ये है दिल्ली मेरी जान
(लिमटी खरे)
मंहगाई से दम तोडा ‘‘गैस कांड‘‘ ने 26 साल घिसटने के उपरांत भोपाल गैस कांड का जो फैसला आया उसने 2 और 3 दिसंबर 1984 को भोपाल में रिसी गैस से ज्यादा दम घोंटा है पीडितों और मृतकों के परिवारों का। जैसे तैसे इस मामले की आग को हवा मिली और यह पूरी तरह सुलगने लगा। मीडिया, स्वयंसेवी संगठनों ने इस मामले में सरकार विशेषकर तत्कालीन प्रधानमंत्री और वर्तमान कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के पति और कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी के पिता स्व.राजीव गांधी को भी कटघरे में खडा कर दिया। ममला बिगडते देख कांग्रेस ने अपने चिरपरिचित अंदाज में लोगों का ध्यान इस ओर से हटाने की गरज से पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य बढा दिए। कल तक मीडिया की सुर्खी बन भोपाल गैस कांड को शुक्रवार को मीडिया की प्रमख खबरों में स्थान नहीं मिल सका। यह तो होना ही था। पेट्रोल पोने चार रूपए, डीजल 2 रूपए तो रसोई गैस को 35 रूपए बढा दिया गया है। इतिहास गवाह है कि जब कभी भी रियाया का ध्यान किसी मुद्दे से हटाना होता है, सरकार द्वारा उसी वक्त मंहगाई को बढा दिया जाता है। मंहगाई एक एसा मुद्दा है, जिसके बढने से आम आदमी का ध्यान बंटना स्वाभाविक ही है। आने वाले दिनों में भोपाल गैस कांड का मसला मंहगाई की मार के आगे दम तोड दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अलबत्ता इसमें कांग्रेस के चाणक्य माने जाने वाले कुंवर अर्जुन ंिसह और तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी की छवि अवश्य ही धवल बनी रहेगी।
क्या इनके लिए मंहगाई मायने नहीं रखती!
सरकार चाहे कंेद्र की हो किसी सूबे की, हर माह किसी न किसी बहाने से तानाशाह शासकों द्वारा कोई न कोई कर को बढाकर या नया कर लादकर जनता की कमर बोझ से दबा दी जाती है। हाल ही में पेट्रोल डीजल और रसोई गैस की कीमतों को बढाकर सरकार ने एक बार फिर जनता जनार्दन के धैर्य की परीक्षा लेना चाहा है। केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से कहा है कि वे वेट कम करें ताकि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें कम हो सकें। सूबों की सरकारों ने अपने विधायकों के वेतन भत्ते इस कदर बढा दिए है कि विधायक भी सरकारों का विरोध करने की स्थिति में नहीं है। यही आलम केंद्र सरकार का है। आना फ्री, जाना फ्री, खाना फ्री, रहना फ्री, फोन फ्री, हवाई जहाज फ्री, इलाज फ्री, सब कुछ फ्री फिर अकूत वेतन और भत्तों की आवश्यक्ता समझ से परे ही है। इतना ही नहीं हाल ही में सरकार ने सांसदों के वेतन को दुगना करने का मन भी बना लिया है। सांसदों को संसद के सत्र के दौरान एक हजार के बजाए दो हजार रूपए रोज भत्ता, संसदीय क्षेत्र भत्ता बीस से बढाकर चालीस हजार, कार्यालय खर्च बीस से बढाकर चोंतीस, हजार करने का निर्णय लिया गया है। वर्तमान में प्रथम श्रेणी वातानुकूलित श्रेणी में निशुल्क यात्रा आदि की सुविधाएं मिल रही हैं। सवाल तो यह उठ रहा है कि जनसेवकों पर करोडों अरबों फूंककर जनता की जेब पर टेक्स बढाकर डाका डालना क्या शासकों को तानाशाह की श्रेणी में लाकर खडा नहीं कर रहा है।
यह है कांग्रेस का हाल सखे!
