परेशानी का सबब बना आधार!
(लिमटी खरे)
देश के हर नागरिक को विशिष्ट पहचान पत्र उपलब्ध कराने की केंद्र सरकार की अभिनव योजना को जमीनी स्तर पर सफलता नहीं मिल पा रही है। आधार के नाम का यह पहचान पत्र अनेक जिलों में बन ही नहीं पा रहा है, जिन लोगों ने जून जुलाई में आधार का पंजीयन कराया है वे अपनी अपनी रसीद लेकर यहां वहां भटकने पर मजबूर हैं, उनका आधार पहचान पत्र अब तक उन्हें नहीं मिल पाया है। केंद्र सरकार की इस महात्वाकांक्षी योजना के बारे में सरकार को गफलत में रखकर गलत फीडबैक दिया जा रहा है, जिससे भ्रम की स्थिति निर्मित होती जा रही है। आधार के बारे में केंद्र सरकार करोड़ों अरबों रूपए के विज्ञापन मीडिया में जारी कर लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर रही है पर आधार बनाने का ठेका लिए लोगों की मशीनें ही इस मामले में जवाब देने लगी हैं।
भारत गणराज्य की स्थापना के साथ ही कई उपाय ऐसे होते चले आ रहे हैं, जिससे देश के प्रत्येक नागरिक को राष्टीय नागरिकता की पहचान दिलाई जा सके। मूल निवासी प्रमाण-पत्र, राशनकार्ड, मतदाता पहचान पत्र और अब आधार योजना के अंतर्गत एक बहुउद्देश्य विशिष्ट पहचान पत्र हरेक नागरिक को देने की कवायद देशव्यापी चल रही है। इस पहचान पत्र के जरिए देश के नागरिक की पहचान सरल सहज तरीके से किए जाने की बजाए कंप्यूटरीकृत ऐसी तकनीक से होगी,जिसमें कई जटिलताएं पेश आने के साथ परीक्षण के लिए तकनीकी विशेषज्ञ की भी जरुरत होगी।
मसलन व्यक्ति को राष्टीय स्तर पर पंजीकृत करके जो संख्या मिलेगी, उसे व्यक्ति की सुविधा और सशक्तीकरण का बड़ा उपाय माना जा रहा है। दावा तो यह भी किया जा रहा है कि इससे नागरिक को एक ऐसी पहचान मिलेगी, जो भेद-रहित होने के साथ, उसे विराट आबादी के बीच अपना वजूद भी कुछ है, यह होने का अहसास कराती रहेगी। लेकिन नागरिकता की इस विशिष्ट पहचान की चूलें पहल चरण में ही हिलने लगी हैं। क्योंकि इस पहचान-पत्र योजना के क्रियान्वयन में विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के उपायों को तो नकारा ही गया, संसद की सर्वाेच्चता को भी दरकिनार कर इसे औद्योगिक पेशेवरों के हाथ सौंप दिया गया। नतीजतन यह योजना अब भ्रष्टाचार का पर्याय तो बन ही रही है, पहचानधारियों को संकट का सबब भी साबित हो रही है।
यह हकीकत अभी भी आम-फहम नहीं है कि बहुउद्देशीय विशिष्ट पहचान-पत्र योजना को देश की सर्वाेच्च संवैधानिक संस्था, संसद की अनुमति नहीं मिली है। इस योजना को अस्तित्व में लाने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को जाता है। अटल सरकार ने इस योजना को हरी झंडी दी थी, उसके उपरांत मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने भारतीय राष्टीय पहचान प्राधिकरण बनाकर इस योजना के क्रियान्वयन की शुरुआत की। अमेरिका की सही-गलत नीतियों के अंध-अनुकरण के आदी हो चुके मनमोहन सिंह ने इस योजना को जल्दबाजी में इसलिए शुरु किया क्योंकि इसमें देश की बड़ी पूंजी निवेश कर औद्योगिक-प्रौद्योगिक हित साधने की असीम संभावनाएं अंतनिर्हित हैं। इस प्राधिकरण का अध्यक्ष एक औद्योगिक घराने के सीईओ नंदन नीलकेणी को बनाकर, तत्काल उनके सुपुर्द 6600 करोड़ की धन राशि सुपुर्द कर दी गई। बाद में इस राशि को बढ़ाकर 17900 करोड़ कर दिया गया। जब यह योजना अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचेगी तब अर्थशास्त्रियों के एक अनुमान के मुताबिक इस पर कुल खर्च डेढ़ लाख करोड़ रुपए होंगे।
इस प्रसंग में हैरानी की बात यह भी है कि बात-बात पर संसद की सर्वाेच्चता और गरिमा की दुहाई देने वाले मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट के पिछड़े गांव की एक महिला को पहचान-पत्र देकर एक साल पहले इसका शुभारंभ भी कर दिया। देश की सबसे बड़ी पंचायत में किसी भी पंच अर्थात सांसद ने यह पूछने की जहमत नहीं उठाई है कि गरीब की भूख से जुड़े खाद्य सुरक्षा विधेयक, भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक और ज्यादातर गरीबों को मनरेगा से जोड़ने वाली ‘गरीबी रेखा को तय किए बिना अथवा संसद की मंजूरी लिए बिना इन योजनाओं पर अमल क्यों नहीं शुरु किया जाता ?
