शिवराज से मीडिया
का पंगा कराने पर अमादा जनसंपर्क
दरोगा कहे निजाम से - चोरों करें परेशान
(लिमटी खरे)
मीडिया का ग्लेमर
हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। मीडिया
सच्चा है या फर्जी इस बारे में निर्णय कौन करे? जाहिर है राज्यों
का सरकारी वजीफा पाने वाला जनसंपर्क महकमा ही बता सकता है कि कौन है सच्चा कौन है
झूठा? देश के हृदय प्रदेश में अजीब ही
माहौल बन गया है। यहां मीडिया का एक वर्ग और जनसंपर्क विभाग आमने सामने हैं।
मीडिया के इस वर्ग ने भोपाल में एक रैली निकाली और जनसंपर्क की दमनकारी नीतियों को
उजागर किया तो इसके जवाब में जनसंपर्क अधिकारी संघ ने मीडिया को ही कटघरे में खड़ा
कर दिया है। सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री या सरकार को यह पता होगा कि कौन सा
पत्रकार सही है और कौन फर्जी? जब जनसंपर्क विभाग ही फर्जी पत्रकारों से
बचाने की गुहार मुख्यमंत्री से लगाने लगे तो निश्चित तौर पर यही कहा जा सकता है कि
नगर दरोगा अपने निजाम से यह कहे कि नगर में चोर बहुत परेशान कर रहे हैं! अरे दरोगा
का काम ही चोरी पर अंकुश लगाना है, फिर भला किसी से शिकायत का स्वांग आखिर
क्यों?
देश भर में अब
प्रोफेशनल पाठ्यक्रमों में मीडिया की पढाई को अहम माना जाने लगा है। पहले जनसंचार
के बारे में सरकारी विश्वविद्यालयों में बहुत ही सीमित सीट्स हुआ करती थीं। लोग इस
क्षेत्र में आना नहीं चाहते थे। सत्तर के दशक तक तो शहरों में पत्रकारों की तादाद
गिनतियों में ही हुआ करती थी। अस्सी के दशक तक मीडिया को लोग बेहद सम्मान की नजरों
से देखते थे। नब्बे के दशक के आगाज के साथ ही मीडिया में धनपतियों और घराना
पत्रकारिता करने वाले सेठ साहूकारों ने कदम रखा।
मीडिया में युवाओं
का आकर्षण इसलिए काफी कम होता था क्यों कि उस वक्त मीडिया में पारिश्रमिक बेहद कम
हुआ करता था। उस वक्त पत्रकार को अपना घर चलाने में मशक्कत करनी होती थी, इसका कारण सिद्धांत
आधारित पत्रकारिता थी। उस समय पेड न्यूज या ब्लेक मेलिंग का चलन नहीं था। कालांतर
में मीडिया भी मुनाफे की दुकान में तब्दील हो गई। अपने निहित स्वार्थो के लिए
मीडिया की दिशा और दशा ही बदल दी गई।
अस्सी के दशक तक
पत्रकारों का काम सिर्फ खबरें भेजना होता था। इसके बाद अखबार मालिकों ने हाकर कम
पत्रकार बना दिए। इन पत्रकारों पर बिजनिस का टारगेट लाद दिया गया। इतना ही नहीं
अनेक संस्थानों ने तो बकायदा अधोषित तौर पर अपने समाचार पत्रों के निर्धारित पन्ने
ही मासिक तौर पर बेचने आरंभ कर दिए। इस घटिया और अवैध तरीके से धन कमाने की गलत
परंपरा के कारण पीत पत्रकारिता ने अपने पांव इस कदर पसारे कि गैर पत्रकार जिनका
कलम से दूर दूर तक कोई नाता नहीं रहा, वे भी संपादक बन गए।
देशबन्धु के मालिक
स्व.मायाराम सुरजन,
राजस्थान पत्रिका के मालिक गुलाब कोठारी, पंजाब केसरी के
