शूलों भरी राह है अजय कांति की
(लिमटी खरे)
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उहापोह, मशक्कत, मेराथन बैठकों के दौर के उपरांत अंततः मध्य प्रदेश कांग्रेस कमैटी के अध्यक्ष, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के नामों पर हरी झंडी दे ही दी गई है। दोनों ही पद पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह के खाते में गए हैं। दिग्विजय सिंह का सक्रिय राजनीति से वनवास का समय पूरा होने में अब तीन साल से भी कम समय बचा है। मध्य प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर दिग्विजय सिंह धूमकेतू बनकर उभर रहे हैं, जिनके सामने प्रदेश के अन्य क्षत्रप दीप्तमान नजर नहीं आ रहे हैं।
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1993 से 2003 तक मध्य प्रदेश में राजनैतिक बिसात पर वही पांसे चले जो राजा दिग्विजय ने चाहे। इस दौरान प्रदेश के तत्कालीन ताकतवर क्षत्रप स्व.माधवराव सिंधिया को अपना संसदीय क्षेत्र बदलने पर मजबूर होना पड़ा। कुंवर अर्जुन सिंह की भी कमोबेश यही हालत रही वे विन्धय के उपरांत नर्मदांचल में होशंगाबाद से मुंह की खाने के बाद बरास्ता राज्यसभा संसद पहुंचे। श्यामा और विद्याचरण शुक्ल के साथ ही साथ अजीत जोगी के आभामण्डल को नेस्तनाबूत कर दिया गया। यहां तक कि दिग्विजय सिंह के तारण हार और बड़े भाई की भूमिका निभाने वाले कमल नाथ को उपचुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा। वह भी तब जब ब्लाक स्तर पर मंत्रियों की तैनाती थी। यह सब महज संयोग नहीं माना जा सकता है। इसके पीछे इक्कीसवीं सदी के उभरते कांग्रेस के राजनैतिक चाणक्य का शातिर दिमाग ही काम कर रहा था।
2003 में चुनावों में औंधे मुंह गिरी कांग्रेस के निजाम राजा दिग्विजय सिंह ने दस सालों तक सक्रिय राजनीति से तौबा करने का कौल लिया था। दिग्गी राजा ने चुनाव न लड़कर अब तक उसे निभाया है। अब वनवास समाप्त हाने की बेला आ रही है, इसलिए उनकी सक्रियता को समझा जा सकता है। देश के हृदय प्रदेश में अपना वर्चस्व बरकरार रखने के लिए वे अपने प्यादों को यहां करीने से फिट करते जा रहे हैं। कांतिलाल भूरिया को प्रदेशाध्यक्ष बनाने के बाद अजय सिंह की विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर नियुक्ति इसका अभिनव उदहारण माना जा सकता है।
अपनी नियुक्ति के साथ ही अजय सिंह और भूरिया गदगद हुए बिना नहीं होंगे किन्तु उनके सामने की चुनौतियां उनके इस सफर का मजा खराब कर सकती हैं। आपसी कलह में तार तार हो चुकी प्रदेश कांग्रेस में अनेक जिलों में अब कांग्रेस के नामलेवा नहीं बचे हैं। कांग्रेस के आला नेताओं और भजपा के आलंबरदारों की जुगलबंदी से मध्य प्रदेश में कांग्रेस रसातल में ही है। सुरेश पचौरी के हटते ही कमल नाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरूण यादव जैसे धुरंधरों की अति सक्रियता से कार्यकर्ताओं में जोश अवश्य ही आएगा किन्तु वह कितने समय तक टिक पाएगा कहा नहीं जा सकता है।
