ठेके पर न्यायधीश!
(लिमटी खरे)
(लिमटी खरे)
देश की अदालतों में मुकदमों का बोझ निश्चित तौर पर सरकार की पेशानी पर पसीने की बूंदे छलकाने के लिए काफी माना जा सकता है। सौ गुनाहगार बच जाएं पर एक निर्दोष को सजा नहीं होना चाहिए, सूत्र पर चल रही भारतीय न्याय व्यवस्था में देरी से मिला न्याय, न्याय नहीं होता भी एक सूक्ति के तौर पर अंकित है। बारीक कानूनी दांव पेंच और न्यायधीशों की कमी के चलते अदालतें पेशी बढाने पर मजबूर हो जातीं हैं।
कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा बेकलाग निपटाने के लिए पश्चिमी देशों की तर्ज पर हाल ही में फैसला लिया गया है कि देश भर में लंबित कानूनी मामलों को निपटाने के लिए न्यायधीशों की नियुक्ति कांट्रेक्ट (ठेके) पर की जाए। कांग्रेस के इस कदम की व्यापक प्रतिक्रिया सामने आ रही है।
इससे पूर्व 1992 में देश में सबसे पहले कर्नाटक राज्य में न्यायालयों में पायलट प्रोजेक्ट लागू किया गया था, जिसे राज्य में भारी समर्थन मिला। सूबे की अदालतों में मुकदमों का बोझ काफी हद तक कम हो गया था। इसकी सफलता के उपरांत इसे मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों में लागू करने का निर्णय लिया गया था।
उस वक्त मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय के न्यायधीशों ने कहा था कि पायलट प्रोजक्ट की सफलता इस बात पर ही टिकी है कि संबंधित सभी न्यायधीश अपनी कार्यालयीन अवधि में कितने प्रकरणों के निष्पादन में रूचि लेते हैं। साथ ही अधिवक्ताओं को भी अनावश्यक पेशी न बढाने हेतु अपील की गई थी।
दो साल बीते पायलट प्रोजेक्ट टांय टांय फिस्स हो गया। फिर देश में न्याय व्यवस्था ने मंथर गति से अपने गंतव्य की ओर रवानगी डाल दी। आज न्याय व्यवस्था की स्थिति देखकर सरकारों की रूह कांपना स्वाभाविक ही है। देश भर की अदालतों मं तीन करोड से ज्यादा मामले लंबित हैं, तो जेलों में क्षमता से कई गुना ज्यादा कैदी ठूंसे गए हैं। आज पीडितों को समय पर न्याय दिलवाना एक गंभीर समस्या बन गई है।
परिवार और उपभोक्ताओं से संबंधित मामलों के लिए अलग अलग कोर्ट की व्यवस्था के बाद भी आज इन अदालतों की देहरी पर पीडित चप्पल चटकाते ही नजर आते हैं। आश्चर्य की बात है कि मध्य प्रदेश की उपभोक्ता अदालत में 2003 में गई एक पीडिता को 2009 की समाप्ति तक न्याय नहीं मिल सका है। यह है देश की व्यवस्था।
कहने को तो देश में न्यायपालिका को सर्वोच्च का दर्जा दिया जाता है, किन्तु जनसेवकों ने इसे भी परोक्ष तौर पर इस व्यवस्था को अपने बाहूपाश में जकड रखा है। विडम्बना ही कही जाएगी कि कानून बनाने के लिए ``जनसेवक`` हैं, पर उसका पालन सुनिश्चित करवाने के लिए वे अपनी जवाबदारियों से बचा ही करते हैं।
आम आदमी की क्या बिसात कि वह कोर्ट का सम्मन लेने से इंकार कर दे, पर संप्रग सरकार के पिछले कार्यकाल में न्यायपालिका और विधायिका के बीच के टकराव को सभी ने करीब से देखा। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि देश के संविधान में न्यायपालिका को सर्वोच्च दर्जा दिया गया है किन्तु वह सिर्फ कागज तक ही सीमित है।
