दमनकारी नीतियों का परिणाम है लालघाट का आतंक
(लिमटी खरे)
आजाद भारत के इतिहास में संभवत: यह पहला मौका होगा जबकि केंद्र या राज्य सरकार से इतर कोई संगठन किसी क्षेत्र विशेष में अपनी सल्तनत चला रहा हो। पश्चिम बंगाल सूबे में कुछ इसी तरह की तस्वीर उभरकर सामने आई है। वैसे तो नक्सलवाद प्रभावित जिलों के कुछ इलाकों में भी उनका अपना कानून चलता है, किन्तु वह अघोषित तौर पर, सरकारी नुमाईंदे भी नक्सली कानून मानने को बाध्य रहते हैं, किन्तु सब कुछ दबे छुपे ही चलता रहता है।
उड़ीसा और झारखण्ड से लगे पश्चिम बंगाल के चार जिलों पश्चिमी और पूर्वी मिदनापुर, परूलिया, बांकुड़ा में पिछले तीन दिनों मेें जो कुछ हुआ वह पश्चिम बंगाल की बुद्धदेव सरकार को शर्मसार करने के लिए काफी कहा जा सकता है। सियासी लड़ाई में भले ही एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप मढ़कर ठीकरा किसी के भी सर फोड़ने का कुित्सत प्रयास किया जाए, किन्तु यह निंदनीय है कि राज्य सरकार हालातों पर काबू पाने में पूरी तरह विफल रही है।
वैसे तो पिछले साल जब पश्चिमी मिदनापुर में मुख्यमंत्री और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के काफिले पर शालबनी में जो बारूदी सुरंग का हमला हुआ था, तभी बुद्धदेव सरकार को नक्सलवाद की भयावहता को समझ लेना चाहिए था, वस्तुत: एसा हुआ नहीं। सरकार की अनदेखी के चलते पिछले लगभग सात आठ माह से इस इलाके में पुलिस का घुसना ही मुश्किल हो गया है। सरकारी सूचना 25 गांव पर माओवादियों के कब्जे की है, किन्तु वास्तविकता में इनकी संख्या कहीं ज्यादा है।
माओवादियों की जुर्रत तो देखिए उन्होंने लालगढ़ को आजाद घोषित कर दिया है। सुरक्षा बलों को वहां पहुंचने में एड़ी चोटी एक करनी पड़ रही है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि माओवादियों ने उत्तर पूर्व से दक्षिण पूर्व के गलियारे को ``आजाद क्षेत्र`` बनाने का मंसूबा भी पाल रखा है। इस गलियारे में पड़ने वाले सूबों की सरकारों ने अगर िढलाई बरती तो आने वाले दिनों में अखण्ड भारत के एक हिस्से में माओवादी अपना साम्राज्य स्थापित कर लेंगे।
सरकारी ढील पोल के चलते माओवादियों के बुलंद होसलों की बानगी है पिछला लोकसभा चुनाव। निष्पक्ष और निभीZक चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध चुनाव आयोग भी आम चुनावों के दौरान यहां मतदान केंद्र नहीं बना सका था। यहां से बाहर मतदान केंद्र बनाकर चुनाव संपन्न कराए गए। इस साल अप्रेल और मई में हुए लोकसभा चुनाव में जब हालात इतने संगीन थे, तब केंद्र और राज्य सराकर की चुप्पी रहस्यमय ही कही जाएगी।
सियासी नफा नुकसान के गणित में कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल के मसले में सदा से ही अनिश्चय का रूख अिख्तयार किया हुआ है। पिछले पांच सालों में वामदलों की बैसाखी पर चलने वाली कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने नंदीग्राम और सिंगूर की हिंसा पर कोई सकारात्मक पहल तक नहीं की। वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस का पश्चिम बंगाल में अस्तित्व और राज्य के विधानसभा चुनाव एक बड़ी मजबूरी के तौर पर सामने आ रहे हैंं।
यह विडम्बना से कम नहीं है कि माओवादियों के आतंक वाले राज्यों में जब भी कोई वारदात होती है तो वामदल पूरी तरह खामोश रहा करते हैं, किन्तु जब अपने प्रभावक्षेत्र वाले पश्चिम बंगाल की बात आती है तो सरकार तुरंत इस पर कार्यवाही करने तैयार हो जाती है। मतलब साफ है कि माओवादियों का नृत्य कहीं न कहीं किसी न किसी सियासी पार्टी के इशारों पर ही हो रहा है।
