शुक्रवार, 1 मई 2009

३० अप्रैल 2009

अराजकता के घेरे में स्कूलों की शिक्षा प्रणाली
0 एक के बाद एक मौत के बाद भी नहीं जाग रहीं सरकारें
0 शिक्षा से इतर काम के बोझ के तले दबे तो नहीं हैं शिक्षक
0 आचार्यों का मेडीकल परीक्षण आवश्यक

(लिमटी खरे)

देश भर में एक के बाद एक विद्यार्थी की मौत की खबरें मीडिया की सुिर्खयों में हैं, और सरकारें हैं कि जागने का नाम ही नहीं ले रही हैं। देश की राजधानी दिल्ली में ही आकृति भाटिया, फिर शन्नो की मौत का मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ कि दक्षिणी दिल्ली के संगम विहार में आठवीं की एक पंद्रह वषीZय छात्रा जीनत परवीन द्वारा खुदकुशी करने का नया मामला सामने आ गया है।
इस मामले में कहा जा रहा है कि उक्त छात्रा पर सहपाठी के 130 रूपए चुराने का आरोप था। तलाशी लेने पर जब रूपए जीनत के पास से मिले तो उसे कक्षा से बाहर होने की सजा दे दी गई। अगले दिन जब वह स्कूल पहुंची तो शिक्षिका ने उसे बुरी तरह डॉट कर वहां से भगा दिया। जब उसकी मां को बुलाकर यह बात बताई गई तो जीनत ने घर पहुंचकर पंखे से लटककर इहलीला ही समाप्त कर ली।
शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ ज्यादती के समाचार जब तब सुनने को मिलते रहते हैं। सुदूर ग्रामीण अंचलों में इस तरह विद्यार्थियों के साथ होने वाले दुर्वयवहार की खबरें अमूमन छिप जाया करती हैं, किन्तु शहरी और जन जागृति वाले इलाकों में खबरों को लोगों के सामने नमक मिर्च लगाकर परोस दिया जाता है।
समूचे वाक्यात देखकर लगता है कि जिस तरह पहले विद्यार्थियों का स्वास्थ्य परीक्षण करवाया जाता था, उसी तरह अब शिक्षक शिक्षिकाओं का भी स्वास्थ्य परीक्षण करवाने की महती आवश्यक्ता है। सरकारें और प्रशासन इस मामले में आगे आने से रहा। अब गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को ही आगे आकर इस महत्वपूर्ण जवाबदारी का निर्वहन करना होगा।
वैसे शिक्षकों का यह दायित्व है कि वे अपने विद्यालय और विद्यार्थियों के हितों का पूरा पूरा ध्यान रखे। शिक्षकों के द्वारा जाने अनजाने में किए जा रहे इस तरह के अपराधों को क्षम्य नहीं माना जा सकता है। आदि अनादिकाल में गुरूकुलों में भी आचार्यों द्वारा अपने शिष्यों को दण्ड दिया जाता था। माना जाता रहा है कि छात्र के आचरण को सुधारने के लिए शिक्षकों को कुछ हद तक कठोर रवैया अपनाना चाहिए, किन्तु इसकी एक सीमा होनी चाहिए। शिक्ष्ज्ञकों को चाहिए कि वे मनोवैज्ञानिक तरीके से अपने विद्यार्थियों को पटरी पर लाने का प्रयास करें, किन्तु यह प्रक्रिया धेर्य संयम और समय चाहती है, जिसका अभाव साफ तौर पर शिक्षकों के पास परिलक्षित होता है।
हमारे अपने विचार में खामी हमारी प्रणाली में ही है। शालाओं में शिक्षकों की भर्ती के दौरान उनकी मनोवैज्ञानिक पड़ताल करने या कुछ शिक्षकों को मामूली सी सजा देने भर से समस्या का निदान होता प्रतीत नहीं होता है। अगर प्रणाली में परिवर्तन नहीं किया गया तो आने वाले समय में विद्यार्थियों की निर्मम पिटाई के जो मामले यदा कदा सुनने में आते हैं, उनकी संख्या में विस्फोटक इजाफा हो सकता है।
आखिर कोई शिक्षक इस तरह निर्मम कैसे हो जाता है? इस प्रश्न के उत्तर के बिना इस समस्या का हल नहीं खोजा जा सकता है। शिक्षकों को चाहिए कि सजा देने के बीसवीं सदी के तरीकों के बजाए वे अब मनोवैज्ञानिक तरीकों को अपनाएं। दरअसल वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में भारी भरकम पाठ्यक्रम को पूरा कराना ही शिक्षकों के सामने सबसे बड़ा बोझ है, और यही बोझ धीरे धीरे उनकी कुंठा में तब्दील होकर आक्रोश पर जाकर समाप्त होता है।
वैसे भारत का कानून विद्यार्थियों के लिए हितकर कहा जा सकता है, किन्तु इसमें संशोधन की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। आईपीसी की धारा 88 और 89 में शिक्षकों को लाभ देते हुए सजा से छूट दी गई है। माना जाता है कि बच्चों की भलाई के लिए वह एसा करेगा। धारा 83 में किए गए प्रावधान के तहत 12 साल तक की उम्र के बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से की जाने वाली स्वाभाविक गिल्तयों के लिए दण्डित नहीं किया जा सकता है।
बहरहाल आज शिक्षकों से सरकारों द्वारा कराई जाने वाली बेगार भी शिक्षकों की मनोदशा बिगाड़ने के लिए पर्याप्त कही जा सकती है। मसला चाहे जनगणना का हो या फिर वोटर आईडी कार्ड बनवाने का। हर एक मामले में सरकारों द्वारा शिक्षकों को कोल्हू के बैल की तरह पेरा जाता है। एसी स्थिति में शिक्षक भला अपना निर्धारित भारी भरकम कोर्स पूरा कैसे करवा सकता है?
आज जरूरत इस बात की है कि सरकरों को चाहिए कि वे शिक्षकों की समस्याओं के प्रति व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाएं, साथ ही साथ शिक्षको को भी विद्यार्थियों को शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना देने के बजाए उनके साथ सहानुभूति रखकर मनोवैज्ञानिक तरीके से सुधारने का प्रयास करेें, अन्यथा शिक्षक पद की गरिमा को तार तार होने से कोई भी नहीं रोक सकेगा।


