राजनैतिक दलों के एजेंडे से बाहर हुए विद्यार्थी!
(लिमटी खरे)
देश में जब भी किसी भी चुनाव की रणभेरी बजती है, वैसे ही राजनैतिक दल अपने अपने एजेंडे सेट करने में लग जाते हैं। कोई मंहगाई को तो कोई बेरोजगारी को टारगेट करता है। देश के अंतिम छोर के व्यक्ति की पूछ परख के लिए घोषणापत्र तैयार किए जाते हैं। मतदाताओं को लुभाने के उपरांत इन मेनीफेस्टो को खोमचे वालों को बेच दिया जाता है।पिछले कई सालों से तैयार हो रहे मेनीफेस्टो में एक बात खुलकर सामने आई है कि चाहे आधी सदी से अधिक राज करने वाली कांग्रेस हो या दो सीटों के सहारे आगे बढ़कर देश की सबसे बड़ी पंचायत पर कब्जा करने वाली भारतीय जनता पार्टी, किसी भी राजनैतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में स्कूली बच्चों के लिए कुछ भी खास नहीं रखा है।कितने आश्चर्य की बात है कि देश के नौनिहाल जब अट्ठारह की उमर को पाते हैं, तो उनके मत की भी इन्हीं राजनेताओं को बुरी तरह दरकार होती है, किन्तु धूल में अटा बचपन सहलाने की फुर्सत किसी भी राजनेता को नहीं है। हमें यह कहने में किसी तरह का संकोच अनुभव नहीं हो रहा है कि चूंकि इन बच्चों को वोट देने का अधिकार नहीं है, अत: राजनेताओं ने इन पर नजरें इनायत करना मुनासिब नहीं समझा है।इस तरह की राजनैतिक आपराधिक अनदेखी के चलते देश भर के स्कूल प्रशासन ने भी बच्चों की सुरक्षा के इंतजामात से अपने हाथ खींच रखे हैं। हर एक निजी स्कूल में ढांचागत विकास के नाम पर बििल्डंग, लाईब्रेरी, गेम्स, कंप्यूटर, सोशल एक्टीविटीज आदि न जाने कितनी मदों में मोटी फीस वसूली जाती है। एक तरफ शासन प्रशासन जहां ध्रतराष्ट्र की भूमिका में है तो स्कूल प्रशासन दुर्दांत अपराधी दाउद की भूमिका में अविभावकों से फीस के नाम पर चौथ वसूल कर रहा है। देश के स्कूलों का अगर सर्वे करवा लिया जाए तो पंचानवे फीसदी स्कूलों में अग्निशमन के उपाय नदारत ही मिलेंगे।हाल ही में राजधानी दिल्ली के एक बड़े और कथित सर्वसुविधायुक्त स्कूल में 17 वषीZया आकृति भाटिया की मौत के बाद भी न सरकार चेती न स्कूल प्रशासन। बसंत बिहार के मार्डन स्कूल की उक्त छात्रा को भूतल से प्रथम तल पर बने प्राथमिकोपचार कक्ष में ले जाया गया, जहां से उसे चिकित्सालय ले जाते समय दुर्योग से उसका निधन हो गया।इतना ही नहीं राजधानी की ही मुनििस्पल कार्पोरेशन ऑफ दिल्ली (एमसीडी) की स्कूल की एक छात्रा शन्नो की मौत बीमारी से होने की बात कहकर शाला ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। शन्नो के माता पिता का कहना है कि उनकी बेटी की मौत बीमारी से नहीं वरन शिक्षक की ज्यादती के कारण हुई थी। शन्नो के पालकों की आवाज भी नक्कारखाने की तूती ही साबित हो रही है।याद पड़ता है, सत्तर के दशक के पूर्वार्ध तक प्रत्येक शाला में स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन किया जाता था। हर बच्चे का स्वास्थ्य परीक्षण करवाना शाला प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी हुआ करता था। शिक्षक भी इस पुनीत कार्य में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया करते थे। उस वक्त चूंकि हर जिले में पदस्थ जिलाधिकारी (डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट) व्यक्तिगत रूचि लेकर इस तरह के शिविर लगाना सुनिश्चित किया करते थे। आज इस तरह के स्कूल निश्चित तौर पर अपवाद स्वरूप ही अस्तित्व में होंगे जहां विद्यार्थियों के बीमार पड़ने पर समुचित प्राथमिक चिकित्सा मुहैया हो सके।