शनिवार, 14 मई 2011

775 साल का लेडी पावर



775 साल का लेडी पावर

(लिमटी खरे)

आजादी के पहले महिलाओं को कमतर ही आंका जाता रहा है। महिलाओं को चूल्हा चैका संभालने और बच्चे पैदा करने की मशीन ही समझते थे सभ्य समाज में पुरूष वर्ग के लोग। अस्सी के दशक के उपरांत यह मिथक शनैः शनैः टूटने लगा। लोग मानते थे कि महिलाओं को अगर घर की दहलीज से बाहर निकलने दिया गया तो कयामत आ जाएगी, समाज के चतुर सुजान इन महिलाओं का शोषण कर लेंगे, यही कारण है कि रूपहला पर्दा हो या फिर सियासत, सदा ही महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। कालांतर में महिलाओं को जब भी मौका दिया गया उन्होंने साबित कर ही दिया कि वे पुरूषों से कम कतई नहीं हैं।

भारत सदा से ही पुरूष प्रधान देश माना जाता रहा है। हिन्दुस्तान के सभ्य समाज में महिलाओं का स्थान काफी नीचे ही माना जाता रहा है। यह उतना ही सच है जितना कि दिन और रात कि भारतीय पुरूषों ने महिलाओं के वर्चस्व को कभी भी स्वीकार नहीं किया है। इतिहास में चंद उदहारण एसे हैं जिनमें महिलाओं द्वारा शासन किए जाने के किस्से सुनने को मिलते हैं। इक्कीसवीं सदी में भारत की महिला ने घर की चैखट लांघ दी है, अब वह पुरूषों के कांधों से कांधा मिलाकर चल रही है।
भारत मंे महिलाओं को जब भी अपने हुनर को प्रदर्शित करने का मौका मिला है, उन्होंने बखूबी अपने इस फन को साबित किया है। मैदान ए जंग से लेकर सियासी गलियारों तक में भारतीय महिलाओं ने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। 1755 के आसपास अमेरिका में भी अविवाहित महिलाओं को ही मत देने का अधिकार था। न्यूजीलेण्ड में महिलाओं के वोट देने और चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं था, बाद में 1893 में उन्हें मत देने तो 1919 में चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त हुआ।
दुनिया की पहली महिला सांसद फिनलैण्ड में 1907 में चुनी गई थी। दुनिया के चैधरी अमेरिका लगभग एक दशक (80 साल) की लड़ाई के बाद 1920 में यह हक मिल सका। साउदी अरब अमीरात में आज भी महिलाओं को चुनाव लड़ने दिया जाए या नहीं इस बात पर बहस जारी है। अफगानिस्तान में 1970, बंग्लादेश में 1972, इराक में 1980 तो कतर में 1998 में बदलाव की बयार बही।
भारत देश में महिलाओं ने अनेक वर्जनाओं को तोड़ा है। मुगल शासक रजिया सुल्तान दुनिया भर में संभवतः पहली महिला शासक थीं जिन्होंने सल्तनत संभाली हो। जांबाज योद्धा और न्यायप्रिय शासक रजिया सुल्तान अपने पिता इल्तुतमिश की सबसे लाड़ली थी। रजिया सुल्तान ने 1236 में दिल्ली की गद्दी संभाली। उस वक्त लोगों को लग रहा था, कि दिल्ली जैसी बड़ी रियासत को संभाल पाएंगी कि नहीं, किन्तु रजिया ने इस अवधारणा को गलत साबित कर दिया। रजिया सुल्तान ने मजबूत और बुलंद इरादों के साथ शासन संचालित किया, उस वक्त बगावत के सर उठाने वालांे का सर कुचल दिया गया।
1524 में पेदा हुई गौंड शासिका रानी दुर्गावती ने अपने पति राजा दलपत शाह की लाड़ली थीं, दलपत शाह के निधन के उपरांत रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण के छोटे रहने के कारण शासन संभाला। गढ़ मंडला दुर्ग पर कब्जे के लिए बादशाह अकबर की नीयत डोली और उन्होंने दुर्गावती को महिला और कमजोर समझकर अपने अधीन आने की पेशकश की। रानी दुर्गावती ने अकबर की इस बात को ठुकरा दिया और वीरता के साथ युद्ध किया, जंग में ही रानी दुर्गावती वीरगति को प्राप्त हुईं।
1725 में जन्मी अहिल्या बाई ने अपने पति खांडेराव होल्कर की मौत के उपरांत 1854 में होल्कर रियासत की जवाबदारी संभाली। इसके 52 वर्षों के उपरांत 1795 में उनका निधन हुआ। दक्षिण में रानी चेनम्मा को सिंहनी कहा जाता था। कर्नाटक के कित्तूर की रानी चेनममा ने गोरे ब्रितानियों के आदेश को मानने से इंकार कर दिया था। ब्रितानियो के साथ जमकर जंग लड़ी रानी चेनम्मा ने, बाद में उन्हें एक किले में नजर बंद कर दिया गया था, जहां उनका देहावसान हो गया था।