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सर्वेक्षण ने उड़ाए कांग्रेस के होश!
0 सरकारी खुफिया एजेंसी ने भेजी सरकार को रिपोर्ट
0 कांग्रेस 125 तो भाजपा 165 पर काबिज
0 वामदलों पर न्यूनतम निर्भरता का सिद्धांत अपनाया कांग्रेस ने

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। सरकार की खुफिया एजेंसी ने गुपचुप तौर पर कराए सर्वे की रिपोर्ट पाकर कांग्रेस आलाकमान के पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी है। वैसे तो देश भर में जनमत सर्वेक्षण पर घोषित तौर पर प्रतिबंध है, बावजूद इसके राजनैतिक दलों द्वारा प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव तक गोपनीय तौर पर सर्वे करवाया गया है।
कांग्रेस की सत्ता और शक्ति के केंद्र 10 जनपथ के आला दर्जे के सूत्रों ने बताया कि सरकारी खुफिया एजेंसियों ने देश भर में लोकसभा चुनाव को लेकर चुपचाप सर्वे किया है, और उस सर्वे को एजेंसियों ने अपने आलंबरदारों को भेज भी दिया है। सरकारी तंत्र से यह सर्वे कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी तक पहुंच गया है।
सूत्रों ने बताया कि इस सर्वेक्षण में भाजपा को 145 से 165 तो कांग्रेस को 115 से 125 सीटें मिलने की भविष्यवाणी की गई है। इसमें बहुजन समाज पार्टी (मायावती) को 25 से 35, समाजवादी पार्टी (मुलायम सिंह) को 20 से 25, लोकशक्ति जनशक्ति पार्टी (पासवान) एवं राजद (लालू यादव) को 8 से 9 मिलने की उम्मीद जताई है।
इसके अलावा माक्र्सवादी और भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी को 35 से 40 तथा जयललिता, वाईको और पीएमके मिलाकर 40 सीटें मिल सकती हैं। सर्वे में यह भी कहा गया है कि हो सकता है करूणानिधि को एक भी सीट न मिले और केरल में भाजपा अपना खाता खोल ले। इस रिपोर्ट में जबर्दस्त चौंकाने वाले तथ्य हैं, जिन पर आसानी से भरोसा नहीं किया जा सकता है।
इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता को भांपकर अब कांग्रेस के मैनेजरों ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के नए स्वरूप के आधार तलाशने आरंभ कर दिए है। इसके लिए लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, शरद पवार के अलावा मायावती, जयललिता, नितीश कुमार, नवीन पटनायक आदि से तालमेल की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। सूत्रों के अनुसार इस बार वाम दलों पर न्यूनतम निर्भरता के सिद्धांत पर कांग्रेस के मेनेजर काम कर रहे हैं।

संघ ने संभाली प्रचार की कमान
0 आड़वाणी की छवि से चिंतित है संघ
0 भाजपा को सत्ता पर काबिज करने कसी कमर

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। आम चुनावों के दो चरणों में मतदाताओं की बेरूखी को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अब प्रचार की कमान खुद ही संभालने का निर्णय लिया है। संघ के आला नेताओं का मानना है कि राजग के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आड़वाणी मतदाताओं के बीच अटल बिहारी बाजपेयी जैसा करंट पैदा करने में सक्षम नहीं दिख रहे हैं।
संघ के उच्च पदस्थ सूत्रों ने बताया कि एल.के.आड़वाणी की छवि ने संघ नेतृत्व की पेशानी पर चिंता की लकीरें उकेर दी हैं। संघ नेतृत्व ने अब अगले तीन चरणों के लिए अपने स्वयं सेवकों को मैदान में डटने के निर्देश दे दिए हैं।
सूत्रों ने बताया कि इससे पूर्व आड़वाणी को पीएम के रूप में हरी झंडी देने के बाद संघ ने भाजपा को आम चुनाव हेतु रणनीति बनाने फ्री हेण्ड दे दिया था। बाद में जब संघ नेतृत्व जमीनी हकीकत से रूबरू हुआ तो उसके होश उड़ गए। सूत्रों ने बताया कि सरसंघ संचालक मोहन राव भागवत को बताया गया कि भाजपा कार्यकर्ताओं तक में आड़वाणी को लेकर जोश नहीं है।
दूसरी ओर भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेताओं द्वारा एन चुनावों के चलते गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री निरूपित करने पर संघ काफी खफा नजर आ रहा है। कहा जा रहा है कि संघ के निर्देश पर ही आड़वाणी ने अब अगले प्रधानमंत्री के रूप में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम फिजां में तैरा दिया हैै, ताकि चुनाव के चलते मोदी फेक्टर में उनकी छवि पर असर न पड़े।
दरअसल संघ चिंतित इस बात को लेकर है कि अगर इस बार भी भाजपा केंद्र में सत्ता से दूर रहती है, तो भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल बुरी तरह टूट जाएगा और कार्यकर्ताओं में बिखराव सुनिश्चित ही है। विहिप, बजरंग दल, स्वदेशी जागरणमंच आदि संगठनों की तोप की नाल अभी तक खुली नहीं है, जो संघ का इशारा मिलते ही गोले दागना आरंभ कर देगी।

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