लोकपाल विधेयक को संसद पहुंचाने से पहले ही क्यों नहीं भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसी जाती ? दरअसल संप्रग सरकार की पहली प्राथमिकता में भूख और कुपोषण जैसी समस्याएं हैं ही नहीं। वह जटिल तकनीकी पहचान पर केंद्रित इस आधार योजना को जल्द से जल्द इसलिए लागू करने में लगी है, जिससे गरीबों की पहचान को नकारा जा सके। क्योंकि राशनकार्ड और मतदाता पहचान-पत्र में पहचान का प्रमुख आधार व्यक्ति का फोटो होता है। जिसे देखाकर आंखों में कम रोशनी वाला व्यक्ति भी कह सकता है कि यह फलां व्यक्ति का फोटो है। उसकी तसदीक के लिए भी कई लोग आगे आ जाते हैं। इस पहचान को एक साथ बहुसंख्यक लोग कर सकते हैं। जबकि आधार में फोटो के अलावा उंगलियों व अंगूठे के निशान और आंखों की पुतलियों के डिजीटल कैमरों से लिए गए महीन से महीन पहचान वाले चित्र हैं, जिनकी पहचान तकनीकी विशेषज्ञ भी बड़ी मशक्कत व मुश्किल से कर पाते हैं। ऐसे में सरकारी एवं सहकारी उचित मूल्य की दूकानों पर राशन, गैस व कैरोसिन बेचने वाला मामूली दुकानदार कैसे करेगा ?
पहचान के इस परीक्षण व पुष्टि के लिए तकनीकी ज्ञान की जरुरत तो है कि कंप्युटर उपकरणों के हर वक्त दुरुस्त रहने, इंटरनेट की कनेक्टविटि व बिजली की उपलब्धता भी जरुरी है। गांव तो क्या नगरों और राजधानियों में भी बिजली कटौती का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में एक शनिवार भारत के सबसे बड़े स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का पूरे दिन सायबर नाकाम रहा। नतीजतन लोग मामूली धन-राशि का भी लेने-देन नहीं कर पाए। सुविधा बहाली के लिए विज्ञापन देकर बैंक रविवार को खोलना पड़ा। कमोबेश नगरीकृत व सीमित उपभोक्ता से जुड़े एक बड़े बैंक को इस परिस्थिति से गुजरना पड़ रहा है तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली को किस हाल से गुजरना होगा ? जाहिर है, ये हालात गांव-गांव दंगा, मारपीट और लूट का आधार बन जाएंगे।
देखा जाए तो दरअसल आधार के रुप में भारत में अमल में लाई गई इस योजना की शुरुआत अमेरिका में आंतकवादियों पर नकेल कसने के लिए हुई थी। 2001 में हुए आतंकी हमले के बाद खुफिया एजेंसियों को छूट दी गई थी कि वे इस योजना के माध्यम से संदिग्ध लोगों की निगरानी करें। वह भी केवल ऐसी 20 फीसदी आबादी पर जो प्रवासी हैं और जिनकी गतिविधियों आशंकाओं के केंद्र में हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हमारे देश में उन लाचार व गरीबों को संदिग्ध व खतरनाक माना जा रहा है, जिन्हें रोटी के लाले पड़े हैं। ऐसे हालात में यह योजना गरीबों के लिए हितकारी साबित होगी अथवा अहितकारी इसकी असलियत सामने आने में थोड़े और वक्त का इंतजार करना होगा।