मालिक अश्विनी कुमार जैसे गिनती के ही अखबार मालिक हैं जो अपनी कलम का उपयोग
निरंतर ही करते रहे हैं या करते हैं, कमोबेश, शेष अखबार मालिक या
कथित तौर पर ‘प्रधान
संपादक‘ तो बस
राज्य सरकारों या केंद्र सरकार के पत्र सूचना कार्यालय से अधिमान्यता पाने और
प्रधानमंत्री या मंत्रियों के साथ विदेश यात्रा अथवा अपने व्यवसायिक हित साधने के
लिए ही मीडिया का लबादा ओढ़े हुए हैं।
आज देश भर के
पत्रकार संघों की हालत अत्यंत दयनीय है। अनेक स्थानों पर चाय पान ठेलों पर पत्रकार
संघ का आईडी कार्ड गले में डाले लोग दिख जाते हैं। ये पत्रकार हैं या नहीं यह बात
सभी जानते हैं, ये महज चंद
रूपए की सदस्यता शुल्क देकर एक आईडी हासिल कर लेते हैं। शर्म तो उन पत्रकारों को
आनी चाहिए जो इन गैर पत्रकारों को आईडी प्रदान कर पत्रकारिता जैसे पावन पेशे को
बदनाम कर रहे हैं।
यहां गौरतलब होगा
कि पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने कहा है कि उनकी हमेशा से धारणा रही है
कि पत्रकारों की पहली निष्ठा देश की जनता के प्रति होना चाहिए। कलाम ने यह बात
भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के
विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘एक पत्रकार को स्वतंत्र होना चाहिए और उसे
किन्ही भी व्यक्तियों, पार्टियों एवं संगठनों से सम्बद्ध नहीं होना चाहिए’’। इससे साफ है कि
डॉ.कलाम स्वयं भी इस बात के पोषक हैं कि पत्रकार किसी भी दल का सदस्य हो सकता है
या उसकी सोच किसी दल विशेष की हो सकती है, किन्तु उसकी सोच उसके अखबार या चेनल में
कहीं से कहीं तक नहीं झलकनी चाहिए।
मध्य प्रदेश
जनसंपर्क विभाग का काम देखा जाए तो राज्य शासन की जनकल्याणकारी नीतियों को मीडिया
के माध्यम से जन जन तक पहुंचाने का है। पिछले सालों में जनसंपर्क विभाग ने यह काम
बखूबी अंजाम तक पहुंचाया है। पर लगने लगा है कि 2011 से जनसंपर्क विभाग
कुछ अभिमान से ग्रसित हो गया है। पहले जनसंपर्क विभाग के दिल्ली स्थित सूचना
केंद्र के प्रभारी रहे एक अधिकारी सरकार के बजाए भाजपा संगठन का काम करने उसकी
पत्र विज्ञप्तियों आदि को बांटने और भाजपा के सांसद विधायकों की सेवा टहल के चलते
चर्चित रहे, फिर
जनसंपर्क मुख्यालय ही विवादों के घेरे में आ गया।
मध्य प्रदेश
जनसंपर्क विभाग के पास एक जबर्दस्त अस्त्र है, और वह अस्त्र है
विज्ञापनों का। ‘ंअंधा
बांटे रेवड़ी और चीन्ह चीन्ह कर देय‘ की कहावत चरितार्थ करते हुए जनसंपर्क विभाग
द्वारा विज्ञापनों में भी भाई भतीजावाद जमकर किया गया। सूचना के अधिकार में जब
जानकारी मांगी जाती है तब विभाग बगलें झाकने लगता है। एक वेब साईट को पंद्रह लाख
रूपए का विज्ञापन और एडवांस चेक देकर जनसंपर्क विभाग विवादों में आ गया वहीं
जनसंपर्क मंत्री की विज्ञापन देने की अनुशंसा को कचरे की टोकरी में ही डाल दिया
