खत्म हुआ खेल तमाशा!
(लिमटी खरे)
कांग्रेस का चिंतन शिविर समाप्त हो गया।
समाचार पत्र और चेनल्स ने चीख चीखकर राहुल गांधी के नए उपाध्यक्ष और नंबर दो वाले
अवतार के लिए रेड कारपेट बिछाए। अब सब कुछ सामान्य ढर्रे पर लौट रहा है। जमीनी
कार्यकर्ताओं की पीड़ा और रिसते घावों की चिंता किसी ने नहीं की। कार्यकर्ता क्या
आज आम आदमी यह कह रहा है कि राहुल गांधी तो पहले से ही पार्टी मे नंबर दो पर थे।
नेहरू गांधी परिवार के वारिस होना ही कांग्रेस में नेतृत्व की पहचान माना जाता है।
कांग्रेस का झंडा और डंडा उठाने वाले कार्यकर्ता के बारे में माना जाता है कि वह
झंडा उठाने और दरी बिछाने के लिए ही पैदा हुआ है। आज देश में मैनेज्ड मीडिया ना तो
राहुल, ना सोनिया से यह पूछने का साहस कर पाता है कि मंहगाई के मामले में आप
चुप क्यों है? देश की जनता तो उसी झंडा डंडा उठाने वाले कार्यकर्ता से मंहगाई के बारे
में पूछता है और कार्यकर्ता निरूत्तर हो जाता है। कुल मिलाकर राहुल गांधी को एक
बार फिर महिमा मण्डित करने कांग्रेस ने चिंतन के नाम पर लाखों रूपए फूंक दिए। ये
पैसे भी आखिर गरीब गुरूबों के टेक्स से संचित आय से ही आए होंगे।
कांग्रेस के तीन दिवसीय चिंतन शिविर पर
देश की जनता टकटकी लगाए बैठी थी। सभी अपने अपने टीवी सेट्स से चिपके बैठे कि पता
नहीं कब मंहगाई के दानव से उन्हें मुक्ति दिलाने की बात इस शिविर में हो जाए।
विडम्बना देखिए कि चिंतन शिविर में महज राहुल गांधी को ही महिमा मण्डित करने की
बात कही गई। राहुल की ताजपोशी के आगे बाकी सारी बातें गोड हो गईं। जैसा कि हमने
पूर्व में अपने आलोखों किस बात का हो रहा चिंतन और चिंतन शिविर में युवराज की
चिंता में आशंका व्यक्त की थी कि यह सब कुछ सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी के लिए हो
रहा है, निर्मूल साबित नहीं हुईं।
जयपुर में जिस बात का चिंतन हुआ और जो
निश्कर्ष निकलकर सामने आया है उससे साफ हो गया है कि पार्टी ने अब घोषित तौर पर
सोनिया गांधी के बजाए राहुल गांधी को अपना नेता मान लिया है। कुल मिलाकर यह कहा
जाए कि सामंतशाही राज व्यवस्था की तरह ही अब सत्ता की धुरी सोनिया के हाथों से
राहुल गांधी के हाथों में आ चुकी है। एक तरह से यह कहा जाए कि राहुल की ताजपोशी हो
गई है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा।
आज हर किसी के जेहन में एक ही बात उभरकर
सामने आ रही है कि आखिर कांग्रेस को चिंतन की आवश्यक्ता क्यों पड़ी? और अगर चिंतन शिविर में ही राहुल गांधी
के हाथों सत्ता सौंपी जानी थी तो यह काम तो दिल्ली के 24 अकबर रोड़ पर बैठकर
कार्यसमिति की बैठक बुलाकर यह काम किया जा सकता था। आखिर इस व्यापक स्तर पर चिंतन
का बहाना कर राहुल को महिमामण्डित करने के पीछे कारण क्या है?