‘‘आदर्श, नैतिकता, इंसानियत, सही राह पर चलना, किसी को तकलीफ न देना, आदि‘‘, हैं सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस की रीतियां नीतियां। क्या वास्तव में कांग्रेस इन पर चल रही है, जवाब नकारात्मक ही आने वाला है। अस्सी के दशक के आरंभ से ही कांग्रेस ने नैतिकता को अपने तन से दूर कर दिया था। इसके बाद भ्रष्टाचार, अनाचार, हिटलरशाही आदि इसके प्रमुख गुणधर्म बनकर रह गए। झारखण्ड में कांग्रेस ने एक नई नजीर पेश की है, जिससे देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस को खुद को शर्मसार महसूस करना चाहिए। दरअसल देश क पहले महामहिम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को झारखण्ड में दुमका में एक जमीन शिक्षण संस्था के निर्माण के लिए सत्तर साल पहले दान की गई थी। आज उस जमीन की कीमत पंद्रह करोड रूपए के लगभग है। चूंकि कांग्रेस द्वारा इतिहास पुरूषों को अपनी निजी संपत्ति माना जाता है इसी के चलते उसने राजेंद्र प्रसाद को दान में मिली जमीन को भी अपना मानकर इस पर कार्यालय बनाने के लिए शिलान्यास पत्थर तक लगवा दिया। मान गए सोनिया जी अपको, आपके मार्गदर्शन और निर्देशन में कांग्रेस इस तरह के कामों में तो बुलंदियों को छू ही लेगी।
युवराज अब ‘‘मिशन बिहार‘‘ पर
कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने अब बिहार में होने वाले विधानसभा चुनावों के रण हेतु अपने तरकश में तीर भरने आरंभ कर दिए हैं। कभी भी रणभेरी बज सकती है और कांग्रेस, भाजपा, जययू, राजद सहित सारे सियासी दल इसमें कूद पडेंगे। राहुल गांधी के विश्वस्त चालीस लोग बिहार के अंदरूनी इलाकों में जाकर सर्वे का काम आरंभ कर चुके हैं। चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस के प्रबंधकों को डेमेज कंट्रोल में लगा दिया गया है। राहुल की चार माह पूर्व की बिहार यात्रा से कांग्रेस में कुछ उर्जा का संचार हुआ था, और सूबे में कांग्रेस के पक्ष में बयार बहना आरंभ हुआ था, इसके उपरांत राजद से कांग्रेस में आए पप्पू यादव और साधु यादव एवं शर्मा और टाईटलर के बीच हुई तकरारों ने कांग्रेस को फिर से पीछे धकेलना आरंभ कर दिया है। बिहार में चुनावों में डबल एम ही हावी होता है। अर्थात मनी पावर और मसल पावर दानों ही बिहार में हावी रहते हैं। युवराज राहुल गांधी का कहना है कि इस बार आपराधिक छवि वाले नेताओं को कांग्रेस बाहर का रास्ता दिखाएगी। युवराज को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह बिहार के मामले में कुछ कह रहे हैं जहां डबल एम के बिना कुछ नहीं हो सकता है। कहीं एसा न हो कि बिहार में कांग्रेस की सूरत और सीरत बिगाडने के चक्कर में युवराज बिहार से कांग्रेस का नामोनिशान ही मिटा दें।
महाराष्ट्र या मद्यराष्ट्र! महान राष्ट्र के तौर पर पहचाना जाता है महाराष्ट्र। इस सबू का देश की आजादी मंे योगदान किसी से छिपा नहीं है। इस सबूे के वर्तमान शासक यहां के लोगों को दो वक्त की रोटी तो मुहैया नहीं करवा सकते हैं, यद्यपि वे इस सूबे के लोगों को चोबीसों घंटे ‘‘टुल्ली‘‘ रखने की जुगत अवश्य ही लगा रहे हैं। यहां स्वर्णमहोत्सवी वर्ष में महाराष्ट्र अब पूरी तरह मद्यराष्ट्र बनने की राह पर अग्रसर है। पहले यहां अंगूर की फिर ज्वार की शराब बनाई जाती थी। कालांतर में काजू, जामुन और ज्वार ने भी लोगों को मदहोश करने के लिए अपने आप को शराब बनाने में झोंक दिया। अब महाराष्ट्र में लोगों को शराब के स्वाद में परिवर्तन के लिए पहाड की मैना कहे जाने वाले करोंदे का उपयोग करने की अनुमति दे दी गई है। इतना ही नहीं इस पर सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जा रहा है। सच ही कहा है-,‘‘अच्छा हुआ अंगूर को बेटा न हुआ, जिसकी बेटी (शराब) ने उठा रखी सर पे दुनिया।‘‘
किन्नर अलग से चाहते हैं जनगणना!
