अधनंगों के देश में खरबों का तमाशा!
(लिमटी खरे)
भारत गणराज्य जिसे कभी सोने की चिड़िया कहा
जाता था को ब्रितानी अंग्रेजों ने फिर मुगलों ने जमकर लूटा। 1947 में जब भारत देश को स्वाधीनता मिली उसके
बाद माना जा रहा था कि देश की तस्वीर बदलेगी। बकौल अण्णा हजारे अब देश को काले
अंग्रेज लूट रहे हैं। देश में आधी से ज्यादा आबादी के पास दो जून की रोटी मयस्सर
नहीं है, उस भारत गणराज्य में अरबों खरबों रूपए की
लागत से आईपीएल का आयोजन हास्यास्पद ही माना जाएगा। इस आयोजन में रूपहले पर्दे के
करोड़पति अरबपति अदाकार, सियासी
दुनिया के कलाकार,
कारोबारी
आदि की भूमिका है। इनके मन में देश के गरीबों के प्रति हमदर्दी लेशमात्र नहीं है।
इनका कोई सामाजिक सरोकार भी नहीं बचा है। जिस देश में आधी से ज्यादा आबादी के पास
खाने के लाले पड़े हैं उस देश में क्या मंहगी टिकिट लेकर गरीब गुरबे गेंद और बल्ले
का खेल खेल देखने की बात सोच भी पाएंगे। इस तरह के आयोजनों से देश में अपराध बढ़ने
की आशंकाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि युवा इसे देखने के लोभ में पैसा
कमाने के लिए गलत रास्ता अख्तियार करने में शायद ही गुरेज करें। आज देश के
हुक्मरानों ने भारत गणराज्य को बजार समझ लिया है। रियाया कराह रही है पर मनमोहन
सिंह सरकार देश में नग्न तमाशे की इजाजत दे रहे हैं।
छटवां इंडियान प्रीमियर लीग क्रिकेट
टूर्नामेंट कल शाम को आरंभ हो गया। इसके उद्यघाटन समारोह को टीवी पर देश दुनिया के
लोगों ने देखा होगा। विकसित देशों के लोगों ने इसकी भव्यता को देखकर अंदाजा लगा ही
लिया होगा कि भारत देश के हुक्मरान देश की गरीबी का जो चित्रण करते हैं वह असल
नहीं छद्म है। मुंबई में स्टेडियम जाने पर भले ही किंग खान यानी शाहरूख खान पर
प्रतिबंध हो पर कोलकता में वे दीपिका पादुकोण और कैटरीना कैफ के साथ कमर मटकाते
नजर आए। इसी आईपीएल में शाहरूख खान पर शराब पीकर अभद्रता करने का आरोप है, और इसी आईपीएल में वे दिलेरी से ठुमके लगा
रहे हैं। मतलब साफ है कि आईपीएल के आयोजनकर्ताओं का कोई ईमान धरम नहीं है।
एक जमाना था जब देश में टीवी नहीं था। याद
पड़ता है कि 1983 में जब भारत ने विश्व कप हासिल किया था
तब रात में रेडियो पर क्रिकेट की कामेंटरी सुनने के लिए मोहल्ले मोहल्ले लोगों की
भीड़ जमा रहती थी। जसदेव सिंह, दिलीप दोषी जैसे कामेंटरेटर अपनी जादुई आवाज में लोगों को बांधे रखा करते
थे। धीरे धीरे समय ने अपना चक्कर चलाया और अब टीवी पर सब कुछ दिखने लगा। वह समय था
जब टेस्ट क्रिकेट को लोग धेर्य से देखा करते थे। उस समय वन डे क्रिकेट को ज्यादा
पसंद नहीं किया जाता था।
समय बदला और अब फटाफट क्रिकेट यानी ट्वंटी
ट्वंटी ने अपना रंग जमा लिया है। आज देश में फटाफट क्रिकेट बहुत ज्यादा लोकप्रिय
हो चुका है। क्रिकेट से ज्यादा पूछ परख हाकी की हुआ करती थी, विडम्बना ही कही जाएगी कि हाकी को बड़े
प्रायोजक नहीं मिल पाए तो हाकी ने कालांतर में दम ही तोड़ दिया है। फटाफट क्रिकेट
आज गेंद और बल्ले का गेम ना होकर एक बहुत बड़ा व्यापार बन चुका है। आज क्रिकेट के
खिलाड़ी भी इस पवित्र खेल को पेशे की तरह अपनाने लगे हैं। खिलाड़ी क्रिकेट की मंडी
में अपना सौदा कर रहे हैं जो चिंतनीय है।
आज कार्पोरेट घरानों ने इस खेल के
खिलाड़ियों पर पानी की तरह पैसा बहाया है। सभी एक लगाकर दस कमाना चाहते हैं। यह तभी
संभव हो पाएगा जब इन घरानों को खेल कम मैदान में सर्कस ज्यादा हो। कहने का तातपर्य
इतना ही है कि अगर सीधे सीधे क्रिकेट हो तो इनका पैसा शायद ही वसूल हो पाए, पर खेल के बजाए तमाशा कर अच्छा खासा पैसा
कमाया जा सकता है।
विडम्बना देखिए कि इस भारत गणराज्य में
जहां नारी को पूरे कपड़े में सौंदर्य की देवी माना जाता है वहां टीवी पर घरों में
माताओं बहनों के सामने चीयर्स गर्ल के रूप में छोटी स्कर्ट में चौके छक्के या आउट
होने पर अश्लील नाच करते दिखाया जाता है। इस पर सैंसर बोर्ड या सूचना प्रसारण
