. . . मतलब तब तक जहर पिए रियाया
शीतल पेय मामले में कोर्ट सख्त तो सरकार नरम!
(लिमटी खरे)
शीतल पेय मामले में कोर्ट सख्त तो सरकार नरम!
(लिमटी खरे)
देश में कीटनाशक की अत्याधिक मात्रा से युक्त शीतल पेयजल की बिक्री के मामले में देश के सबसे बडे न्यायालय की ताजा टिप्पणी से साफ हो जाता है कि अपने स्वार्थों की बलिवेदी पर सरकार और देश के जनसेवकों द्वारा आवाम के स्वास्थ्य को किस कदर चढाया जा रहा है। देश में शीतल पेय के नाम पर कीटनाशक जैसा धीमा जहर पिलाने वाली बडी व्यापारिक कंपनियों की सरेराह की जाने वाली धोखाधडी और गडबडी होने पर उनके खिलाफ कार्यवाही करने के मसले पर सरकार का रवैया कितना टालमटोल भरा होता है।
गौरतलब है कि तकरीबन छः साल पूर्व एक याचिका के माध्यम से शीतल पेय को बाजार में आने से पूर्व उसकी गुणवत्ता जांच और कडे नियम कायदों को तय करने की मांग की गई थी। इसके पहले विज्ञान और पर्यावारण केंद्र (सीएसई) ने अपने प्रतिवेदन में इस बात का खुलासा किया था, कि हिन्दुस्तान में बिकने वाले शीतल पेयजल के कुछ ब्रांड में कीटनाशक की मात्रा निर्धारित से काफी अधिक है। संसद की स्थाई समिति भी 2004 में इस बात के लिए सरकार को ताकीद कर चुकी है कि देश में बिकने वाले शीतल पेयजल में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय निर्धारित मानकों से 42 फीसदी अधिक है।
इतना ही नहीं अगस्त 2006 में सीएसई ने पुनः इसी बात को रेखांकित किया था कि शीतल पेय में कीटनाशकों की मात्रा निर्धारित से कई गुना अधिक है। देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने भी इस बात को स्वीकार किया है, बावजूद इसके सत्ता के मद में चूर सरकार में बैठे नुमाईंदों ने ठंडे पेय में कीटनाशकों की मात्रा, उसकी गुणवत्ता जांच आदि जैसे संवेदनशील मसले पर नियम कायदे तय करना जरूरी नहीं समझा है। सरकार के हाथ इस मामले में परोक्ष तौर पर बंधे होने से साफ जाहिर हो जाता है कि धीमा जहर पिलाने वाली इन व्यापारिक कंपनियों ने सरकार को अपना जरखरीद गुलाम बना रखा है।
जब जब अदालत द्वारा कडा रूख अख्तिायार कर सरकार को फटकारा जाता है, सरकार द्वारा ‘‘बस कुछ दिन और‘‘ का ब्रम्हास्त्र चलाकर अदालत को भी गुमराह कर दिया जाता है। हाल ही में भी वही हुआ। जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शीतल पेयों में मौजूद तत्वों का खुलासा करने के लिए अधिसूचना जारी करने में देरी को लेकर केंद्र को आडे हाथों लेते हुए उसकी खिंचाई की तो सरकार रक्षात्मक मुद्रा में आती दिखाई दी। खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण इस मामले में लल्लो चप्पो करता दिखाई दिया।
प्राधिकरण ने दलील दी कि नए नियम जारी करने में कम से कम तीन महीने का वक्त और लगेगा। पिछले अनेक वर्षों में सरकार के ढुलमुल रवैए को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यह अवधि भी सरकार को कम पडे। गौरतलब है कि मार्च 2007 में एन.के.गांगुली की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति ने जब मानक निर्धारित करने की सिफारिश की थी, तब सरकार ने अप्रेल 2009 तक इसे लागू करने का लक्ष्य रखा था। इसके ठीक एक साल एक माह बाद भी सरकार तीन माह का और समय चाह रही है।
