शिव की नगरी पहुंचा
लाल गलियारा!
(लिमटी खरे)
एक बहुत पुरानी
कहावत है -‘‘बुढ़िया के
मरने का गम नहीं, गम तो इस
बात का है, मौत ने घर
देख लिया। इसी तर्ज पर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सीमा पर अवस्थित दो जिलों में
नक्सली पदचाप सुनाई दी है। इनमें से एक बालाघाट काफी अरसे से नक्सवाद के जहर से
ग्रसित है, तो अब
भगवान शिव की नगरी के नाम से पहचाने जाने वाले सिवनी जिले में लाल गलियारे की आमद
की खबरें लोगों की नींद में खलल डाल रही है। 6 जून को वन विभाग
के बेहरई डिपो में नक्सली पर्चा मिलने की खबरों ने प्रशासन की पेशानी पर पसीने की
बूंदे छलका दी हैं। यद्यपि पुलिस द्वारा इस तरह की घटना की पुष्टि नहीं की जा रही
है, पर स्थानीय
लोगों द्वारा इसकी पुष्टि की जा रही है। नक्सलियों के निशाने पर अमूमन राजस्व, पुलिस और वन विभाग
के कर्मचारी ही हुआ करते हैं, इसलिए सिवनी में भी इन विभागों के लोगों को
सतर्क रहने की आवश्यक्ता है। अभी हाल ही में सिवनी सहित नौ जिलों को केंद्र सरकार
द्वारा नक्सल प्रभावित जिलों की फेहरिस्त में स्थान देकर सतर्कता बरतना आरंभ ही
किया है कि नक्सली पदचाप ने लोगों को दहला दिया है।
अस्सी के दशक में
मध्य संयुक्त मध्य प्रदेश में नक्सलवाद की आहट सुनाई दी थी। आंध्र से जंगलों के
रास्ते नक्सली लाल गलियारा संयुक्त मध्य प्रदेश में प्रवेश कर गया था।
नक्सलवादियों ने संयुक्त मध्य प्रदेश के उपरांत प्रथक हुए छत्तीगढ़ को अपनी
कर्मस्थली बनाना उचित समझा। कहा जाता है कि जब भी आंध्र प्रदेश में नक्सलवादियों
के खिलाफ अभियान तेज किया जाता है वे भागकर छत्तीगढ़ पहुंचते हैं। नक्सलवादियों को
मध्य प्रदेश के बालाघाट और मण्डला जिले शरणस्थली के बतौर मुफीद प्रतीत होते रहे
हैं।
नक्सलियों के हौसले
मध्य प्रदेश में इस कदर बुलंद रहे हैं कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन परिवहन मंत्री
लिखी राम कांवरे को उन्हीं के आवास पर नक्सलियों ने गला रेतकर मार डाला था। कभी
अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक पर हमला होता है तो कभी पुलिस पार्टी को एक्बु्रश लगाकर
उड़ा दिया जाता है। बालाघाट में नक्सलवाद के प्रभाव को देखकर मध्य प्रदेश सरकार
द्वारा पहले उप महानिरीक्षक पुलिस बाद में महानिरीक्षक पुलिस का कार्यालय संभागीय
मुख्यालय जबलपुर में स्थापित किया गया।
बाद में जब जबलपुर
से बालाघाट की सड़क मार्ग से दूरी लगभग ढाई सौ किलोमीटर और मण्डला की दूरी सवा सौ
किलोमीटर के करीब पाई गई जिससे काम में व्यवहारिक अड़चने सामने आईं तब इसको
संस्कारधानी जबलपुर से उठाकर बालाघाट में ही आईजी का कार्यालय बना दिया गया।
बालाघाट में आई जी
के पद पर सी.व्ही.मुनिराजू लंबे समय तक पदस्थ रहे। मुनिराजू सिवनी और बालाघाट की
फिजां को बेहतर इसलिए जानते थे, क्योंकि बावरी विध्वंस के तत्काल बाद ही
उन्हें सिवनी में पुलिस अधीक्षक बनाया गया था। कहा जाता है कि उनके पहले 1992 तक पदस्थ रहे
पुलिस अधीक्षक राजीव श्रीवास्तव (वर्तमान में पुलिस महानिरीक्षक, छत्तीगढ़) ने सिवनी
के नक्लस प्रभावित संभावित क्षेत्र केवलारी, कान्हीवाड़ा, पाण्डिया छपरा आदि
में भेष बदलकर साईकल से यात्रा कर जमीनी हकीकत की जानकारी उच्चाधिकारियों को भोपाल
भेजी थी।
1992 से 2012 तक बीस सालों की मंथर गति का ही परिणाम रहा
है कि सिवनी जिले में नक्सलवादी गतिविधियां पैर पसारने लगीं। बीस सालों के बाद
केंद्र सरकार द्वारा नक्सल प्रभावित बालाघाट जिले के अलावा इस फेहरिस्त में मध्य
