मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

सरकार के गले की फॉस बना आरटीआई


सरकार के गले की फॉस बना आरटीआई

(लिमटी खरे)

लोगों की वाहवाही बटोरने की गरज से कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी ने 2005 में कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को फरमान जारी किया था कि लोगों को सब कुछ जानने का हक है। इसी तारतम्य में पारदर्शिता को कथित तौर पर बढ़ावा देने के उद्देश्य से सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) लाया गया था 2005 में। इस कानून के आते ही आरटीआई एक्टविस्ट सक्रिय हुए। सूचना के अधिकार कानून से पारदर्शिता काफी हद तक बढ़ गई। इससे सरकारी नुमाईंदों में खलबली मच गई। भ्रष्टाचार की परतें उघड़ने लगीं। भ्रष्टाचारी बचने के जतन करने लगे। उनके सरमायादार भी आरटीआई के चलते ज्यादा गफलत नहीं कर पा रहे हैं। परीक्षाओं में भी पारदर्शिता आ चुकी है। हां इसका ऋणात्मक पहलू भी है। इसके माध्यम से चतुर सुजान सफेदपोश ब्लेकमेलर अपनी कारस्तानी से बाज नहीं आ रहे हैं। सूचना के अधिकार में वे जब जानकारी चाहते हैं तब संबंधित आकर उन्हें सिद्ध कर लेता है और आरटीआई की मूल मंशा यहां दम तोड़ देती है।

कांग्रेसीनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार की यूं तो उपलब्धियां हैं ही नहीं पर इसके खाते में आरटीआई ही इकलौती उपलब्धि है जिसका गुणगान वह अपनी उपलब्धियों में सदैव ही करती है। जब भी यूपीए अपना बखान कर खुद की पीठ थपथपाने का उपक्रम करती है सदैव ही उसके पास गाजे बाजे के साथ 2005 में लागू किया गया आरटीआई का अस्त्र प्रमुख होता है। आरटीआई के माध्यम से प्रशासन में पारदर्शिता आई है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।

अब जबकि आरटीआई कानून कांग्रेस के लिए ही भस्मासुर साबित होने लगा है तब यूपीए सरकार को इस कानून की समीक्षा की आवश्यक्ता महसूस होने लगी है। वजीरे आजम डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भी अब सूचना के कानून में संशोधन की बात कहकर न केवल ठंडे पानी में कंकड़ मारकर लहरें पैदा कर दी हैं, वरन् अपनी मजबूरी और बेचेनी को भी रेखांकित कर दिया है।

अर्थशास्त्री और भ्रष्टाचार के ईमानदार पहरूआ बन चुके वजीरे आजम डॉक्टर मनमोहन सिंह का यह कथन समझ से परे ही है कि मौजूदा कानून ईमानदार अधिकारियों को खुलकर अपनी राय रखने से हतोत्साहित करेगा। यह बात प्रधानमंत्री ही बता सकते हैं कि देश में ईमानदार अधिकारियों की तादाद अब कितने फीसदी रह गई है। साथ ही साथ ईमानदार अधिकारी अगर अपनी राय रखेगा तो उसे सार्वजनिक होने का कैसा डर? क्या वह अपनी राय किसी षणयंत्र या उद्देश्य विशेष अथवा किसी व्यक्ति विशेष के भले के लिए रखने का प्रयास करेगा। क्या देश हित में कही गई उसकी बात को सार्वजनिक किए जाने से वह हतोत्साहित होगा?

