शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

प्रजातंत्र की ओर अग्रसर कांग्रेस

प्रजातंत्र की ओर अग्रसर कांग्रेस

(लिमटी खरे)
कहने को तो सवा सौ साल पुराना है कांग्रेस का इतिहास। भारत की आजादी में महात्वपूर्ण भूमिका निभाई है कांग्रेस ने। देश में प्रजातंत्र की स्थापना में कांग्रेस के योगदान को शायद ही भुलाया जा सके। कथनी और करनी में वास्तव में बहुत अंतर होता है। इस सबके बावजूद भी कांग्रेस ने प्रजातंत्र को अंगीकार नहीं किया है। कांग्रेस में आज भी राष्ट्रीय, प्रदेश अथवा जिला स्तर पर अध्यक्षों या अन्य पदाधिकारियों का चुनाव होने के बजाए उनका मनोनयन होने की ही परंपरा जारी है। इस तरह से देश में शिख से लेकर नख तक कांग्रेस में नेताओं को थोपने की परंपरा रही है।

कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री और महासचिव राहुल गांधी ने यह कहकर सभी को चौंका दिया है कि पार्टी अध्यक्षों के मनोनयन के बजाय अब उनका चुनाव किया जाएगा। राहुल का यह बयान दिवा स्पप्न की ही तरह दिखाई पड़ता है, किन्तु कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की बात को दरकिनार करने का साहस भी कांग्रेसियों में नहीं दिखता है।

आजादी के बाद से अब तक इतिहास खंगालने पर यही बात सामने आती है कि पार्टी के सुप्रीमो द्वारा ही विधायक दल का नेता अर्थात मुख्यमंत्री या नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश के अध्यक्षों के मनोनयन की परिपाटी ही हावी रही है। कहने को तो कांग्रेस पार्टी प्रजातंत्र की हिमायती है किन्तु अपने अंदर ही कांग्रेस में प्रजातंत्र का अभाव साफ तौर पर परिलक्षित होता है।

बोरा बंद कर पार्टी जनों के सामने बोरा खोलकर उसमें से निकलने वाले नेता को सर्वमान्य नेता बनाने की कवायद में पार्टी के सुप्रीमो यह भूल जाते हैं कि इसी तरह के नेता जमीनी स्तर पर अपने पराए का भेद करवाकर गुटबाजी के लिए माकूल माहौल पैदा कर देते हैं।

हिन्दुस्तान का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद भी हिन्दुस्तान के राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र के बजाए हिटलरशाही ही हावी रही है। राहुल गांधी ने अगर बदलाव के बारे में विचार किया है, तो उनके इस विचार का स्वागत किया जाना चाहिए।

राहुल गांधी की सोच पर कांग्रेस पार्टी ने ईमानदारी से पहल की तो आने वाले दिनों में चापलूसी और मैनेजिंग पावर के बल पर उपरी पायदान पर पहुंचने वाले बिना रीढ के नेताओं के बदले जनता के बीच पैठ रखने और जनाधार वाले नेताओं के आगे आने के मार्ग प्रशस्त होने की उम्मीद है।

इतिहास गवाह है कि हर दफे मुख्यमंत्री के चुनाव के वक्त विधायकों की मंशा को और पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष चुनते समय प्रदेश के कार्यकर्ताअों की भावनाओं को सर्वोपरि बताने वाले सियासी दल अंत में फैसला आलाकमान पर ही छोड दिया करते हैं। इस तरह की विरोधाभासी कार्यप्रणाली से लोगों के मन में संशय ही पैदा होता है।

देश की प्रमुख सियासी पार्टी कांग्रेस हो या भाजपा अथवा कोई अन्य, हर दल में कमोबेश आलाकमान की मर्जी ही सर्वोपरि मानी जाती रही है। अर्जुन सिंह रहे हों या मोती लाल वोरा, अथवा भुवन चंद खण्डूरी, उमाश्री भारती, बाबू लाल गौर या फिर वसुंधरा राजे, सारे उदहारण इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि पार्टी में विधायक नहीं वरन आलाकमान ही सर्वोपरि होता है।

सवाल यह उठता है कि जब सियासी दलों में विधायकों को ही अपने नेता चुनने का अधिकार नहीं है, तो फिर आम कार्यकर्ताओं की पूछ परख आखिर क्यों और कैसे हो पार्टी के चंद नेताओं से घिरे सुप्रीमो के नाक कान इसी तरह के नेता होते हैं जो अपने मैनेजिंग पावर के जरिए दरबार के नौ रत्नों में जगह बनाकर पार्टी की जड़ों में अपने निहित स्वार्थों के लिए मट्ठा डालने से भी नहीं चूकते।

