रविवार, 24 मई 2009

24 may 2009

आलेख 09 मई 2009
इंडिया यंग, लीडरशिप ओल्ड!
(लिमटी खरे)

भारत देश दिनों दिन जवान होता जा रहा है, किन्तु आज भी सियासत की बागड़ोर उमरदराज नेताओं के हाथों में ही खेल रही है। यंगिस्तान की राह इन पुराने नेताओं के हाथों से होकर ही गुजर रही है, किन्तु साठ पार कर चुके नेता आज भी युवाओं को देश की बागडोर सौंपने आतुर नहीं दिख रहे हैं।पिछले कुछ महीनों में यंगिस्तान को तवज्जो मिलना आरंभ हुआ है। युवाओं को यह भाव इसलिए नहीं मिला है, कि देश का उमरदराज नेतृत्व उन पर दांव लगाना चाह रहा है, इसके पीछे सीधा कारण दिखाई पड़ रहा है कि देश में 18 से 30 साल तक के करोड़ों मतदाताओं को लुभाने की गरज से साठ की उमर पार कर चुके नेताओं ने यह प्रयोग किया है।कहने को तो सभी सियासी पार्टियों द्वारा युवाओं को आगे लाने और उनके हाथ में कमान देने की बातें जोरदार तरीके से की जाती हैं, किन्तु विडम्बना ही कही जाएगी कि सियासी दल युवाओं को आगे लाने में कतराती ही हैं। कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार की पांचवी पीढ़ी राहुल गांधी को आगे लाया जा रहा है, वह भी इसलिए कि उनके नाम को भुनाकर राजनेता सत्ता की मलाई काट सकें। वरना अन्य राजनैतिक दल तो इस मामले में लगभग मौन ही साधे हुए हैं।कांग्रेस में सोनिया गांधी (63), मनमोहन सिंह (77), प्रणव मुखर्जी (75), अजुZन सिंह (79), ए.के.अंटोनी (69) के साथ पार्टी में नेताओं की औसत उमर 72 साल है। भाजपा भी इससे पीछे नहीं है अटल बिहारी बाजपेयी (85), एल.के.आड़वाणी (82), राजनाथ सिंह (58), एम.एम.जोशी (75) तो सुषमा स्वराज (57) के साथ यहां औसत उमर 71 दर्ज की गई है।वामदलों में सीपीआईएम में प्रकाश करात (62), सीताराम येचुरी (57), बुद्धदेव भट्टाचार्य (65), अच्युतानंदन (86) के साथ यहां राजनेताओं की औसत उमर 70 तो समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव (69), अमर सिंह (53), जनेश्वर मिश्र (75), रामगोपाल यादव (63) के साथ यह सबसे यंग पार्टी अथाZत यहां औसत उमर 61 है।सियासी पार्टियों में एक बात और गौरतलब होगी कि जितने भी युवाओं को पार्टियों ने तरजीह दी है, वे सभी जमीनी नहीं कहे जा सकते हैं। ये सभी पार्टियों में पैदा होने के स्थान पर अवतरित हुए हैं। इनमें से हर नेता किसी न किसी का केयर ऑफ ही है, अथाZत यंगस्तान के नेताओं को उनके पहले वाली पीढ़ी के कारण ही जाना जाता है। ग्रास रूट लेबिल से उठकर कोई भी शीर्ष पर नहीं पहुंचा है।हाल ही में संपन्न हुए आम चुनावों के पहले रायशुमारी के दौरान एक राजनेता ने जब अपने संसदीय क्षेत्र में अपने कार्यकर्ताओं के सामने युवाओं की हिमायत की तो एक प्रौढ़ कार्यकर्ता ने अपनी पीड़ा का इजहार करते हुए कहा कि जब मैं 29 साल पूर्व आपसे जुड़ा था तब युवा था, आज मेरा बच्चा 25 साल का हो गया है, वह पूछता है कि आप तब भी आम कार्यकर्ता थे, आज भी हैं, इन 29 सालों में आपको क्या मिला, आज मैं जवान हो गया हूं, तो किस आधार पर नेताजी युवाओं को आगे लाने की बात करते हैं।दुनिया के चौधरी अमेरिका में युवाओं और बुजुर्गों के बीच अंतर की एक स्पष्ट फांक दिखाई पड़ती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में जहां युवा पर्यावरण, जीवनशैली, रहन सहन और पारिवारिक मूल्यों के बारे में पुरानी पीढ़ी से अपने मत भिन्न रखती है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक जीवनशैली के मामले में युवाओं द्वारा तेज गति से बदलाव चाहा जाता है।वैसे मेरी व्यक्तिगत राय में हर राजनैतिक दलों में युवाओं और बुजुर्गों के बीच संतुलन और तालमेल होना चाहिए। यह सच है कि उमर के साथ ही अनुभव का भंडार बढ़ता है, पर यह भी सच है कि उमर बढ़ने के साथ ही साथ कार्य करने की क्षमता में भी कमी होती जाती है। जिस गति से युवाओं द्वारा कार्य को अंजाम दिया जाता है उसी तरह मार्गदर्शन के मामले में बुजुर्ग अच्छी भूमिका निभा सकते हैंं।