भोले भाले और भ्रष्टाचार के ईमानदार संरक्षक बन चुके डॉक्टर मनमोहन सिंह साथ में पुछल्ला यह भी लगा देते हैं कि सूचना के अधिकार कानून को कमजोर नहीं किया जाएगा। अगर कानून को कमजोर नहीं किया जाएगा तो फिर ईमानदार अधिकारियों की बात का कहा जाना किस प्रसंग के तहत है यह बात प्रधानमंत्री को स्पष्ट करना ही होगा। गौरतलब है कि इसके पहले आरटीआई एक्टविस्ट से भयाक्रांत जनसेवक विशेषकर सलमान खुर्शीद और वीरप्पा मोईली भी आरटीआई में बदलाव की बात कह चुके हैं।

कांग्रेस के रणनीतिकार यह बात भली भांति जानते होंगे कि निचले तबके का ध्यान कांग्रेस या सरकार की ओर जिसने खींचा है उसमें आरटीआई ही अव्वल है। निचले मध्यम या उच्च दर्जे के घोटालों के पर्दाफाश में कहीं न कहीं आरटीआई की महती भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। आरटीआई के चलते ही मंत्री से लेकर संत्री तक सभी जवाबदेह बन रहे हैं इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

देखा जाए तो आरटीआई के आने के बाद ही लोकतंत्र सही मायनों में अपने गंतव्य की ओर अग्रसर दिखाई पड़ रहा है। सूचना के अधिकार कानून का उद्देश्य संभवतः सरकारी तंत्र के कामकाज में पारदर्शिता लाना ही प्रमुख है। लोकतंत्र का अर्थ होता है जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए। सही मायने में लोकतंत्र वही है जब जनता अधिकार संपन्न बने एवं सूचना के अधिकार कानून के आने के उपरांत जनता अधिकार संपन्न बन रही है।

आरटीआई के आने से पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ी है यह बात सभी के सामने आ चुकी है। नियमानुसार सरकार में बैठे जनसेवक और सरकार के लोकसेवकों को जनता के प्रति जवाबदेह होना अवश्यंभावी है। कांग्रेस के पचास से ज्यादा सालों के शासन में जनता तो सेवक और जनसेवक खुद को शासक बना चुके हैं। जनता के करों से संग्रहित राजस्व में खुलकर आग लगाने के बाद भी इनके खिलाफ कोई भी आवाज बुलंद करने का साहस नहीं जुटा पाता है। सत्ता, विपक्ष, लोकसेवक और मीडिया के गठजोड़ से भारत में अब अघोषित गुलामी की जंजीरे खनकने लगीं हैं।

सूचना के अधिकार कानून को लागू करने के लिए कांग्रेसनीत संप्रग सरकार साधुवाद की पात्र है। आरटीआई के अस्तित्व में आने के उपरांत न जाने कितने घपले और घोटाले प्रकाश में आए हैं। न जाने कितने जनसेवक और लोकसेवक अपनी रातें मलमल की चादरों के बजाए जेल के सख्त बिस्तर पर गुजारने पर मजबूर हो गए हैं। कानून के तहत मांगी गई जानकारी से सरकार का तौर तरीका और सरकारी नुमाईंदों की अनैतिक कार्यप्रणाली उजागर ही हुई है। अब इन परिस्थियों में जनसेवक और लोकसेवकों के कपड़े उतारने वाला कानून भला इन नुमाईंदों को क्यों रास आने लगा।

इस प्रभावी कानून में संशोधन के प्रधानमंत्री के संकेत को समझना आवश्यक है। अगर इस कानून में छेड़छाड़ की गई तो यह कानून बिना धार की तलवार से ज्यादा कुछ नहीं बचेगा। वैसे यह सच है कि वर्तमान में सूचना का अधिकार कानून बहुत अधिक प्रभावी नहीं कहा जा सकता है। इसमें सिर्फ सूचना पाने का अधिकार है। इसमें संशोधन कर यह प्रावधान कर दिया जाना चाहिए कि अगर किसी के खिलाफ कोई बात इस कानून की जानकारी में प्रमाणित होती है तो संबंधित विभाग ही उसके खिलाफ संज्ञान लेकर न्यायालय से उसे सजा दिलवाएगा। प्रकरण के चलते तक उस कर्मचारी या अधिकारी का वेतन उसे नहीं दिया जाएगा। इसके लिए कड़े कदम उठाना अनिवार्य लगने लगा है। प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह अगर ईमानदार अधिकारियों को संरक्षण देने की बात कह रहे हैं तो उसके भी अनेक प्रथक रास्ते हैं। हमारी निजी राय में सूचना के अधिकार कानून की आड़ लेकर उन्हें बचाना कहीं से भी न्यायसंगत नहीं प्रतीत होता है।

