नौनिहालों के प्रति गैर संजीदा सरकारें
(लिमटी खरे)
देश के भविष्य माने जाने वाले बच्चों के लिए सरकारों की अनेक लुभावनी योजनाएं अस्तित्व में होने के बावजूद भी बच्चों के प्रति सरकारें पूरी तरह लापरवाह ही नजर आ रहीं हैं। कहीं बच्चे कुपोषण का शिकार हैं तो कहीं बाल मृत्युदर का आंकडा आसमान छू रहा है। बच्चों पर अत्याचार के मामलों में भी रिकार्ड बढोत्तरी दर्ज की गई है।
यूनीसेफ द्वारा किए गए सर्वेक्षण में साफ तौर पर कहा गया है कि दुनिया भर के कुपोषण के शिकार बच्चों की कुल तादाद का एक तिहाई हिस्सा भारत में ही निवास करता है। इस चौंकाने वाले सर्वे को अगर मानें तो हिन्दुस्तान में पांच साल से कम उम्र के छ: करोड से ज्यादा बच्चे भारत की धरा पर ही भूखे पेट सोने पर मजबूर हैं।
आजाद हिन्दुस्तान में जहां बच्चों के कल्याण के लिए सरकार अरबों रूपए खर्च कर योजनाओं का संचालन कर रही हैं, वहां अगर इस तरह के भयावह आंकडे अस्तित्व में हैं तो सरकारी योजनाओं के अमली जामा पहनाने के दावों की कलई अपने आप ही खुल जाती है।
यूनीसेफ का सर्वे मनगढंत तो नहीं माना जा सकता है। इसके मुताबिक भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाले मध्य प्रदेश की तस्वीर इस मामले में सबसे भयावह है। यहां कुपोषण के शिकार बच्चों में से साठ फीसदी से अधिक बच्चों का वजन औसत भार से काफी कम है। यहां 33 फीसदी बच्चे गंभीर क्षय रोग की जद में हैं।
केरल के हालात भारत में सबसे अच्छे माने जा सकते हैं, जहां 29 फीसदी बच्चों का वजन औसत से कम तो 16 प्रतिशत बच्चे क्षय रोग का शिकार हैं। यह है आजादी के छ: दशकों के बाद का नेहरू गाध्ंाी (सोनिया, राहुल का नहीं) के आधुनिक भारत की उजली तस्वीर।
इसके अलावा भारत के महापंजीयक कार्यालय द्वारा जारी प्रतिवेदन का ही अगर अध्ययन किया जाए तो आंकडे रोंगटे खडे करने के लिए पर्याप्त माने जा सकते हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाली इस संस्था के मुताबिक देश में वर्ष 2008 में नवजात शिशु मृत्युदर प्रति एक हजार जीवित शिशुओं में 53 थी।
वहीं यूनिसेफ की द स्टेट ऑफ द वल्र्ड चिल्ड्रन रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में कम शिशुदर के गुणोत्तर क्रम में अगर देखा जाए तो भारत से कम शिशुदर दुनिया के 143 देशों की है। आधी सदी से अधिक समय तक देश पर राज करने वाली वर्तमान में सोनिया राहुल की कांग्रेस के लिए यह शर्म की बात ही कही जाएगी।
लोकसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नवी आजाद भी इस प्रतिवेदन को स्वीकार कर चुके हैं। 20 नवंबर को सांसद श्रीनिवासुलु रेड्डी और विलासराव मुत्तेमवार के प्रश्न के लिखित जवाब में आजाद ने कहा था कि नवजात शिशुदर के अनेक कारण हैं। साथ ही उन्होने कहा कि सरकार द्वारा इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए अनेक पहल की जा रहीं हैं।
आजाद की मानें तो देश के 18 राज्यों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। कितने आश्चर्य की बात है कि इक्कीसवीं सदी में देश के 18 राज्य अभी भी बच्चों के जीवन को बचाने के लिए संसाधनों के लिए तरस ही रहे हैं।