नवनियुक्त नेताओं के सामने प्रदेश का भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौति बनकर उभरेगा। अफसरशाही, लाल फीताशाही और बाबूराज के बेलगाम दौड़ते घोड़ों की लगाम कसना बहुत ही दुष्कर काम है। जब नेता प्रतिपक्ष का फैसला ही सात माहों के की लंबी मशक्कत के बाद हुआ हो तब मध्य प्रदेश के क्षत्रपों की सहमति की डोर कितनी महीन होगी इस बात को समझा जा सकता है। माना जा रहा है कि अब तक पीसीसी और भाजपा के बीच आपसी ‘‘अंडरस्टेंडिग‘‘ गजब की थी, यही कारण था कि सब कुछ देखने सुनने के बाद भी और अनेक सुनहरे मौकों के बावजूद भी प्रदेश कांग्रेस ने कभी भी भाजपा को व्यापक स्तर पर घेरने का प्रयास नहीं किया। कार्यकर्ताओं में आम धारणा घर कर चुकी है कि भाजपा के आला नेताओं के इशारे पर कांग्रेस और कांग्रेस के चुनिंदा नेताओं के इशारों पर भाजपा चल रही है।
भूरिया के अध्यक्ष बनने के बाद पहली बार भोपाल आगमन के एन पहले प्रदेश भाजपाध्यक्ष प्रभात झा ने उन्हें अपना एक समझदार मित्र बताकर पांच पन्नों की पाती लिख दी। झा के पत्र से यही संदेश जा रहा है कि आने वाले समय में एक बार फिर प्रदेश में कांगेस बिना दांत के ही चलने वाली है। कांग्रेस की धार बीते सात सालों मंे पूरी तरह से बोथरी हो चुकी है जिसे पजाना आसान नहीं होगा। गुटों में बटी कांग्रेस को एक सूत्र में पिरोना दोनों ही नवागंतुक पदाधिकारियों के लिए टेढ़ी खीर ही साबित होने वाला है। विधानसभा चुनावों में अभी ढाई बरस का समय है। मध्य प्रदेश में आदिवासी नेतृत्व को उभारकर आला कमान ने जो भी संदेश देना चाहा हो किन्तु मध्य प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की स्मृति इतनी कमजोर नहीं है कि वे इस बात को भूल जाएं कि भूरिया ने बतौर सांसद और केंद्रीय मंत्री मध्य प्रदेश के कितने जिलों का दौरा किया है। जब खुद कांतिलाल भूरिया ही सालों साल निष्क्रीय या क्षेत्र विशेष में समिटकर रह गए हों तब उनके निजाम बनते ही रातों रात कायापलट संभव प्रतीत नहीं होता है।
अजय सिंह और कांतिलाल भूरिया के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि दोनों ही की छवि अब तक प्रदेश स्तरीय नेता की भी नहीं बन पाई है। भूरिया मालवांचल तो अजय सिंह विन्धय प्रदेश तक ही सीमित समझे जाते हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष रहे अजय सिंह ने चुनावों के दौरान भी समूचे प्रदेश में आमद नहीं दी। दोनों ही नेताओं को सभी गुटों को साथ लेकर चलना सबसे बड़ी चुनौति होगा, क्योंकि काग्रेस में शिख से लेकर नख तक इतनी शाखाएं और गुटबाजी है कि इस तरह की खरपतवार को नष्ट करना आसान बात नहीं होगा। भूरिया ओर अजय सिंह के सामने यह चुनौति भी कम नहीं होगी कि उन्हें मनराखनलाल हरवंश सिंह, महंेंद्र सिंह कालूखेड़ा, सज्जन सिंह वर्मा, हुकुम सिंह कराड़ा, चौधरी राकेश सिंह, एन.पी.प्रजापति, गोविंद सिंह, सात बार के विधायक प्रभुदयाल गहलोत, माणक अग्रवाल जैसे धुरंधरों को भी साधना होगा।
एक के बाद एक चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल जबर्दस्त तरीके से गिरा है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। कांग्रेस के सामने अभी मण्डलेश्वर और जबेरा उपचुनाव के साथ ही साथ अर्जुन सिंह के निधन से रिक्त हुई राज्य सभा की सीट को जीतना परीक्षा से कम नहीं है। माना कि दोनों ही नेताओं के मौखटे के पीछे राजा दिग्विजय सिंह का चेहरा हो पर दोनों ही नेताओं को अब एक एक कदम फूंक फूंक कर ही रखना होगा, वरना आने वाले सालों में काग्रेस को जिंदा करना ही अपने आप में बहुत बड़ा मिशन बनकर रह जाएगा।