प्रदेश के बालाघाट के अलावा सिवनी, मण्डला, डिंडोरी, शहडोल, सीधी, सिंगरोली, उमरिया और अनूपपुर
जिलों को शामिल कर लिया गया है।
वैसे देखा जाए तो 1967 में पश्चिम बंगाल
के नक्सलवाडी से आरंभ हुआ नक्सलवाद आज 45 साल की उमर को पा चुका है। आजाद भारत में
विडम्बना तो देखिए कि 45 साल में केंद्र और सूबों में न जाने कितनी सरकारें आईं और
गईं पर किसी ने भी इस बीमारी को समूल खत्म करने की जहमत नहीं उठाई। उस दौरान चारू
मजूमदार और कानू सन्याल ने सत्ता के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन की नींच रखी थी। इस
आंदोलन का नेतृत्व करने वाले चारू मजूमदार और जंगल संथाल के अवसान के साथ ही यह
आंदोलन एसे लोगों के हाथों में चला गया जिनके लिए निहित स्वार्थ सर्वोपरि थे, परिणाम स्वरूप यह
आंदोलन अपने पथ से भटक गया। कोई भी केंद्रीय नेतृत्व न होने के कारण यह आंदोलन
अराजकता का शिकार हो गया। चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुग को आदर्श मानते हैं
नक्सली। नक्सलियों का नारा यही रहा है कि बंदूक की गोली से निकलती है, सत्ता।
यह जानकर सरकार को
तो नहीं किन्तु आम आदमी को आश्चर्य ही होगा कि नक्सलियों का चौथ वसूली का सालाना
राजस्व 1500 करोड रूपए
से अधिक का है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले सालों में बिहार
में नक्सलियों से पुलिस ने छः लाख 84 हजार 140 रूपए तो दो साल पहले महज तीन महीनों में ही 21 लाख 76 हजार 370 रूपए बरामद किए
हैं। बताते हैं कि बालाघाट में नब्बे के दशक में नक्सलियों द्वारा उडाई गई एक
पुलिस वेन के उपरांत हुई पुलिस कार्यवाही के बाद मारे गए नक्सली की जेब से रंगदारी
टेक्स वसूली की पर्ची भी मिली थी, जिसमें सबसे उपर बिठली चौकी के थाना प्रभारी
द्वारा 5000 रूपए देना
अंकित था।
नक्सलवाद का नाम
आते ही अब जवानों का या तो खून खौल जाएगा या फिर उनकी रूह कांप उठेगी। कुछ ही
सालों में नक्लवाद का चेहरा इतना बर्बर और दर्दनाक हो चुका है जिसकी कल्पना मात्र
से रोंगटे सिहर जाते हैं। जमीनी हकीकत से अनजान देश प्रदेश के शासकों द्वारा हमारे
जांबाज सिपाहियों को इनके सामने गाजर मूली की तरह कटने को छोड दिया जाता है, जो निन्दनीय है।
बीते दिनों छत्तीसगढ में जो कुछ हुआ उसकी महज निंदा से काम चलने वाला नहीं।
नक्सलवादी ‘‘सत्ता
बंदूक की गोली से निकलती है‘‘ के सिद्धांत पर चल रहे हैं।
दरअसल नक्सलवाद
क्या है, क्यों पनपा
इसके लिए उपजाउ सिंचित भूमि कहां से और किसने मुहैया करवाई इन पहलुओं पर विचार
आवश्यक है, तभी इसका
शमन किया जा सकता है। आखिर क्या है नक्सलवाद, इस शब्द की उत्तपत्ति कहां से हुई। पश्चिम
बंगाल के एक गांव नक्सलवाडी से इसका उदह होने की बात प्रकाश में आती है। नक्सलवाडी
में कम्युनिस्ट नेता कानू सन्याल, जंगल संथाल और चारू मजूमदार ने 1967 में सत्ता के
खिलाफ सशस्त्र विद्रोह आरंभ किया था। ये दोनों ही नेता चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ
त्से तंग के विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित रहे हैं। इनका मानना था कि जिस तरह
चीन में तंग ने सशस्त्र विद्रोह के माध्यम से सत्ता हासिल की थी उसी तरह
हिन्दुस्तान में भी दमनकारी शासकों का तख्ता पलट किया जा सकता है। इस विचारधारा के
लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होकर अखिल भारतीय स्तर पर एक समन्वय समिति का
गठन किया था।
वैसे आजाद
हिन्दुस्तान में शसस्त्र क्रांति का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि सशस्त्र