मंत्रालय को आपत्ति इसलिए नहीं होती है क्योंकि इस तमाशे से सरकार को भी करों के
रूप में आय होती है। एक अनुमान के अनुसार इस तमाशे में दस हजार करोड़ रूपए से भी
ज्यादा का तमाशा होता आया है।
अगर आय के स्त्रोत इसी तरह के रखने हैं तो
सरकार को चाहिए कि वैश्यालयों को खुला लाईसेंस दे दे। प्रतिबंधित दवाओं और नशीले
पदार्थों को पान की दुकानों के माध्यम से बिकवाना आरंभ कर दे, हत्या लूट जैसे जघन्य अपराधों को भी बड़ी
राशि चुकाकर वैध बना दे, घरोंघर
शराब बनवाने की छूट प्रदान कर दे। इस तरह के नंगे फूहड़ नाच करावाकर सरकार किस
संस्कृति का पोषण कर रही है यह बात समझ से परे ही है।
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि
फटाफट क्रिकेट के आयोजकों को देश की दशा और दिशा से सरकारों की तरह ही लेना देना
नहीं है। इन आयोजकों को देश से भी कोई लेना देना नहीं है, इनका कोई ईमान धरम नहीं है, इनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं है। देश में
आज क्या परिस्थितियां हैं इस बात से ये कोसों दूर सिर्फ और सिर्फ अपना हित ही
परमोधर्म मानकर चल रही हैं।
देश में महाराष्ट्र के भयंकर सूखे से सभी
आवगत हैं। इसी सूबे से आने वाले पूर्व मुख्यमंत्री शरद पंवार केंद्र में कृषि
मंत्री बनकर किसानों के हितों के संवंर्धन का प्रहसन कर रहे हैं। इस सूबे में पानी
के लिए किसान त्राहीमाम त्राहीमाम कह रहे हैं। इस सूबे की भाजपा की इकाई यहां
आईपीएल का विरोध कर रही है। भाजपा के विरोध को सियासी चश्मा लगाकर देख रहे हैं
अन्य सियासी दल।
कितने आश्चर्य की बात है कि इसी सूबे में
स्यंभू संत आसाराम बापू हजारों लिटर पानी रंग में घोलकर बर्बाद कर आनंदित होते हैं, दूसरी और फटाफट क्रिकेट के लिए पिचों की
क्योरिंग आदि में हजारों लिटर पानी बहा दिया जाएगा, पर किसानों के लिए पानी की बारी आते ही
केंद्र और राज्य सरकारें हाथ खड़े कर देती हैं!
देश में कमोबेश सारे राजनीतिक दल इस आयोजन
में अपनी मौन सहमति देते नजर आ रहे हैं। सूबे में पानी की एक एक बूंद के लिए लोग
तरस रहे हैं वहीं स्टेडियम में पिच के रखरखाव के लिए लगभग 22 लाख लीटर पानी बहा दिया जाएगा। पत्रकार
से राज्य सभा के रास्ते संसदीय सौंध तक पहुंचने वाले मंत्री राजीव शुक्ल ने फटाफट
क्रिकेट के बचाव में बचकाने और गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य दिए हैं जिनकी निंदा होना
चाहिए, वस्तुतः एसा हो नहीं रहा है।
बकौल राजीव शुक्ल अगर आईपीएल नहीं हुआ तो
भी सूखा खत्म नहीं होने वाला है। सवाल यह है कि अगर इस तरह का फूहड़ आयोजन हो रहा
है, जिसमें पानी की बर्बादी हो रही हो
अश्लीलता परोसी जा रही हो, शाहरूख
खान जैसे टीम के मालिक शराब पीकर स्टेडियम में दंगा फसाद पर आमदा हों और फिर राजीव
शुक्ला इस तरह के बयान दें तो इसका मतलब क्या यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि
कांग्रेस और केंद्र सरकार खुद ही देश में नंगाई और अनाचार को प्रश्रय दे रही है।
क्या इसे यह नहीं माना जाए कि सवा सौ साल
पुरानी कांग्रेस और कांग्रेस नीत संप्रग सरकार अपनी जिम्मेदारियों और जवाबदेही से
मुंह मोड़ रही है? हालात देखकर लगने लगा है मानो इटली मूल की
कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी की अगुआई में कांग्रेस ने भी पाश्चात
संस्कृति में अपने आप को ढाल लिया है, मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ने भारत गणराज्य को बाजार ही समझ लिया है!
दरअसल मीडिया में भी आईपीएल के विज्ञापन
पटे पड़े हैं तो भला कोई इसकी मुखालफत कैसे करे। यह चुनाव नहीं है अतः माना जा सकता
है कि यह पेड न्यूज का मामला नहीं है, पर भारतीय प्रेस परिषद को स्वतः ही इस मामले में संज्ञान लेना चाहिए। अगर
मीडिया इसके दुष्प्रभाव को रेखांकित नहीं कर रहा है तो कहीं ना कहीं विज्ञापन इसकी
वजह हैं। विज्ञापनों के अहसान तले दबकर देश के साथ अगर अन्याय को बर्दाश्त कर रहा
है घराना पत्रकारिता का जनम वर्तमान मीडिया तो उसकी भी निंदा की जानी चाहिए। (साई
फीचर्स)