बेशकीमती शालों का अवैध करोबार चालू आहे!
(लिमटी खरे)
जानवरों के रखवाले और उनके हितों के संरक्षण के लिए न जाने कितने संगठन अस्तित्व में हैं फिर भी जानवरों पर अत्याचार रूकने का नाम नहीं ले रहे हैं। हाड़ कपानें वाली ठण्ड में गर्माहट देने वाला शाल शहतूश का हो, पाशमीना का या फिर चिरू हिरण का, व्यवसाईयों द्वारा इनका शिकार सरेआम किया जाता है। जनसेवकों और लोकसेवकों के पास इस तरह के निषिद्ध शॉल मिलना आम बात है। हद तो तब हुई जब दिल्ली के एक सरकारी एम्पोरियम में शहतूश की तीन शाल जब्त की गईं। दिल्ली एनसीआर में ही इस तरह की दुर्लभ शाल रखना लोगों का प्रिय शगल बना हुआ है।
पुरूष हो या स्त्री, बुजुर्ग हो या जवान अथवा बच्चा हर किसी की ठंड के दिनों में पहली पसंद हुआ करता है शॉल। अपनी पॉकेट के हिसाब से लोग शॉल की किस्म को अपनाते हैं। शॉल यानी कपकपाती ठंड में गरमाहट देने वाला वस्त्र जो हर किसी की पसंद और बजट के माकूल विविध किस्म और रंग में बाजार में आसानी से मिल जाता है। शॉल का जोर इतना है कि इसे फैशन का हिस्सा बनते देर नहीं लगती।
अभिजात्य वर्ग में काश्मीर की पाशमीना की शॉल, शहतूश की शॉल और चिरू की शॉल की मांग बेहद ज्यादा हुआ करती है। मध्यम वर्गीय महिलाओं में कैशमिलॉन की शॉल काफी लोकप्रिय हैं। अब तो मशीन से बनी शॉल भी जमकर धूम मचा रही हैं। दरअसल शॉल के जरिए एक पंथ दो काज हो जाते हैं। एक तो आप कहीं जा रहे हों तो सर्दी से बचाव फिर रात रूकने का मौका अगर आया तो वह चादर या कंबल का काम भी कर देती है।
अस्सी के दशक में युवाओं के पायोनियर बने तत्कालीन वजीरे आज़म राजीव गांधी ने शॉल को नया लुक दिया था। उनके शॉल पहनने के अभिनव अंदाज ने युवाओं को लुभा लिया था। आज अनेक लोग राजीव गांधी के तरह से ही शॉल लपेटे दिख जाते हैं। ऑफ व्हाईट या क्रीम कलर का शॉल लपेटे राजीव गांधी का अलग ही लुक हुआ करता था। लोग भूल जाते हैं कि इतने बड़े नेता अगर शॉल न भी लपेटें तो भी उनका काम चल जाएगा, इसका कारण यह है कि वे सदा ही एयर कंडीशनर के इर्द गिर्द अपने आप को रखते हैं।
दिल्ली में पुलिस ने छापामार कार्यवाही कर पिछले माहों में एक राज्य सरकार के एम्पोरियम से शहतूश की तीन शालें बरादम की थीं। डेढ़ लाख रूपए से अधिक मूल्य के शहतूश के शाल का कारोबार पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है। एन्टीक चीजों के शौकीन अमीर जादों के लिए इस तरह के प्रतिबंध मायने नहीं रखते हैं।
शहतूश का शॉल तिब्बत के दुर्लभ हिरण प्रजाति के जानवर चिरू के बालों से तैयार किया जाता है। चूंकि चिरू की संख्या में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है इसलिए विश्व प्रकृति निधि को एक अभियान शुरू कर शहतूश की शॉल को गैरकानूनी करार दिलाना ही पड़ा। यहां उल्लेखनीय है कि पिछली सदी की शुरूआत में तिब्बत में एक करोड़ से भी ज्यादा तादाद में चिरू पाए जाते थे।
कालांतर में शहतूश के बालों के व्यवसायिक उपयोग के चलते चिरू पर शिकारियों की नजर तिरछी हो गई। ज्यादा मुनाफे के चलते चिरू को एक एक कर मौत के घाट उतारा जाने लगा। अब इनकी तादाद पचास हजार से भी कम बची है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हर साल शहतूश के शॉल के लिए पच्चीस हजार से ज्यादा हिरणों को मौत के घाट उतार दिया गया। आज आलम यह है कि इन हिरणों को विलुप्त प्रजाति के हिरणों में शामिल करना पड़ा है। शहतूश के शॉल को प्रतिबंधित श्रेणी में अवश्य ही ला दिया गया है, किन्तु सही मायनों में प्रतिबंध लग नहीं पाया है।