कितने आश्चर्य की बात है कि आज जो शिक्षक अपना आधा सा दिन अपनी कक्षा के बच्चों के साथ बिता देते हैं, उन्हें अपने छात्र की बीमारी या तासीर के बारे में भी पता नहीं होता। मतलब साफ है, आज के युग में शिक्षक व्यवसायिक होते जा रहे हैं। आज कितने एसे स्कूल हैं, जिन में पढ़ने वालों की बीमारी से संबंधित रिकार्ड रखा जा रहा होगा?स्कूल में दाखिले के दौरान तो पालकों को आकषिZत करने की गरज से शाला प्रबंधन द्वारा लंबे चौड़े फार्म भरवाए जाते हैं, जिनमें ब्लड ग्रुप से लेकर आई साईट और न जाने क्या क्या जानकारियों का समावेश रहता है। सवाल इस बात का है कि इस रिकार्ड को क्या अपडेट रखा जाता है? जाहिर है इसका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा।दरअसल हमारा तंत्र चाहे वह सरकारी हो या मंहगे अथवा मध्यम या सस्ते स्कूल सभी संवेदनहीन हो चुके हैं। मोटी फीस वसूलना इन स्कूलों का प्रमुख शगल बनकर रह गया है। आज तो हर मोड पर एक नर्सरी से प्राथमिक स्कूल खुला मिल जाता है। कुछ केंद्रीय विद्यालयों में तो प्राचार्यों की तानाशाही के चलते बच्चे मुख्य द्वार से लगभग आधा किलोमीटर दूर तक दस किलो का बस्ता लादकर पैदल चलते जाते हैं, क्योंकि प्राचार्यों को परिसर में आटो या रिक्शे का आना पसंद नहीं है।अगर देखा जाए तो देश का कमोबेश हर स्कूल मानवाधिकार का सीधा सीधा उल्लंघन करता पाया जाएगा। आज जरूरत इस बात की है कि देश के भाग्यविधाता राजनेताओं को इस ओर देखने की महती आवश्यक्ता है, क्योंकि उनके वारिसान भी इन्हीं में से किसी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे होंगे या करने वाले होंगे।
परिवारवाद और अनुकंपा नियुक्ति की जद में सियासत!
कांग्रेस में अनुकंपा नियुक्ति का जोर
भाजपा में परिवारवाद हावी
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। देश के दोनों प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा इन दिनों परिवारवाद और अनुकंपा नियुक्ति के सहारे ही चल रहे हैं। एक तरफ कांग्रेस में अनुकंपा नियुक्ति की तर्ज पर युवा पौध आगे आ रही है, तो दूसरी तरफ भाजपा की नई पौध परिवार वाद के खाद पानी से पनप रही है।कांग्रेस में राजीव गांधी के बाद राहुल गांधी, माधवराव सिंधिया के उपरांत ज्योतिरादित्य सिंधिया, के अलावा प्रिया दत्त, सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, नवीन जिंदल आदि का राजनीति में पदार्पण ठीक उसी तरह हुआ जिस तरह सरकारी कर्मचारी के निधन के उपरांत उसके वारिस को अनुकंपा नियुक्ति दी जाती है। ये सभी नवोदित राजनेता अपने अपने पिता के रिक्त स्थानों पर बैठकर राजनीति कर रहे हैं।दूसरी ओर भाजपा में विजयाराजे सिंधिया के समय में ही उनकी पुत्रियां वसुंधरा और यशोधरा तथा भाभी माया सिंह ने चौका चूल्हा छोड़ राजनीति का मैदान संभाला। इसके अलावा माया सिंह के पति ध्यानेंद्र सिंह भी विधायक हो गए। झालवाड़ के सांसद दुष्यंत सिंह भी वसुंधरा पुत्र होने के अलावा और कोई योग्यता नहीं रखते थे।जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह, सुंदर लाल पटवा के दत्तक पुत्र सुरेंद्र पटवा, केलाश जोशी के चिरंजीव दीपक जोशी, कैलाश सारंग के पुत्र विश्वास सारंग, वीरेंद्र सकलेचा के कुलदीपक ओमप्रकाश, लक्ष्मी नारायण पाण्डे के पुत्र राजेंद्र पाण्डे आदि प्रमुख उदहारणों में शुमार हैं, जिन्होंने परिवारवाद को ही पोसा है।यह अलहदा बात है कि भाजपा के आला नेताओं में राजनाथ सिंह, वैंकया नायडू, अटल बिहारी बाजपेयी, शहनवाज हुसैन, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली, राजीव प्रताप रूढी, रविशंकर प्रसाद, मुक्तार अब्बास नकवी आदि एसे शीर्ष नेता हैं, जिनके परिवार के इतिहास और पिता या पति के नाम बहुत कम ही लोग जानते हैं।
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