बहरहाल कांग्रेसनीत केंद्र सरकार ने तय किया है कि वह देश भर में 15 हजार न्यायधीशों को ठेके पर रखेगी जिन्हे साल भर में ढाई हजार मुकदमों में फैसला देने का लक्ष्य दिया जाएगा। देखा जाए तो 10 फैसले रोजाना की दर से इन ठेके पर रखे गए न्यायधीशों को निपटाने होंगे। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या देश में 15 हजार एसे सक्षम जज मिल पाएंगे जो रोजाना इतने मामलों की सुनवाई कर बिना दबाव सही फैसला दे पाएं।
अगर यह चमत्कार हो गया तो साल भर में पोने चार करोड मुकदमों का निपटारा हो जाएगा। गणित के सवाल की तरह इसे कागज पर तो हल किया जा सकता है किन्तु व्यवहारिक तौर पर यह असंभव ही है। इस व्यवस्था के आडे वर्तमान में प्रचलित पंगु व्यवस्था ही आएगी।
वस्तुत: अधिकतर मामलों में गवाह का उपस्थित न होना, सम्मन का तामील न होना, अभियोजन द्वारा समय पर चालान न पेश करना और गवाही में देर सबेर, अधिवक्ताओं द्वारा पेशी पर पेशी की तारीख लेना, जज के अवकाश पर होने आदि जैसी व्यवस्थाओं के चलते ठेके पर रखे गए न्यायधीश भी कैसे लक्ष्य को प्राप्त कर पाएंगे।
इतना ही नहीं, लक्ष्य के बोझ से दबे जज जब मुकदमों की सुनवाई करेंगे तो इस बात पर संशय ही है कि पीडित इंसाफ पा सकेंगे, क्योंकि उनके समझ लक्ष्य को पाना पहली प्राथमिकता होगा। वैसे लोक अदालतों में जिस तेजी से मामलों का निपटारा हो जाता है, उसे देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि बेहतर होगा कि सरकार लोक अदालतों की संख्या में इजाफा कर दे।
इस पूरे मामले का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि इसमें नुकसान सिर्फ और सिर्फ पीडित पक्ष का ही होगा, क्योंकि सालों से चल रहे मामले में बिना पीडित पक्ष को सुनवाई के पर्याप्त मौके के मामले में फैसला दे दिया जाएगा। एक तरफ सरकार को लंबित मामलों की चिंता है तो वकीलों को अपनी जेब की, हर हाल में पीडित पक्ष की गरदन पर ही तलवार होने की अशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।
सरकार ने फास्ट ट्रेक कोर्ट की स्थापना की थी, जिसे काफी सराहा गया है। अगर सरकार द्वारा फास्ट ट्रेक कोर्ट की संख्या बढा दी जाती है तो ठेके पर न्यायधीश रखने की जरूरत शायद ही पडे। साथ ही पुलिस व्यवस्था में सुधार बहुत ही आवश्यक है। व्हीव्हीआईपी ड्यूटी, अनुसंधान, इंवेस्टीगेशन, यातायात, बेगार आदि के लिए अलग अलग विंग बनाई जाना आवश्यक है, ताकि पुलिस अपनी तफ्तीश समय रहते पूरी कर सके।
इसके अलावा न्यायधीशों के लिए इंन्सेंटिव बोनस, अभियोजन पक्ष चुस्त दुरूस्त करने के साथ ही हर मामले में पेशी की तारीख बढाने के लिए निश्चित टर्म (हर मामले में तारीख कितनी बार बढाई जा सकती है) निर्धारित की जाए। इस मामले का सबसे अहम पहलू यह है कि न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए न्यायपालिका को विधायिका के चंगुल से मुक्त कराया जाए, जो कि असंभव ही प्रतीत होता है।