गया। यही आलम प्रदेश सरकार की अधिमान्यता का है। अधिमान्यता में भी जमकर गफलत की
जाती है। संभवतः यही कारण है कि मध्य प्रदेश जनसंपर्क की आधिकारिक वेब साईट जो
भगवा रंग में रंग चुकी है, में से अधिमान्य पत्रकारों की सूची को ही हटा दिया गया है।
मध्य प्रदेश में
जनसंपर्क विभाग की गलत नीतियों का विरोध करते हुए पत्रकार बचाओ आंदोलन समिति
द्वारा दस दिसंबर को राजधानी भोपाल में एक विशाल रैली निकाली गई। इसके बाद
मुख्यमंत्री के नाम अनेक मांगों का एक ज्ञापन भी सौंपा गया। रेली के संयोजक डेविड
विनय का आरोप था कि जबसे जनसंपर्क विभाग की धुरी अतिरिक्त संचालक लाजपत आहूजा के
इर्दगिर्द आकर सिमटी है तबसे पत्रकारों का शोषण आरंभ हुआ है।
वहीं दूसरी ओर
जनसंपर्क अधिकारी संघ ने मुख्यंत्री, मुख्य सचिव और जनसंपर्क मंत्री को ज्ञापन
भेजकर पत्रकारिता के क्षेत्र में फर्जी लोगों के प्रवेश और सरकारी विज्ञापनों पर
दबिश देने की बढती प्रवृत्ति पर चिंता जताते हुए कहा कि जनसंपर्क अधिकारियों का
ऐसे माहौल में काम करना दूभर होता जा रहा है। इस तरह के तत्वों और फर्जी संगठनों
की जांच करना चाहिए।
मध्य प्रदेश
जनसंपर्क अधिकारी संघ के अनुसार इनमें से अधिकांश ऐसे फर्जी पत्रकार हैं जिन्हें
पत्रकारिता का अनुभव ही नहीं है। सिर्फ सरकारी विज्ञापनों को अतिरिक्त आय का साधन
समझने वाले एसे पत्रकारों की मश्कें कसना चाहिए। संघ ने कहा है कि प्रदेश के करीब 27 हजार से अधिक पत्र
पत्रिकाएं आरएनआई में रजिस्टर्ड हैं, अनियमितताओं की वजह से लगभग 18 हजार पत्र
पत्रिकाओं को आरएनआई द्वारा डी ब्लाक की सूची में डालना पड़ा है।
यक्ष प्रश्न तो यह
है कि पत्र पत्रिकाओं या पत्रकारों का जिला स्तर से संभाग और प्रदेश स्तर तक लेखा
जोखा रखने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है? जिला कलेक्टर की, संभागायुक्त की, मंत्री, मुख्य सचिव या
मुख्यमंत्री की? उत्तर होगा
जिला जनसंपर्क अधिकारी से लेकर जनसंपर्क आयुक्त तक के आला अफसरान की! जब जवाबदेही
ही आपकी है तो आप फिर अपनी जवाबदेही को पूरा ना करके शासन से क्या अपेक्षा करते हो, क्या मुख्मंत्री
शिवराज सिंह चौहान या जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा मीडिया या कथित मीडिया से
पंगा लें?
जनसंपर्क अधिकारी
संघ की अखबारों में प्रकाशित विज्ञप्ति से साबित हो रहा है कि जिन भी मीडिया
संस्थानों को अभी विज्ञापन जारी किया जा रहा है और जो पत्रकार मध्य प्रदेश सरकार
से वर्तमान में अधिमान्य हैं वे सभी वास्तविक और सही है, अन्य जो भी
विज्ञापन या अधिमान्यता चाह रहे हैं वे सभी फर्जी की श्रेणी में हैं। क्या
जनसंपर्क महकमा यही कहना चाह रहा है? जनसंपर्क महकमा पहले अपने दामन में झांककर
देखे और इस बात का ही जवाब दे कि काफी पीछे रेंकिंग वाली एक वेब साईट को आखिर
पंद्रह लाख रूपए का विज्ञापन किस आधार पर जारी किया जाता है?
