा। देखा जाए तो सरकार भी भ्रष्टाचार पर बार बार के हमलों से आजिज आ चुकी है। सरकार भी चाह रही है कि एक बार इस पर बहस हो ही जाए। फिर कांग्रेस के कुशल रणनीतिकारों ने यही समय इसके लिए माकूल पाया। इसका कारण यह है कि भ्रष्टाचार के तीरों ने कर्नाटक में भाजपा के अंदर भी गहरे घाव कर दिए हैं, जिनसे रक्त बह रहा है। इन परिस्थितियों में कांग्रेस को सब कुछ सामान्य करने में ज्यादा मेहनत नहीं करना पड़ रहा है।
मंहगाई के मामले में नेताओं की अपनी अपनी राय है। कोई कह रहा है कि विकास का रथ आगे बढ़ने से मंहगाई बढ़ रही है तो वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी इसे सिरे से खारिज कर रहे हैं। वहीं यशवंत सिन्हा भ्रष्टाचार को मंहगाई के लिए जिम्मेवार बता रहे हैं। देखा जाए तो सिन्हा की बात में दम है। मंहगाई के गर्भ मंे कहीं न कहीं भ्रष्टाचार की खाद अवश्य ही है। कालाबाजारी करने वाले कहीं न कहीं भ्रष्टाचार करके ही अपने आप को बचाते हैं। इतना ही नहीं देश में सौ रूपयों के भ्रष्टाचार की जगह अब अरबों रूपयों के भ्रष्टाचार ने ले ली है।
भारत गणराज्य में आज के समय में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से निपटने के बजाए नेताओं ने इसे आरोप प्रत्यारोप का जरिया बना लिया है। आज के समय में नैतिकता की बात करने वाले को महामूर्ख समझा जाता है। आज भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबी सरकार द्वारा विवादों मंे फसने के डर के चलते नए फैसले लेने में आनाकानी आरंभ कर दी है। जो फैसले लिए भी जा रहे हैं उनमें सबसे पहले यह देखा जाता है कि इसमें निहित स्वार्थ कहां तक है।
सरकार आज हरित क्रांति को मानो भुला चुकी है। आज के कांक्रीट युग में खेती की जमीनों का अधिग्रहण किस तरह किया जाए इस बात के मार्ग प्रशस्त किए जा रहे हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने तो कालोनाईजर्स को वीकर सेक्शन के लिए बनने वाले ईडब्लूएस मकानों पर प्रतिबंध से मुक्त करने का फैसला ले लिया है।
मंहगाई के लिए सरकार की हाजिर जवाबी का कोई सानी नहीं है। कुछ समय पहले वह कमजोर मानसून को इसके लिए जिम्मेवार बताती थी, आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों की बढोत्तरी का हवाला देकर वह मंहगाई से बचना चहती है। सरकार भूल जाती है कि जनता की सेवा करने वाले किस कदर संसद में ही अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के लिए व्याकुल दिखने वाले सांसदों के दवाब में आकर वेतन बढ़ाती है। सरकार के नुमाईंदों का वेतन कहां से आता है? जाहिर है जनता के गाढ़े पसीने की कमाई के करों से। फिर जो जनता सरकार की नुमाईंदगी प्रत्यक्ष तौर पर नही कर रही है उसकी दो वक्त की रोटी का जिम्मा किसका है? क्या सरकार को महज अपने कर्मचारियों और नेताओं के लिए ही मंहगाई से लड़ने उनका वेतना बढ़ाना चाहिए? वस्तुतः यह इसलिए हो रहा है क्योंकि ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोग नेताओं के लिए वोट बैंक से ज्यादा कुछ भी अहमियत नहीं रखते हैं।
सरकार इस स्थापित तथ्य की ओर से आंख फेर लेती है कि हर साल भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज सड़ जाता है। एसा नहीं कि सरकार द्वारा इसका कोई प्रबंध नहीं किया हो। सरकार ने वेयर हाउस बनवाने के लिए सब्सीडी भी दी थी। लोगों ने सब्सीडी का लाभ उठाया, बड़े बड़े गोदाम बनवाए फिर उन गोदामों में अनाज रखने के बजाए ज्यादा मुनाफे के चक्कर में अन्य सामग्रियां रखवाना आरंभ कर दिया। होना यह चाहिए था कि इन गोदामों में सब्सीडी देने के साथ ही कम से कम पांच सालों के लिए इनका उपयोग सरकारी अनाज के भण्डारण की शर्त रखी जानी चाहिए थी।
कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के मामले में सदन के सारे दलों ने एक अघोषित गठजोड़ कर रखा है। यही कारण है कि इस पर बहस के दौरान इसे मिटाने के लिए तो कोई सुझाव नही देता, बस एक दूसरे पर लांछन लगाकर एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास अवश्य ही किया जाता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अगर हालात यही रहे तो आने वाले दिनों में भारत का स्थान सोमालिया या इथोपिया जैसे भुखमरी के संगीन दौर से गुजर रहे राज्यों के उपर होगा।