लडाई 1948 में
तेलंगाना संघर्ष के नाम पर आरंभ हुई थी। उस काल में तेलंगाना सूबे के ढाई हजार
गांवों के किसानों ने सशस्त्र लडाई का झंडा उठाया हुआ था। इसके बाद तंग के विचारों
पर आधारित इस समन्वय समिति मंे बिखराव के बीज पड गए और कुछ लोगों ने मार्कस के
सिद्धांत को अपनाकर अपना रास्ता अलग कर लिया इन लोगों ने मार्कसवादी कम्युनिस्ट
पार्टी का अलग गठन कर लिया। माकपा ने 1967 में चुनावों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित
कर ली। हो सकता है कि इनका मानना रहा हो कि जब तक माकूल वक्त नही आता तब तक सत्ता
का स्वाद चखकर कुछ हासिल ही कर लिया जाए। 2 मार्च 1967 में पश्चिम बंगाल
के चुनाव में माकपा ने बंगाल कांग्रेस के साथ मिलकर संविद सरकार का गठन किया। वैसे
और खंगाले जाने पर पता चलता है कि हिन्दुस्तान में अमीरी गरीबी के बीच बढते फासले, राजनैतिक, आर्थिक व्यवस्था और
दिनों दिन भ्रष्ट होती अफसशाही की उपज है नक्सलवाद। वामपंथी दलांे में अंर्तविरोध
के चलतेे वाम दलों मंे विरोध के बीज प्रस्फुटित होते रहे और अंततः 11 अप्रेल 1964 को असंतुष्ट
सदस्यांे ने एक नए दल का गठन कर लिया। संवदि सरकार की अवधारणा कानू सन्याल के गले
नहीं उतरी और उन्होंने माकपा पर धोखाधडी का सनसनीखेज आरोप लगाकर एक नए गुट की
आधारशिला रख दी।
इस आंदोलन की नींव
से अनेक संगठनों का जन्म होता रहा। कालांतर में या तो वे हावी हाते रहे या फिर
उनका शमन ही कर दिया गया। 1969 में एक और पार्टी का गठन किया गया जिसका
नाम था, सीपीआई
एमएल। आंध्र में आतंक बरपाने वाला पीपुल्स वार गु्रप इसी पार्टी का एक हिस्सा था। 2004 में पीपुल्स वार
गु्रप ने एमसीसी नामक ग्रुप के साथ मिलकर सीपीआई माओवादी को जन्म दे दिया।
नक्सलवाद शब्द की
उत्तपत्ति के बारे में गहराई से जाने पर पता चलता है कि जब अदालत के आदेश पर
जमींदार के पास रहन रखी जमीन को जोतने एक किसान गया तो उसे जमींदार के लोगों ने
बेतहाशा पीटा, जैसे ही यह
बात कानू सन्याल और चारू मजूमदार के कानों में आई उन्होंने जमींदार के खिलाफ
शसस्त्र लडाई लडकर किसान को उसका हक दिलया। तब से नक्लवाडी से आरंभ इस आंदोलन का
नाम नक्सलवाद रख दिया गया। आज नक्सलवाद और माओवाद की जद में देश के 15 सूबों के 233 से अधिक जिले और 2200 से अधिक थाने
हैं। आज बिहार, झारखण्ड, बंगाल, उडीसा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ आदि सूबों
में यह समस्या नासूर बनकर उभ्र चुकी है। उत्तराखण्ड, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि
सूबों में भी इनकी पदचाप सुनाई देने लगी है। नक्सलवाद 1990 के दशक से जोर पकड
रहा है। तीन दशकों में नक्सलवाद का चेहरा बहुत ही ज्यादा वीभत्स हो चुका है।
माओवादियों और नक्सलियों की भाषा में जंगल के मायने हैं दण्डकारण्य। आंध्र प्रदेश
से लेकर पश्चिम बंगाल तक फैला हुआ है लाल गलियारा। उधर भाजपा के चीफ कमांडर नितिन
गडकरी कहते हैं कि लाल गलियारा पशुपतिनाथ से लेकर तिरूपति तक फैला हुआ है।
नक्सलवाद पर जारी बहस
में सरकार का पक्ष चाहे जो भी हो मीडिया पर्सन की हैसियत से जनता जनार्दन के समक्ष
सच्चाई रखना और सरकार को जगाने का प्रयास करना निश्चित तौर पर हमारी नैतिकता का
अंग है। इसी लिहाज से हम नक्सलवाद के जहर के बारे में जितनी तफ्तीश कर चुके हैं, उसे जनता और सरकार
के सामने लाना हमारा फर्ज है। 1967 में आरंभ हुआ और नब्बे के दशक में तेज हुआ
नक्सवाद आज देश के सत्तर फीसदी हिस्से को अपनी जद में ले चुका है। देश के मानचित्र