कितने आश्चर्य की बात है कि जिस ब्यूरोक्रेसी (अफसरशाही) की बैसाखी पर चलकर राजनेता देश को चलता है, उसकी सेवानिवृत्ति की उम्र साठ या बासठ साल निर्धारित है, किन्तु जब बात राजनेताओं की आती है तो चलने, बोलने, हाथ पांव हिलाने में अक्षम नेता भी संसद या विधानसभा में पहुंचने की तमन्ना रखते हैं, यह कहां तक उचित माना जा सकता है।हमारे विचार से महज कुछ चेहरों के आधार पर नहीं, वरन् विचारों के आधार पर युवाओं को व्यापक स्तर पर राजनीति में आने प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। बुजुर्ग राजनैताओं का नैतिक दायित्व यह बनता है कि वे सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर अब मार्गदर्शक की भूमिका में आएं और युवाओं को ईमानदारी से जनसेवा का पाठ पढ़ाएं तभी गांधी के सपनों का भारत आकार ले सकेगा।
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नहीं हटेगी तीसरी बर्थ!
0 रेल्वे बोर्ड और भारतीय रेल के बीच रस्साकशी0 कोच में हंगामा होने के आसार0 16 जुलाई तक साईड मिडिल बर्थ हटना नामुमकिन
(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने और अधिक यात्रियों को गंतव्य तक पहुंचाने की गरज से स्लीपर कोच में आरंभ की गई साईड मिडिल बर्थ को अब 16 जुलाई तक हटाने की संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं। एक ओर 16 जुलाई के उपरंात थर्ड बर्थ का रिजर्वेशन बंद करा दिया गया है, वहीं दूसरी ओर कोच में इसके लगे रहने के कारण 16 जुलाई के बाद स्थिति खासी विस्फोटक होने का अनुमान है।गौरतलब होगा कि घाटे में चली रही विश्व की सबसे बड़ी रेल परियोजना को लाभ में लाकर भले ही स्वयंभू प्रबंधन दिग्गज (मेनेजमेंट गुरू) लालू प्रसाद यादव ने खुद को चर्चाओं में ला दिया हो, किन्तु स्लीपर कोच में साईड मिडिल बर्थ लगाकर 82 के बजाए 84 बर्थ करने के उपरांत यात्रियों को होने वाली व्यवहारिक कठिनाईयों ने उन्हें झुकने पर मजबूर कर दिया।रेल्वे बोर्ड के विश्वस्त सूत्रों के अनुसार तीखी आलोचनाओं के उपरांत बोर्ड ने फैसला लिया है कि 16 जुलाई के उपरांत स्लीपर कोच में साईड मिडिल बर्थ को हटाकर इसका रिजर्वेशन न किया जाए। बोर्ड ने इस तरह के निर्देश भी बाकायदा जारी कर दिए हैं। अगामी दिनों के आरक्षण में तीसरी बर्थ का रिजर्वेशन नहीं किया जा रहा है।उधर भारतीय रेल के तकनीकि विभाग के सूत्रों का कहना है कि भारतीय रेल के तकनीकि प्रभाग ने 16 जुलाई तक तीसरी बर्थ हटाने में अपनी असमर्थता जता दी है। इसके पीछे रेल्वे बोर्ड का तुगलकी फरमान बताया जा रहा है। प्राप्त जानकारी के अनुसार रेल्वे बोर्ड द्वारा फरमान जारी कर 16 जुलाई के उपरांत तीसरी बर्थ का आरक्षण न करने तथा डब्बों को कोच फेक्ट्री में ले जाए बिन ही तीसरी बर्थ हटाने की बात कही है।बोर्ड के सूत्रों का कहना है कि कोच फेक्ट्री में अगर डब्बे को ले जाया गया तो गर्मी में `सीजन` के दौरान रेल्वे को बड़ा घाटा उठाने के साथ ही साथ कम कोच होने से यात्रियों के गुस्से का शिकार होना पड़ेगा। इसलिए यह फैसला लिया गया है कि डब्बे को बिना कोच वर्कशाप ले जाए ही इसे निकाल दिया जाए, ताकि रेल सेवाएं बाधित न हो सकें, जो कि असंभव ही है। उधर भारतीय रेल के तकनीकि प्रभाग द्वारा रेल्वे बोर्ड को पत्र लिखकर समय की मांग करते हुए अपनी असमर्थता व्यक्त की है।माना जा रहा है कि 16 जुलाई के उपरांत जब साईड मिडिल बर्थ पर आरक्षण तो नहीं होगा किन्तु कोच में ये बर्थ अस्तित्व में होंगी तब प्रतिक्षा सूची वाले यात्रियों की नजरें इस पर टिकी होना स्वाभाविक ही है, इन परिस्थितयों में यात्रियों के बीच आए दिन होने वाले विवाद को टाला नहीं जा सकता है।

