मत भूलिए! न्याय पालिका सर्वोच्च है पवार साहेब
आईसीसी के साथ गरीब गुरबों की तरफ भी देखें कृषि मंत्री
अनाज सडता है सडता रहे पर गरीबों में नहीं बटेगा!
संसद को बनना था जनता की आवाज, पर अदालत में उठी हक की आवाज
(लिमटी खरे)
हर साल लाखों टन अनाज सड़ता रहता है, और हर साल करोड़ों लोग दो वक्त की रोटी की जद्दोजहद में रहते हैं! ये दो तस्वीरें हैं भारत गणराज्य की जिसे ब्रितानियों की गुलामी से मुक्ति मिले छः दशक से ज्यादा समय हो चुका है। साठ साल की उमर में सरकार भी अपने कर्मचारी को सेवानिवृत कर देती है। माना जाता है कि साठ साल की उमर में आदमी अपनी सारी अभिलाषाएं लगभग पूरी कर चुकता है। भारत का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि साठ सालों के बीतने के बाद भी भारत में बुनियादी समस्याएं न केवल जस की तस बनी हुई हैं, वरन बढ़ी ही हैं।
देश में लाखों टन अनाज सड़ने की बात पर भारत की सबसे बड़ी अदालत ने अपनी तल्ख नाराजगी जाहिर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर सरकार अनाज को ठीक तरीके से संरक्षित नहीं कर सकती है तो वह उसे गरीब और भुखमरी के शिकार लोगों के बीच बटवा दे। कृषि प्रधान भारत देश में वैसे भी अनाज सड़ने या खराब होकर फेंके जाने को सबसे बड़ी बुराई के तौर पर देखा जाता है।
इधर अनाज के सड़ने की खबर से देश की सबसे बड़ी अदालत का आक्रोश लोगों को दिखा वहीं सियासत के धनी केंद्रीय कृषि मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार ने मीडिया को ही इसके लिए दोषी बताकर कह दिया कि खाद्यान्न सड़ने की खबरों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। शरद पवार का कथन और राज्य सभा में कृषि राज्य मंत्री प्रो.के.वी.थामस के दिए वक्तव्य में असमानता ही दिख रही है। केंद्रीय कृषि मंत्री का कहना था कि भले ही बर्बाद हो जाए अनाज पर गरीबों के मुफ्त में इसे नहीं बांटा जा सकता है। खुद कृषि मंत्री ने पिछले महीने ही लोकसभा में जानकारी दी थी कि 6 करोड़ 86 लाख रूपए मूल्य का 11 हजार 700 टन अनाज बर्बाद हो गया।
देश का कृषि मंत्रालय निर्दलीय पी.राजीव और के.एन.बालगोपाल के पूछे प्रश्न पर उत्तर देते हुए कहता है कि देश में एफसीआई के गोदामों में कुल 11 लाख 708 टन अनाज खराब हुआ है। 01 जुलाई 2010 की स्थिति के अनुसार भारतीय खाद्य निगम के विभिन्न गोदामों में 11,708 टन गेंहू और चावल खराब हो गया। पिछले साल 2010 टन गेहूं और 3680 टन चावल खराब हुआ था। 2008 - 2009 में 947 टन गेंहू और 19,163 टन चावल बरबाद हुआ था। वर्ष 2007 - 2008 में 924 टन गेंहू और 32 हजार 615 टन चावल खराब हुआ था। इस तरह देखा जाए तो तीन सालों में देश के एफसीआई के गोदाम कुल 3881 टन गेंहू और 55 हजार 458 टन चावल खराब हुआ था। इस तरह इस साल 01 जुलाई तक के खराब हुए अनाज को अगर मिला लिया जाए तो चार सालांे में देश में सरकारी स्तर पर कुल 71 हजार 47 टन अनाज बरबाद हुआ है।
शीर्ष अदालत की टिप्पणी के बाद शरद पवार ने उसे कोर्ट की सलाह मानकर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। इससे नाराज अदालत ने साफ किया है कि उन्होंने अनाज के बारे में सरकार को सलाह नहीं दी है, यह कोर्ट का आदेश है। शरद पवार को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत गणराज्य में न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। हर देशवासी का यह नैतिक दायित्व है कि वह अदालत के हर फैसले का पूरा पूरा सम्मान करे।
गत दिवस सदन में इस मामले को लेकर गर्मा गरम बहस भी छेड दी गई थी। विपक्ष ने सरकार को आड़े हाथों लेकर सरकार से स्पष्टीकरण तक मांग डाला। सदन में शरद पवार का यह वक्तव्य बचकाना ही माना जाएगा कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश की प्रति हासिल करने का प्रयास कर रही है, इसके बाद कोर्ट की मंशा के अनुरूप ही सरकार द्वारा कदम उठाए जाएंगे। गौरतलब है कि कोर्ट ने अतिरिक्त सालीसिटर जनरल की उपस्थिति में ही सरकार की मश्कें कसीं थीं। सरकार की ओर से खड़े एडीशनल सालीसिटर जनरल चाहते तो तत्काल ही उन्हें कोर्ट के आदेश की प्रति उपलब्ध हो जाती।
देखा जाए तो आजाद भारत में जनता की आवाज, संसद या विधानसभा को बनना चाहिए, किन्तु विडम्बना यह है कि ये दोनों ही अपने दायित्वों के निर्वहन में अक्षम ही प्रतीत हो रही हैं, इसका कारण इनमें बैठे जनता के प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर चुने गए नुमाईंदों की बदलती प्राथमिकताएं हैं। जनता अपना अमूल्य वोट देकर जिन्हें चुनती है, जनता को चुनाव के वक्त लोक लुभावने वायदों से पाट देते हैं, वे ही नुमाईंदे जीतने के बाद जनता के द्वारा दिए जनादेश को सबसे पहले ही भूलकर अपने निहत स्वार्थों को प्राथमिकता बना लेते हैं।