पर अगर देखा जाए तो हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, उडीसा, छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक
इसकी चपेट में हैं। इसके अलावा अलगाववाद की अगर बात की जाए तो उसम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय और मिजोरम
इसकी जद में हैं। वामपंथ उग्रवाद, उत्तर पूर्वी अलगाववाद और जम्मू काश्मीर की
आंतरिक समस्या सरकार की पेशानी पर पसीने की बूंदे छलका रही है।
देश भर में लगभग 22 हजार केडर में
फैले ये नक्सलवादी और माओवादी संगठन देश की जडों में मठा डालने का ही प्रयास कर
रहे हैं। झारखण्ड पर अगर नजर डाली जाए तो समूचा झारखण्ड माओवादियों की बर्बरता की
चपेट में है। झारखण्ड के 16 जिले माओवादी गतिविधियों का केंद्र बन चुके हैं। यहां प्रमुख
तौर पर छः संगठन सक्रिय हैं। इसमें तृतिया प्रस्तुति कमेटी, सीपीआई (माओवाद), संयुक्त प्रगतिशील
मोर्चा, द पिपुल्स
लिब्रेशन फ्रंट ऑफ इंडिया, झारखण्ड प्रस्तुति समिति और झारखण्ड जनसंघर्ष मुक्ति मोर्चा
प्रमुख हैं।
2001 में संयुक्त मध्यप्रदेश से प्रथक होकर
अस्तित्व में आए छत्तीसगढ को नक्सलवादियों ने अपना गढ बनाया हुआ है। दरअसल संयुक्त
मध्य प्रदेश में राजधानी भोपाल से बस्तर तक सडक मार्ग से पहुंचने में तीन दिन लग
जाते थे, तो सरकारी
इमदाद किस कदर यहां बटती होगी इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। जनता को
सरकारी नुमाईंदो द्वारा प्रताडित किए जाने का लाभ यहां सबसे अधिक नक्सलियों ने
उठाया है। पिछले तीस सालों में खनिज संपदा के धनी और धान का कटोरा कहे जाने वाले
इस सूबे की नक्सलवादियों ने आर्थिक रीढ तोड कर रख दी है। आज आलम यह है कि प्रदेश
के लगभग एक दर्जन जिलों के दो सौ से अधिक पुलिस थानों में नक्सली आतंक पसरा हुआ
है। सूबे के बस्तर,
दंतेवाडा, कांकेर, बलरामपुर, सरगुजा, कवर्धा आदि जिलों
में नक्सलवादियों की जडें बहुत हद तक मजबूत हो चुकी हैं।
इसी तरह मध्य
प्रदेश में बालाघाट,
मण्डला और डिंडोरी जिलों में जब तब नक्सली पदचाप सुनाई दे
जाती है। इसके अलावा अब सिवनी, छिंदवाडा, जबलपुर, शहडोल, बैतूल, रीवा, सतना, सीधी आदि जिलों को
भी नक्सलवादियों ने अपने निशाने पर ले लिया। बालाघाट जिले में प्रदेश के पूर्व
परिवहन मंत्री लिखी राम कांवरे को उनके मंत्री रहते हुए उन्ही के घर पर नक्सलियों
ने गला रेतकर मार डाला था। इसके अलावा और भी अनेक वारदातें नक्सलवादियों ने यहां
की हैं।
उडीसा सूबे में
भुखमरी को नक्सलवादियों ने अपना प्रमुख हथियार बनाया है। आज समूचा उडीसा लाल रंग
में रंग चुका है। सूबे के 17 जिलों में नक्सल और माओवादियों का कहर
व्याप्त है। मलकानगिरी, कोरापुट, रायगढ, गजपति जिलों में माओवादियों की पकड देखते ही
बनती है। साथ ही कंधमाल में इनका नेटवर्क बहुत ही जबर्दस्त है। पश्चिमी उडीसा के
सुंदरगढ, देवगढ, संभलपुर, बांध और अंगुल में
नक्लवादियों ने अपनी सरकार चला रखी है। कहा जा सकता है कि समूचा उडीसा नक्सलवाद और
माओवाद से बुरी तरह ग्रस्त है।
महाराष्ट्र के अनेक
जिलों में ये कहर बरपा रहे हैं। सूबे का गढचिरौली इनका गढ है। इसके अलावा इनकी
सल्तनत चंद्रपुर, गोंदिया, भंडारा, नांदेड, नागपुर, यवतमाल के साथ ही
साथ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ
और आंध्र प्रदेश की सीमा से सटे गांवों में फैली हुई है। महाराष्ट्र में आए दिन
नक्सलवादी गतिविधियों की खबरें आना आम बात हो गई। विशेषकर विदर्भ के अनेक इलाकों
में इनका फैलाव देखकर लगता है कि आने वाले समय में ये समूचे महाराष्ट्र को अपने