जब जनगणना हो रही है तो स्त्री और पुरूषों के साथ ही साथ किन्नरों की जनगणना अलग से होनी चाहिए। सच है, ईश्वर ने इन्हें न पुरूष की श्रेणी में रखा है न ही महिला की। यह वर्ग समाज के हाशिए पर ही जीवनयापन करने पर मजबूर है। समाज में इन्हें प्रतिष्ठित स्थान नहीं मिल सका है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक किन्नरों को समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता था। बाद में लोगों की सोच बदली और इन्हें कमोबेश बराबरी का दर्जा मिल ही गया। 2011 की जनगणना के लिए किन्नरों ने मांग कर दी है कि इनकी जनगणना पृथक से की जानी चाहिए। किन्नरों की बढती संख्या और वोट बैंक की चिंता को देखकर सियासी दलों ने भी किन्नरों की इस मांग पर मूक, स्पष्ट या फिर दबे छुपे समर्थन देना आरंभ कर दिया है। वैसे सच ही है हाशिए पर जीवन यापन करने वाले इस वर्ग को सभ्य समाज ने पूरी तरह ही भुला दिया है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही ने किन्नरों की मांग को उचित ठहराते हुए इसका समर्थन कर दिया है, तो लगता है केंद्र सरकार भी इस पर अपनी मुहर लगा ही देगा।
ममता दी की चप्पल!
साधारण घरेलू महिला की छवि वाली केंद्रीय रेल मंत्री ममता बनर्जी की सादगी के बारे में सभी बेहतर तरीके से जानते हैं कि आडम्बर ममता दीदी को कतई नहीं भाता है। वे सरकारी गाडी या मंहगी विलासिता वाली कार के बजाए मारूति मेक की अपनी छोटी सी कार में चलना ही पसंद करती हैं। ममता बनर्जी के पैरों में मध्य प्रदेश के पूर्व गैस राहत मंत्री आरिफ अकील की तरह ही स्लीपर हुआ करतीं है। वे चाहे जहां जाएं पर स्लीपर का मोह वे तज नहीं पातीं है। एक चप्पल निर्माता कंपनी ने ममता दी की शान में ध्धृष्टता कर मारी। कहते हैं उसने ममता की इजाजत के बिना ही उनकी चप्पल वाली फोटो अपने विज्ञापन में छाप दी। विपक्ष ने आरोप लगा दिया कि इस विज्ञापन के एवज में ममता ने कंपनी से पैसे लिए हैं। पश्चिम बंगाल में चुनाव करीब हैं, तो आरोप प्रत्यारोपों का अंतहीन सिलसिला तो जारी ही रहेगा। चूंकि मामला लाभ का बन रहा है तो ममता की पेशानी पर परेशानी झलकना स्वाभाविक ही है इसके पहले कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी और जया बच्चन इसमें उलझ चुकीं हैं। अगर यह साबित हो गया तो ममता की सांसदी खतरे में पड सकती है। ममला पुलिस के पास है, देखते हैं विपक्ष किस स्तर तक ममता को घेरने में कामयाब हो पाता है।
मुखिया को ही नहीं पता कितने बच्चे हैं उसके!
