शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

परेशानी का सबब बना आधार!


परेशानी का सबब बना आधार!

(लिमटी खरे)

देश के हर नागरिक को विशिष्ट पहचान पत्र उपलब्ध कराने की केंद्र सरकार की अभिनव योजना को जमीनी स्तर पर सफलता नहीं मिल पा रही है। आधार के नाम का यह पहचान पत्र अनेक जिलों में बन ही नहीं पा रहा है, जिन लोगों ने जून जुलाई में आधार का पंजीयन कराया है वे अपनी अपनी रसीद लेकर यहां वहां भटकने पर मजबूर हैं, उनका आधार पहचान पत्र अब तक उन्हें नहीं मिल पाया है। केंद्र सरकार की इस महात्वाकांक्षी योजना के बारे में सरकार को गफलत में रखकर गलत फीडबैक दिया जा रहा है, जिससे भ्रम की स्थिति निर्मित होती जा रही है। आधार के बारे में केंद्र सरकार करोड़ों अरबों रूपए के विज्ञापन मीडिया में जारी कर लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर रही है पर आधार बनाने का ठेका लिए लोगों की मशीनें ही इस मामले में जवाब देने लगी हैं।

भारत गणराज्य की स्थापना के साथ ही कई उपाय ऐसे होते चले आ रहे हैं, जिससे देश के प्रत्येक नागरिक को राष्टीय नागरिकता की पहचान दिलाई जा सके। मूल निवासी प्रमाण-पत्र, राशनकार्ड, मतदाता पहचान पत्र और अब आधार योजना के अंतर्गत एक बहुउद्देश्य विशिष्ट पहचान पत्र हरेक नागरिक को देने की कवायद देशव्यापी चल रही है। इस पहचान पत्र के जरिए देश के नागरिक की पहचान सरल सहज तरीके से किए जाने की बजाए कंप्यूटरीकृत ऐसी तकनीक से होगी,जिसमें कई जटिलताएं पेश आने के साथ परीक्षण के लिए तकनीकी विशेषज्ञ की भी जरुरत होगी।

मसलन व्यक्ति को राष्टीय स्तर पर पंजीकृत करके जो संख्या मिलेगी, उसे व्यक्ति की सुविधा और सशक्तीकरण का बड़ा उपाय माना जा रहा है। दावा तो यह भी किया जा रहा है कि इससे नागरिक को एक ऐसी पहचान मिलेगी, जो भेद-रहित होने के साथ, उसे विराट आबादी के बीच अपना वजूद भी कुछ है, यह होने का अहसास कराती रहेगी। लेकिन नागरिकता की इस विशिष्ट पहचान की चूलें पहल चरण में ही हिलने लगी हैं। क्योंकि इस पहचान-पत्र योजना के क्रियान्वयन में विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के उपायों को तो नकारा ही गया, संसद की सर्वाेच्चता को भी दरकिनार कर इसे औद्योगिक पेशेवरों के हाथ सौंप दिया गया। नतीजतन यह योजना अब भ्रष्टाचार का पर्याय तो बन ही रही है, पहचानधारियों को संकट का सबब भी साबित हो रही है।

यह हकीकत अभी भी आम-फहम नहीं है कि बहुउद्देशीय विशिष्ट पहचान-पत्र योजना को देश की सर्वाेच्च संवैधानिक संस्था, संसद की अनुमति नहीं मिली है। इस योजना को अस्तित्व में लाने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को जाता है। अटल सरकार ने इस योजना को हरी झंडी दी थी, उसके उपरांत मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने भारतीय राष्टीय पहचान प्राधिकरण बनाकर इस योजना के क्रियान्वयन की शुरुआत की। अमेरिका की सही-गलत नीतियों के अंध-अनुकरण के आदी हो चुके मनमोहन सिंह ने इस योजना को जल्दबाजी में इसलिए शुरु किया क्योंकि इसमें देश की बड़ी पूंजी निवेश कर औद्योगिक-प्रौद्योगिक हित साधने की असीम संभावनाएं अंतनिर्हित हैं। इस प्राधिकरण का अध्यक्ष एक औद्योगिक घराने के सीईओ नंदन नीलकेणी को बनाकर, तत्काल उनके सुपुर्द 6600 करोड़ की धन राशि सुपुर्द कर दी गई। बाद में इस राशि को बढ़ाकर 17900 करोड़ कर दिया गया। जब यह योजना अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचेगी तब अर्थशास्त्रियों के एक अनुमान के मुताबिक इस पर कुल खर्च डेढ़ लाख करोड़ रुपए होंगे।

