खतरे की तरंगें
मलाई काट रही मोबाईल कंपनियां फैला रहीं अजब प्रदूषण
मानव जीवन से खिलवाड़ करती मोबाईल कंपनियां
अंधा पीसे कुत्ता खाए की तर्ज पर चल रहा है मोबाईल कारोबार
(लिमटी खरे)
पिछले कुछ सालों में मोबाईल फोन उपभोक्ताओं की तादाद में विस्फोटक बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इसी अनुपात में मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह जगह टावर लगा दिए गए हैं। इन टावर को लगाने के लिए जगह के मालिक को हर माह मोटी रकम भी अदा करती हैं मोबाईल कंपनियां। इन टावर्स की स्थापना के लिए बाकायदा मानक तय किए गए हैं। विडम्बना ही कही जाएगी कि इन मानकों के पालन में मोबाईल कंपनियां पूरी तरह से संवेदनहीन ही दिखाई पड़ी हैं।
मोबाईल फोन से होने वाले रेडिएशन की वास्तविकता इसके दुष्प्रभावों को जानने के लिए अब तक हम विदेशों में हुए अध्ययन, खोज आदि पर निर्भर थे, उस संदर्भ में अब हमारे सरकारी सिस्टम ने भी अपनी तरह से आंकलन किया है। मोबाईल फोन से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से थकान, अनिंद्रा, चक्कर आना, रक्तचाप बढ़ना, रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होना, तंत्रिका तंत्र से संबंधित बीमारियां, रिफलेक्शन की कमी, पाचन तंत्र में गड़बड़ी, हृदय संबंधी समस्याएं, एकाग्रता की कमी, नपुंसकता जैसी समस्याएं हो सकती हैं। हाल ही में विभिन्न मंत्रालयों की एक उच्च स्तरीय समिति आईएमसी ने इस तरह की चेतावनी के साथ ही रेडिएशन संबंधी नियम कायदों में देश की जरूरतों के हिसाब से बदलाव की सिफारिश भी की है।
समिति का कहना है कि घनी आबादी वाले इलाकों, स्कूलों, खेल के मैदानों के इर्द गिर्द मोबाईल टावर की स्थापना पर कड़े प्रतिबंध होने चाहिए। गौरतलब होगा कि इलेक्ट्रोमैग्निेटिक रेडएशन के मधुमख्खी, तितली और पक्षियों पर पड़ने वाले प्रभावों के मद्देनजर इस समिति का गठन किया गया था।
कितने आश्चर्य की बात है कि मोबाईल टावर के खतरों को भांपते हुए भी महज चंद सिक्कों की खनक के तले दबकर स्थानीय प्रशासन द्वारा सघन आबादी वाले क्षेत्रों में मोबाईल टावर स्थापित करने की छूट प्रदान कर दी जाती है। सूचना और प्रोद्योगिकी मंत्रालय ने पिछले साल जुलाई में इस मामले में संज्ञान लिया था। उस समय कहा गया था कि सेवा प्रदाता कंपनियों को इस आशय का प्रमाण पत्र देना अनिवार्य किया गया था कि उनके द्वारा संस्थापित टावर विकिरण के निर्धारित मानकों के अनुरूप है। समयावधि बीत जाने के बाद भी मंत्रालय को सुध नहीं आई है कि उनके निर्देशों का मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों ने क्या हश्र किया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्धारित मानकों के अनुसार मोबाईल टावर्स की फ्रिक्वेंसी तीन सौ गीगा हर्ट्ज से ज्यादा किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए। साथ ही साथ इंटरनेशनल कमीशन फॉर नॉन आयोनाइजिंग द्वारा जारी दिशा निर्देशों में साफ कहा गया है कि इन टावर्स से हाने वाले विकिरण की तीव्रता अधिकतम छः सौ माईक्रोवॉट प्रति वर्गमीटर होना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा कव्हरेज और कंजेशन से मुक्त होने की चाह में सेवा प्रदाता कंपनियों द्वारा तीव्रता को साढ़े सात हजार माइक्रोवॉट प्रति वर्गमीटर से अधिक कर रखी है।
अभी कुछ दिनों पहले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में किए गए अध्ययन में मोबाईल रेडियएशन को मानव शरीर की कोशिकाओं के डिफेंस मेकेनिजम के लिए घातक माना गया था। केरल के कोल्लम ताल्लुका में पर्यावरण संगठन केरल पर्यावरण अध्ययनकर्ता एसोसिएशन ने दावा किया है कि गौरैया की संख्या रेल्वे स्टेशन, गोदाम, मानव बस्तियों में कमी हो रही है। अध्ययन में कहा गया है कि गौरैया के अंडे से बच्चे के बाहर आने में दस से चोदह दिए लग जाते हैं, लेकिन मोबाईल टावर के आसपास वाले घोसलों में अंडे तीस दिन में भी नहीं टूट पाए। तेरह साल की औसत आयु वाली गौरैया का चहकना अब कम ही देखने को मिल रहा है।
