देशद्रोह की
दिग्विजयी परंपरा
(प्रेम शुक्ला / विस्फोट डॉट काम)
मुंबई (साई)। ठाकरे
कुल पर आरोप लगाने वाले दिग्विजय सिंह का कुल भी जांच लिया जाए। ठाकरे कुल के
पूर्वज तो छत्रपति शिवराय की सेना के शूरवीर थे। वे हिंदू स्वराज के लिए लड़ रहे
थे। दिग्विजय सिंह का कुल खींची राजपूतों का है। वे जिस राघोगढ़ रियासत के राजा हैं, उसका अधिकृत इतिहास
उनके खींची राजपूत होने की पुष्टि करता है। खींची संस्थान, जोधपुर से प्रकाशित
‘सर्वे ऑफ
खींची हिस्ट्री’ जिसके लेखक
ए।एच। निजामी तथा जी।ए। खींची हैं, का दावा है कि खींची उपजाति के राजपूत धन
लेकर युद्ध करने के लिए कुख्यात रहे हैं।
11 अगस्त 2012 को रजा अकादमी
समेत तमाम कट्टर मुस्लिम संगठनों द्वारा मुंबई के आजाद मैदान में आयोजित सभा से
भड़के दंगे से उपजा विवाद कांग्रेस और मीडिया की मेहरबानी से महाराष्ट्र बनाम बिहार
के विवाद में तब्दील हो गया। 11 अगस्त को कदीर नामक मुस्लिम दंगाई ने मुंबई
महानगरपालिका द्वारा स्थापित 1857 के क्रांतिकारियों के अमर जवान स्मारक का
अपमान किया था। मुंबई पुलिस के क्राइम ब्रांच के अधिकारियों ने उक्त कदीर को बिहार
और नेपाल की सीमा से गिरफ्तार किया। बीते कुछ वर्षाे से बिहार के मुख्यमंत्री
नितीश कुमार पर मुस्लिम प्रेम का नशा कुछ ज्यादा ही सिर चढ़कर बोल रहा है। बिहार
विधानसभा चुनावों के ठीक पहले नितीश कुमार ने मुस्लिम तुष्टीकरण के इरादे से
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार न घुसने देने का ऐलान किया।
नितीश सरकार का
घटिया मुस्लिम तुष्टीकरणरू मुंबई में जब कभी प्रवासी बिहारियों के भारी आमद पर
सवाल उठता है तो पूरा बिहार एक स्वर में देश के किसी भी कोने में रोजी-रोटी कमाने
और आने-जाने के अधिकार के संवैधानिक अधिकार की याद नितीश कुमार को नहीं दिलाई। बीच
के दिनों में बंगलूरू आतंकी हमले के मामले में कर्नाटक की पुलिस ने बिहार के
दरभंगा जिले में छापा मार कर कफील नामक आतंकी को गिरफ्तार किया था। तब बिहार के
मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने कर्नाटक पुलिस को बिना अनुमति लिए बिहार में न घुसने
देने की चेतावनी दी थी। इसी तरह मुंबई पुलिस कदीर को पकड़ लाई तो बिहार सरकार ने
महाराष्ट्र सरकार को चेतावनी दे दी कि अगली बार महाराष्ट्र पुलिस बिहार अपराधी
पकड़ने आई तो उस पर आपराधिक मामला दर्ज कर लिया जाएगा। महाराष्ट्र पुलिस लगभग हर
सप्ताह किसी न किसी आपराधिक मामले की जांच और गिरफ्तारी के लिए बिहार पहुंचती है।
ऐसे सैकड़ों मामलों का सप्रमाण हवाला दिया जा सकता है जब महाराष्ट्र की पुलिस बिहार
