अर्जुन की राह पर दिग्विजय
(लिमटी खरे)
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दो ठाकुरों में क्या समानता है? दोनों ही क्षत्रियों को उपरवाले ने कुशाग्र बुद्धि का धनी बनाया है। इस फेहरिस्त में अव्वल हैं विन्ध्य के कुंवर अर्जुन सिंह तो दूसरे नंबर पर हैं राघोगढ़ के राजा दिग्विजय सिंह। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में अर्जुन सिंह का डंका कांग्रेस में बजता रहा है। वे कांग्रेस के लिए चाणक्य और ट्रबल शूटर की भूमिका में रहे हैं। मामला चाहे पंजाब की समस्या का हो या फिर केंद्र में सरकार बनाने का, हर मामले में अर्जुन सिंह की चालों का लोहा मानते रहे हैं राजनेता।
इक्कसवीं शताब्दी के पहले दशक के उत्तरार्ध में कुंवर अर्जुन सिंह की ढलती उम्र और उनकी ढीली होती पकड़ के कारण उनके ही पैदा किए और सिखाए शिष्यों ने सिंह को हाशिए पर ढकेलने के सारे जतन कर डाले, और इसमें वे काफी हद तक कामयाब भी हुए। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले कार्यकाल में मानव संसाधन और विकास जैसा महत्वपूर्ण विभाग संभालने वाले सिंह को दूसरी पारी में दूध में से मख्खी की तरह निकालकर अलग कर दिया गया। इसके बाद अर्जुन सिंह के आवास में खामोशी ने अपना डेरा डाल दिया।
संप्रग की दूसरी पारी में जैसे जैसे घपले और घोटालों की गूंज और उसकी अनुगूंज तेज हुई तब कांग्रेस के कुशाग्र बुद्धि के धनी प्रबंधकों का ध्यान अर्जुन सिंह की खामोशी की ओर गया। जहर बुझे तीर चलाने में उस्ताद रहे अर्जुन सिंह की खामोशी काफी कुछ कह गई। राजनीति के जानकारों का मानना है कि मनमोहन सिंह पर एकाएक घपले घोटालों के वार के पीछे कहीं न कहीं यह खामोशी भी नजर आ रही है।
देश के हृदय प्रदेश के राजनैतिक तालाब से उपजे कांग्रेस के दोनांे ही क्षत्रपों ने अपने अपने हिसाब से राजनीति की धार पैनी की है। अर्जुन सिंह की खासियत यह रही है कि उनके वक्त उनके हर बयान के साथ समूची कांग्रेस खड़ी दिखाई देती थी, किन्तु दिग्विजय सिंह के साथ एसा होता नहीं दिख रहा है। अपने बयानो के बाद दिग्विजय सिंह अकेले ही नजर आ रहे हैं। अपनी बात कहने या सफाई देने के लिए भी दिग्गी राजा द्वारा ना तो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय 24 अकबर रोड़ और ना ही मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यालय का उपयोग किया जा रहा है। पत्रकारवार्ता में मीडिया में इस तरह के प्रश्न उठ ही गए कि आखिर क्या वजह है कि दिग्विजय सिंह अपनी बात कहने के लिए पार्टी का प्लेटफार्म उपयोग नहीं कर पा रहे हैं?
वैसे दिग्विजय सिंह का बतौर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दस साल का रिकार्ड देखा जाए तो वे जुबान के बड़े ही पक्के समझे जाते रहे हैं। यही कारण है कि 2003 में विधानसभा में बुरी तरह मात खाने के बाद उन्होंने दस साल तक सक्रिय राजनीति से परहेज का अपना कौल अब तक निभाया है। पता नहीं कैसे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनने के बाद वे लगातार कैसे विवादस्पद बयान देते और फिर उससे पलटते रहे।
करकरे से चर्चा के मुद्दे को ही लिया जाए, तो पहले बकौल दिग्विजय, करकरे ने उन्हें फोन किया था, अब वे काल रिकार्ड पेश करते वक्त फरमा रहे हैं कि यह काल उन्होंने यानी दिग्विजय सिंह ने लगाया था। आश्चर्य तो तब होता है जब उनका फोन एटीएस के मुंबई स्थित मुख्यालय में शाम पांच बजकर 44 मिनिट पर पहुंचता है, वह भी इंटरनेट पर एटीएस के पीबीएक्स नंबर पर। काल रिकार्ड बताते हैं कि इस नंबर पर 381 सेकण्ड बात हुई है।
सवाल यह उठता है कि जब दोपहर को ही मुंबई में ताज होटल पर आतंकवादियों ने कब्जा जमा लिया था, तब क्या एटीएस चीफ करकरे के पास आतंकियों से निपटने रणनीति बनने से इतर इतना समय था कि वे कांग्रेस महासचिव के साथ खुद को मिलने वाली धमकियों का दुखड़ा रोएं। इसके अलावा दिग्विजय सिंह खुद स्वीकार कर चुके हैं कि वे करकरे से कभी मिले नहीं थे, तब एसी स्थिति में क्या करकरे पहली ही बातचीत में दिग्गी राजा से मन की बात कह गए होंगे?
