कब होगा सांस्कृतिक आतंकवाद का खात्मा!
(लिमटी खरे)
कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम जबर्दस्त विवादों में है। आखिर क्यों हो रहा है विवाद! जब किसी चलचित्र का निर्माण किया जाता है तो साफ तौर पर इस बात को प्रदर्शित किया जाता है कि उसमें सारे पात्र काल्पनिक हैं, जिनका वास्तविक जीवन से लेना देना नहीं है। चलचित्र महज एक कहानी का हिस्सा है। हो सकता है वह कहानी शिक्षाप्रद हो या समाज में फैली कुरीतियों के विध्वंस में सहायक हो। वैसे अस्सी के दशक के उपरांत शिक्षाप्रद या समाज को दिशा और दशा देने वाली कहानियों पर आधारित फिल्में उंगलियों में ही गिनी जा सकती है। अगर विश्वरूपम में कोई आपत्तिजनक बात है तो उसकी जांच होना चाहिए, विडम्बना यही है कि भारत की लचर व्यवस्था में या तो जांच मिनटों में हो जाती है या फिर जांच के प्रतिवेदन आने तक जवान आदमी के बाल सफेद हो जाते हैं। सब कुछ सियासी लोगों की व्यक्तिगत रूचि पर ही निर्भर करता है।
भारत गणराज्य में कुछ भी संभव है। कलाकारों, पत्रकारों, साहित्यकारों की अभिव्यक्ति का गला जब तब बेरहमी से घोंट दिया जाता है। कभी किसी की सामाजिक मान्यताएं आहत होती हैं तो कभी धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात होता है। यह सब अस्सी के दशक के उपरांत ही तेजी से होना आरंभ हुआ है। भारत गणराज्य को विश्व में सबसे बड़ा और अच्छे लोकतंत्र का उदहारण माना जाता है, फिर भी इस भारत गणराज्य में अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रश्नचिन्ह ही लगते आए हैं।
कितने आश्चर्य की बात है कि कमल हासन की विश्वरूपम गणतंत्र दिवस के एक दिन पूर्व 25 जनवरी को कनाडा और दुनिया के चौधरी अमरीका जैसे देशों में रिलीज होकर अच्छा प्रतिसाद पा रही है। इन देशों में किसी की भावनाएं आहत नहीं हो रही हैं। हो रही हैं तो भारत गणराज्य में। दरअसल, अब तो विरोध करना भी पैसा कमाने का साधन बन चुका है। सियासी लाभ हानी के समीकरणों के बीच विरोध प्रदर्शन कर लोग अपना उल्लू सीधा करने से नहीं चूक रहे हैं।
लगभग 95 करोड़ रूपए की बड़े बजट की यह फिल्म 25 जनवरी को ही कर्नाटक में रिलीज हुई। फर्स्ट डे फर्स्ट शो के बाद ही इस फिल्म पर बैन लगा दिया गया। कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा फिल्म के चंद दृश्यों को आपत्तिजनक बताया और फिल्म को तमिलनाड़ू में बैन कर दिया गया। यक्ष प्रश्न तो यह है कि पहले ही दिन पहले शो में फिल्म को पूरा देखने के साथ ही एसा क्या घटा कि उसका दूसरा शो ही नहीं होने दिया गया।
वस्तुतः फिल्म देखकर उसे समझकर कम से कम एक दो घंटे उस पर मनन करने, बहस करने के बाद ही कोई बैन लगाने की मांग करता! किन्तु यहां तो मानो माईंड पहले से ही सैट था। बनी बनाई मानसिकता के आधार पर कुछ लोग मानो इस फिल्म के रिलीज होने का ही इंतजार कर रहे थे। फिल्म का पहला शो दिखाया गया और इसे प्रतिबंधित करवा दिया गया। यह सब कुछ षणयंत्र का ही हिस्सा माना जा सकता है।
जब फिल्म को सैंसर बोर्ड ने पास कर दिया है तब इस पर आपत्ति का सवाल अपने आप में ही अनूठा माना जा सकता है। कमल हासन जैसे मंझे और वरिष्ठ कलाकार इस बात को भली भांति जानते हैं कि क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं? तालिबान के बारे में जो दिखाया गया है वह शायद फिल्म की कहानी की जरूरत हो सकती है।