पुलिस को सूचना देकर छापा मारने गई हो और बिहार पुलिस ने अपराधी को भगा दिया हो।
तमाम ऐसे भी मामले हैं जब महाराष्ट्र पुलिस अकेले छापामारी कर बिहार से अपराधी को
पकड़ लाई है और बिहार पुलिस ने चुप्पी साधी हो। चूंकि इस बार मामला फिर मुस्लिम
आतंकी का था सो मुस्लिम मसीहा बनने में जुटे नितीश कुमार की सरकार ने महाराष्ट्र
पुलिस को चेतावनी जारी कर घटिया मुस्लिम तुष्टीकरण किया। इस पर शिवसेना के
कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे
के भी बयान आए।
बिहारवाद से
प्रेरित मीडियारू राज ठाकरे का बयान हमेशा की तरह बिहारियों को चिढ़ाने वाला था, उन्होंने कहा कि
यदि महाराष्ट्र पुलिस पर बिहार में एफआईआर दर्ज होगी तो वे बिहारियों को ‘घुसपैठिया’ घोषित कर
महाराष्ट्र से भगा देंगे। राज ठाकरे के इस बयान के राजनीतिक कारण थे। 11 अगस्त के दंगाइयों
के उत्प्रेरक मोइन अशरफ के साथ तब तक मनसे के विधायक बाला नांदगांवकर की तस्वीर
प्रकाशित हो चुकी थी। 11 अगस्त को रजा अकादमी के मंच पर मनसे उपाध्यक्ष हाजी अराफत की
मौजूदगी सामने आ चुकी थी। आजाद मैदान पर आयोजित मनसे की रैली में राज ठाकरे इंदु
मिल पर प्रस्तावित डॉ। आंबेडकर स्मारक पर टिप्पणी कर दलित विरोध का सामना कर रहे
थे। उन्होंने एक बार फिर मराठी बनाम बिहारी विवाद को हवा देकर अपने बचाव का रास्ता
ढूंढा। इस मुद्दे पर राज ठाकरे के स्नेही एक मराठी चौनल के संपादक ने उद्धव ठाकरे
का साक्षात्कार लिया। उस साक्षात्कार में उद्धव ठाकरे ने साफ शब्दों में कहा- ‘यदि एक मुस्लिम
आतंकी को गिरफ्तार करने गई महाराष्ट्र की पुलिस को कानूनी प्रावधानों के बावजूद
आपराधिक मामला दर्ज करने की बिहार सरकार की ओर से धमकी दी जाएगी तो महाराष्ट्र आने
वाले बिहारियों के लिए परमिट लगाने पर विचार करना पड़ेगा।’ उद्धव ठाकरे का
मंतव्य साफ था कि यदि बिहार सरकार महाराष्ट्र से अपराध कर भागने वालों के लिए
बिहार को अभयारण्य बनाने पर आमादा होगी तेा महाराष्ट्र को अपने नागरिकों की जानमाल
की रक्षा के लिए ‘परमिट’ पद्धति पर विचार
करना होगा। ताकि आपराधिक गतिविधियों की रोकथाम की जा सके। उद्धव ठाकरे के तिल जैसे
बयान को बिहारवाद से प्रेरित मीडिया ने ताड़ बना दिया। ठाकरे परिवार को कोसने की
राष्ट्रीय प्रतियोगिता प्रारंभ हो गई।
वह ठाकरे समाज का
भी इतिहास नहींरू आजाद मैदान का दंगा और दंगे के षड्यंत्रकारियों के खिलाफ सरकारी
निष्क्रियता हाशिए पर चली गई। 26/11 के आतंकी हमले को पाकिस्तान की बजाय हिंदू
संगठनों का षड्यंत्र करार देने वाले दिग्विजय सिंह भी अपना ‘जवाईशोध’ लेकर मैदान में कूद
पड़े। ‘महाराष्ट्र
राज्य साहित्य आणि संस्कृति मंडल’ द्वारा प्रकाशित ‘प्रबोधनकार ठाकरे