कांग्रेस जिस तरह दिशाहीन होकर पिछले
लगभग पंद्रह सालों से चल रही है उससे लगने लगा है कि कांग्रेस अब ना तो जवाहर लाल
नेहरू और ना ही इंदिरा गांधी के माडल पर अपने आप को ले जा सकती है। लगभग डेढ दशकों
में देश में क्षेत्रीय स्तर पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का जिस तरह से विखण्डन
हुआ है उस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस के अंदर अनुशासन की कमी पूरी तरह
से महसूस की जाने लगी है।
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस
की कालर पकड़कर उसे पटखनी देने वाले नेताओं ने जब अपने अपने सियासी दल बनाए तो
सत्ता की मलाई चखने की गरज से कांग्रेस उनकी चौखट चूमती नजर आई। शरद पंवार का
उदहारण सबसे नायाब है। शरद पंवार ने जब सोनिया गांधी को गरियाया और राकांपा का गठन
किया उसके बाद महाराष्ट्र और केंद्र में कांग्रेस पंवार के आगे घुटनों पर नजर आई।
एक समय था जब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं
का रोष और असंतोष देखते ही बन रहा था क्योंकि शरद पंवार ने सोनिया को विदेशी मूल
का बताकर नई बहस छेड़ दी थी। कार्यकर्ताओं को यूटर्न लेने पर मजबूर होना पड़ा
क्योंकि पंवार और सोनिया एक ही मंच पर मुस्कुराते हुए एक दूसरे का अभिवादन करते
मीडिया में छा गए। तभी आम कार्यकर्ता समझ गया कि अब कांग्रेस की कमान एसे हाथों
में पहुंच चुकी है जिसकी नीतियां ढुलमुल हैं।
रही सही कसर राजनैतिक तौर पर नासमझ
सोनिया गांधी के सलाहकारों ने निकाल दी। समय समय पर गलत सही सलाहें देकर सोनिया के
सलाहकारों ने कांग्रेस के विशाल बट वृक्ष के आसपास की मिट्टी खुदवा दी।
परिणामस्वरूपप आज कांग्रेस का बटवृक्ष खुद सहारे के लिए यहां वहां तांक झांक कर
रहा है। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए रखना कांग्रेस की मजबूरी है किन्तु
प्रधानमंत्री पद की सारी मर्यादांए जब तार तार हो चुकी हों तब मनमोहन सिंह को ढोना
कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता है।
दरअसल, कांग्रेस में राहुल गांधी नंबर दो की
स्थिति में पहले से ही थे। राहुल गांधी नंबर दो आधिकारिक तौर पर नहीं थे। अब वे
आफीशियल नंबर टू हैं। चार पांच माहों में ही उनके कदम तालों का विरोध या स्वागत
स्पष्ट कर देगा कि उन्हें जल्द ही जिम्मेदारी संभाल लेना चाहिए या नहीं। राहुल
गांधी को इस तरह एक के बाद एक सधे कदम से आगे बढ़ाने के पीछे थिंक टैंक और कोई नहीं
वरन् उनकी अग्रजा प्रियंका वढ़ेरा ही हैं।
राहुल गांधी के बारे में देश कम ही
जानती है और राहुल गांधी भी देश को कम ही जानते हैं। कहा जा रहा है कि पिछले लगभग
एक साल से राहुल गांधी का पारा जब तब उबल पड़ता है। राहुल के शार्ट टेंपर्ड होने से
अब उनके आस पास फटकने वाले नेताओं की संख्या में तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही
है। इसका सीधा लाभ राहुल को होता दिख रहा है। राहुल को सलाह देने वालों की संख्या में
भी तेजी से कमी आई है।
चिंतन शिविर को खेल तमाश कहने का
तातपर्य यही है कि इसमें जमीनी हकीकत को कोसों दूर रखा गया। जब सोनिया गांधी अपने
उद्बोधन में भ्रष्टाचार पर प्रहार कर रही थीं तब प्रधानमंत्री असहज हो उठे।
उन्होंने तत्काल एक चिट लिखी और मदाम को भेज दी। चिट में संभवतः यही लिखा था कि
मदाम आप भ्रष्टाचार पर बोल रही हैं। केंद्र में हमारी सरकार है, हमारे और सहयोगियों के भ्रष्टाचार के
मामले अभी लोगों के दिमाग से विस्मृत नहीं हुए हैं इस तरह आप खुद को ही
भ्रष्टाचारी साबित कर रही हैं। तब जाकर सोनिया ने विषय से विषयांतर किया।
इस मामले को मनीष तिवारी के नेतृत्व
वाले सूचना प्रसारण मंत्रालय ने बखूबी मैनेज कर लिया। चेनल्स ने इस मामले को छुआ
भी नहीं और प्रिंट में भी इसकी गूंज ज्यादा नहीं दिखी। रही सोशल मीडिया की बात तो
सोशल मीडिया ने इस मामले को उठाया है। राहुल गांधी की चिंता भी सोशल मीडिया को
लेकर ही है। अगर देश के मीडिया को भरपूर पैसा देकर कांग्रेस द्वारा राहुल के पक्ष
में कर भी लिया जाता है तब भी सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स को काबू करना असाना नहीं
होगा। सोशल मीडिया का जुनून आज देश में सर चढकर बोल रहा है। देश में अंदर ही अंदर
अराजकता चरम पर है।
गरीब गुरबे किस तरह दिन गुजार रहे हैं
यह बात राहुल को नहीं पता। सुरसा की तरह मंहगाई के बढ़ते मुंह ने सभी को निगलना
आरंभ कर दिया है। अगर कोई आदमी कानून ना तोडे तो वह वकील की फीस से बच सकता है। पर
दवाओं से तो नहीं बच सकता। अगर बच्चे को पढाना है तो स्कूल की मनमाफी फीस देना ही
होगा। अब तो आम आदमी कहने लगा है कि वह तीन ही बातों के लिए कमा रहा है। खाने, डाक्टर को पैसा देने और स्कूल की फीस
चुकाने। अबदेखना है कि राहुल इस चुनौति से आखिर निपटते कैसे हैं? (साई फीचर्स)