सुप्रसिद्ध कवियत्रि सुभद्रा कुमारी चैहान की बात किए बिना महिलाओं के पावर की बात अधूरी ही रह जाएगी। सुभद्रा कुमारी चैहान का जिक्र इसलिए क्योंकि उनके द्वारा झांसी की रानी का कविता के रूप में बखान इतना मीठा और जीवंत है कि आज भी बच्चे, युवा, प्रोढ़ या उमर दराज लोग -‘‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।‘‘ या ‘‘घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार।‘‘ जैसी पंक्तियां गुनगुनाते मिल ही जाते हैं। रानी लक्ष्मी बाई के सम्मान में मध्य प्रदेश सहित अनेक सूबों में महारानी लक्ष्मी बाई शाला (एमएलबी) की चेन स्थापित की गई है। 1834 मंे जन्मी लक्ष्मी बाई ने गंगाधर राव की मौत के बाद गद्दी संभाली थी। ब्रितानियों ने इनके गोद लिए बेटे को वारिस मानने से इंकार कर दिया था। रानी लक्ष्मी बाई ने अंगे्रजों का डटकर मुकाबला किया और आजादी की पहली लड़ाई में वीर गति को प्राप्त हुईं।
आजाद भारत में प्रियदर्शनी श्रीमति इंदिरा गांधी ने जिस उंचाई को छुआ उसे पाना शायद ही किसी के बस की बात हो। अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के अवसान के बाद इंदिरा गांधी ने देश और कांग्रेस दोनों ही की कमान संभाली। इसके उपरांत न्यूक्लियर पावर बनाने, विदेश नीति, संगठनात्मक एकता, निर्भीक शासन आदि की अद्भुत मिसाल पेश की इंदिरा गांधी ने। महिलाओं को आगे आने से रोकने के लिए कांग्रेस पर आरोप लगते रहे हैं, यही कारण है कि आज भी महिला आरक्षण बिल परवान नहीं चढ़ सका है।
कांग्रेस में श्रीमति सोनिया गांधी सर्वोच्च पद पर पहुंची जिनके हाथ में अघोषित तौर पर देश की बागडोर रहने के आरोप लगते रहे हैं। बाद में देश को 2007 में पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति के तौर पर प्रतिभा देवी सिंह पाटिल मिलीं। इसके उपरांत लोकसभा में पहली महिला अध्यक्ष के तौर पर मीरा कुमार भी मिल गईं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष भी श्रीमति सुषमा स्वराज हैं। स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री साठ के दशक में सुचिता कृपलानी थीं। इसके बाद उड़ीसा में नंदिनी सत्पथी मुख्यमंत्री बनीं। मध्य प्रदेश में उमा भारती भी मुख्यमंत्री रहीं। सत्तर के दशक में महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की शशिकला काकोडकर ने केंद्र शासित प्रदेश गोवा में मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला। अस्सी के दशक मंे अनवरा तैमूर मुख्यमंत्री बनीं तो इसी दौर में तमिलनाडू में एम.जी. रामचंद्रन की पत्नि जानकी रामचंद्रन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। सुषमा स्वराज दिल्ली, राबड़ी देवी बिहार, वसुंधरा राजे राजस्थान तो राजिन्दर कौर भट्टल पंजाब में सफल मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।
वर्तमान में दिल्ली की गद्दी श्रीमति शीला दीक्षित, उत्तर प्रदेश की निजाम मायावती हैं। अब आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तो तमिलनाडू मंे जयललिता मुख्यमंत्री बन महिला शक्ति को साबित करने वाली हैं। 2004 के बाद यह दूसरा मौका होगा जब देश के चार सूबों में महिला मुख्यमंत्री आसीन होंगी। इसक पूर्व 2004 में एमपी में उमा भारती, राजस्थान में वसुंधरा राजे, दिल्ली में शीला दीक्षित तो तमिलनाडू में जयललिता मुख्यमंत्री थीं। 1236 में रजिया सुल्तान की ताजपोशी से आरंभ हुआ लेडी पावर का सिलसिला 775 सालों बाद 2011 में भी बरकरार है। आने वाले साल दर साल यह और जमकर उछाल मारेगा इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। एसी मातृ शक्ति को समूचा भारत वर्ष नमन करता है।