कब्जे में ले सकते हैं।
रही बात बिहार की
तो बिहार में नक्सलवाद और माओवाद ने अपना घर बनाकर रखा हुआ है। यहां लगभग 20 जिलों में
नक्सलवाद का प्रभाव अच्छा खासा माना जा सकता है। पटना, गया, औरंगाबाद, अरवल, भभुआ, रोहतास, जहानाबाद, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चंपारण, शिवहर, सीतामढी, मधुबनी, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, बेगुनसराय, वैशाल, सहरसा और उत्तर
प्रदेश के सटे जिलों में नक्सलवाद की गूंज सुनाई देती है।
आंध्र प्रदेश के
दण्डकारण्य क्षेत्र में इनका खतरा बना हुआ है। सूबे के विशाखापट्टनम, खम्माम, विजयानगरम, पूर्वी गोदावरी आदि
जिलों में इनका नेटवर्क बहुत ही मजबूत है। आंध्र प्रदेश के 93 झारखण्ड के 85, छत्तीसगढ के 81, , बिहार के 34, उडीसा के 22, महाराष्ट्र के 14, पश्चिम बंगाल के 12, उत्तर प्रदेश के 7, कर्नाटक के 6, मध्य प्रदेश के 4, केरल और हरियाणा के
दो दो थाने इसकी चपेट में हैं। इस तरह देश के लगभग चार सौ थाने इसकी जद में हैं।
वामपंथी उग्रवाद के
मामले में अगर देखा जाए तो 2004 से 2008 तक 842 सुरक्षा बल के जवान, 1375 आम नागरिकों के
साथ 990 नक्सली
मारे गए थे। इसी तरह उत्तर पूवी्र अलगाव वाद में 335 सुरक्षा बल के
जवान, 1614 आम नागरिक, 4079 आतंकवादी या तो
पकडे गए या फिर पकडे गए। 703 सुरक्षा बल, 2011 आम नागरिक और 2844 आतंकवादी मारे गए।
उत्तर पूवी अलगाव वाद की आग में असम, मणिपुर, नागालेण्ड, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम आदि बुरी
तरह झुलस गए हैं।
असम चूंकि
बंग्लादेश और भूटान की सीमा से सटा हुआ है, अतः यहां अलगाववाद की बयार बारह माह चौबीसों
घंटे बहती रहती है। सालों से यह सूबा हिंसा का दंश झेल रहा है। इस प्रदेश में
उल्फा, एनडीएफबी
जैसे अलगाव वादी संगठन फल फूल रहे हैं। मणिपुर में पीएलए, यूएनएलएफ, पीआरईपीएके, तो नागालेण्ड में
एनएससीएन, आईएम, एनएससीएम, त्रिपुरा में
एनएलएफटी, एटीटीएफ, मेघालय में एएनवीसी, एचएनएलसी, और मिजोरम में
एचपीसी (डी), बीएनएलएफ
पूरी तरह सक्रिय नजर आ रहे हैं।
पूर्व में भाजपा की
कमान संभालने वाले अध्यक्ष का यह कहना कि नक्सलवाद की पैठ पशुपतिनाथ से लेकर
तिरूपति तक है, को गलत
नहीं ठहराया जा सकता है। आज के परिदृश्य को देखकर लगने लगा है कि नक्सलवाद का जहर
आधे से अधिक हिस्से को लकवाग्रस्त कर चुका है और देश प्रदेश के शासक नीरो की तरह
चैन की बंसी बजा रहे हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो। एक के बाद एक जवानों को मौत के घाट
उतारा जा रहा है, और देश के
शासक कह अपनी भूल मानकर ही कर्तव्यों की इतिश्री कर रहे हैं। सबसे बडे विपक्षी दल
का खिताब हासिल करने वाली भाजपा ने भी इस मामले में एकाध बयान जारी कर अपना कर्म
पूरा कर लिया है। जनता मरती है, तो मरती रहे हम तो मलाई काटंेगे की तर्ज पर
शासक अपने आवाम का ख्याल रख रही है, जो निंदनीय ही कहा जाएगा।
पहले तो पश्चिम
बंगाल, बिहार, उडीसा, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीगढ, आंध्र प्रदेश जैसे
सूबों में ही नक्सलवाद का आतंक पसरा हुआ था, अब यह लाल गलियारा तेजी से बढ रहा है। देश
की आंतरिक सुरक्षा के लिए नासूर बन चुकी नक्सली गतिविधयों की उत्ताखण्ड, दिल्ली, पंजाब आदि सूबों
में पदचाप सुनाई देने के बाद भी सरकारें सो ही रही हैं। सरकार की कुंभकर्णीय
निंद्रा की बानगी था 2006 में 8 और 9 नवंबर को दिल्ली में हुआ नक्सली सम्मेलन।
इस दौरान देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में बांटे गए पर्चे और पोस्टर्स में साफ