प्रतिहजार जीवित शिशु मृत्यु दर के मामले में एक बार फिर देश के हृदय प्रदेश ने बाजी मारी है। भारत के महापंजीयक के प्रतिवेदन के अनुसार मध्य प्रदेश मेें प्रतिहजार जीवित शिशुओं में 2006 मृत्युदर 74, 2007 में 72, 2008 मेें 70 रही। दूसरे स्थान पर मायावती का यूपी रहा जहां 2006 में 71, 2007 में 69 तो 2008 में 70 है। इस मामले में गोवा की स्थिति काफी हद तक बेहतर है, जहां मृत्युदर प्रतिहजार में महज 10 ही हैै। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में यह आंकडा 35 है।
विडम्बना ही कही जाएगी कि एक तरफ सरकारें अंतरिक्ष पर जाने परमाणु अनुसंधान संपन्न होने के दावे पर दावे किए जा रही है, वहीं दूसरी ओर नवजात शिशुओं को बचाने में आज भी बाबा आदम के जमाने की योजनाओं को ही अमली जामा पहनाया जा रहा है।
बाल मजदूरी देश के हर राज्य में कैंसर की तरह फैल चुकी है। उत्तर प्रदेश का हर जिला इसकी जद में है। आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रदेश के पेंसठ जिलों में से पुलिस या संबंधित महकमे ने एक भी बाल मजदूर मुक्त नहीं करवाया है। अलबत्ता आगरा में 2008 में 373 तो 2009 में अब तक 241 बाल मजदूरों को मुक्त करवाया गया है। मेरठ में 229, रेल अनुभाग में 7, आजमगढ और लखनउ में 4,4, मिर्जापुर में 3 बच्चों को मुक्त करवाया गया। यह है पुलिस की रस्म अदायगी का आलम। बाल मजदूरों के पुनर्वास की दिशा में देश भर में सरकार असफल ही नजर आ रही है।
बच्चों पर होने वाले अपराधों के आंकडे भी कम डरावने नहीं हैं। कमोबेश हर सूबे में चाय पान की दुकानों सहित हर प्रतिष्ठान में ``छोटू, पप्पू, मुन्ना, राजा`` जैसे नामों के संबोधन वाले बाल श्रमिक मिलना आम बात है। जिस उमर में बच्चों के हाथों में कागज और कलम होनी चाहिए उस आयु में उनके हाथों में जूठे बर्तन होते हैं।
इस सबका सबसे दुखद पहलू यह है कि मयखानों में शराबियों के बीच जब ये बच्चे जाते हैं तो इनके मन मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पडता होगा यह बात अकल्पनीय ही है। विडम्बना ही कही जाएगी कि सरकारों द्वारा सख्त नियम कायदों के बावजूद इस तरह के सामाजिक अपराध को रोकने कोई कदम नही उठाया गया है।
यूनिसेफ से ही बाल मित्र का तमगा हासिल करने वाली उत्तर प्रदेश की पुलिस का दूसरा चेहरा भी लोगों के सामने आ चुका है। उत्तर प्रदेश में हर माह लगभग एक दर्जन बच्चे गायब हो जाते हैं, पर न तो सूबे के जनसेवकों को ही कोई फिकर है, और ना ही राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले संसद सदस्यों को ही। गौरतलब होगा कि कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी और कांग्रेस की ही नजर में देश के भावी प्रधानमंत्री इसी राज्य से संसदीय सौंध तक पहुंचे हैं।
हिन्दुस्तान की गरीबी का समूची दुनिया मजाक उडाती है और हमारे देश के शासक चुपचाप देश की अधनंगी भूखी जनता की नुमाईश विश्व के सामने किया करती है। जब भी कोई गोरा अंग्रेज हिन्दुस्तान भ्रमण पर आता है तो वह देश की एंटीक चीजों के साथ ही साथ चौक चौराहों पर मिलने वाले नायाब ``भिखारियों`` की तस्वीर खींचना नहीं भूलता। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा था कि क्या भी,ख मांगना अपराध है।
इसी गरीबी की चादर ओढे भारत देश की झोपड पट्टी और बाल अपराध पर केंद्रित विदेशी फिल्म निर्माता के चलचित्र ``स्लमडाग मिलेनियर`` ने न जाने कितने अस्कर अपनी झोली में डाल लिए। अपने घिनौने पहलू को दुनिया भर के सामने उघाड कर हमारे देश की सरकार किस कदर प्रफुिल्लत होती रही मानो उसने जग ही जीत लिया हो। हालात देखकर यही कहा जा सकता है -``जय हो . . .``