हालात देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि सूबे में माओवादियों का उद्देश्य बुद्धदेव सरकार को हिलाना है। उनके अधिकार वाले क्षेत्र में राज्य सरकार पर उपेक्षा का आरोप लगाकर माओवादियों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, बिजली आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमान अपने हाथों में ले ली है।
लाख टके का सवाल यह है कि आखिर भोले भाले आदिवासी और ग्रामीण इन अलगाव वादी, माओवादी, नक्सलवादियों का साथ देने तैयार कैसे हो जाते हैं? जाहिर है जब सरकार उन्हें उनके मूलभूत अधिकार का संरक्षण और सुविधाओं को उपलब्ध नहीं कराएगी तो इस तरह की ताकतें इसका बेजा इस्तेमाल कर ग्रामीणों को अपने शिकंजे मेंं कसेंगी ही।
माओवादी सरेआम कह रहे हैं कि उन्हें कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का समर्थन प्राप्त है, वहीं देश के गृह मंत्री पी.चिंदम्बरम कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को इस मामले में क्लीन चिट देने से नही चूक रहे हैं। आज सवाल सिर्फ पश्चिम बंगाल का नहीं है। माओवादियों, के निशाने पर छत्तीगढ़, महाराष्ट्र, झारखण्ड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, बिहार आदि हैं। अगर इन पर अभी लगाम नहीं लगाई गई तो आने वाले समय में ये केंद्र और सूबे की सरकारों के लिए एक नासूर बनकर ही उभरेंगे।
वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में अखण्ड भारत का बुर्ज कहा जाने वाला काश्मीर का कुछ हिस्सा अलग कर दिया गया है। इंटरनेट के किसी भी सर्च इंजन में अगर भारत के मानचित्र को सर्च किया जाए तो उपरी हिस्सा पहले की तुलना में काफी छोटा दिखाई देता है। वस्तुत: भारत सरकार को इन सर्च इंजन को चलाने वाले संगठनों को नोटिस देकर पूछना चाहिए कि भारत के मानचित्र के साथ छेड़छाड़ करने का अधिकार उन्हें किसने दिया? जब भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही इसकी फिकर नहीं है तो अंदरूनी मामलात के मामले में तो उससे कोई उम्मीद करना बेमानी ही होगा।
आर पार की लड़ाई मूड में दिख रहे वोरा और महंत
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीसीसी) के बीच आने वाले दिनों में आर पार की लड़ाई के आसार दिखने लगे हैं। दरअसल एआईसीसी के कोषाध्यक्ष एवं छग के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मोती लाल वोरा और सांसद तथा पीसीसी के कार्यकारी अध्यक्ष चरण दास महंत के बीच वर्चस्व को लेकर चल रही जंंग गहरा गई है।
केंद्रीय मंत्रीमण्डल विस्तार में छग के इकलोते कांग्रेसी सांसद चरण दास महंत को न लिए जाने के पीछे राजनैतिक फिजां में तरह तरह की चर्चाओं का बाजार गर्मा गया था। इसमें अजीत जोगी के अलावा मोतीलाल वोरा द्वारा महंत के विरोध में अभियान चलाए जाने को प्रमुख वजह माना गया था।
उधर महंत के करीबी सूत्रों का कहना है कि चरण दास महंत को पूरी उम्मीद थी कि 15वीं लोकसभा में चुने जाने के उपरांत कांग्रेस सुप्रीमो उन्हें लाल बत्ती से नवाजेंगी। सूत्रों ने कहा कि इस मामले में वोरा द्वारा लगाए गए फच्चर के बाद महंत काफी सदमें में हैं। हाल में मोती लाल वोरा की रायपुर यात्रा के दौरान दोनों के बीच मेल मिलाप न होने की चर्चाएं एआईसीसी में गर्माने लगी हैं।
एआईसीसी सूत्रों का कहना है कि निजी यात्रा पर कांग्रेस कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा रायपुर गए थे, जहां वे पीसीसी भी कुछ देर के लिए गए। वोरा के आगमन की सूचना कार्यकारी अध्यक्ष महंत को दी गई किन्तु महंत ने तब तक कार्यालय की ओर रूख नहीं किया जब तक वोरा वहां रहे।
कल तक एक साथ कदमताल करने वाले चरण दास महंत और मोती लाल वोरा के बीच शीत युद्ध गहराने का सीधा सीधा लाभ प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को होने वाला है। बिना प्रयासों के ही उनके दो विरोधी महंत और वोरा एक दूसरे की जड़ें काटते नजर आ रहे हैं।
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