इतना ही नहीं मेरठ के लाला लाजपत राय आयुर्विज्ञान महाविद्यालय के प्रो.ए.क.ेतिवरी द्वारा भी इस बारे में शोध किया गया। इस शोध में प्रो.तिवारी ने पाया कि इंसानों के साथ ही साथ मधुमख्खी, चिडिया, यहां तक कि चूहों तक पर इसका प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिल रहा है। उन्होने पाया कि मधुमख्खी के छत्ते, चिडिया के अंडे, और स्पर्म काउंट में कमी दर्ज की गई। इसमें पाया गया कि पराग चूसने गई मधुमख्खी लौटते समय रास्ता भटक जाती हैं, जिससे उनके छत्ते, कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाते हैं। इसके अलावा जेएनयू में इन टावर्स के नीचे रखे गए चूहों के स्पर्म में कमी दर्ज की गई।
एक आंकलन के मुताबिक भारत में वर्तमान में डेढ़ दर्जन से अधिक सेवा प्रदाता कंपनियों के साढ़े तीन लाख से ज्यादा मोबाईल टावर अस्तित्व में हैं इनकी तादाद तेजी से बढ़ रही है। माना जा रहा है कि 2014 तक इनकी संख्या पांच लाख पार कर जाएगी। यूं तो विशेषज्ञों का मानना है कि इन टावर्स के इर्द गिर्द रहने वालों को अपने अपने घरों का रेडिएशन टेस्ट करवाकर अपने घरों को रेडिएशन प्रूफ कर लेना चाहिए। विशेषज्ञों का कहना अपनी जगह सही है, किन्तु यह कहां का न्याय है कि मुनाफा कमाएं मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियां और भोगमान भुगते देश की गरीब जनता।
पिछले साल अगस्त माह में ही केंद्रीय संचार मंत्रालय ने मोबाईल फोन टावर्स के लिए रेडीएशन की सीमा तय कर दी थी। उस समय संचार राज्यमंत्री सचिन पायलट के नेतृत्व में उच्च स्तरीय समिति ने फैसला लिया था कि 15 नवंबर तक रेडिएशन उत्सर्जन की सीमा लागू कर दे अन्यथा पांच लाख रूपए तक के जुर्माने का प्रावधान भी किया गया था।
वैसे मोबाईल टावर्स के लिए पर्यावरण विभाग द्वारा स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि स्कूल, अस्पताल, सकरी तंग गलियों के आसपास टावर स्थापित न किए जाएं। इसमें मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनी और जमीन के मालिक की मर्जी से टावर की संस्थापना का काम नहीं किया जा सकता है। इतना ही नहीं टावर के पास लोगों के लिए चेतावनी बोर्ड लगाना भी अत्यावश्यक है।
मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों ने अपने एजेंट के माध्यम से टावर लगाने के खेल को अंजाम दिया जा रहा है। मामला चाहे सरकार की नवरत्न कंपनी भारत संचार निगम का हो या निजी सेवा प्रदाता का। हर मामले में कमोबेश यही आलम है। कंपनियों के एजेंट एक मीटर लेकर आपकी जमीन की जांच करेगा, फिर गांव में पांच हजार रूपए प्रतिमाह से आपके साथ बारगेनिंग आरंभ करेगा। अगर आपको पांच हजार रूपए हर महीने की आवक हो रही हो, वह भी महज चार सौ स्क्वेयर फिट जगह को देने पर तब कौन भला इंकार करेगा। इसके लिए इन एजेंट्स द्वारा एक साल का किराया आपसे अग्रिम ही मांग लिया जाता है। फिर आपके साथ पंद्रह साल का एग्रीमेंट।
बहरहाल आज के समय में मोबाईल दैनिक दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया है, तब सरकार रेडिएशन के प्रति चेती है। वैसे भी देश में मंहगाई चरम पर है। सरकार को चाहिए कि सेवा प्रदाता कंपनियों पर उनके पिछले ग्राहकों की संख्या के दावों के हिसाब से ही जुर्माना आहूत करे। इस जुर्माने से ही मोबाईल टावर्स के आसपास की रिहाईश को रेडीएशन पू्रफ बनाया जाए। अभी भी समय है, अगर समय रहते सरकार नहीं चेती तो आने वाले समय में देश में आने वाली पीढ़ी ठीक उसी तरह नजर आएगी जिस तरह नागासाकी और हिरोशिमा में परमाणुबम गिरने के बाद पीढी नजर आ रही थी।