इस फिल्म में जय ललिता के हठ का मामला अधिक दिख रहा है। कहा जा रहा है कि फिल्म के प्रसारण के सैटेलाईट अधिकार जया टीवी को देने की बात कही गई थी, पर जया टीवी द्वारा डीटीएच पर फिल्म दिखाने के अधिकार कोडियों में खरीदे जा रहे थे। बाद में कमल हासन ने यह समझौता स्टार विजय के साथ कर दिया।
कहा जा रहा है कि मुस्लिम संगठनों को लग रहा है कि इस फिल्म में उनके समुदाय की छवि को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है। इसी आधार पर इस फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग जोर पकड़ रही है। कहा जा रहा है कि विश्वरूपम एक शख्स विश्वनाथ (कमल हासन) की कहानी है। वह संदिग्ध आदमी है। वह अतीत में आतंकवादी उमर (राहुल बोस) का करीबी रह चुका है। कहानी में मोड़ आता है। आतंकवादी एक सीजियम बम में विस्फोट करना चाहते हैं और अधिकारी इसे डिफ्यूज करना। यह बम न्यू यॉर्क को तबाह कर सकता है। कर्नाटक में जिन लोगों ने यह फिल्म देखी, उनकी प्रतिक्रिया से लगता है कि आतंकवादी हैदराबाद के पुराने शहर को छिपने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस इलाके में मुसलमान बड़ी संख्या में रहते हैं।
देखा जाए तो कमल हासन और विवादों का चोली दामन का साथ रहा है। 2000 में उनकी फिल्म हे राम, 2008 में दशावतार भी विवादित हुई थी। कमल हासन वैसे तो एक मंझे और सुलझे हुए कलाकार हैं पर दक्षिण भारत में उनका जलजला वाकई में देखने लायक है। हाल ही में उन्होंने एक धोती वाले तमिल को देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखे जाने की वकालत की थी। संभवतः उनका इशारा पलनिअप्पम चिदम्बरम की ओर था एवं यही बात उनके लिए घातक साबित हो गई। इसके साथ ही साथ करूणानिधि के साथ मंच साझा करना भी कमल हासन के लिए खतरे की घंटी ही साबित हुआ है।
रूपहले पर्दे पर अनेक फिल्में विवादों में रही हैं। वर्ष 2011 में सिंघम फिल्म के डायलॉग्स की वजह से विवाद खड़ा हुआ, कर्नाटक के कई इलाकों में ये फिल्म रिलीज नहीं हो पाई। इसी साल आरक्षण फिल्म को उत्तर प्रदेश और पंजाब में प्रतिबंधित किया गया। इसके पहले 2010, फिल्म माई नेम इज खान, शिवसेना ने इस फिल्म पर महाराष्ट्र में जमकर हंगामा किया, थियेटरों में तोड़ फोड़ की गई थी।
विवादों के नाम पर वर्ष 2009 में आई फिल्म बिल्लू, सैलून और पार्लर एसोसिएशन के विरोध के बाद फिल्म के नाम से बार्बर शब्द हटाया गया। जोधा-अकबर जो कि साल 2008 में आई थी। इस फिल्म का राजस्थान की कर्णी सेना ने विरोध किया और विश्व हिंदू संगठन ने भी बवाल मचाया था।
इसके पहले 2007 में आई फिल्म परजानिया, गुजरात दंगों पर बनी फिल्म के गुजरात में प्रदर्शन पर रोक लगी। वर्ष 2006 में फिल्म फना, गुजरात में फिल्म पर प्रतिबंध लगाया गया। 2005 में आई फिल्म वाटर, विधवाओं की जिंदगी पर बन रही फिल्म की वाराणसी में हो रही शूटिंग को बीच में ही रोकना पड़ा। इतना ही नहीं 2005 की फिल्म जो बोले सो निहाल को पंजाब में सिख संगठनों का विरोध झेलना पड़ा था उस वक्त आरोप था कि सिख्ख समुदाय की धार्मिक भावनाएं आहत की जा रही हैं।
इस तरह अपने अपने स्वाभिमान, सम्मान, धर्म, संप्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि को लेकर रूपहला पर्दा सदा से ही लोगों के निशाने पर रहा है। अब यक्ष प्रश्न यह आन खड़ा है कि आखिर आजाद भारत गणराज्य में कब तक सांस्कृतिक आतंकवाद को प्रश्रय दिया जाएगा। आखिर कब देश का आम आदमी यह कह सकेगा कि वह आजाद है कब मिलेगी आम आदमी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता! (साई फीचर्स)