किया गया था कि संसदीय लोकतंत्र बहुत बडा फ्राड है और इसको समाप्त करने के लिए
सशस्त्र क्रांति ही इकलौता विकल्प हो सकती है।
गृह मंत्रालय के
सूत्र भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि नक्सलियों ने बहुत ही कम समय में पशुपतिनाथ
से लेकर तिरूपति तक लाल गलियारे की रेखा खींची जा चुकी है। सूत्रों की मानें तो
मार्च 2007 तक
नक्सलवादियों ने अपनी गतिविधियां केरल, तमिलनाडू, कर्नाटक में भी बढा
लीं थीं। इतना गृह मंत्रालय को मिलने वाली गुप्तचर सूचनाओं के बावजूद भी तत्कालीन
गृह मंत्री शिवराज पाटिल देश की आंतरिक सुरक्षा अभैद्य ही होने का दावा करते रहे।
नक्सलवाद का गढ बन
चुके छत्तीसगढ के बस्तर, दंतेवाडा, बीजापुर, नारायणपुर, कांकेर, राजनांदगांव सहित
अनेक जिलों के लगभग तीन हजार गांव इसकी चपेट मंे हैं। इस सूबें में लगभग 15 हजार किलोमीटर के
दायरे में पसरी है,
नक्सलियों की सल्तनत। सूबे के आला सूत्रों का कहना है कि
छत्तीसगढ के हालात इतने भयावह हैं कि अनेक इलाकों में शाम पांच बजे के बाद कोई
घटना होने पर पुलिस को घटनास्थल पर जाने की मनाही की गई है। अनेक थाना क्षेत्रों
में तो नक्सलियों से पुलिस इतनी खौफजदा है कि वह वर्दी के बजाए सिविल यूनीफार्म
में ही रहकर अपना काम चलाती है। इतना ही नहीं अतिसंवेदनशील थाना क्षेत्रों में तो
पुलिस को थाने से अकेले निकलने पर भी मनाही ही है। सूबे में बडे नक्सलियों नेताओं
में कोसा उर्फ बीकेएस रेड्डी का नाम सबसे उपर है।
देखा जाए तो
छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र
और उत्तर प्रदेश में वारदात करने के बाद पुलिस कार्रवाई से बचने के लिए नक्सली
मप्र को पनाहगाह बना रहे हैं। जिसके कारण पहले से ही नक्सल प्रभाव से ग्रस्त मंडला, बालाघाट, सीधी, शहडोल, उमरिया जिलों में
नक्सलियों की घुसपैठ बढ़ रही है। प्रदेश का बालाघाट जिला तो नक्सलियों का श्लालगढ़श्
बनता नजर आ रहा है। मप्र के लिए यह चिंता का सबब बन गया है। जिसके चलते मप्र की
खुफिया एजेंसियों की जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं। अगर समय रहते नक्सलियों की
गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो प्रदेश में कोई बड़ी वारदात हो सकती है।
बालाघाट जिले में
पिछले 20 सालों में
नक्सलियों द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों में की गई वारदातों में 81 लोगों की मौत हुई
है। वहीं पुलिस मुठभेड़ में 14 नक्सली मारे गए हैं, जबकि 111 नक्सली गिरफ्तार
हुए हैं। नक्सलियों ने वर्ष 1999 में कैबिनेट मंत्री लिखीराम कावरे की हत्या
भी की थी। जिले में प्रारंभ में मुख्य रूप से संजू उर्फ संजय के नेतृत्व में
मलाजखंड दलम, सगन उर्फ
जमुना बाई के नेतृत्व में टाडा दलम और दिलीप गुहा के नेतृत्व में बालाघाट गुरिल्ला
रकवा दलम ज्यादा सक्रिय था। वहीं देवरी दलम, दड़ेकसा दलम, जाब दलम, कोरची दलम, कुरखेरा दलम,खोब्रामेटा दलम और
प्लाटून दलम सहयोगी थे। तीन मुख्य दलम और 7 सहयोगी दलम के साथ नक्सलियों ने जिले में
अपनी सक्रियता बढ़ाई थी। बालाघाट के पुलिस अधीक्षक सचिन अतुलकर भी मानते हैं कि
पुलिस ने नक्सलियों की सक्रियता को देखते हुए जिले में अपने सर्चिंग आपरेशन को तेज
कर दिया है। नक्सल प्रभावित बैहर, लांजी और परसवाड़ा क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों
की सुरक्षा बढ़ाई दी गई है।
जानकारों के अनुसार
नक्सलियों ने जिले में छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगांव जिले और महाराष्ट्र राज्य के
