यह कैसा गणतंत्र, तंत्र में गण प्रताडि़त
(मनोज मर्दन त्रिवेदी)
गणतंत्र के ६२ वर्ष हो चुके हैं यदि भारतीय दर्शन की दृष्टि से देखा जाये तो ६२ वर्ष बहुत अधिक समय नहीं माना जाता ऐसे कई ६२ हजार वर्ष निकल जाने की बात हमारे धर्म ग्रंथ बखान करते हैं परंतु जिस भौतिक वादी यथार्त युग में हम जीवित हैं उसके लिए ६२ वर्ष एक पूर्ण आयु मानी गई है भारत भी ६२ वर्ष के परिपक्व गणतंत्र का इतिहास समेटे हुए है। दुनिया में काफी प्रतिष्ठित स्थान भी प्राप्त कर चुका है। परंतु आत्म अवलोकन करने पर हमें सोचने पर मजबूर होना पड़ता है, कि जिस गणतंत्र पर हम गर्व करते हैं और सारी दुनिया हमारी पीठ थप-थपाती है वह वास्तविक धरातल में हमे लज्जा का अनुभव कराता है। जिस गण के लिए तंत्र है बहुसंख्यक गण उस तंत्र से अपने अधिकारों से वंचित हैं उन पर उन्ही के निर्वाचित जनप्रतिनिधि और जो तंत्र की व्यवस्था के अनुरूप उनके सेवक हैं जिन्हेे अधिकारी कर्मचारी माना गया है।
ऐसी नौकर शाही देश के बहुसंख्यक गण पर अपने अधिकारों का सिक्का जमाये हुए है, और उनका शोषण कर रही है। इस देश का वास्तविक मालिक कृषक मजदूर जो बहुसंख्यक है, उन पर सत्ताधारी एवं नौकरशाही हावी है दिन रात खेतों में पसीना बहाकर देश की जनता के उदर-पोषण की व्यवस्था करने वाला किसान हर प्रकार की आपदाओं को झेलने के लिए स्वयं संघर्ष करते हुए दिखाई देता है। बड़ी आपदा पर राजनैतिक दलों के नेता उनकी भावनाओं का शोषण करते हैं, और सहयोगी होते हैं इस देश के नौकरशाह दो तरह का उत्पादन प्रमुख रूप से होता है। आम जनता की क्षुधा मिटाने के लिए जमीन का सीना फाड़कर किसान अन्न का उत्पादन करता है, दूसरा उत्पादन वनों का होता है, जमीन के इस दो प्रकार के उत्पादन में कितना बड़ा अन्तर है यह स्पष्ट समझा जा सकता है। लोगों को जीवन देने वाले अन्न का उत्पादन कर्ता अन्नदाता प्राकृति अप्राकृतिक आपदाओं पर स्वयं संघर्ष करता है, या क्षति पूर्ति के रूप में शासकीय तौर पर उसे राहत प्राप्त होती है। जबकि इसी जमीन पर जो शासकीय स्तर पर वन विभाग का अमला उत्पादन करता है उसे शासन द्वारा बड़ी भारी फौज उपलब्ध करायी गई है, जिसका छोटे-से छोटा कर्मचारी भी दस हजार रूपये मासिक वेतन पाता है, किसी भी प्रकार की आपदा पर बड़ी-से-बड़ी नुकसानी होने पर उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती और उसकी कोई व्यक्तिगत क्षति नहीं होती। दोनो इसी जमीन पर उत्पादन कर रहे हैं परन्तु लाभ - हानि के बीच दोनो के कैसे सम्बन्ध हैं यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। क्या ऐसे तंत्र में सुधार की आवश्यकता नहीं है? बिना सुधार के बहुसंख्यक गणों के लिए तंत्र त्रुटिपूर्ण नजर आता है । कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए इतनी महंगी तकनिकी अपनाने के लिए आकर्षक रंगीन पोस्टरों ने प्रेरित कर दिया है कि कृषकों का जीवन बदरंग हो गया है। बेशक उत्पादन बढ़ा है,परंतु लागत जिस हिसाब से खेती में बढ़ी है किसान निरंतर कर्ज में डूबते जा रहा है और सरकारी कानून मुद्दतों के बने हुए हैं। आपदाओं पर किसानों को शासकीय कोष से मिलने वाली मदद पुराने कानूनों के कारण नहीं मिल पाती। राजनैतिक व्यक्तियों की फसल अवश्य इस प्रकार की कानूनी विसंगति से लहलहा जाती है। किसानों की पीड़ा की चीतकार जितनी तेज होती है,राजनैतिक व्यक्ति उस चीतकार को अपनी फसल में इजाफा मानते हैं और ऐंसे ही नपुंसक नेताओं के कारण अन्नदाता किसान मौत को गले लगाने पर मजबूर हो रहा है।
वहंीं यही स्थिति देश की छोटी से लेकर बड़ी-बड़ी व्यवस्थाओं को व्यवस्थित करने में जुटा हुआ,मजदूर जो भिन्न क्षेत्रों में कार्य करता है। जिसकी अपनी कोई पहचान भी नहीं होती कार्य करते हुए यदि वह काल के गाल में समा जाये, तो उसका परिवार उसका अंतिम संस्कार भी कर पायेगा या नहीं इसकी इस तंत्र ने ६२ वर्षो में व्यवस्था नहीं की है जो व्यक्ति पूरे देश के निर्माण में अपना खून पसीना लगा रहा है उसके एवं उसके परिवार को आर्थिक सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। ऐसे तंत्र को गणों के लिए परिपक्व गणतंत्र मान लेना क्या हमारी समझदारी है जहां देश में अंगुलियों पर गिने जाने वाले ऐसे पूंजीपति हैं जिनका नाम दुनिया के बड़े पंूंजीपतियों में शामिल हैं। वहीं असंख्य लोग ऐसे भी हैं जिन्हें दोनो टाईम भरपेट भोजन भी नहीं मिल रहा है ऐसी सफलता पर क्या हम गर्व कर सकते हैं? तंत्र की विसंगति के चलते कुपोषण से निजात नहीं मिल पा रही है। आज भी शिक्षा का प्रकाश अनेक क्षेत्रों में नहीं पहुंचा है। अनेक कठोर कानूनों के बावजूद भी बालश्रम नहीं रूक रहा है। गरीबों के नाम पर बनने वाली योजनाओं में लूट साधारण बात हो गई है। इस प्रकार की विसंगतियों को जब तक विराम नहीं मिलता,गणतंत्र की सफलता नहीं कही जा सकती। गणतंत्र की सफलता के लिए जब तक बहुसंख्यक गण जागृत नहीं होगा मु_ी भर अवसरवादी लोग गणतंत्र के नाम पर अपने हितों की पूर्ति के लिए गणतंत्र को कलंकित करते रहेंगे।