समग्र वांगमय’ नामक
पुस्तक के पांचवें खंड के पृष्ठ क्रमांक 45 पर प्रकाशित सामग्री का हवाला देकर
उन्होंने ठाकरे परिवार को मगध यानी बिहार का मूल निवासी करार दे दिया। इतना तय है
कि दिग्विजय सिंह ने उक्त पुस्तक को स्वयं नहीं पढ़ा है और जिस किसी ने उन्हें उक्त
संदर्भ दिया वह भी कोई लाल बुझक्कड़ ही है। आश्चर्य उन मराठी के पत्रकारों पर है जो
आए दिन राज ठाकरे के बिहार विरोध को तो हवा देते हैं पर जब ठाकरे कुटुंब के बारे
में भ्रामक प्रचार शुरू हुआ तो तथ्यान्वेषण करने की बजाय दिग्विजय के सुर में सुर
मिलाने लगे। प्रबोधनकार समग्र वांगमय के खंड 5 में जिस पृष्ठ
क्रमांक 45 को ठाकरे
परिवार का पूर्व इतिहास करार दिया जा रहा है वह ठाकरे समाज का भी इतिहास नहीं है।
बल्कि प्रख्यात मराठी इतिहासकार वि।का। राजवाड़े द्वारा 1918 में चांद्रसेनीय
कायस्थ प्रभु (सीकेपी) जाति के बारे में लिखे गए अपमानजनक लेख के जवाब में लिखी गई
पुस्तिका ‘ग्रामण्याचा
साद्यंत इतिहास’ (बहिष्कार
का समग्र इतिहास) का अंश है। यह इतिहास सीकेपी समाज की बजाय उस समाज के खिलाफ किए
गए बहिष्कारों का ऐतिहासिक लेखा-जोखा है। बहिष्कार के इतिहास में प्रबोधनकार मगध
में बसने वाले सीकेपी समाज को कैसे सातवीं सदी में बहिष्कृत किया गया वह प्रसंग
पेश करते हैं। दिग्विजय सिंह और उनके किराए के विद्वानों ने इस बहिष्कार के इतिहास
को ही ठाकरे कुल का पूर्व इतिहास मान लिया। जबकि उक्त प्रसंग मगध निवासी सीकेपी
समाज के बहिष्कार का एक प्रसंग है।
चांद्रश्रेणीय
कायस्थ प्रभु मूलतः चिनाब सेरू ‘कोदंडाचा टणत्कार’ नामक अपनी दूसरी
पुस्तिका में प्रबोधनकार ठाकरे ने सीकेपी समाज का असली इतिहास लिखा है। यह इतिहास
भी प्रबोधनकार समग्र वांगमय के खंड 5 के पृष्ठ क्रमांक 363 और 364 पर मौजूद है। इस
इतिहास के अनुसार चांद्रश्रेणीय (चांद्रसेनीय शब्द चांद्रश्रेणीय का अपभ्रंश है)
कायस्थ प्रभु मूलतः चिनाब नदी (कश्मीर) की घाटी से हैं जो कालांतर में अयोध्या के
निकट ‘काय’ नामक स्थान पर बसे
और ‘काय’ के होने के चलते
जैसे कोेकण वाले कोकणस्थ और देश वाले देशस्थ कहलाते हैं उसी तरह काय वाले ‘कायस्थ’ कहाने लगे। अवध
प्रांत से उक्त जाति अलग-अलग स्थानों पर जा बसी। लेकिन यह सारा इतिहास छठी-सातवीं
सदी का है। इस्लाम के प्रादुर्भाव के पहले का। प्रबोधनकार वांगमय के किसी भी खंड
में कहीं भी ऐसा किसी भी प्रकार का वर्णन नहीं है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि
ठाकरे परिवार का उद्गम मगध से यानी बिहार से है। चिनाब या काय (अवध) से सीकेपी