इस प्रसंग में हैरानी की बात यह भी है कि बात-बात पर संसद की सर्वाेच्चता और गरिमा की दुहाई देने वाले मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट के पिछड़े गांव की एक महिला को पहचान-पत्र देकर एक साल पहले इसका शुभारंभ भी कर दिया। देश की सबसे बड़ी पंचायत में किसी भी पंच अर्थात सांसद ने यह पूछने की जहमत नहीं उठाई है कि गरीब की भूख से जुड़े खाद्य सुरक्षा विधेयक, भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक और ज्यादातर गरीबों को मनरेगा से जोड़ने वाली गरीबी रेखा को तय किए बिना अथवा संसद की मंजूरी लिए बिना इन योजनाओं पर अमल क्यों नहीं शुरु किया जाता ?

लोकपाल विधेयक को संसद पहुंचाने से पहले ही क्यों नहीं भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसी जाती ? दरअसल संप्रग सरकार की पहली प्राथमिकता में भूख और कुपोषण जैसी समस्याएं हैं ही नहीं। वह जटिल तकनीकी पहचान पर केंद्रित इस आधार योजना को जल्द से जल्द इसलिए लागू करने में लगी है, जिससे गरीबों की पहचान को नकारा जा सके। क्योंकि राशनकार्ड और मतदाता पहचान-पत्र में पहचान का प्रमुख आधार व्यक्ति का फोटो होता है। जिसे देखाकर आंखों में कम रोशनी वाला व्यक्ति भी कह सकता है कि यह फलां व्यक्ति का फोटो है। उसकी तसदीक के लिए भी कई लोग आगे आ जाते हैं। इस पहचान को एक साथ बहुसंख्यक लोग कर सकते हैं। जबकि आधार में फोटो के अलावा उंगलियों व अंगूठे के निशान और आंखों की पुतलियों के डिजीटल कैमरों से लिए गए महीन से महीन पहचान वाले चित्र हैं, जिनकी पहचान तकनीकी विशेषज्ञ भी बड़ी मशक्कत व मुश्किल से कर पाते हैं। ऐसे में सरकारी एवं सहकारी उचित मूल्य की दूकानों पर राशन, गैस व कैरोसिन बेचने वाला मामूली दुकानदार कैसे करेगा ?

पहचान के इस परीक्षण व पुष्टि के लिए तकनीकी ज्ञान की जरुरत तो है कि कंप्युटर उपकरणों के हर वक्त दुरुस्त रहने, इंटरनेट की कनेक्टविटि व बिजली की उपलब्धता भी जरुरी है। गांव तो क्या नगरों और राजधानियों में भी बिजली कटौती का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में एक शनिवार भारत के सबसे बड़े स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का पूरे दिन सायबर नाकाम रहा। नतीजतन लोग मामूली धन-राशि का भी लेने-देन नहीं कर पाए। सुविधा बहाली के लिए विज्ञापन देकर बैंक रविवार को खोलना पड़ा। कमोबेश नगरीकृत व सीमित उपभोक्ता से जुड़े एक बड़े बैंक को इस परिस्थिति से गुजरना पड़ रहा है तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली को किस हाल से गुजरना होगा ? जाहिर है, ये हालात गांव-गांव दंगा, मारपीट और लूट का आधार बन जाएंगे।

देखा जाए तो दरअसल आधार के रुप में भारत में अमल में लाई गई इस योजना की शुरुआत अमेरिका में आंतकवादियों पर नकेल कसने के लिए हुई थी। 2001 में हुए आतंकी हमले के बाद खुफिया एजेंसियों को छूट दी गई थी कि वे इस योजना के माध्यम से संदिग्ध लोगों की निगरानी करें। वह भी केवल ऐसी 20 फीसदी आबादी पर जो प्रवासी हैं और जिनकी गतिविधियों आशंकाओं के केंद्र में हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हमारे देश में उन लाचार व गरीबों को संदिग्ध व खतरनाक माना जा रहा है, जिन्हें रोटी के लाले पड़े हैं। ऐसे हालात में यह योजना गरीबों के लिए हितकारी साबित होगी अथवा अहितकारी इसकी असलियत सामने आने में थोड़े और वक्त का इंतजार करना होगा।

