शिक्षा के व्यवसायीकरण से सिमट गए मूल्य
(लिमटी खरे)
भारत गणराज्य में केंद्र सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय देश में शिक्षा की नीति रीति को निर्धारित करने के लिए पाबंद किया गया था। अस्सी के दशक के उपरांत सियासी दलों ने अपने निहित स्वार्थों के लिए शिक्षा व्यवस्था को गिरवी रख दिया है। अनुशासन की मजबूत नींव पर खड़ा नालंदा विश्वविद्यालय आठ शताब्दियों तक लोगों को शिक्षित करता रहा हैै। एक समय था जब गुरूकुल में जाकर बच्चे अपने भविष्य को संवारते थे, आज जमाना पूरी तरह बदल चुका है। आज गुरूकुलों का स्थान मोटी कमाई वाले विद्यालयों ने ले लिया है, जहां शिक्षा के नाम पर डिग्रीयां बांटी जाकर अभिभावकों की जेबें तराशी जा रही हैं। हुकूमत को यह दिखाई नहीं दे रहा है कि शिक्षा इस कदर मंहगी हो चुकी है कि अब बैंक द्वारा भी ‘एजूकेशन लोन‘ दिया जाने लगा है। क्या इक्कीसवीं सदी के भारत में शिक्षा के व्यवसायीकरण का सपना देखा था देश को गोरे ब्रितानियों के हाथों से मुक्त कराने वाले आजादी के दीवानों ने!
‘गुरू गोबिंद दोउ खड़े, काके लागू पाय!
बलिहारी गुरू आपकी, गोविंद दियो बताए!!‘
यह दोहा आज के समय में बहुत ही प्रासंगिक है। आदि अनादि काल से बच्चे की पहली शिक्षक उसकी मां ही होती है। मां अगर पिता को ‘पापा‘ संबोधन करने कहेगी बच्चा उसे पापा कहेगा, वह अगर ‘पिताजी‘ कहने कहेगी, बच्चा उसका अनुसरण करेगा, वह अगर ‘बाऊजी‘ कहने को कहेगी, बच्चा वही कहेगा। बच्चे को क्या पता कि पिता को किस संबोधन से बुलाना है, पर बच्चा इंसान का हो या गाय का, जब भी बोलता है तो मां को मां ही कहता है। बछड़ा जब रंभाता है तो उसके मुंह से मां की सुमधुर आवाज ही प्रस्फुटित होती है।
आदि अनादि काल से शिक्षा का तात्पर्य आदर, सत्कार, न्याय, सदगुणों का विकास, चिंतन, सहिष्णुता, सहानभूति, सेवा, सद्भाव, चिंतन, सहयर्च, संस्कार आदि का ज्ञान माना जाता रहा है। कालांतर में शिक्षा के मायने ही बदल गए। याद पड़ता है जब हम खुद प्राथमिक या माध्यमिक स्तर में अध्ययनरत थे, तब किसी शिक्षक के सिनेमा थिएटर में दिख जाने मात्र से घिघ्घी बंध जाती थी। सिनेमा में मनोरंजन तो एक तरफ मानस पटल पर तरह तरह के प्रश्न कौंधा करते थे कि अगर मास्साब ने पूछ लिया कि सिनेमा क्यों गए थे, तो क्या जवाब देंगे। आज हालात उल्टे हैं। आज तो मदिरालय में शिक्षक और उनके छात्र अगल बगल की टेबिलों पर बैठकर जाम छलकाते और सिगरेट के छल्ले बनाते नजर आते हैं। नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन के लिए हमारी शिक्षा प्रणाली ही पूरी तरह दोषी करार मानी जाएगी।
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते इस बात को कि उमरदराज लोगों को बताना पड़े कि शिक्षा का वास्तविक अर्थ क्या है? आजाद भारत में भी शिक्षा का तात्पर्य डिग्री लेने के साथ ही साथ व्यवहारगत, परिवारगत और संस्कारगत मूल्यों का विकास ही शिक्षा का पर्याय समझा जाता था। देश के अनेक विश्वविद्यालय इस बात के पोषक रहे हैं इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। आज के युग में शिक्षा की ‘दुकानें‘ डिग्री तो बांट रही हैं किन्तु नौनिहालों को व्यवहारिक प्रशिक्षण से कोसों दूर रखा जा रहा है।
ऋषि मुनियों के आश्रम में शिक्षा के लिए गए राजकुमार को भी खुद ही खाना पकाने की लकड़ी बीनने जाना होता था। खुद ही आंगन लीपना होता था। चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए राजकुमार को भी जीवन के हर काम से खुद को वाकिफ करवाना होता था। आज शिक्षा का स्वरूप है महज डिग्री लो और नौकरी करो। मीडिया का ही उदहारण लिया जाए, तो देश में ‘पत्रकार‘ बनाने की न जाने कितनी फेक्ट्रियां (माॅस कम्यूनिकेशन कालेज) हैं, जिनमें पढ़कर निकलने वाले नौजवान आज इलेक्ट्रानिक मीडिया की चकाचैंध में अपने आप को झौंके जा रहे हैं। इनमें से अस्सी फीसदी को यह नहीं पता होगा कि किसी राज्य का सबसे बड़ा सरकारी नुमाईंदा और सबसे छोटा सरकारी नुमाईंदा कौन होता है? इन्हें इस बात का भी इल्म नहीं होगा कि पुलिस की वर्दी में कितने सितारे वाला किस स्तर का अधिकारी है?