रमेश ने खोला दिग्विजय के खिलाफ मोर्चा


मजबूर मनमोहन के मजबूर मंत्री

जयराम ने जाहिर की अपनी मजबूरी

दबाव में मिली महेश्वर डेम को मंजूरी!

दिग्विजय की रूचि गर्माई सियासत

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। वजीरे आजम डाॅ.मनमोहन सिंह के अप्रत्यक्ष दबाव के चलते मध्य प्रदेश की महेश्वर हाइड्रोइलेक्ट्रिकल बांध परियोजना पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने तो सहमति दे दी है, पर वे इससे बेहद खफा ही नजर आ रहे हैं। सहमति देने के दिन ही एक सेमीनार में जयराम रमेश ने कहा कि इस परियोजना को पास करने के लिए उन पर उपरीदबाव था।
गौरतलब होगा कि कुछ माह पूर्व प्रधानमंत्री ने देश के इलेक्ट्रानिक मीडिया के चुनिंदा संपादकों के साथ चर्चा के दौरान खुद को मजबूर बताया था, अब उनके मंत्री खुद को असहाय और मजबूर बता रहे हैं। इस परियोजना में सैद्धांतिक सहमति इसलिए नहीं दी जा पा रही थी, क्योंकि इसमें पर्यावरणीय समस्याएं हैं, इसका मतलब साफ है कि दबाव में देश के कर्णधार नियमों को धता बताने से भी नहीं चूक रहे हैं।
उधर मध्य प्रदेश कोटे से मंत्री रहे कमल नाथ के बाद अब कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय के खिलाफ भी जयराम रमेश ने मोर्चा खोल ही दिया है। कांग्रेस के अंदरखाने से छन छन कर बाहर आ रही खबरों पर अगर यकीन किया जाए तो जयराम रमेश ने अब कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह बताना आरंभ कर दिया है कि इस तरह के नियम विरूद्ध काम करने और मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चैहान के सुर में सुर मिलाने का काम राजा दिग्विजय सिंह ही कर रहे हैं।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश का आरोप है कि दबाव में एमपी की इस रूकी परियोजना को पास कराने के लिए कहा गया था। जयराम रमेश ने परोक्ष तौर पर इसके लिए प्रधानमंत्री डाॅ.एम.एम.सिंह और महासचिव दिग्जिवय सिंह को जवाबदार ठहराते हुए कहा कि अनेक अनियमिताओं को सहन करना उनकी मजबूरी है।

