दिग्भ्रमित लग रहे हैं भाजपा के आला नेता
कभी मन्दिर, कभी युवा तो कभी किसान पर जाकर टिक जाती है नेताओं की नज़रें
इस बार कमजोर विपक्ष साबित हुई भाजपा
सत्ता प्राप्ति हुई अहम, जनसेवा हुई गौड
(लिमटी खरे)
भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ जिस तेजी से उपर उठा था, पिछले एक दशक में उतनी ही तेजी से अब वह रसातल की ओर जाता प्रतीत हो रहा है। पार्टी का एजेण्डा इन दिनों क्या रहा कोई भी ठीक तरीके से नहीं बता सकता है। इसका कारण भाजपा के दूसरी पंक्ति के नेताओं का सत्ता संघर्ष कहा जा सकता है। यह सच है कि किसी की छवि बनाने और बिगाडने में मीडिया की बडी भूमिका रहती है, और मीडिया को अपने निहित स्वार्थों के लिए साध साधकर भाजपाई नेताओं ने पार्टी के बजाए खुद को स्थापित करने के प्रयास किए हैं।
अब भाजपा की लगाम बहुत साधारण कार्यकर्ता रहे नितिन गडकरी के हाथों में सौंपी गई है। गडकरी की भविष्य की योजनाएं क्या हैं और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने क्या रोडमेप तैयार किया है, यह तो भविष्य में ही साफ हो सकेगा, किन्तु अब भाजपा का नया एजेण्डा राम मन्दिर, गंगा शुद्धिकरण और कश्मीर जैसे मुद्दे पर आकर टिक गया है। राम के नाम को भुनाकर एक बार भाजपा सत्ता की मलाई चख चुकी है, किन्तु सत्ता में आने के बाद वह अपने मुद्दे से भटक गई थी। अब दुबारा राम नाम के सहारे भाजपा की हिचकोले खाती नैया से वेतरणी पार करने का प्रयास जारी है।
इन्दौर में हुए तीन दिनी महाकुंभ में हुए मन्थन के उपरान्त जो तथ्य निकलकर आए हैं, उनसे यही समझा जा सकता है कि भाजपा किसी भी कीमत पर आम आदमी की परवाह के स्थान पर अब येन केन प्रकरणेन सत्ता हासिल करना चाह रही है। भाजपा के आला नेता भूल चुके हैं कि राम मन्दिर का मुद्दा अब शायद प्रासंगिक ही नहीं बचा है। 1992 में बावरी ढांचे के दौरान युवाओं ने जो जोश खरोश दिखाया था, वे अब 18 साल बाद अधेडावस्था को पा चुके हैं। उनके मानस पटल से बाबरी विध्वंस की यादें और उसके बाद भाजपा का यू टर्न विस्मृत नहीं हुआ होगा।
रही बात अब शिव की जटा से निकली गंगा मैया के शुद्धिकरण की तो भाजपा को देश की जनता को यह बताना ही होगा कि जब छ: साल वे सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर थे तब उन्होंने गंगा के लिए क्या किया। जनता यह सवाल अवश्य ही पूछेगी कि आखिर अब गंगा की याद कैसे आई और अब क्या यह राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवानी की जटा से निकलने वाली है। कश्मीर मुद्दा अवश्य ही प्रासंगिक माना जा सकता है। इस मामले में भी भाजपा का सत्ता में रहते हुए इतिहास मौन ही है। 2004 के बाद भाजपा विपक्ष में है, पर भाजपा के प्रदर्शन को देखकर कहा जा सकता है कि भाजपा एक कमजोर विपक्ष के तौर पर अपनी छवि बना सकी है।
तीन दिनी माथा फोडी के बाद एक तथ्य उभरकर साफ तौर पर सामने आया है कि इन तीन दिनों में भाजपा के आला नेताओं ने अपनी अलग अलग भाव भंगिमाएं दिखाकर मीडिया की सुर्खियों में रहने का प्रयास तो अवश्य किया है, किन्तु अन्तिम छोर के आम आदमी के लिए उसके जेहन में कितनी चिन्ता है, इस बारे में चर्चा की फुरसत भाजपा को नहीं मिल सकी, जो अपने आप में आश्चर्यजनक मानी जा सकती है।
भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता और वंशवाद के लिए कल तक कांग्रेस को ही पर्याय माना जाता रहा है, अब भाजपा भी उसी राह पर चली पडी है। भाजपा में भी इस तरह के गम्भीर रोग लग चुके हैं, जिनके इलाज के प्रति भाजपा संजीदा नहीं दिखाई पड रही है, यही कारण है कि भाजपा को कांग्रेस का भगवा संस्करण भी माना जाने लगा है। नाराजगी के चलते भाजपा के अनेक नेताओं ने इन्दौर सम्मेलन से किनारा करना ही उचित समझा।
उधर भाजपा के पितृ संगठन माने जाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भाजपा के लिए जो कार्ययोजना तैयार की थी उसमें भी पलीता लगाने के प्रयास आरम्भ हो गए हैं। माना जा रहा है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत चाहते हैं कि टीम गडकरी में उन लोगों को शामिल किया जाए जो भाजपा में कायाकल्प करने का माद्दा रखते हों। संघ के उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो संगठन में अंगद की तरह पांव जमाए बैठे कुछ आला नेताओं की छुट्टी के हिमायती हैं संघ प्रमुख।
होना यह चाहिए कि टीम गडकरी में भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोश, राजनाथ सिंह, अनन्त कुमार, वेंकैया नायडू अब मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाएं। इसके साथ ही साथ संगठन में उन चेहरों को तवज्जो दी जानी चाहिए जो कार्यकर्ताओं और जनता से बेहतर संवाद कायम कर सकें। गडकरी की ताजपोशी वैसे भी गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र कुमार मोदी को रास नहीं आई है। यही कारण है कि उन्होंने गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद उनसे जाकर सौजन्य भेंट करना तक उचित नहीं समझा। संघ जिन नेताओं को टीम गडकरी का हिस्सा बनाना चाह रहा है, उनकी राह में भाजपा के आत्म केन्द्रित नेताओं द्वारा शूल बोने के काम भी किए जा रहे हैं।
कुल मिलाकर इन्दौर के महाकुंभ के बाद यह साफ हो गया है कि भाजपा का एजेण्डा अब सत्ता प्राप्ति ही रह गया है। भाजपा के दिग्भ्रमित आला नेता अपने घालमेल वाले एजेण्डे को लेकर भविष्य की कार्ययोजनाएं बनाने में जुटे हुए हैं। यह सब देखकर भाजपा की आने दिनों वाली राह बहुत ही धुंधली ही नज़र आ रही है।
अब भाजपा की लगाम बहुत साधारण कार्यकर्ता रहे नितिन गडकरी के हाथों में सौंपी गई है। गडकरी की भविष्य की योजनाएं क्या हैं और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने क्या रोडमेप तैयार किया है, यह तो भविष्य में ही साफ हो सकेगा, किन्तु अब भाजपा का नया एजेण्डा राम मन्दिर, गंगा शुद्धिकरण और कश्मीर जैसे मुद्दे पर आकर टिक गया है। राम के नाम को भुनाकर एक बार भाजपा सत्ता की मलाई चख चुकी है, किन्तु सत्ता में आने के बाद वह अपने मुद्दे से भटक गई थी। अब दुबारा राम नाम के सहारे भाजपा की हिचकोले खाती नैया से वेतरणी पार करने का प्रयास जारी है।
इन्दौर में हुए तीन दिनी महाकुंभ में हुए मन्थन के उपरान्त जो तथ्य निकलकर आए हैं, उनसे यही समझा जा सकता है कि भाजपा किसी भी कीमत पर आम आदमी की परवाह के स्थान पर अब येन केन प्रकरणेन सत्ता हासिल करना चाह रही है। भाजपा के आला नेता भूल चुके हैं कि राम मन्दिर का मुद्दा अब शायद प्रासंगिक ही नहीं बचा है। 1992 में बावरी ढांचे के दौरान युवाओं ने जो जोश खरोश दिखाया था, वे अब 18 साल बाद अधेडावस्था को पा चुके हैं। उनके मानस पटल से बाबरी विध्वंस की यादें और उसके बाद भाजपा का यू टर्न विस्मृत नहीं हुआ होगा।