भंडारा जिले से प्रवेश किया था। आज भी नक्सलियों का इन्हीं सीमावर्ती क्षेत्रों से
आगमन होता है। नक्सली मुख्य रूप से घने जंगलों और आदिवासी अंचलों में रहने के लिए
अपना स्थान ढूंढते हैं। इतना ही नहीं नक्सली आशियाना तलाशने से पूर्व उस क्षेत्र
में कमजोर यातायात व्यवस्था, दूरसंचार सहित अन्य व्यवस्थाओं का जायजा
लेते हैं।
पुलिस रिकॉर्ड के
अनुसार 5 जनवरी 1990 को नक्सलियों ने
जिले में अपनी दस्तक दी थी। नक्सली महाराष्ट्र राज्य के सालेकसा थाना अंतर्गत
अदारी गांव से जिले के सीमावर्ती ग्राम मुरकुट्टा में पहुंचे थे। आजाद उइके के
नेतृत्व में 9 सशस्त्र
नक्सलियों ने जिले में प्रवेश किया था। इसके बाद से ही नक्सलियों की गतिविधि बढ़ी
थी। सूचना मिलने पर जब पुलिस ने ग्राम मुरकुट्टा में घेराबंदी कर उन्हें पकडऩे की
कोशिश की तब नक्सलियों ने पुलिस पार्टी पर फायर किया और अंधेरे का फायदा उठाकर
जंगल की ओर भाग गए। हालांकि इस घटना में कोई जनहानि नहीं हुई थी। अलबत्ता पुलिस ने
इस मुठभेड़ के बाद 12 बोर की
रॉयफल, देशी कट्टा, 30 बुलैट, 303 रॉयफल के 40 बुलैट, टार्च, ब्लैंकेट और दैनिक
उपयोग की सामग्री सहित अन्य सामान बरामद किए थे।
शासन द्वारा अभी
हाल ही सिवनी जिले को नक्सल प्रभावित जिलों में शामिल किया गया है जहाँ जिले को
शासन द्वारा समस्त वो सुविधाएँ प्रदान किया जाना है जो नक्सल प्रभावित क्षेत्रों
को दी जाती हैद्य अभी ये प्रक्रिया चल ही
रही है की एक घटना ने ये सोचने पर बाध्य कर दिया की क्या सिवनी जिले को नक्सल
प्रभावित जिला घोषित होने के साथ ही नक्सलियों ने अपनी गतिविधियाँ इस जिले में
आरम्भ कर दी हैं या नक्सलियों की आड़ लेकर कुछ असामाजिक किस्म के तत्व आम नागरिकों
में दहशत फैलाने का काम कर रहे हैं ?
सूत्रों के अनुसार
हाल ही सिवनी जिले के बरघाट प्रोजेक्ट के अंतर्गत वन परिक्षेत्र बहरई में ६ जून को
वन विभाग द्वारा लकड़ी की नीलामी थी। ६ जून
की शाम को किसी अज्ञात व्यक्ति या व्यक्तियों
द्वारा विश्राम गृह की टेबल पर एक लिफाफा छोड़ा गया जिसमें मिले पत्र के
अनुसार पत्र में पांच लाख रूपये की मांग के साथ ही रूपये हनुमान मंदिर के पास
गड्ढा खोदकर रखने तथा उस पर एक गमछा और पत्थर रखने की बात भी कही गई है द्यकथित
तौर पर इस घटना को नक्सलवादी हरकतों से जोड़ कर देखा जा रहा है द्यसूत्रों के
अनुसार केवलारी अनुविभागीय अधिकारी पुलिस श्रीमती प्रतिमा पटेल ने उक्ताशय की
पुष्टि की है तथा एहतियात बरतते हुए वन विश्राम गृह में सुरक्षा व्यवस्था किये
जाने की जानकारी भी दी है।
इसके पहले पुलिस
उच्चाधिकारियों ने बताया था कि सिवनी जिले को नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र घोषित
किये जाने के बाद सिवनी के आठों विकासखण्ड के लिये जो राशि आई है उस राशि से कार्य
प्रारंभ कर दिये गये हैं, जिनका दायित्व लोक निर्माण विभाग ग्रामीण यांत्रिकी विभाग को
सौंपे गये हैं। इसका जिम्मा कलेक्टर को सौंपा गया है। यह राशि को खर्च करने के
लिये कोई निर्धारित समय निश्चित नहीं है। जैसे-जैसे आवश्यकता पड़ेगी राशि का उपयोग
किया जायेगा। यह सभी कार्य एजेंसी के माध्यम से किया जा रहा है।
यहां उल्लेखनीय
होगा कि मध्य प्रदेश के सिवनी सहित नौ जिलों को नक्सल प्रभावित जिलों की फेहरिस्त
में शामिल कर दिया गया है। इन नौ जिलों को अब नक्सलवाद प्रभावित जिलों की सुविधाएं
मिल सकेंगी। केंद्रीय मंत्री और छिंदवाड़ा के सांसद कमल नाथ के करीबी सूत्रों का