सरकार को चाहिए कि सर्वप्रथम वह आरटीआई के लागू किए जाने के छः सालों की पहले समीक्षा करे। इसके बाद वह जो निश्कर्ष निकाले उस पर राष्ट्रव्यापी बहस करवाए। आज केंद्रीय सूचना आयोग और राज्यों की ईकाईयों में पर्याप्त पर्याप्त अधिकार और संसाधन ही नहीं है। सरकार को पहले इन्हें उपलब्ध करवाना होगा। मध्य प्रदेश काडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्रा की दलील पर भी विचार करना होगा जिसमें उन्होंने कहा है कि आयोग को वित्तीय स्वायत्ता दी जाए। क्या वजह है कि सूचना आयोग के समूचे संगठन को चुनाव आयोग या मानव अधिकार आयोग के मानिंद संवैधानिक संस्था का दर्जा नहीं दिया जा रहा है?

एसा नहीं कि इस कानून में खामी नहीं है। सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा इसे आजीविका का साधन बनाना निंदनीय है। अक्सर देखा गया है कि आरटीआई के तहत जानकारी तो मांगी जाती है पर बाद में आपसी सेटिंग या लेन देन कर मामला ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया जाता है। अनेक सफेदपोश लोगों ने इसे व्यवसाय बना लिया है।

सरकार को इस कानून में संशोधन कर जानकारी मांगने वाले व्यक्ति के द्वारा आवेदन के समय ही शपथ पत्र भरवाया जाए कि वह जानकारी अवश्य ही लेगा। और अगर आवेदन के बाद जानकारी नहीं ली जाती है तो उस व्यक्ति के नाम छाया चित्र के साथ उसने क्या जानकारी मांगी थी इसे उस जिले के जिलाध्यक्ष कार्यालय में एक अलग नोटिस बोर्ड पर सूचना चस्पा की जाए, ताकि उसके बारे में लोग सतर्क हो सकें।

एक के बाद एक आरटीआई एक्टविस्ट की शहादत से साफ हो जाता है कि यह कानून वर्तमान स्वरूप में ही कितना अधिक प्रभावी और कारगर है। इसके लिए सरकार को आरटीआई एक्टविस्ट पर हमले या हत्या की स्थिति में उसके द्वारा मांगी गई सूचना को समाचार पत्रों में सार्वजनिक किए जाने का प्रावधान किया जाना चाहिए। एसा करने से आरटीआई एक्टविस्ट पर हमलों की संख्या में कमी आने की उम्मीद की जा सकती है। सरकार को चाहिए कि इसे कमजोर करने के बजाए और अधिक प्रभावी, असरदार एवं कारगर बनाने की दिशा में पहल करे न कि इसे कमजोर करने की दिशा में।

चला चली की बेला में हैं नायर


चला चली की बेला में हैं नायर

राजस्थान के लाट साहब बन सकते हैं टीके नायर

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। देश के सबसे ताकतवर कार्यालय के सिरमोर रहे टी.के.नायर का शनि इन दिनों बेहद भारी नजर आ रहा है। गृह मंत्री और वित्त मंत्री के विवाद की जड़ समझे जाने वाले प्रधानमंत्री के पसंदीदा अधिकारी नायर की जल्द ही पीएमओ से बिदाई तय मानी जा रही है। उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया जा सकता है। अपनी रूखसती को भांपकर नायर भी इन दिनों बौखलाए ही घूम रहे हैं।

प्रधानमंत्री कार्यालय के नाक के बाल रहे प्रधानमंत्री के चहेते अधिकारी और उनके पूर्व प्रमुख सचिव जिन्हें पीएम ने राज्यमंत्री का दर्जा देकर अपना सलाहकार बना दिया है उन्हीं टी.के.नायर का जलजला अब पीएमओ में सोनिया गंाधी के चहेते पुलक चटर्जी की आमद के साथ ही कम हो गया है। प्रणव मुखर्जी और पलनिअप्पम चिदम्बरम के बीच विवाद की स्थिति निर्मित कराने के लिए नायर को ही जवाबदार माना जा रहा है।

कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी खुद भी नायर से इस कदर खफा हैं कि वे उनकी तत्काल ही पीएमओ से रूखसती चाह रही हैं। सोनिया के करीबियों का दावा है कि सोनिया पहले तो नायर को राज्यपाल बनाने राजी नहीं थीं, किन्तु अब वे ही नायर को पीएमओ से बाहर कर उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाने पर सहमत हो गईं हैं।

उधर नायर खुद अपनी रवानगी की आशंकाओं से बुरी तरह बौखलाए हुए हैं। कहा जा रहा है कि कल तक जिस पीएमओ में उनकी तूती बोलती थी आज वहीं उनकी सुनने वाला कोई नहीं बचा है। हाल ही में जब वे अमेरिका से एयर इंडिया के विमान से भारत लौट रहे थे तब नमकीन काजू न मिलने पर वे एयर होस्टेस पर इस तरह भड़के मानों वे उसे मार ही देंगे।

मीरा कुमार पर लगा सकती है कांग्रेस दांव


बजट तक शायद चलें मनमोहन . . . 5

मीरा कुमार पर लगा सकती है कांग्रेस दांव

दलित कार्ड में सुशील शिंदे भी हो सकते हैं दावेदार

मिशन यूपी में कारगर सिद्ध होगा दलित कार्ड

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश की सत्ता कांग्रेस किसी भी कीमत पर हथियाने को आतुर दिख रही है। इसका कारण यह है कि अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश में खेत रहती है तो फिर कांग्रेस की भद्द इसलिए भी पिटेगी क्योंकि उत्तर प्रदेश में ही कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी का संसदीय क्षेत्र है। इसके पहले भी कांग्रेस के प्रधानमंत्री स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी और स्व.राजीव गांधी का संसदीय क्षेत्र भी उत्तर प्रदेश में ही समाहित रहा है। बावजूद इसके कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपना प्रदर्शन नहीं सुधार पाई है।

कांग्रेस की सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ (श्रीमति सोनिया गांधी का सरकारी आवास) के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार सोनिया के दबाव में आकर ही भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री का ईयर मार्क सरकारी आवास 10 जनपथ से हटाकर 7 रेसकोर्स रोड़ किया गया था। इसके उपरांत भी दस जनपथ सत्ता और शक्ति का केंद्र बना हुआ है। सूत्रों ने साफ किया कि श्रीमति सोनिया गांधी को बताया गया है कि दलित वोट बैंक कांग्रेस के हाथ से इसलिए फिसला क्योंकि दलित होने के कारण बाबू जगजीवन राम को देश का प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया था। अब इस तरह के आरोप सार्वजनिक तौर पर यूपी की निजाम मायावती द्वारा लगाए जा रहे हैं जो कांग्रेस के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं।

सूत्रों के अनुसार दलित वोट बैंक को लुभाने और वापस कांग्रेस की झोली की ओर लाने के लिए अब कांग्रेस दलित कार्ड खेल सकती है। सूत्रों का कहना है कि घपलों घोटालों में आकण्ठ डूबी मनमोहन सरकार से कांग्रेस अध्यक्ष बुरी तरह खफा हैं। सोनिया और राहुल दोनों ही मनमोहन से निजात पाने के मार्ग ढूंढने में लगे हुए हैं। कांग्रेस के दोनों ही खेवनहार अब मनमोहन के विकल्प के तौर पर सुशील कुमार शिंदे और मीरा कुमार के बारे में विचार करने लगे हैं।

बताया जाता है कि इस कार्ड के जरिए कांग्रेस एक तीर से कई शिकार कर लेगी। अव्वल तो वह उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के दलित वोट बैंक में सेंध लगा देगी वहीं दूसरी ओर देश का ध्यान घपले घोटाले और भ्रष्टाचार से हटाने में भी वह सफल हो जाएगी। कांग्रेस के चुनावी प्रबंधक अब लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार और केंद्रीय मंत्री सुशील कुमार शिंदे के प्रधानमंत्री बनाए जाने से उपजने वाली परिस्थितियों पर मंथन में लगे हुए हैं।