टीवी के आने से पूर्व छात्र अध्ययन में अपना समय व्यतीत करते थे। अस्सी के दशक के पहले बच्चे को अलह सुब्बह उठाने के लिए मां बच्चे से कहती देखो चिडि़या आ गई, देखो तोता आया, कोयल बोली, आज बच्चे को नींद से जगाने के लिए टीवी आॅन कर मां कहती है देखो डोरेमाॅल आ रहा है। बच्चा आंख मीचते हुए उठ बैठता है। यक्ष प्रश्न तो यह है कि बच्चों का नैसर्गिक विकास इन परिस्थितियों में कैसे हो सकता है?
प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी के शासनकाल से शिक्षा को लेकर प्रयोग करने का सिलसिला आरंभ हुआ। शिक्षा को लेकर भारत गणराज्य में जितने प्रयोग हुए उतने शायद ही किसी अन्य देश में हुए हों। एक जमाना था जब हम खुद भी प्राथमिक कक्षाओं में ज्ञानार्जन किया करते थे, हमारे जैसे अनेक विद्यार्थी इस बात के गवाह होंगे कि उस वक्त निर्धारित पाठ्यक्रम के स्थान पर व्यवहारिक शिक्षा को ज्यादा तवज्जो दी जाती थी। उस काल की शालाओं को हम ‘आधुनिक गुरूकुल‘ की संज्ञा भी दे सकते हैं।
जमाना बदलता रहा और शिक्षा के तौर तरीकों में भी बदलाव होता रहा। बदलाव सतत प्रक्रिया है, जिसे रोका नहीं जा सकता है। आजाद भारत में सत्तर के दशक तक बदलाव की बयार बेहद ही मंदी थी। इसके उपरांत बदलाव की आंधी सी आ गई। अस्सी के दशक तक महाविद्यालयों में पढ़ाई के लिए विद्यार्थी पूरे साल मेहनत किया करते थे, इसके उपरांत ‘वन डे सीरिज‘, ‘ट्वेंटी क्वेश्चन्स‘, ‘गागर में सागर‘ जैसी बीस से तीस पेज की किताबों ने विद्यार्थियों को आकर्षित किया। इसके बाद विद्यार्थियों को लगा कि साल भर पढ़कर परीक्षा देना बेवकूफी ही है।
जब जब सरकारें बदलीं सियासी दलों का पहला निशाना शिक्षा व्यवस्था ही बनी, जिस पर हमला कर ध्वस्त करने का प्रयास किया गया। भूत, वर्तमान और भविष्य को देखने के बजाए देश के नीति निर्धारकों ने अपने निहित स्वार्थों को तवज्जो देकर शिक्षा व्यवस्था का कचूमर ही निकाल दिया। रही सही कसर शाला प्रबंधनों द्वारा निकाल दी जाती है। निजी तौर पर संचालित होने वाले अनेक शैक्षणिक संस्थानों में प्रबंधन के तुगलकी फरमान बच्चों और उनके पालकों की जान निकालने के लिए पर्याप्त माने जा सकते हैं। सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘राग दरबारी‘ में इस बात को चिन्हित करते हुए कहा गया है कि ‘हमारी शिक्षा नीति एक एसी कुतिया है, जिसे हर कोई लतियाता चलता है।‘
केंद्र और राज्य सरकारों की कथित अनदेखी के कारण आज देश में शिक्षा इतनी मंहगी हो चुकी है कि आम आदमी की पहुंच से लगभग बाहर ही है शिक्षा का अधिकार। केंद्र सरकार ने भले ही शिक्षा का अधिकार कानून बना दिया हो पर इसके अमली जामा पहनने में संशय ही लगता है। इसमें कुल क्षमता का पच्चीस फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवार के बच्चों के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है। कल्पना कीजिए कि टाटा या बिडला की संतानें जिस शाला में पढ़ रही हों उनके बाजू में उनके घर काम करने वाली बाई का बच्चा बैठे तो क्या यह इन अमीरजादों को गवारा होगा?
शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू करते समय कांग्रेसनीत केंद्र सरकार ने वादे बहुत ही बड़े किए थे किन्तु आज इसकी सरेराह धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। किसी भी सियासी दल या सूबे को इस बात की चिंता नहीं है कि वह कानून का उल्लंघन कर रहा है। छः से 14 साल तक के बच्चों को अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा को देश भर में लागू किए जाने के एक साल बाद भी यह समूचे देश में लागू नहीं हो सका है। आज यह देश के महज 18 राज्य जिनमेें आंध्रप्रदेश, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, बिहार, चंडीगढ़, अरूणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, दादर नगर हवेली, दमन द्वीव, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, लक्ष्यद्वीप, मध्य प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, नागालैण्ड, उड़ीसा, राजस्थान, सिक्किम शामिल हैं, में अधिसूचित हो चुका। इसके अलावा केंद्र की नाक के नीचे दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, गुजरात, पश्चिम बंगाल जैसे बड़े सूबों में यह लागू नहीं हो सका है।
आंकड़ों पर अगर नजर दौड़ाई जाए तो देश में आज भी 49 फीसदी स्कूलों में खेल का मैदान तक नहीं है। कुल आबादी में से महज 48.12 फीसदी बालिकाएं ही उच्च प्राथमिक स्तर तक पहुंच पाती हैं। कच्ची मट्टी को गढ़ने वाले 21 फीसदी शिक्षकों के पास पेशेवर डिग्री ही नहीं है। 21 फीसदी शालाओं में महज एक ही शिक्षक हैं। 41 फीसदी शालाओं में बालिकाओं के लिए शौचालय की व्यवस्था तक नहीं है। देश के 324 जिलों में निर्धारित मानकों के अनुसार शिक्षक नहीं हैं। आरटीई के लागू होने के बाद भी देश में 81 लाख पचास हजार 619 बच्चों ने शाला का मुंह नहीं देखा है।
सरकारी शालाओं का स्तर पूरी तरह गिर जाने से शिक्षा की दुकानों के लिए उपजाऊ माहौल तैयार हो गया है। राजनैतिक संरक्षण से देश भर में शिक्षा की दुकानें सज चुकी हैं, जहां प्रवेश के समय मोटा डोनेशन लिया जाता है। केंद्र सरकार और केंद्रीय शिक्षा बोर्ड के केपीटेशन फीस न लेने के सख्त आदेश की धज्जियां जहां तहां उड़ती दिख ही जाती हैं। छोटे छोटे शहरों में भी शालाओं द्वारा दस से पचास हजार रूपए तक का डोनेशन लिया जाता है। मजे की बात तो यह है कि शाला में उत्तीर्ण होने वाले छात्र को दोबारा उसी शाला में फ्रेश एडमीशन लेना पड़ता है, जिससे सारी फीस का दुबारा भोगमान उसके पालक को ही भोगना पड़ता है। मनमानी पर उतारू शाला प्रबंधनों द्वारा बोर्ड की कक्षाओं को छोड़कर शेष कक्षाओं में मनमाना सिलेबस और लेखक की किताबें दुकान विशेष से ही खरीदने पर विद्यार्थियों को बाध्य किया जाता है। इतना ही नहीं गणवेश में नित परिवर्तन कर दुकान विशेष से गणवेश खरीदवाकर शाला प्रबंधन मालामाल हुए जा रहे हैं।
आज के समय में शिक्षा को महज डिग्री लेकर नौकरी करने और शादी करने का साधन बना लिया गया है। आज के समय में अगर कोई किसी को भी गलत रास्ते पर चलकर नीचता, बेईमानी, धूर्तता के साथ अमीर बनकर सफल होते देखेगा तो क्या वह नीतिगत सिद्धांतों की शूल भरी राह पर चलने का साहस जुटा पाएगा? उत्तर निश्चित तौर पर नकारात्मक ही होगा। जब संस्कारों से युक्त सिनेमा, टीवी सीरियल्स का स्थान फूहड़ता ने ले लिया हो तो हमारी युवा पीढ़ी गांधी के मार्ग का अनुसरण करे इसमें संशय ही प्रतीत होता है।
शिक्षकों को अध्यापन कार्य से इतर ‘बेगार‘ के कामों में लगाने से उसका ध्यान अपने मूल काम से भटकना स्वाभाविक ही है। यह स्थापित सत्य है कि शिक्षक देश का भविष्य गढ़ते हैं और कच्ची माटी को सुंदर स्वरूप देने वाले आचार्यों को अगर जनगणना, मतदाता सूची, पल्स पोलियो जैसे कामों में लगा दिया जाए तो उनका ध्यान अध्यापन में भला क्यों लगेगा। मजे की बात तो यह है कि सरकार के पास जनगणना, चुनाव आयोग और स्वास्थ्य विभाग में कर्मचारियों की खासी फौज होने के बाद भी शिक्षकों से बेगार करवाया जाता है। यही कारण है कि शिक्षकों द्वारा अपने मूल काम को तवज्जो देना बंद कर दिया है। अध्यापन में महारथ रखने वाले शिक्षकों द्वारा सरकारी चिकित्सकों के मानिंद अपने कर्तव्यों को निजी स्तर पर घर या कोचिंग क्लासिस में इसका भरपूर उपयोग कर धर्नाजन किया जा रहा है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज के युग में शिक्षा को व्यवसाय बना लिया गया है, जिसकी रोकथाम के उपाय करने ही होंगे, किन्तु विडम्बना यह है कि सरकार इस दिशा में संजीदा होती दिखाई नहीं पड़ती।