पहले काल रिकार्ड नहीं मिलने की बात करने वाले सिंह ने जादू की छड़ी से रिकार्ड भी तलब कर लिया। इसके बाद उन्होंने एनसीपी कोटे के महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर.पाटिल से माफी की मांग कर डाली है। एनसीपी और कांग्रेस के बीच इस मांग का क्या असर होगा यह तो वे ही जाने पर सूबे में दिग्विजय सिंह की दखल को स्थानीय क्षत्रप अलग नजर से अवश्य ही देखेंगे।
भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू के इस दावे में दम लगता है जिसमें उन्होंने कहा है कि कांग्रेस ने दिग्विजय को इस मिशन पर लगाया है जिसका मकसद लोगों का ध्यान कामन वेल्थ और टू जी घोटालों से भटकाना है। भले ही कांग्रेस ने इस मिशन पर उन्हें लगाया हो, पर एक बात तो है कि दिग्गी राजा के हिन्दू आतंकवादियों वाले बयान ने उन्हें मुस्लिम समाज में हीरो अवश्य ही बना दिया है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि कोई भी राजनेता इस मामले पर बहुत ही सोच समझकर बयान जारी करे, क्योंकि यह मामला
आम नहीं वरन् भारत गणराज्य की अस्मिता के साथ जुड़ा हुआ है।
उल्लेखनीय होगा कि इसी आतंकी हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। महाराष्ट्र में सियासत करने वाले अब्दुल रहमान अंतुले ने भी इस मामले में विवादस्पद बयान दिया था, पार्टी को अंतुले से भी किनारा ही करना पड़ा था।
बहरहाल कांग्रेस के ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह के पिछले कुछ सालों के कदम ताल को देखकर लगने लगा है मानो वे अपने गुरू कुंवर अर्जुन सिंह के पदचिन्हों पर से धूल हटाकर उनका अनुसरण करना चाह रहे हों, किन्तु अर्जुन सिंह की बात निराली ही थी। वे एक कदम चलते थे तो बीस कदम आगे की सोच लेते थे। भोपाल गैस कांड में एंडरसन को भारत से भगाने की बात को छोड़कर अर्जुन सिंह पर कोई और आरोप एसा नहीं है जिसमें उन्हें देश की अस्मिता के साथ जरा भी खिलवाड़ करने का प्रयास किया हो। रही बात दिग्विजय सिंह की तो अपने आप को स्थापित करने और अपनी कही बात को सच साबित करने के चक्कर में उनके द्वारा जो चालें चलीं जा रहीं हैं, वे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कही जा सकती हैं।
दरसअल यक्ष प्रश्न तो यह है कि जब 26 नवंबर 2008 को राजा दिग्विजय सिंह और स्व.हेमंत करकरे के बीच फोन पर कथित तौर पर बातचीत हुई उसके बाद राजा दिग्विजय सिंह ने यह बात दो सालों तक दबाकर क्यों रखी? हो सकता है दिग्विजय सिंह यह कह दें कि उसके उपरांत उन्होंने इंदौर प्रेस क्लब के प्रोग्राम में यह बात कही थी, किन्तु उसके बाद आज जिस वजनदारी से वे यह बात कह रहे हैं यही बात दो साल के अर्से में चिंघाड़ चिंघाड़ कर उन्होंने क्यों नहीं कही। कारण चाहे जो भी हो पर कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय सिंह की इस चाल में कहीं न कहीं षणयंत्र की बू अवश्य ही आ रही है।