0 घंसौर को झुलसाने की तैयारी पूरी . . . 12

हवा हवाई वायदों से ठगा जा रहा है आदिवासियों को

नौकरी देने के प्रलोभन से ली जा रही है जमीन

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। देश की मशहूर थापर ग्रुप ऑफ कंपनीज के सहयोगी प्रतिष्ठान झाबुआ पावर लिमिटेड के द्वारा मध्य प्रदेश सरकार के सहयोग से संस्कारधानी जबलपुर से महज सौ किलोमीटर दूर स्थापित होने वाले 600 मेगावाट के पावर प्लांट में आदिवासियों की जमीनें हवा हवाई वायदों से लेने की शिकायतें आम हो रही हैं। आदिवासी परिवारों को नौकरी आदि का प्रलोभन व्यापक स्तर पर देने की चर्चाएं चल पड़ी हैं।

प्राप्त जानकारी के मुताबिक कंपनी द्वारा यह प्रलोभन दिया जा रहा है कि जिन परिवारों की भूमि को अधिग्रहित किया जा रहा है उनके परिवार के एक सदस्य को कंपनी द्वारा पात्रतानुसार नौकरी में प्राथमिकता दी जाएगी। इसमें यह साफ नहीं किया गया है कि उस परिवार के सदस्य को स्किल्ड या अनस्किल्ड लेकर की नौकरी दी जाएगी। अगर अनिस्किल्ड लेबर की श्रेणी में परिवार के सदस्य को नौकरी दी जाती है तो उसकी दिहाड़ी बेहद ही कम बैठने की उम्मीद है।

इसी तरह कंपनी ने यह भी प्रलोभन दिया है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों के पुनर्वास की योजना को भी प्रोजेक्ट में शामिल किया जाएगा। इसका तातपर्य यह है कि जरूरी नहीं है कि उनके स्थायी पुनर्वास की कोई ठोस व्यवस्था की जाए।

कंपनी ने यह भी कहा है कि भू अर्जन अधिनियम के अंतर्गत भू अर्जन की जा रही भूमि के मूल्यांकन के आधार पर शत प्रतिशत राशि के साथ ही साथ दस फीसदी राशि जमा कराए जाने के संबंधी कार्य संबंधित कलेक्टर्स के द्वारा भू अर्जन अधिनियम तथा संबंधित विधिक उपबंधों और शासनादेशों के अंतर्गमत दिए गए प्रावधानों तथा शर्तों के आधार पर किया जाएगा।

कंपनी ने यह भी कहा है कि भूमि का भूअर्जन जिस उपयोग के लिए किया जा रहा है कंपनी उसका उपयोग वही करेगी। इसके लिए कंपनी द्वारा उपयोग में परिवर्तन नहीं किया जा सकेगा। इस भूमि पर निर्माण के दौरान कंपनी इस बात का पूरा ध्यान रखेगी कि सामान्य जनता को निस्तार आदि में असुविधा न हो।

कंपनी ने शासन को यह भी आश्वासन दिया है कि कंपनी को दी गई भूमि या उसके किसी भाग अथवा उस पर निर्मित किसी भी निर्माण अथवा भवन आदि को कंपनी बेचने, बंधक रखने, दान देने, पट्टे पर देने या अन्य प्रकार से अन्तरित करने का काम नहीं करेगी। यक्ष प्रश्न यह है कि इतना बड़ा पावर प्लांट जिसमें करोड़ों रूपए व्यय होंगे वह कंपनी द्वारा नकद राशि खर्च कर बनवाया जा रहा है। कंपनी ने अगर बैंक से कर्ज लिया होगा तो इस भूमि को वह रहन अवश्य ही रखेगी। इस बारे में आयकर विभाग की नजरें इनायत न होना आश्चर्य का ही विषय है।

(क्रमशः जारी)

मनमोहन भ्रष्ट नहीं: राहुल गांधी


बजट तक शायद चलें मनमोहन . . . 24

मनमोहन भ्रष्ट नहीं: राहुल गांधी

पच्चीस साल बाद भी भ्रष्टाचार का आंकड़ा वही

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। कांग्रेस की नजर में भविष्य के वजीरे आजम राहुल गांधी ने वर्तमान प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को परोक्ष तौर पर ईमानदार करार दे दिया है। राहुल गांधी ने अराजनैतिक सोच को दर्शाते हुए अपने पिता की बात को दोहराया है जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि सरकारी राशि का महज पंद्रह फीसदी हिस्सा ही जनता तक पहुंच पाता है।

अगरतला मेें एक बयान देकर राहुल गांधी ने सियासी पानी में पत्थर मारकर हलचल पैदा कर दी है। राहुल गांधी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी के बहुचर्चित बयान का हवाला देकर कहा कि मेरे पिता ने सालों पहले कहा था कि केंद्र सरकार द्वारा दिए गए एक रूपए में से 15 पैसे ही आम जनता तक पहुंच पाते हैं। उन्होंने कहा कि वे इस बात में आज भी विश्वास करते हैं कि आज भी हालात कमोबेश ऐसे ही हैं कि एक रूपए में से 85 पैसे बिचौलिए खा जाते हैं।