समाज का प्रवास भी लगभग एक सहस्त्राब्धि वर्ष पुराना है। इसलिए यदि कोई ठाकरे
परिवार को महाराष्ट्र में प्रवासी कहता है तब तो इस देश के सारे मुसलमान और
अधिकांश ईसाई प्रवासी माने जाएंगे। यदि मूल और कुल के आधार पर ही बात होनी है तो
दिग्विजय सिंह और लालू प्रसाद यादव का मूल ही ढूंढना कठिन है।
महाराष्ट्र का
रक्षककुल ठाकरेरू आधुनिक इतिहास के संदर्भ में बात करें तो महाराष्ट्र का आधुनिक
इतिहास मराठा उद्भव के साथ माना जाता है। मराठा कुलाधिपति शिव छत्रपति हैं। शिव
छत्रपति की सेना में ठाकरे के पूर्वजों का महत्वपूर्ण स्थान था। शिवछत्रपति, छत्रपति संभाजी और
छत्रपति राजाराम के काल से पेशवाई तक जिन कुलों ने अपने प्राण हाथ में लेकर
महाराष्ट्र के स्वाभिमान के लिए युद्ध किया उसमें ठाकरे-धोडपकर वंश प्रमुख रहा है।
चूंकि ठाकरे वंश को छत्रपति काल में धोडप का किला मिला था इसलिए ठाकरे घराना
धोडपकर कहलाता था। नासिक से मालेगांव जाते समय चांदवड के ठीक पहले वडालेभोई नामक
गांव है। वडालेभोई से सटे धोंडबे गांव में आज भी धोडप के किले के अवशेष मौजूद हैं।
इस किले का बेहद सामरिक महत्व था। यह किला खान देश, गुर्जर और मध्य
प्रांत का सीमांत है। मुगलों समेत तमाम हमलावर सेनाएं इसी मार्ग से आती थीं।
महाराष्ट्र की शत्रुओं से रक्षा का जिम्मा धोडपकर यानी ठाकरे के पितामह रामचंद्र
उर्फ भिकोबा तक उनके पूर्वज धोडपकर उपनाम का इस्तेमाल करते थे। प्रबोधनकार के पिता
सीताराम जब पनवेल आ बसे तो तत्कालीन रिवाज के अनुसार उन्होंने पनवेलकर उपनाम
प्रयोग में लाया। सीताराम पनवेलकर ने अपने पुत्र केशव (प्रबोधनकार) को विद्यालय
में दाखिला दिलाते समय अपने मूल उपनाम ठाकरे का प्रयोग पुनर्प्रारंभ किया।
देवास में पढ़ने गए
थे प्रबोधनकाररू अब रही बात प्रबोधनकार के मध्य प्रदेश वासी होने की। राष्ट्रवादी
कांग्रेस पार्टी के एक मुखपत्र ने बीच के दिनों में एक लेख प्रकाशित कर उसें
प्रबोधनकार ठाकरे के मध्य प्रदेश वासी होने का दावा किया था। प्रबोधनकार के पिता
सीताराम ठाकरे पनवेल न्यायालय में बेलिफ की नौकरी किया करते थे। जव्हार-मोखाडा में
जब वे समन पहुंचाने गए थे उसी समय बीमार पड़ गए। समय से सूचना न दे पाने के कारण
अंग्रेज सरकार ने उन्हें सेवा से निलंबित कर दिया था। सो सीताराम पंत ने टिन के
छोटे डब्बे बनाने का काम शुरू किया। पिता के काम में प्रबोधनकार हाथ बंटाया करते
थे सो वे पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे। उन दिनों सीताराम पंत के मामा राजाराम
नारायण गडकरी देवास संस्थान में नौकरी किया करते थे। किसी काम से राजाराम गडकरी एक