रही बात अब शिव की जटा से निकली गंगा मैया के शुद्धिकरण की तो भाजपा को देश की जनता को यह बताना ही होगा कि जब छ: साल वे सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर थे तब उन्होंने गंगा के लिए क्या किया। जनता यह सवाल अवश्य ही पूछेगी कि आखिर अब गंगा की याद कैसे आई और अब क्या यह राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवानी की जटा से निकलने वाली है। कश्मीर मुद्दा अवश्य ही प्रासंगिक माना जा सकता है। इस मामले में भी भाजपा का सत्ता में रहते हुए इतिहास मौन ही है। 2004 के बाद भाजपा विपक्ष में है, पर भाजपा के प्रदर्शन को देखकर कहा जा सकता है कि भाजपा एक कमजोर विपक्ष के तौर पर अपनी छवि बना सकी है।
तीन दिनी माथा फोडी के बाद एक तथ्य उभरकर साफ तौर पर सामने आया है कि इन तीन दिनों में भाजपा के आला नेताओं ने अपनी अलग अलग भाव भंगिमाएं दिखाकर मीडिया की सुर्खियों में रहने का प्रयास तो अवश्य किया है, किन्तु अन्तिम छोर के आम आदमी के लिए उसके जेहन में कितनी चिन्ता है, इस बारे में चर्चा की फुरसत भाजपा को नहीं मिल सकी, जो अपने आप में आश्चर्यजनक मानी जा सकती है।
भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता और वंशवाद के लिए कल तक कांग्रेस को ही पर्याय माना जाता रहा है, अब भाजपा भी उसी राह पर चली पडी है। भाजपा में भी इस तरह के गम्भीर रोग लग चुके हैं, जिनके इलाज के प्रति भाजपा संजीदा नहीं दिखाई पड रही है, यही कारण है कि भाजपा को कांग्रेस का भगवा संस्करण भी माना जाने लगा है। नाराजगी के चलते भाजपा के अनेक नेताओं ने इन्दौर सम्मेलन से किनारा करना ही उचित समझा।
उधर भाजपा के पितृ संगठन माने जाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भाजपा के लिए जो कार्ययोजना तैयार की थी उसमें भी पलीता लगाने के प्रयास आरम्भ हो गए हैं। माना जा रहा है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत चाहते हैं कि टीम गडकरी में उन लोगों को शामिल किया जाए जो भाजपा में कायाकल्प करने का माद्दा रखते हों। संघ के उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो संगठन में अंगद की तरह पांव जमाए बैठे कुछ आला नेताओं की छुट्टी के हिमायती हैं संघ प्रमुख।
होना यह चाहिए कि टीम गडकरी में भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोश, राजनाथ सिंह, अनन्त कुमार, वेंकैया नायडू अब मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाएं। इसके साथ ही साथ संगठन में उन चेहरों को तवज्जो दी जानी चाहिए जो कार्यकर्ताओं और जनता से बेहतर संवाद कायम कर सकें। गडकरी की ताजपोशी वैसे भी गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र कुमार मोदी को रास नहीं आई है। यही कारण है कि उन्होंने गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद उनसे जाकर सौजन्य भेंट करना तक उचित नहीं समझा। संघ जिन नेताओं को टीम गडकरी का हिस्सा बनाना चाह रहा है, उनकी राह में भाजपा के आत्म केन्द्रित नेताओं द्वारा शूल बोने के काम भी किए जा रहे हैं।
कुल मिलाकर इन्दौर के महाकुंभ के बाद यह साफ हो गया है कि भाजपा का एजेण्डा अब सत्ता प्राप्ति ही रह गया है। भाजपा के दिग्भ्रमित आला नेता अपने घालमेल वाले एजेण्डे को लेकर भविष्य की कार्ययोजनाएं बनाने में जुटे हुए हैं। यह सब देखकर भाजपा की आने दिनों वाली राह बहुत ही धुंधली ही नज़र आ रही है।