बिना आईडेंडीफिकेशन चल रहा मोबाईल का कारोबार


एक आईडिया जो बदल दे आपकी दुनिया ---------------- 2

बिना आईडेंडीफिकेशन चल रहा मोबाईल का कारोबार

टारगेट पूरा करने फर्जीवाड़ा है जारी

महीने भर में ही बंद हो जाती हैं नई सिम

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। देश की मशहूर मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनी आईडिया के ग्राहकों की संख्या में तेजी से इजाफे से अन्य मोबाईल सेवा प्रदाता बुरी तरह चौंके हुए हैं। अन्य मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों द्वारा इस बारे में शोध किया जा रहा है कि आखिर आईडिया कंपनी ने किस मार्केटिंग स्टटर्जी को अपनाया हुआ है। शोध पर ज्ञात हुआ कि आईडिया के अधिकारियों द्वारा जिला स्तर पर दिए गए नए मोबाईल कनेक्शन के भारी भरकम टारगेट को पूरा करने के लिए रिटेलर द्वारा साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति अपनाई जा रही है।

एक उपभोक्ता ने नाम उजागर न करने की शर्त पर बताया कि उसने आईडिया का इंटरनेट कनेक्शन लिया। उसने पहले थ्री जी फिर टूजी कनेक्शन को लिया। नेट सेटर लेने पर उसे बताया गया कि पहले एक माह उसे इंटरनेट ब्राउजिंग अनलिमिटेड दी जाएगी। अमूमन उपभोक्ताओं द्वारा रिटेलर की बात पर ही यकीन कर कनेक्शन ले लिया जाता है। आरोपित है कि आईडिया के रिटेलर्स द्वारा न तो आईडिया के ब्रोशर्स ही जिसमें इस तरह के आकर्षक लुभावने ऑफर का उल्लेख होता है और ना ही लिखित तौर पर कुछ प्रदाय किया जाता है।

एक बार जब उपभोक्ता द्वारा अपने सेवा प्रदाता के तौर पर आईडिया को चुन लिया जाता है तो फिर आरंभ होता है उपभोक्ताओं को ठगने का अनवरत चलने वाला सिलसिला। उक्त उपभोक्ता ने बताया कि दो दिन तो उसका इंटर नेट उसके आईडिया के नेट सेटर से ठीक ठाक चला। बाद में अचानक वह बंद हो गया। जब वह उपभोक्ता अपनी शिकायत दर्ज कराने आईडिया के अधिकृत काउंटर पर गया, तो वहां उपस्थित कर्मचारी ने उसकी शिकायत लेने से साफ इंकार कर दिया।

इतना ही नहीं उक्त उपभोक्ता को आईडिया के अधिकृत काउंटर पर उपस्थित उक्त कर्मचारी द्वारा यह भी बताने से इंकार कर दिया गया कि वह अपनी शिकायत दर्ज कहां कराए। उपभोक्ता को पांच दिन तक बार बार बुलाकर चेक करने का हवाला दिया जाता रहा। अंततः छटवें दिन उक्त उपभोक्ता को यह कहकर वापस कर दिया गया कि उसके द्वारा दिए गए दस्तावेज मान्य नहीं है। जब उक्त उपभोक्ता द्वारा यह कहा गया कि उसका परिचय पत्र और उसका चालक अनुज्ञा पत्र वेध है तो उक्त कर्मचारी द्वारा कोई जवाब नहीं दिया गया। लुटा पिटा उपभोक्ता तो घर लौट गया किन्तु आईडिया की ग्राहक संख्या में एक का इजाफा हो गया। इस तरह देश भर में आईडिया द्वारा लाखों ग्राहकों के साथ इस तरह का बर्ताव किया जा रहा हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

(क्रमश जारी)