खाली होता दिग्विजयी तुणीर
(लिमटी खरे)
अपने ठहाकों और विवादस्पद बयान के लिए चर्चित हो चुके देश के हृदय प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और एआईसीसी के महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर ठहरे हुए पानी में कंकर मारकर सियासत गर्मा दी है। आश्चर्य इस बात पर हो रहा है कि जब देश में कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में घपले और घोटालों ने संसद की कायवाही में व्यवधान ला दिया हो, जब देश के हर चोक चौराहों पर कांग्रेस के मजबूर प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह की भद्द पिट रही हो तब इस तरह के बयान निश्चित तौर पर मानसिक दिवालियेपन का ही घोतक माने जा सकते हैं।
दो साल होने को आए जब भारत गणराज्य की आर्थिक राजधानी मुंबई पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ था। इस हमले में एसटीएफ महाराष्ट्र के चीफ हेमंत करकरे शहीद हो गए थे। करकरे की शहादत को समूचे देश ने नमन किया था, उनके शोर्य, देशप्रेम के जज्बे, ईमानदारी, बहादुरी देखकर हर देशवासी की आंखे नम थी। हालात देखकर हर किसी ने इस बात पर यकीन कर लिया था कि हेमंत करकरे को पाकिस्तान से आए इन्ही आताताईयों ने अपनी गोलियों का शिकार बनाया था।
उस घटना के दो बरस बाद रघोगढ़ के राजा और कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी के अघोषित राजनैतिक गुरू राजा दिग्विजय सिंह न जाने क्या सनक सवार हुई कि उन्होंने करकरे की शहादत पर ही सवालिया निशान लगा दिए। दिग्विजय सिंह का कहना कि करकरे ने घटना के दो घंटे पहले उनसे चर्चा की थी और कहा था कि करकरे को हिन्दुवादी संगठनों से खतरा था। बकौल दिग्गी राजा, करकरे ने कहा था कि मालेगांव विस्फोट की जांच में हिन्दू संगठनों का नाम आने के बाद उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थीं।
लाख टके का सवाल तो यह है कि करकरे उस वक्त महाराष्ट्र में पदस्थ थे, अगर वाकई उन्हें धमकियां मिल रही थीं, तो उन्होने इस बारे में सूबे की सरकार या केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधिकारियों से बात करने के बजाए इस बात को राजा दिग्विजय सिंह के साथ साझा करना क्यों जरूरी समझा। अब जबकि करकरे इस दुनिया में नहीं हैं, और जब एक पक्ष सदा के लिए ही मौन हो गया हो तब दूसरे पक्ष के द्वारा कही गई बात ही सत्य मानी जाएगी।
वैसे तो राजा दिग्विजय सिंह अनर्गल प्रलाप ही कर रहे हैं, फिर भी अगर दिग्विजय सिंह की बात को सत्य भी मान लिया जाए तो क्या मध्य प्रदेश पर दस साल राज करने वाले एक परिपक्व राजनेता से यह उम्मीद की जाए कि इस तरह के संवेदनशील मामले में वह अपना मुंह दो सालों तक सिलकर रखेगा? इतना ही नहीं अगर कांग्रेस के महासचिव की बात में दम है तो फिर कांग्रेसनीत केंद्र सरकार क्यों गला फाड़फाड़कर इस हमले के लिए पाकिस्तान पर दोष मढ़ रही है? इसके पहले कमोबेश इसी तरह की अनर्गल बयानबाजी अब्दुल रहमान अंतुले ने भी की थी।
उस वक्त दुनिया के चौधरी अमेरिका को उसके हिन्दुस्तान मंे पदस्थ तत्कालीन राजदूत द्वारा यही बताया जा रहा था कि इस घटना में भी राजनैतिक दल सियासत करने से नहीं चूक रहे हैं। अमेरिका का उल्लेख यहां इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि आतंकवाद के मामले में भारत ने सदा ही अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के शमन के लिए अमेरिका का मुंह ही ताका है।
आने वाले कल की तस्वीर में कुछ इसी तरह की बात दिखाई दे रही है कि अब अगर पाकिस्तान पर दवाब बढ़ाया जाएगा तो वह यह कहने की स्थिति में आ जाएगा कि कांग्रेसनीत सरकार पहले कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह के बयान सुने उसका आशय समझे फिर किसी पर तोहमत लगाए।
करकरे की शहादत में किसका हाथ था, इस बात को साबित करने के लिए कोर्ट कचहरी होना बाकी है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज जवान होने वाली पीढ़ी जब अधेड़ावस्था को पाने लगेगी तब जाकर कहीं यह पता लग पाएगा कि करकरे को गोली किसने मारी थी। एक नहीं अनेकों उदहारण हमारे सामने हैं जबकि सारे सबूत होने के बाद भी सरकारों ने ‘मुलजिम‘ को ‘मुजरिम‘ बनाने में उमर बिता दी हो।
इसके अलावा कांग्रेस द्वारा लगातार ही संघ को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। केंद्रीय गृहमंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम देश में भगवा आतंकवाद की बात करके नई बहस को जन्म देने का असफल प्रयास करते हैं तो कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी अलग ही राग अलापने में व्यस्त हैं। मनीष तिवारी के इस कथन से कि संघ अपने जन्मकाल से ही नकारात्मक कारणों और पृवत्तियों के कारण चर्चा में रहा है, से हम इत्तेफाक नहीं रखते। संघ का अपना स्वर्णिम युग भी रहा है। हो सकता है कि अति अनुशानप्रियता के चलते संघ में आंतरिक कड़ाई का पालन बहुत ज्यादा होता हो किन्तु संघ ने सार्वजनिक तौर पर या भारत गणराज्य के लोगों के लिए कोई गलत कदम उठाया हो याद नहीं पड़ता।
वैसे भी राजा दिग्विजय सिंह अपने ठहाकों और विवादस्पद बयानों के लिए सदा ही मीडिया की सुर्खियों में रहे हैं। इसके पहले भी बटाला हाउस एनकाउंटर का मामले में भी उन्होने शहीदों का अपमान ही किया था। राजा दिग्विजय सिंह को असम का प्रभार मिला हुआ है। असम में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं। बिहार के चुनावों में मुसलमान कांग्रेस से कितनी दूर चला गया है, इस बात का खुलासा हो ही चुका है। हो सकता है अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए राजा दिग्विजय सिंह ने यह तीर अपने तुणीर से छोड़ा हो। राजा दिग्विजय सिंह को यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि वोट की राजनीति से बड़ा देशहित है, और राजा को यह भी सोचना चाहिए कि उनके इस कथन से हेमंत करकरे की बेवा पर क्या बीत रही होगी। राजा दिग्विजय सिंह जैसे परिपक्व राजनीतिज्ञ से कम से कम सदाशयता की उम्मीद तो की ही जा सकती है।