जानकारों का मानना है कि उन्होंने एक तरह से प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह पर लग रहे भ्रष्टाचार के ईमानदार संरक्षक के तगमे को धोने का प्रयास किया है। राहुल के बयान के निहितार्थ राजनैतिक वीथिकाओं में खोजे जा रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि जितने भ्रष्ट राजीव गांधी, नरसिंहराव, अटल बिहारी बाजपेयी, व्ही.पी.सिंह, चंद्रशेखर, इंद्र कुमार गुजराल आदि थे, कमोबेश उतने ही भ्रष्ट मनमोहन सिंह हैं। इसका कारण यह है कि तब भी पंद्रह पैसे ही जनता तक पहुंचते थे और आज भी पंद्रह पैसे ही पहुंच रहे हैं।

(क्रमशः जारी)

आईडिया सहित अन्य कंपनियों पर आपराधिक धोखाधड़ी के आरोप


एक आईडिया जो बदल दे आपकी दुनिया . . .  20

आईडिया सहित अन्य कंपनियों पर आपराधिक धोखाधड़ी के आरोप

मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सरकार से जवाब तलब किया। याचिका में कहा गया है कि 3जी सेवा में कुछ कम्पनियों ने पिछले दरवाजे से प्रवेश किया है और इससे सरकार को 20,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। यह याचिका मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ के समक्ष दायर की गई। याचिका में आरोप लगाया गया कि दूरसंचार सेवा प्रदाता कम्पनी भारती एयरटेल लिमिटेड, आईडिया सेल्युलर लिमिटेड और वोडाफोन एस्सार लिमिटेड ने अपने उपभोक्ताओं को 3जी सेवाएं देने के लिए ऐसी अन्य कम्पनियों की सेवा ली, जिनकी इस सेवा के लिए अर्हता नहीं थी।

याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि कम्पनियों ने आपराधिक षडयंत्र किया और सरकार को धोखा दिया, जिससे राजस्व को भारी नुकसान हुआ। याचिकाकर्ता ने कहा कि निजी कम्पनियों ने दूरसंचार विभाग के लाइसेंस से सम्बंधित नियमों और शर्ताे तथा दिशा-निर्देशों की अनदेखी की और उन क्षेत्रों में सेवा की आपूर्ति की जिनके लिए उन्हें लाइसेंस नहीं मिला था। याचिकाकर्ता ने कहा, कि निजी कम्पनियों ने आपस में समझौते किए और एक-दूसरे के नेटवर्क और स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया और उन क्षेत्रों में भी 3जी सेवा दी जिनके लिए उनके पास लाइसेंस या 3जी स्पेक्ट्रम नहीं था। इस प्रकार उन्होंने 3जी संचालन क्षेत्र में पिछले दरवाजे से प्रवेश किया।

याचिका को संज्ञान में लेते हुए मुख्य न्यायाधीश ने अतिरिक्त महाधिवक्ता ए.एस. चंडिहोक को निर्देश दिया कि वह सरकार से निर्देश प्राप्त कर 30 नवम्बर तक जवाब सौंपे। याचिका में कहा गया, सरकार और भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) नियमों की अनदेखी करने वाली कम्पनियों पर कार्रवाई करने में विफल रहे और उन्होंने अवैध तौर पर कम्पनियों को उन कम्पनियों के साथ 3जी स्पेक्ट्रम साझा करने की अनुमति दी, जिन्हें लाइसेंस नहीं मिला था। दूरसंचार विभाग के दिशा निर्देश में कम्पनियों द्वारा स्पेक्ट्रम को साझा करने का प्रावधान नहीं है।

याचिकाकर्ता ने कहा, कि कम्पनियों ने आपस में समझौते कर सरकार को करोड़ों रुपये का नुकसान पहुंचाया। याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि उसने यह सुनिश्चित कराने के लिए दूरसंचार विभाग और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के समक्ष एक प्रस्तुति दी थी कि 3जी सेवाएं गैर लाइसेंसी ऑपरेटरों द्वारा न मुहैया कराई जाएं। याचिकाकर्ता ने कहा, कि दूरसंचार विभाग और ट्राई से कोई जवाब नहीं मिला। याचिकाकर्ता ने पीठ को यह भी सूचित किया कि उसने केंद्रीय सतर्कता आयोग को भी एक विस्तृत ब्योरा भेजा है ताकि मामले की जांच हो सके।

(क्रमशः जारी)