क्या यह संभव है कि घर के मुखिया को इस बात का इल्म न हो कि उसके कुल कितने बच्चे हैं। जी हां भारत गणराज्य में यह बात साफ तौर पर उभरकर आई है कि मुखिया ही नहीं जानता कि उसकी कितनी शाखाएं हैं। देश के पंचायत राज मंत्रालय को ही नहीं पता है कि देश में कितनी पंचायतें हैं, है न आश्चर्य की बात। ग्रामीण विकास संबंधी संसद की स्थाई समिति ने पंचायती राज मंत्रालय संबंधी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यह आश्चर्यजनक है कि पंचायती राज मंत्रालय को ही नहीं पता की आज की तारीख में देश में कितनी जिला पंचायतें हैं। मंत्रालय कहता है कि देश में 608 जिले हैं जबकि समिति को पता चला है कि देश में 619 जिले हैं। अब आवाम ए हिन्द इस बात का अंदाजा सहज ही लगा सकती है कि भारत गणराज्य में तानाशाह शासक किस कदर मस्ती के मद में चूर होकर रियाया के साथ नाईंसाफी करने पर आमदा हैं। अब तो बस भगवान राम के अवतार ही का इंतजार है, जो आकर इन कंस, रावण, हिरणकश्यप रूपी आताताईयों से जनता को निजात दिलाए।
डाओ केमिकल पर फैसला क्यों नहीं!
भोपाल गैस कांड के लिए दोषी यूनियन कार्बाईड को खरीदने वाली डाओ केमिकल की जिम्मेदारी तय करने में कांग्रेसनीत केंद्र सरकार आखिर क्यांे हीला हवाला कर रही है। इससे संबंधित मामला अदालत में लंबित होने का हवाला देकर केंद्र सरकार भले ही अपना दामन बचाने का प्रयास कर रही हो पर वह रेत में गर्दन गडाए शतुर्मुग से अधिक कुछ और नहीं कर पा रही है। पूर्व में डाओ केमिकल के साथ जो 47 करोड डालर का फैसला हुआ था, उसे बढाने के मामले में भी कोई फैसला नहीं लिया जा सका है। आश्चर्य तो इस बात पर है कि मंत्रीमण्डल की पांच बैठकों के बाद भी यह मामला निरूत्तरित ही है। सबसे अधिक आश्चर्य तो इस बात पर हो रहा है कि भोपाल गैस कांड के बाद 26 सालों के उपरांत आए लचर फैसले से देश भर में गुस्सा चरम पर है, और केंद्र सरकार है कि ठीक उसी तरह चैन की बंसी बजा रही है जिस तरह जलते रोम देश के दौरान वहां का शासक नीरो चैन की बंसी बजा रहा था।
महिलाएं अबला या ‘‘आ बला‘‘!
दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दी गई व्यवस्था से समूचा पुरूष समाज सकते में आ गया है। दिल्ली में दहेज उत्पीडन मामले में पत्नि सहित ससुराल पक्ष के लोगों ने पति और उसके परिजनों के खिलाफ आपराधिक मामला पंजीबद्ध करवाया है। अब इस मामले में उच्च न्यायालय ने कहा है कि वह अपनी पत्नि के लिए मकान खरीदे या जेल जाने को तैयार रहे। इसके लिए कोर्ट ने पत्नि से अठ्ठारह लाख रूपए तक का मकान देखने को भी कहा है। देश में महिलाओं के पक्ष में कानून के लचीलेपन का बेजा फायदा उठाने से महिलाएं चूक नहीं रहीं हैं। दहेज उत्पीडन जैसे हथियार के जरिए महिलाओं द्वारा पुरूषों को प्रताडित किया जाता रहा है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि दशकों पुराने बने इस कानून में संशोधन के लिए राष्ट्रव्यापी बहस करवाई जाए और उसके उपरांत इसमें संशोधन किया जाए। सवाल यह उठता है कि अगर पति सक्षम नहीं है तो वह आखिर कहां से अपनी पत्नि या बच्चों को गुजारा भत्ता देगा! एक तरफ तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की वकालत हो रही है उससे उलट इस मामले में सारी जिम्मेदारी पति पर ही आयत करना उचित नहीं कहा जा सकता है।