बार पनवेल आए और प्रबोधनकार से प्रभावित होकर उच्च शिक्षा के लिए उन्हें देवास ले
गए जहां विक्टोरिया हाई स्कूल में उनको प्रवेश दिलवाया। कुछ दिनों बाद देवास में
प्लेग फैल गया और केशव उर्फ प्रबोधनकार को आमांश का कष्ट हो गया सो वे फिर देवास
छोड़कर पनवेल आ गए। क्या सिर्फ देवास के विक्टोरिया हाई स्कूल में एडमीशन के चलते
प्रबोधनकार का मूल देवास माना जा सकता है? फिर तो नेहरू खानदान अंग्रेजों की औलाद ही
सिद्ध हो जाएंगे? सो, ऐतिहासिक तथ्य तो
यही है कि ठाकरे कुल को कहीं से भी महाराष्ट्र में प्रवासी नहीं सिद्ध किया जा
सकता।
धन लेकर लड़ते थे
दिग्गी के पूर्वजरू ठाकरे कुल पर आरोप लगाने वाले दिग्विजय सिंह का कुल भी जांच
लिया जाए। ठाकरे कुल के पूर्वज तो छत्रपति शिवराय की सेना के शूरवीर थे। वे हिंदू
स्वराज के लिए लड़ रहे थे। दिग्विजय सिंह का कुल खींची राजपूतों का है। वे जिस
राघोगढ़ रियासत के राजा हैं, उसका अधिकृत इतिहास उनके खींची राजपूत होने
की पुष्टि करता है। खींची संस्थान, जोधपुर से प्रकाशित ‘सर्वे ऑफ खींची
हिस्ट्री’ जिसके लेखक
ए।एच। निजामी तथा जी।ए। खींची हैं, का दावा है कि खींची उपजाति के राजपूत धन
लेकर युद्ध करने के लिए कुख्यात रहे हैं। दिग्विजय सिंह जिस राघोगढ़ रियासत के
कुंवर हैं वह रियासत गरीब दास नामक योद्धा को बादशाह अकबर ने दी थी। जब राजपूताना
और मालवा के अधिकांश क्षत्रिय राणा प्रताप की ओर हो लिए थे तब भी राघोगढ़ का
गरीबदास अकबर का मुखबिर था। इस गद्दी पर 1797 तक दिग्विजय सिंह का पूर्वज बलवंत सिंह
मौजूद था। 1778 के प्रथम
मराठा-अंग्रेज युद्ध में बलवंत सिंह ने अंग्रेजों की मदद की थी। यह साक्ष्य कर्नल
टाड लिखित इतिहास में मौजूद है।
दिग्गी के पितामह
अंग्रेजों के लिए मरने को तैयाररू बलवंत सिंह के पौत्र अजीत सिंह ने 1857 में झांसी की रानी
की मुखबिरी की थी। दिग्विजय सिंह के पितामह मदरूप सिंह उर्फ बहादुर सिंह द्वारा
अंग्रेजों को लिखा गया पत्र आज भी मौजूद है, जिसमें उसने गद्दी पर उसको मान्यता देने के
लिए आभार पत्र दिया था। ‘मैं वाइसराय का आभारी हूं। मैं वादा करता हूं कि सरकार का
वफदार रहूंगा। मेरी यही इच्छा है कि अंग्रेजी सरकार के लिए लड़ते हुए मेरी जान निकल
जाए।’ मदरूप सिंह
के बेटे बलभद्र सिंह का बेटा दिग्विजय सिंह है। बलभद्र सिंह हिंदूसभा के विधायक
थे। क्या ठाकरे परिवार पर दिग्विजय सिंह जैसे मुगलों के चरणचाटकों के वंशज को कुछ
बोलने का अधिकार है। दिग्विजय सिंह के पूर्वज मुगलों-अंग्रेजों के चाकर थे, वे आज रोमन बाई की
चाकरी कर रहे हैं। झांसी की रानी से दगा करने वालों का वंशज शौर्यकुल ठाकरे पर
सवाल दागे यही इस देश के शोकांतिका है।