कहना है कि जुलाई 2010 में नाथ
ने केंद्रीय गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम से अनुरोध किया था कि मध्य प्रदेश के
मण्डला और डिंडोरी को नक्सल प्रभावित जिलों की फेहरिस्म में शामिल कर दिया जाए।
इसके पीछे सांसद कमल नाथ का तर्क था कि चूंकि मण्डला और डिंडोरी जिलों की सीमाएं
बालाघाट से लगी हुई हैं और बालाघाट नक्स प्रभावित जिलों की सूची में शामिल है अतः
यहां नक्सलवादी गतिविधियों से इंकार नहीं किया जा सकता है।
बहरहाल, अब पुलिस का यह
कहना है कि हो सकता है कि नीलामी में आए किसी ठेकेदार की यह करतूत हो। यक्ष प्रश्न
यही है कि आज नक्सल प्रभावित घोषित हो चुके सिवनी जिले में वन विभाग के काष्ठागार
में नीलामी के दर्मयान अगर इस तरह का पर्चा मिलता है तो इसे क्या माना जाए? यह नक्लवादियों
द्वारा दहशत फैलाने के लिए किया गया काम था? यह उगाही के लिए किया गया काम था? अगर किसी व्यापारी
ने किया है तो निश्चित तौर पर यह संगीन अपराध की श्रेणी में आएगा, क्योंकि नक्सलवाद
के नाम पर दहशत फैलाना कहां तक उचित है? मतलब साफ है कि अब नक्सलवाद की आड़ में
व्यवसाई भी धमकाने पर उतर आए हैं जो निंदनीय है। इसमें अगर कोई कार्यवाही नहीं
होती है तो यह पुलिस के लिए शर्म की ही बात मानी जाएगी।
कुछ समय पूर्व
सिवनी में आरएएफ की टुकडी भ्रमण हेतु आई थी। अर्ध सैनिक बल की टुकडी सिवनी के
थानों में पुताई या फर्नीचर का निरीक्षण करने तो निश्चित तौर पर नहीं आई होगी।
कहीं ना कहीं खुफिया तौर पर इस तरह की जानकारियां होंगी जिनके चलते अर्ध सैनिक
बलों को पाबंद किया गया होगा। याद पड़ता है कि 1992 में तत्कालीन जिला
पुलिस अधीक्षक एवं वर्तमान में छत्तीगढ़ में पदस्थ पुलिस महानिरीक्षक राजीव
श्रीवास्तव द्वारा भेष बदलकर केवलारी, पाण्डिया छपारा आदि क्षेत्रों का भ्रमण कर
नक्सलवाद के बारे में अपना प्रतिवेदन सरकार को भेजा था।
सिवनी में वैसे भी
वन, राजस्व और
पुलिस विभाग के खिलाफ खबरें बहुतायत में रहती हैं। इन विभागों से ग्रामीण खफा ही
रहते हैं, यह सब
नक्सलवादियों के लिए खाद का ही काम करता है। नक्सलवादी इनके खिलाफ कदम उठाकर
ग्रामीणों का विश्वास जीत लेते हैं, फिर आरंभ होता है नक्सलवादियों का असली खेल।
क्षेत्र में दहशत फैलाकर चौथ वसूली का घिनौना नमूना पेश करते हैं नक्सली।
सिवनी के आदिवासी
बाहुल्य घंसौर तहसील में देश के मशहूर उद्योगपति गौतम थापर के स्वामित्व वाले
अवंथा समूह के सहयोगी प्रतिष्ठान मेसर्स झाबुआ पावर लिमिटेड द्वारा लगाए जा रहे
पावर प्लांट में भी आदिवासियों की जमीनें हड़पने के आरोप लग रहे हैं। इस क्षेत्र
में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और मुक्ति सेना सक्रिय है। क्षेत्र के सांसद बसोरी
सिंह मसराम और विधायक शशि ठाकुर भी आदिवासी मूल की हैं। बावजूद इसके आदिवासियों का
शोषण चक्र रूक नहीं पा रहा है। हालात देखकर अगर आने वाले समय में सिवनी जिले में
नक्सलवादी गतिविधियां अगर चरम पर पहुंच जाएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अब तक शिव की नगरी
सिवनी नक्सली गतिविधियों से दूर थी। अगर कहीं छुटपुट घटना होती भी थी तो वह बहुत
ज्यादा ध्यान देने योग्य नहीं होती थी। इस बार नक्सलियों के नाम पर चौथ वसूली की
खबरें (सही या गलत यह तो पुलिस और प्रशासन जाने) सिवनी के स्वास्थ्य के लिए अच्छी
किसी भी कीमत पर नहीं कही जा सकती हैं। शासन प्रशासन को इस खबर को गंभीरता से लेकर
कार्यवाही करना आवश्यक है, ताकि भविष्य में नक्सलवाद सिवनी में सर ना उठा सके।
(साई फीचर्स)