जवाब में खोल ही दी नकल माफिया की पोल
स्कूल हो या कालेज उत्तर प्रदेश में नकल माफिया का बोलबाला इतना है कि सरकारें उनका कुछ भी नहीं बिगाडने की स्थिति में हैं। यूपी बोर्ड भले ही एशिया की सबसे बडी परीक्षा करवाने का गौरव अपने भाल पर बांधे अपनी पीठ ठोक रहा हो पर यह सत्य है कि यूपी में नकल माफिया की जडें बहुत ही गहरी हैं। विश्व के सात अजूबों में शामिल ताज महल को अपने आंचल में समेटने वाले आगरा शहर में डेढ दर्जन विद्यार्थियों ने अपने भविष्य की परवाह न करते हुए उत्तर पुस्तिकाओं में प्रश्नपत्र को हल करने के बजाए नकल माफिया का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है। इन विद्यार्थियों ने लिखा है कि पांच हजार न देने पर फेल कराने की धमकी दी थी, नकल माफिया ने। इतना ही नहीं इसमें तीन शिक्षक, दो लिपिक और बीस नकल माफियाओं के नामों का उल्लेख किया गया है। इन सभी ने आग्रह किया है कि उनकी बात को बोर्ड तक पहुंचाया जाए। अरे विद्यार्थी मित्रों क्या आप यह मानते हैं कि बोर्ड की मिलीभगत के बिना यह सब संभव है, नहीं न, तो बस अब क्या किया जा सकता है, सिस्टम मंे ही जंग लग चुकी है, फिर किससे उम्मीद रखी जाए।
लालू यादव का पुत्रमोह
संप्रग सरकार के पहले चरण में स्वयंभू प्रबंधन गुरू बनकर उभरे लालू प्रसाद यादव इन दिनों राजनीति से निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर हैं। लालू यादव को संप्रग दो में तवज्जो नहीं मिल सकी है। उनका रेल महकमा भी अब उन्हें घास नहीं डाल रहा है। तेज तर्रार ममता बनर्जी को रेल विभाग का दायित्व सौंपा गया है। लालू यादव के मन में अब पुत्रमोह जबर्दस्त तरीके से जागा है। अन्य नेताओं की तरह लालू यादव ने भी अब अपनी विरासत अपने उत्तारधिकारी तेजस्वी को सौंपने की तैयारी कर रहे हैं। इसके पहले वे अपनी अर्धांग्नी को राजनीति में कुदा चुके हैं। लगता है कि लालू यादव यह संदेश देना चाह रहे हैं कि वंशवाद की राजनीति का कापीराईट नेहरू गांधी परिवार वाली कांग्रेस के पास नहीं है, वे भी इसका उपयोग कर सकते हैं। लालू की बदौलत आईपीएल टीम के सदस्य तो बन गए तेजस्वी पर वे अभी बडे खिलाडियों की सेवा टहल में ही लगे हैं, राजनीति में वे उपर से उतरंेगे तो जाहिर है उन्हें किसी की सेवा टहल नहीं करना होगा।
पुच्छल तारा
जिंदगी और मौत को अनेक कवियों, शायरों, कथाकरों आदि ने परिभाषित किया है। जिंदगी के बारे में न जाने कितनी बातें कहीं गईं हैं, और उससे कहीं ओर मौत के बारे में दोनों के बीच सामंजस्य भी बिठाया गया है। गुड्डू ठाकुर एक ईमेल भेजकर इसी को रेखांकित करने का प्रयास करते हैं। गुड्डू ठाकुर लिखते हैं कि सरदार भगत सिंह ने सही कहा था कि ‘‘जिंदगी तो अपनी ही ‘दम‘ पर जी जाती है. . . .।‘‘ क्योंकि . . . ‘‘औरों के कांधों पर तो ‘जनाजे‘ ही उठा करते हैं. . . .।‘‘