राज्यों में फाईव स्टार शालाओं में फटक नहीं पा रहे गरीब बच्चे


गरीबों की पहुंच से दूर निजी शालाएं

नई दिल्ली (ब्यूरो)। देश भर में शिक्षा के अधिकार कानून की सरेआम धज्जियां उड़ाई जा रहीं हैं। राज्य और सीबीएसई से मान्यता प्राप्त शालाओं में गरीब बच्चों के दाखिलों को लेकर बने दिशा निर्देश हवा में उड़ रहे हैं और संबंधित महकमे के कर्मचारी हाथ पर हाथ धरे सब कुछ देख रहे हैं। देश की राजनैतिक राजधानी में ही केंद्र और राज्य सरकार की नाक के नीचे दिल्ली नगर निगम से मान्यता प्राप्त 783 शालाओं में केवल 608 बच्चों को ही दाखिला दिया गया है।
ज्ञातव्य है कि कांग्रेस नीत केद्र सरकार की अति महात्वाकांक्षी परियोजना शिक्षा के अधिकार के कानूनी स्वरूप में आ जाने के बाद अब शाला की कुल छात्र क्षमता का पच्चीस फीसदी हिस्सा गरीबों के बच्चों के लिए सुरक्षित रखना अनिवार्य है। इन विद्यार्थियों को शाला द्वारा निशुल्क शिक्षा प्रदाय किए जाने का प्रावधान किया गया है।
देश भर में चल रही शिक्षा की दुकानों अर्थात शैक्षणिक संस्थाओं में गरीबों को दरवाजे से ही भगाए जाने की घटनाएं प्रकाश में आईं हैं। डर दहशत और पचड़े में फंसने से बचने के लिए गरीब गुरबों द्वारा इसकी शिकायत नहीं की जाती है। सीबीएसई के एक अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा कि जिला प्रशासन को चाहिए कि वह हर शाला को ताकीद करे कि शाला प्रबंधन इस बात की मुनादी पिटवाए कि उसकी शाला में गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा प्रदाय किए जाने का प्रावधान है।

‘भारतीय‘ होने पर शर्मसार युवराज


भारतीयहोने पर शर्मसार युवराज

(लिमटी खरे)

‘‘उत्तर प्रदेश में यमुना एक्सपे्रस हाईवे के लिए भूमि अधिग्रहण के मामले में तबियत से सियासत की जा रही है। सारे राजनैतिक दल इस मामले के गर्म तवे पर रोटियां सेंकने पर आमदा हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने सूबे सुरक्षा एजेंसीको चकमा देकर किसानों के बीच खुद को पहुंचाकर मीडिया में अपना महिमा मण्डन करवा लिया है। यक्ष प्रश्न तो यह है कि जब इलाका सील हो और परिंदा भी वहां पर न मार सकता हो, तब राहुल गांधी जैसा नामचीन चेहरा आखिर इस चक्रव्यूह को भेदकर अंदर कैसे पहुंचा। क्या एसपीजी आंखों में पट्टी बांधकर बैठी थी? क्या यह कांग्रेस और बसपा की मिली भगत है? चाहे जो भी हो डर तो इस बात का है कि कहीं सियासी लड़ाई में किसानों का मुद्दा गौड़ न हो जाए। राहुल का बड़बोलापन पहली बार झलका है जब उन्होंने व्यवस्था पर शर्म करने के बजाए खुद को भारतीय होने पर शर्म की बात कही है। क्या इसे उनकी मा सोनिया गांधी के पीहर से जोड़कर देखा जाए!‘‘

देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी तथा युवराज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्रों को अपने आंचल मंे सहेजने वाले उत्तर प्रदेश सूबे में यमुना एक्सपे्रस हाईवे का निर्माण किया जा रहा है। तर्क दिया गया है कि इसके बनने से सूबे के विकास में चार चांद लग जाएंगे, इसके बनने से आम आदमी को जमकर फायदा होने की उम्मीद जताई जा रही है। यक्ष प्रश्न आज भी अनुततरित ही है कि इस तरह के मार्ग बनने से फायदा किसे होने वाला है? यदि यह मार्ग बना भी तो इसका उपयोग वही कर सकेंगे जिनके पास मोटर कार, ट्रक एवं परिवहन के अन्य साधन हैं। गरीब गुरबों के लिए तो यात्री बस ही सहारा होगी। कोई भी तीव्रगामी मार्ग जब बनता है तो गरीब की साईकल, बैलगाड़ी, तिपहिया और छोटे वाहनों का उस पर चलना प्रतिबंधित कर दिया जाता है। इस रफ्तार में उनको प्रवेश नहीं है जिनके हितों की दुहाई देकर इसका निर्माण कराया जाता है। जिस देश में आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही हो उनके लिए इस तरह के मार्ग का क्या ओचित्य?
देश की राजनैतिक राजधानी से सटे ग्रेटर नोएडा में भट्टा पारसौल गांव में भूमि के अधिग्रहण को लेकर मारकाट मची हुई है। हर एक सियासी दल इसका लाभ लेने की जुगाड़ में है, तो भला कांग्रेस कैसे पीछे रहने वाली। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश के चुनावों को देखकर अपने भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी को दौड़ा दिया भट्टा पारसौल गांव। राहुल गांधी के अंदर यह गुण है कि वे अपनी अभिजात छवि को तोड़कर आम आदमी के साथ सीधा रिश्ता बनाते हुए दिखाई पड़ ही जाते हैं। चाहे दलित के घर रात बितानी हो या फिर मुंबई में लोकल ट्रेन का सफर या एटीएम से पैसे निकालना, वे हर बार आम जनता से सीधा संवाद करते नजर आए हैं। कांग्रेस चाहती है कि वह राहुल की साफ छवि के साथ वैतरिणी पार कर ले किन्तु इसके लिए कांग्रेस को अपना चेहरा भी बदलना होगा।
कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी द्वारा मायावती सरकार के सारे नियम कायदों को धता बताते हुए उनके चक्रव्यूह को तोड़कर बुधवार को अलह सुब्बह ग्रेटर नोएडा जा पहुंचे। राहुल का वहां जाना अनेक सवालों को जन्म दे गया है। अगर राहुल गांधी प्रदेश सरकार के नियम कायदों को तोड़ रहे थे तब उनकी सुरक्षा में लगे स्पेशल प्रोटेक्शन गु्रप के जवान क्या मूक दर्शक बनकर उन्हें कानून तोड़ने दे रहे थे? एसपीजी भारत सरकार के दिशा निर्देश पर काम करती है या फिर वह भी राहुल गांधी की लौंडीबनकर रह गई है। हालात देखकर लगता है मानो राहुल गांधी को सुरक्षा की दृष्टि से भारत सरकार द्वारा एसपीजी नहीं वरन् राहुल गांधी ने खुद ही किसी निजी सिक्यूरिटी एजेंसी से भाड़े पर सुरक्षा कर्मी ले रखे हों।
 वैसे तो यहां किसानों द्वारा 17 जनवरी से आंदोलन किया जा रहा है, किन्तु तब इसे हवा नहीं मिल सकी। सियासी दलों की नजर लगने के बाद भट्टा पारसौल आग में झुलस रहा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। पुलिस और किसानों के बीच हुए द्वंद के बाद अब जो जमीन तैयार हुई है उसे देखकर लगने लगा है कि मिशन यूपी 2012 की जमीन पूरी तरह तैयार हो चुकी है। राजनैतिक दल अपना अपना हित साध रहे होंगे किन्तु उन्हंे इस बात पर भी मंथन अवश्य ही करना चाहिए कि बार बार विकास, सड़क या औद्योगिक परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के बाद किसान हर बार ठगा सा महसूस क्यों करता है? देशवासियों के बीच बनने वाली यह धारणा बेमानी नहीं है कि सरकार अब बड़े औद्योगिक घरानों के एजेंट के तौर पर काम कर रही है।
आखिर क्या कारण है कि अंग्रेजों के जमाने 1894 में बने जमीन अधिग्रहण कानून को भारत सरकार अब तक तब्दील नहीं कर पाई है? 1894 में बने इस कानून में 1998 में कुछ सुधार किया गया है, जो सरकार को सार्वजनिक मकसद के लिए अपनी कीमत पर जमीन खरीदने का हक देता है। इस बारे में कानून विदों की राय में जमीन की वाजिब कीमत क्या होगी और सार्वजनिक मकसद किसे कहा जाएगा? अब तक स्पष्ट नहीं है। 2009 में लोकसभा में बिल लाया गया किन्तु पारित न हो सका।
देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसानों की जमीनों के अधिग्रहण की खिलाफ धधकती असंतोष की आग बरास्ता दादरी, नंदीग्राम, सिंगूर, जगतसिंहपुर, जैतापुर, नियामगिरी होती हुई अब ग्रेटर नोएडा पहुंच ही गई। 1985 में नर्मदा घाटी परियोजना में बनने वाले बाधों के विरोध में बाबा आम्टे और मेघा पटेकर ने आंदोलन किया था। टिहरी बांध में उत्तराखण्ड में तो उड़ीसा में नियामगिरी में वेदांता परियोजना, में भी कमोबेश यही आलम रहा।
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में नवंबर 2007 में इंडोनेशिया की एक कंपनी सालिम ग्रप के एसईजेड के लिए जमीन अधिग्रहण में पुलिस के साथ विवाद में 14 तो बंगाल के ही सिंगूर में टाटा के नैनो कार प्लांट के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले किसानों में से 14 को पुलिस की गोली का शिकार होकर जान गंवानी पड़ी थी। 2008 में अमरनाथ श्राईन बोर्ड को 99 एकड़ जमीन दने के विरोध में हुए प्रदर्शन में सात लोग मरे, तो यूपी के गाजियाबाद के दादरी में 2004 में अनिल अंबानी के स्वामित्व वाले रिलायंस गु्रप के लिए 2500 एकड़ के अधिग्रहण में भी विवाद हुआ।
पिछले साल अलीगढ़ में टप्पल में हुई हिंसा में तीन किसान और एक पुलिस कर्मी की मौत हुई। जगतसिंहपुर जिले में दक्षिण कोरिया की एक स्टील कंपनी पास्कोकी परियोजना का भी पुरजोर विरोध किया गया, इसके बाद अब ग्रटर नोएडा के भट्टा पारसौल गांव में हिंसा फैली। दिल्ली से आगरा को जोड़ने वाले 165 किलोमीटर लंबे इस मार्ग के लिए 43 हजार हेक्टेयर भूमि की आवश्यक्ता है। आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो आजादी के बाद से अब तक देश में एक ओर जहां कृषि योग्य भूमि का प्रतिशत तेजी से गिरा है तो दूसरी ओर सिंचित भूमि का प्रतिशत कम मात्रा में ही बढ़ा है।
किसानों के रिसते घावों पर युवराज राहुल गांधी घटनास्थल पर अवश्य गए। राजनैतिक तौर पर अपरिपक्व राहुल वहां पहुंचे तो मंझे हुई राजनीतिक हस्ती कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय सिंह की बैसाखी के सहारे। क्या राहुल गांधी को पीएसी के उन जवानों से कोई सरोकार होगा जिन्हें वहशी तरीके से पीट पीट कर मौत के घाट उतार डाला। कांधे पर हल रखकर चलने वाला किसान क्या बंदूकों के माध्यम से आंदोलन छेड़ता है? अगर उत्तर प्रदेश मंे मायावती लोकतंत्रके स्थान पर हिटलरशाहीचला रही हैं तो राहुल और कांग्रेस तो क्या हर सियासी दल को इसका प्रतिकार करने का पूरा अधिकार है, पर लोकतांत्रिक तरीके से, न कि खून से रंगे हाथों की तरफदारी कर सियासी रोटियां सेंकने की तरह से। इस बात पर भी बहस होना चाहिए कि पुलिस वालों की हत्या करने वाले क्या वाकई किसान थे या फिर जमीनों के दलाल। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुके मोगलीकी कर्मभूमि है देश के हृदय प्रदेश का सिवनी जिला, इस जिले में पिछले एक दशक में जमीन के दलालों ने सरकारी नुमाईंदों के साथ मिलकर सरकारी और निजी जमीनों को बेच दिया है। सूबे की सरकार सोई पड़ी है, विधायक और सांसद अपने निहित स्वार्थों में व्यस्त हैं। बंदरबांट जारी है जिसके हिस्से जो लग रहा है, वह लेकर चंपत हो रहा है।
बहरहाल, एक समाचार एजेंसी के अनुसार राहुल गांधी ने खुद के भारतीय होने पर शर्म महसूस करने वाली बात कही है, जिसकी सिर्फ निंदा से काम चलने वाला नहीं है। राहुल गांधी का किसानों की व्यथा देखकर दुखी होना (बशर्ते वे दुखी होने का प्रहसन कर रहे हों) लाजिमी है, किन्तु उन्हें इस पर खुद के भारतीय होने पर शर्माना कैसा? क्या राहुल गांधी के राजनैतिक प्रशिक्षकों ने उन्हें यह बात नहीं बतलाई है कि उनके परदादा पंडित जवाहर लाल नेहरू, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी इस देश के वजीरे आजम रहे हैं, जिन्होंने साल दर साल देश पर राज किया है। देश के कानून कायदे उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं। आपकी माता जी अवश्य ही इटली मूल की हैं, पर आपके पिता और पितामह सभी खालिस हिन्दुस्तानी हैं, आप इस तरह की बयानबाजी कर विरोधियों को बोलने का मौका दे रहे हैं। बहरहाल राहुल गांधी के भारतीय होने पर शर्म करने की बात गले नहीं उतरती। राहुल गांधी को चाहिए था कि वे इस देश की या उत्तर प्रदेश की व्यवस्था पर शर्म जताते, वस्तुतः एसा उन्होंने किया नहीं।