सीएसई ने समूचे हिन्दुस्तान में जाकर विभिन्न स्थानों से शीतल पेय के निर्माताओं के उत्पाद ‘‘कोका कोला‘‘ और ‘‘पेप्सी‘‘ घराने के ग्यारह ब्रांड के सत्तावन नमूने एकत्र किए थे। इनकी जांच करने पर सीएसई ने पाया कि इनमें मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खतरनाक तत्वों की मात्रा भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा निर्धारित की गई तय सीमा से लगभग पच्चीस गुना अधिक है। इस तरह के हानिकारक तत्व मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने के साथ ही साथ अनेग गंभीर संक्रामक बीमारियों के जनक भी हो सकते हैं। इस मामले में गठित संयुक्त संसदीय समिति ने भी सीएसई के सुर में सुर मिलाते हुए मानक निर्धारित करने पर बल दिया था।
शीतल पेय निर्माता कंपनियों की जुर्रत तो देखिए कि आज तक इन कंपनियों ने अपने पेय को बनाने में उपयोग में आने वाली वस्तुओं और रसायन को न केवल उजाकर किया वरन् धडल्ले से सरकारी कार्यक्रमों में अपने शीतल पेय को बेच भी रही हैं। इन व्यापारिक कंपनियों के ‘‘भारी बोझ‘‘ से दबी देश की सरकार और जनसेवकों के मुंह भी इस मसले पर सिले हुए ही हैं। यही कारण है कि शीतल पेय निर्माता कंपनियां मनमानी पर उतारूं हैं और सरकार इनके खिलाफ सख्ती का मानस तक नहीं बना पा रही है। सरकार के घुटने टेकने का अनुपम उदहारण था राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार का कार्यकाल। उस समय राजग सरकार ने इन कंपनियों को ‘‘क्लीन चिट‘‘ तक दे दी गई थी, यह किस प्रलोभन के तहत दी गई थी, इस बात को तो राजग सरकार ही बेहतर जानती होगी पर रियाया के साथ राजग ने यह सबसे बडा अन्याय ही किया था कि धीमे जहर निर्माता कंपनी को निर्दोष होने का प्रमाण पत्र जारी कर दिया था।
‘‘सैंया भये कोतवाल, तो डर काहे का‘‘, कहावत को चरितार्थ करते हुए सरकार ने जांच का सरेआम माखौड उडाया है। शीतल पेय निर्माण में कीटनाशक या मानव स्वास्थ्य के लिए हानीकारक तथ्य मोजूद हैं अथवा नहंी इस बारे में सरकार क्या चाहती है और कितनी ईमानदारी से चाहती है उसकी मंशा और भी साफ तब हो जाती है जब गुणवत्ता तय करने के लिए गठित विशेषज्ञ समिति में कोला और अन्य कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों को शामिल कर लिया जाता है। मतलब साफ है कि आरोपी को ही अपने बारे में फैसला देने का अधिकार दे दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय इस पर बुरी तरह खफा नजर आया। सरकार को फटकारते हुए कोर्ट ने कहा कि गुणवत्ता की जांच के लिए वैज्ञानिक समिति के पेनल में कोला कंपनियों के अधिकारियों को क्यों रखा गया है। साथ ही अधिसूचना जारी करने में लेट लतीफी करने वाले ढुलमुल सरकारी रवैए पर इस बार माननीय न्यायालय ने सख्त रवैया अपनाकर सरकार से प्रश्न करते हुए कहा कि ‘‘क्या तब तक लोगों को जहर ही पीना होगा!‘‘ सरकार लोगों को जहर पिलाने पर आमदा है और सत्ता तथा विपक्ष में बैठे विशाल जनादेश प्राप्त जनता के नुमाईंदे चुपचाप सब कुछ देख सुन रहे हैं, अब देश की जनता को ईश्वर पर ही भरोसा रखना चाहिए कि वही अवतार लेगा और जनता के दुख दर्द दूर करेगा, क्योंकि मोटी चमडी वाले जनसेवक तो अपने निहित स्वार्थों के आगे कुछ भी सुनने समझने को तैयार नहीं दिखते।