सत्तर के दशक तक जनता के दुख दर्द के लिए सदन के किसी कोने में हमदर्दी और संवेदनशीलता दिखाई पड़ती थी, किन्तु अब तो सदन में बैठे जनता के नुमाईंदे पूरी तरह निष्ठुर ही नजर आ रहे हैं। देश की शीर्ष अदालत के फैसले को केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने जिस तरह हवा में उड़ा दिया और बाकी सांसद चुप्पी साधे बैठे रहे उससे इन सभी की जनता के प्रति संवदेनहीनता साफ साफ दिखाई पड़ी। होना यह चाहिए था कि जनता के चुने हुए नुमाईंदों को शरद पवार के केंद्रीय कृषि मंत्री रहते हुए सड़े अनाज का ब्योरा मांगना चाहिए था। दरअसल शरद पवार की प्राथमिकता देश की सेवा से ज्यादा क्रिकेट की सेवा की बन चुकी है। पिछले कई सालों से पवार ने अपना पूरा पूरा ध्यान देश की बजाए क्रिकेट में लगाया हुआ है।
हाल ही में शरद पवार ने प्रधानमंत्री से कहा भी था कि उनका बोझ कुछ कम किया जाए, इसके पीछे यही कारण नजर आ रहा था कि पवार को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद का अध्यक्ष चुन लिया गया था। आईसीसी एक मलाईदार संस्था है, इसके अध्यक्ष बनने पर शरद पवार को मान सम्मान, धन और रूतबे की कमी कतई नहीं रहती किन्तु लाल बत्ती का प्रेम उनसे शायद छोड़ा नहीं जा रहा है। यही कारण है कि वे चाहते हैं कि उन्हें एकाध महत्वहीन विभाग की जवाबदारी सौंप दी जाए ताकि वे मंत्री पद की सुविधाएं और सम्मान पृथक से पाते रहें।
आजाद भारत में इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि आधी सदी से ज्यादा देश पर शासन करने वाली कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को ‘‘विदेशी मूल‘‘ का कहने वाले शरद पवार ने कांग्रेस से हटकर अपनी एक नई पार्टी बनाई और सत्ता की मलाई खाने के लिए उसी कांग्रेस को अपने सामने घुटनों पर बैठने पर विवश किया। अब पवार सरेआम अपना मंत्रालय बदलने और मंत्रालय न बदल पाने की स्थिति में शीर्ष अदालत के फैसले को सलाह का रूप देने पर तुले हुए हैं। क्या यह कांग्रेस की भद्द पिटवाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
बहरहाल अब शरद पवार के कांधों पर इंटरनेशलन क्रिकेट की कमान आ गई है। पवार के कांधे वैसे भी अब तक देश के लगभग सवा सौ करोड़ लोगों का बोझ उठाकर थक चुके होंगे अतः उन्हें आराम की दरकार है। कांग्रेस को चाहिए कि पवार जैसे मंझे हुए राजनेता को मंत्रीमण्डल से बाहर का रास्ता दिखाए ताकि वे इंटरनेशनल लेबल पर करिश्मा दिखा सकें। वैसे भी अब तक पवार की प्राथमिकता की सूची में देश के गरीब गुरबे रहे ही कहां हैं।
शरद पवार के गृह राज्य में गरीब किसान एक के बाद एक आत्महत्या करते रहे, सूबे में उनकी और कांग्रेस की जुगल बंदी की सरकार रही, केंद्र में वे खुद ही कृषि मंत्री हैं। इसके बावजूद सब कुछ होता रहा। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि अब तक पवार के लिए चिंता का विषय गरीब गुरबे, आत्महत्या करते किसान, भूख से मरते गरीब, आधे पेट सोते आम भारतीय कभी नहीं रहे हैं, पवार के लिए सबसे बड़ी चिंता तो विभिन्न देशों विशेषकर पाकिस्तान के बेईमान खिलाड़ियों की जांच है।
केंद्रीय स्तर पर अनाज के भंडारण के लिए वेयर हाउस बनाने हेतु न जाने कितनी सुविधा, सब्सीडी केंद्र सरकार द्वारा दी गई है। अनेक स्थानों पर वेयर हाउस आज भी कागजों पर ही बने दिखाई दे रहे हैं। नेताओं और पहुंच संपन्न लोगों ने सरकारी इमदाद का बंदरबांट तबियत से किया है। क्या केंद्र सरकार का यह दायित्व नहीं है कि सरकारी मदद से बने वेयर हाउस का मौका मुआयना कर दोषियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराए। हर जिले में तैनात जिला कलेक्टर अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही होते हैं, जो सीधे सीधे कार्मिक मंत्रालय (डीओपीटी) के अधीन आते हैं। केंद्र सरकार अगर चाहे तो दो माह की निश्चित समयावधि देकर जिलों के कलेक्टर्स को आदेशित कर वस्तुस्थिति का पता लगवाकर गफलत करने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करवाए तो दूध का दूध पानी का पानी हो सकता है। यह सब करने के लिए सरकार को अपनी मंशा साफ करके ही ‘क्लीन हेण्ड‘ से आगे आना होगा, वरना बरबादी का जो सिलसिला चल रहा है, वह कालांतर में और भयवह स्परूप में आकर जारी ही रहेगा।