मध्य प्रदेश में एक भी बैठक नहीं हुई पांच सालों में


एमपी में मनरेगा की सुस्त चाल से केंद्र खफा

नहीं हो रही विजलेंस मानीटरिंग कमेटी की बैठकें

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। केंद्र सरकार और संप्रग अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी की महात्वाकांक्षी योजना जो अब कानून में तब्दील हो चुका है की सुस्त चाल से केंद्र ने मध्य प्रदेश पर नजरें तिरछी कर ली हैं। महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) में राज्यों में हो रही गफलत से वैसे भी प्रधानमंत्री काफी आहत नजर आ रहे हैं। मनरेगा में राज्य और जिला स्तरों पर विजलेंस समितियों की बैठक नही ंहोने का असर इस पर पड़ रहा है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि मनरेगा की सुस्त चाल मध्य प्रदेश सहित उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, झारखण्ड, पंजाब आदि सूबों में चल रही है। मनरेगा के कार्यों के लिए राज्य और जिला स्तर पर विजलेंस मानीटरिंग समितियां बनाई गई हैं। राजनैतिक दबाव में जिलाधिकारियों द्वारा इसकी बैठकें नहीं बुलाई जा रही हैं, जिससे इसके प्रदर्शन पर असर पड़ रहा है।
सूत्रों ने कहा कि मंत्रालय इस बात से खफा है कि मध्य प्रदेश सहित उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, झारखण्ड, पंजाब आदि सूबों में विजलेंस कमेटी की एक भी बैठक नहीं बुलवाई गई है। जबकि मनरेगा के निमयों के अनुसार कमेटी मंे स्थानीय विधायक और सांसदों को शामिल किया जाकर इसकी बैठक राज्य सतर पर एक साल में कम से कम दो और जिला स्तर पर साल में कम से कम चार बार आहूत करना आवश्यक है। देश भर में राज्य स्तर पर कम से कम 330 बैठकें आहूत होनी थी किन्तु कानून की शक्ल अख्तियार करने के बाद भी इसकी महज 56 बैठकें ही हो सकीं हैं।

घरेलू पेयजल के मानक तय करने का मसौदा तैयार


पेयजल के लिए सरकार हुई संजीदा

नई दिल्ली (ब्यूरो)। बोतल बंद पानी और शीतल पेय के जैसे ही आने वाले समय मंे घरेलू उपयोग के पेयजल के मानक तय किए जाने वाले हैं। इसके पीछे केंद्र सरकार का उद्देश्य रियाया को पीने का शुद्ध पानी मुहैया करवाना है। वर्तमान में लोगों को पेयजल भले ही सरकार के स्थानीय निकाय ही उपलब्ध करा रहे हों किन्तु सरकार इस बात पर जोर देने वाली है कि पानी की किल्लत को दूर करने के लिए बनाई जाने वाली नीतियों में स्थानीय आवश्क्ताओं को भी ध्यान में रखा जाए।
राष्ट्रीय पेयजल एवं स्वच्छता परिषद की पहली बैठक में ही सदस्यों द्वारा घरों में प्रदाय किए जाने वाले पेयजल की शुद्धता के मानक तय करने पर जोर दिया। बैठक में इस बात पर भी बल दिया गया कि एसे उपाय ढूंढे जाने चाहिए जिससे जल स्त्रोतों का अधिक से अधिक दोहन किया जाकर जल की रीसाईक्लिंग के बेहतर उपाय भी ढूंढे जाएं।
यद्यपि घरों मंे प्रदाय किए जाने वाले पेयजल के मानक तय करने की बात हवा में उछाल दी गई है, फिर भी माना जा रहा है कि जिस तरह सालों साल से शीतल पेय और बोतल बंद पानी के मानक ही सरकार आठ सालों मंे तय नहीं कर पाई उसी तरह पेयजल के मानक तय करने का मसला भी अधर में ही रह जाएगा।