कांग्रेस के युवा महासचिव राहुल गांधी की प्रदेशाध्यक्षों के मनोनयन के बजाए चुनाव की सोच को बारंबार सलाम। उम्मीद की जानी चाहिए कि राहुल गांधी की यह मंशा न केवल कांग्रेस पार्टी में फरमान के तौर पर ली जाए वरन् अन्य सियासी दलों में भी इसे नजीर के तौर पर अंगीकार किया जाना चाहिए। अभी समय है, अगर राजनीति के कीचड़ भरे तालाब में नील कमल खिलाने हैं तो इसकी सफाई बहुत जरूरी है, वरना आने वाली पीिढयां विदेशी आक्रांताओं के बजाए देशी चंद नेताओं की गुलामी करने पर गजबूर होगी।
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वैचारिक मंच पर संघ में मची है घमासान
0 समाज और राजनीति के नियंत्रण पर मचा है द्वंद
0 सत्ता के मद को नहीं भूलना चाहता संघ
(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी में मचे घमासान पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भले ही ``कभी हां कभी न`` की भूमिका में हो पर यह सच है कि संघ के अंदरखाने में असंतोष और खींचतान का सैलाब उमड रहा हो जो कभी भी फटकर बाहर आ सकता है।संघ के विभिन्न धड़ों में चल रही चर्चाओं को अगर सच माना जाए तो इन दिनों संघ के अंदर ही अंदर ``राजनीति नियंत्रित समाज`` या ``समाज नियंत्रित राजनीति`` पर अंर्तद्वंद की स्थिति बनी हुई है। कुछ लोग राजनीति से समाज को नियंत्रित करने के हिमायती हैं तो अनेक धड़े समाज से राजनीति को नियंत्रित करने के पेरोकार हैं।
सूत्रों की मानें तो वर्तमान संघ प्रमुख मोहन राव भागवत द्वारा संगठन को हेडगेवार और गुरू गोलवरकर के सिद्धांतों पर ले जाना चाहा जा रहा है, जिसके मुताबिक समाज को अगर बदल दिया जाए तो राजनीति खुद ब खुद बदल जाएगी। भागवत के इस सिद्धांत के समर्थन में संघ के वरिष्ठ नेता माधव गोविंद वैद्य और इंद्रेश आदि दिखाई पड़ रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर एक अन्य धड़ा चाह रहा है कि अगर समाज को बदलना है तो इसके लिए राजनीति पर नियंत्रण करना अत्यावश्यक होगा। इस धारा के हिमायती गुरूमूर्ति, राम माधव, मदन दास देवी, रज्जू भईया, देवरस प्रतीत हो रहे हैं। इसके अलावा बीच के रास्ते के पेरोकार भी संघ में दिख रहे हैं।
सुरेश सोनी, भैया जी और सुरेश जोशी वैसे तो मोहन भागवत के साथ खड़े दिख रहे हैं, किन्तु इनकी परछाई का अक्स कुछ और बयां कर रहा है। सूत्रों का कहना है कि ये तीनों चाहते हैं कि इस मसले पर बीच का रास्ता अिख्तयार किया जाए।
उधर सूत्रों ने यह संकेत भी दिए हैं कि पिछले दो दशकों में बरास्ता भाजपा राजनीति और सत्ता में खासी घुसपैठ बना चुके संघ के नेता सत्ता के मद को खोना नहीं चाह रहे हैं। संघ के नेता जनसंघ से पूर्व के राजनीति विहीन बियावान में विचरण करने से अपने आप को बचा ही रहे हैं।
संघ में अंदर ही अंदर मचे इस घमासान के चलते संघ नेतृत्व भाजपा के बारे में कोई ठोस निर्णय लेने की स्थिति में दिखाई नहीं दे रहा है। संघ का एक गुट चाहता है कि संघ और भाजपा के रिश्ते को वैचारिक मंच पर कुछ अघोषित नाम दे दिया जाए ताकि दोनों के बीच सामंजस्य बना रहे और संघ के नेता सत्ता और राजनीति के समुंदर में पहले की तरह गोते लगा सकें, वहीं कुछ नेता चाहते हैं कि भाजपा के बारे में कड़े निर्णय ले ही लिए जाएं।