(लिमटी खरे)
कल तक भाजपा की रीतियों नीतियों में रचे बसे कल्याण सिंह ने मुलायम सिंह यादव का दामन थामने के बाद भाजपा को किस कदर कोसा था, यह बात किसी से छिपी नहीं है, वही कल्याण सिंह अब भाजपा के पक्ष में राग अलापते नजर आ रहे हैं। यही आलम उमश्री भारती का है, वे भी आड़वाणी और अटल को पिता तुल्य मानतीं रहीं और फिर उन्हें भी गरयाने से नहीं चूकीं। आज दोनों ही नेता भाजपा में वापसी के लिए लालयित नजर आ रहे हैं।
सच है संगठन बिना किसी का कोई अस्तित्व नहीं है। संगठन के बिना सभी बौने नजर आते हैं। संगठन में रहकर चाटुकारों से घिरने के उपरांत राजनेता सोचने लगते हैं कि संगठन उनसे है वे संगठन से नहीं। इसी गफलत के चलते वे अपने आप का संगठन से बडा मान लेते हैं और नए मार्ग पर चलने का प्रयास करते हैं।
उमाश्री भारती ने भी यही किया। उन्होंने भाजपा का दमान छोड भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई। मध्य प्रदेश में जिस उमा भरती के बलबूते पर भाजपा ने दिग्विजय सिंह के तिलिस्म को तोडकर थंपिंग मेजारटी में सरकार बनाई थी, वह बात किसी से छिपी नहीं है। भाजश की सुप्रीमो का अब आलम यह है कि वे टीकमगढ से चुनाव ही हार गईं।
कमोबेश यही हाल कल्याण सिंह के थे। समाजवादी पार्टी के आगरा सम्मेलन में मुलायम सिंह ने कल्याण को हाथों हाथ लिया था। मंच से अनेकों बार कल्याण सिंह ने भाजपा को समूल नष्ट करने का अपना संकल्प दोहराया था। आज वही कल्याण सिंह भाजपा को मजबूत करने की बात कह रहे हैं। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या राजनेताओं को कोई दीन ईमान बाकी रह गया है।
आजादी के बाद जब भी कांग्रेस केंद्र में सत्ता में बैठी है, उसने जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी बाजपेयी जैसे दिग्गजों के संसद में जाने के मार्ग प्रशस्त किए हैं। एसा इसलिए नहीं कि शासक इनसे घबराते थे वस्तुत: दमदार विपक्ष की उपस्थिति शासकों को निरंकुश होने से बचाती थी। पूर्व में नेता चारित्रिक तौर पर बहुत शक्तिशाली हुआ करते थे। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अब वैसे नैतिकता से परिपूर्ण नेताओं से रीत गई है देश की राजनीति।
यह सच है कि पब्लिक मेमोरी (लोगों की याददाश्त) बहुत अधिक नहीं होती है। आज घटी घटना को महीने भर बाद भुला दिया जाता है। 1992 में जब बाबरी ढांचा ढहाया गया था, तब यूके के निजाम कल्याण सिंह हुआ करते थे। उस वक्त मुस्लिम वोट बैंक को हथियाने के चक्कर में मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को जी भर कर कोसा था। इसके बाद जब लोगों ने मुलायम और कल्याण को गलबहिंया डाले देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। मीडिया ने भी अपना दायित्व न निभाते हुए 1992 के प्रकरण के बाद के कल्याण और मुलायम के संबंधों की याद ताजा करना उचित नहीं समझा।
बहरहाल कल्याण भले ही समाजवादी पार्टी के औपचारिक सदस्य न रहे हों किन्तु उनके पुत्र राजवीर ने तो सपा की टिकिट पर चुनाव लडा है, और सपा के पदाधिकारी भी रहे हैं। अब जब उनके मन में एक बार फिर हिन्दुत्व की भावनाएं जोर मार ही रहीं थीं, तो वे मुलायम सिंह यादव के कथित ``विश्वासघात`` की राह क्यों ताक रहे थे। जाहिर है सपा से दूरी बनाने के लिए कुछ न कुछ आधार तो गढना ही था।
राजनेताओं में परिवारवाद कूट कूट कर भरा हुआ है, कल्याण सिंह उससे अलग नहीं माने जा सकते हैं। वे अपना और अपने पुत्र राजवीर का राजनैतिक पुर्नवास चाह रहे हैं, यही कारण है कि उन्होंने अब भाजपा के पितृ संगठन संघ को सिद्ध करना आरंभ कर दिया है।
संघ के नेता भी यह जानते हैं कि भाजपा को सत्तारूढ किए बिना उनका वजूद मुश्किल में पड जाएगा। भाजपा को पुन: मुख्यधारा में लाने के लिए जरूरी है, पिछडा वर्ग का वोट बैंक। इसके बिना पिछले पांच सालों में भाजपा की जो गत हुई है, वह किसी से छिपी नहीं है।
आने वाले समय में भाजपा अगर उमाश्री भारती, कल्याण सिंह और राजवीर को गले लगा ले तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वर्तमान राजनीति को देखकर तो यही कहा जा सकता है, कि सब कुछ संभव है राजनीति में। आखिर राजनीति की एक लाईन की परिभाषा : ``जिस नीति से राज हासिल हो, वही राजनीति है`` जो ठहरी।