काफी पहले हमारे पूर्वज शहतूश की शॉल का उपयोग गर्म परिधान के तौर पर खुले तौर पर किया करते थे। कालांतर में पाश्चात्य फैशन के पुजारियों ने इसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवासाय का एक साधन बना दिया, और उसी के उपरांत इस नायाब ऊन का दोहन बेहद तेजी से होने लगा। कहा जाता है कि चिरू के बालों से निर्मित यह बेशकीमती ऊन तिब्बत से बरास्ता नेपाल, भारत में अपनी आमद देता है।
उत्तर भारत में जम्मू और काश्मीर के श्रीनगर और आसपास के क्षेत्रों में शहतूश की शॉल बनाने वाले कुशल कारीगर अपनी सधी हुई उंगलियों के जरिए इस ऊन के धागे को शॉल की शक्ल देकर उसके उपर अपना हुनर उकेरते हैं। फिर ये नायाब और बेशकीमती शॉल भारत की राजनैतिक राजधानी दिल्ली और व्यवसायिक तथा आर्थिक राजधानी मुंबई के जरिए अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुंचती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस ऊन की इतनी मांग है कि एक किलोग्राम ऊन हजारों डालर में आसानी से बिक जाता है। विदेशी मुद्रा और मुनाफे की लालच में चिरू को मारकर इस कारोबार को चोरी छिपे तेजी से किया जा रहा है।
भारत में चिय को लुप्तप्राय जीव की श्रेणी में लाए जाने के बाद वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत देश भर में शहतूश की शॉल प्रतिबंधित हो चुकी हैं। विडम्बना यह है कि इसके बावजूद भी जम्मू और काश्मीर में इसको बनाने का काम तेजी से किया जाता रहा है। बाद में केंद्र सरकार के भारी भरकम दबाव के चलते जम्मू और काश्मीर में भी इसका निर्माण प्रतिबंधित कर दिया गया है।
जम्मू और काश्मीर में इसके प्रतिबंधित होते ही बीस हजार से ज्यादा परिवारों के सामने रोजी रोटी का संकट आन खड़ा हुआ। यही कारण था कि शहतूश की शॉल पर रोक लगाने के लिए जम्मू और काश्मीर की सरकार ने व्यवहारिक तकलीफें गिनाना आरंभ कर दिया। राज्य सरकार ने एक दलील भी दी कि शहतूश की शॉल के लिए चिरू प्रजाति के हिरण को मारा नहीं जाता वरन् उसके झड़े हुए या झाड़ियों में टूटकर अटके बालों से इसे तैयार किया जाता है।
उधर जानकारों के गले सरकार का तर्क नहीं उतरा। वैसे शॉल की कीमत चिरू के आकार पर तय होती है। साथ ही साथ इसे बनाने वाले की मेहनत भी इसका मूल्य तय करती है। कीमत और मेहनत ही तय करती है कि बनी हुई शॉल कितने बड़े चिरू की है। श्रीनगर और इसके आसपास तैयार हुई शॉल की कीमत पच्चीस हजार से पांच लाख रूपए तक होती है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी 2007 में एक फैसला सुनाते हुए जम्मू काश्मीर सरकार की दलील को सिरे से खारिज कर दिया था जिसमें कहा गया था कि चिरू के शरीर से गिरे बालों से यह शॉल तैयार होती है।
दरअसल हाई प्रोफाईल लोगों और धनाड्य वर्ग के लोगों के शौक के चलते इसका कारोबार दबे छुपे चल ही रहा है। कितने आश्चर्य की बात है कि दिल्ली में केंद्र और दिल्ली सरकार की नाक के नीचे एक सरकारी एम्पोरियम में शहतूश की तीन शॉल बरामद की गईं। इससे साफ जाहिर होता है कि शहतूश की शॉल को प्रतिबंधित किए जाने के सरकारी दावे कितने खोखले हैं।