जनसंपर्क विभाग
एमपीइंफो डॉट ओआरजी वाली अपनी वेब साईट पर पडी जनसंपर्क नीति और अधिमान्यता नियम
का अध्ययन अवश्य कर ले। क्या सारे अधिमान्य पत्रकार इन नियम कायदों में सही बैठ
रहे हैं? क्या
जनसंपर्क द्वारा जारी विज्ञापन सही नीति के तहत दिए जा रहे हैं? क्या एक भी अधिमान्य
पत्रकार या विज्ञापन जारी किए जाने वाले अखबारों के मालिकों पर कोई प्रकरण दर्ज
नहीं है? अगर है तो
जनसंपर्क विभाग की इस दोषपूर्ण नीति के लिए क्या सजा तय की जाए यह आला अधिकारी खुद
ही तय कर लें?
हर मामले में पेंच
इतने हैं कि गिनाते गिनाते सारी उमर ही बीत जाएगी? एक पत्रकार सम्मेलन
में हमने अपने उद्बोधन में इस बात को रेखांकित किया था कि हर जिले में वही नीति
अपनाई जानी चाहिए जो जनसंपर्क विभाग या पत्र सूचना कार्यालय द्वारा अधिमान्यता
देने या नवीनीकरण के समय अपनाई जाती है। अगर उसी नीति का पालन सुनिश्चित हो गया तो
आने वाले समय में जिलों में फर्जी पत्रकारों पर अंकुश अपने आप ही लग जाएगा? पर सवाल वही है कि
बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे।
जनसंपर्क विभाग के
शातिर दिमाग रणनीतिकारों ने जनसंपर्क अधिकारी संघ के कंधे पर बंदूक रखकर गेंद को
शिवराज सिंह चौहान के पाले में फेंक दिया है। फर्जी और सही पत्रकार को चिन्हित
करने की जवाबदेही जनसंपर्क विभाग की है ना कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की!
सूबे के लोकप्रिय निजाम शिवराज सिंह चौहान से यही अपेक्षा की जा सकती है कि
जनसंपर्क विभाग के इन शातिर आकाओं से सावधान रहकर जनसंपर्क विभाग को यही नसीहत दें
कि वे अपना काम खुद ही करें। आखिर क्या वजह है कि असली और फर्जी पत्रकारों में
जनसंपर्क विभाग भेद नहीं कर पा रहा है? क्यों जनसंपर्क मंत्री की अनुशंसाओं को
दबाकर रख दिया जाता है और मनमर्जी से लाखों करोड़ों रूपयों के विज्ञापन जारी कर दिए
जाते हैं?
जनसंपर्क विभाग
द्वारा पत्रकारों की सेवा टहल पर किए जाने वाले भारी भरकम खर्च को पत्रकार के नाम
से प्रदर्शित कर अपनी वेब साईट पर क्यों नहीं डाला जाता? ताकि पता तो चल सके
कि किस असली या किस फर्जी पत्रकार की सेवा टहल में जनसंपर्क विभाग ने जनता के खून
पसीने की कमाई को उड़ाया है? क्यों जनसंपर्क विभाग द्वारा अपनी वेब साईट
पर मीडिया को जारी विज्ञापनो के बारे में उनकी दरें और राशि के साथ विज्ञापन देने
के आधार सहित सूचना नहीं डाली जाती? जाहिर है जनसंपर्क विभाग अपने बजाए शिवराज
सिंह चौहान के सर पर ठीकरा जो फोड़ना चाह रहा है? यहां एक बात और शोध
का विषय है कि आखिर किसके इशारे पर या कहने पर मीडिया और शिवराज सिंह चौहान के बीच
खाई खोदने का काम कर रहा है मध्य प्रदेश का जनसंपर्क महकमा? (साई फीचर्स)