आलेख 12 मई
2009कोढ में खाज है दसवीं का परीक्षाफल
(लिमटी खरे)

मध्य प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा मण्डल के हाई स्कूल सार्टिफिकेट परीक्षा (दसवीं) के निराशाजनक परीक्षा परिणामों को देखकर लगने लगा है कि अब मध्य प्रदेश सरकार को अपने शिक्षा तंत्र के बारे में सोचना आवश्यक हो गया है। एचएसएस परीक्षा परिणाम वैसे भी अनेक संकेत दे रहे हैं।कितने आश्चर्य की बात है कि इस बार दसवीं में पेंसठ फीसदी विद्यार्थियों के हाथ असफलता ही लगी है। परिणामों की घोषणा के साथ ही समूचे सूबे में मायूसी की लहर व्याप्त हो जाना स्वाभाविक ही है। निराश विद्यार्थियों द्वारा जीवन समाप्त करने के प्रयास करने की खबरें भी आ रही हैं, जो निन्दनीय हैं।दुनिया भर में पसरी आर्थिक मंदी से भारत अछूता नहीं है। इस मंहगाई के जमाने में मध्य प्रदेश में निवास करने वाले मध्यम और निम्न आय वर्ग के लोगों के सामने अपने बच्चों को शिक्षा दिलाना काफी दुष्कर ही प्रतीत हो रहा है। माध्यमिक शिक्षा मण्डल से संबद्ध शालाओं में अध्ययन करने वाले असफल विद्यार्थियों के परिवारों में उदासी और असंतोष के बीज पनपना जाहिर है।औंधे मुंह गिरे परीक्षा परिणामों के कारणों को जानने सरकार द्वारा एक कमेटी का गठन कर दिया गया है, जो एक पखवाड़े में यह बताएगी कि इस बार परीक्षा परिणाम 22.6 फीसदी गिरकर इतने निराशाजनक क्यों रहे।वैसे निराशाजनक परीक्षा परिणामों के जो कारण सामने आ रहे हैं, उनमें चुनाव प्रमुख कारण कहा जा रहा है। शिक्षामंत्री ने यह तो स्वीकार कर लिया कि पिछले छ: माहों से शिक्षक लगातार चुनावी कार्यों में व्यस्त रहे, किन्तु इस समस्या के निदान के लिए उन्होंने न तो चिंता जाहिर की और न ही वैकल्पिक व्यवस्था को खोजने में अपनी रूचि ही दिखाई है।हमारा कहना यह है कि अगर प्रदेश के शिक्षामंत्री के पास इस तरह के बुरे परिणामों का स्पष्ट जवाब है तो फिर समीति बनाकर कारण पता करने की औपचारिकता क्यों? पहले विधानसभा फिर लोकसभा चुनावों में लगे शिक्षाकर्मियों को उनके मूल अथाZत शिक्षण के काम से मुक्त रखना कहां तक न्यायसंगत कहा जा सकता है।आने वाले दिनों में पंचायतो के साथ ही साथ स्थानीय निकायों के चुनाव भी होने हैं, जाहिर है शिक्षा कर्मियों को एक बार फिर चुनावों की तैयारियों और निष्पादन में झोंक दिया जाएगा। इसके बीच में से चंद दिन निकालकर शिक्षक अध्यापन कार्य, बोर्ड परीक्षाएं, आंतरिक परीक्षाएं, प्रायोगिक परीक्षाएं, मूल्यांकन और परीक्षा परिणाम का अपना मूल दायित्व निभाते आए हैं और निभाते रहेंगे।मध्य प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था को मानो जंग लग चुकी है। शिक्षक के पद पर भर्ती होकर अन्य विभागों में संविलियन के साथ ही साथ सरकारी शिक्षकों से पल्स पोलियो, नसबंदी, चुनाव जैसे कार्यों में बेगार करवाना निश्चित रूप से देश के नौनिहालों के भविष्य के साथ खिलवाड़ ही कहा जाएगा।कितने आश्चर्य की बात है कि प्रतिबंध के बावजूद भी शिक्षकों का अध्यापन से इतर अन्य कार्यों के निष्पादन के लिए अटेचमेंट आज भी बदस्तूर जारी है। पहुंच संपन्न शिक्षक शहरों की ओर रूख करते नजर आते हैं, गांव के स्कूल शिक्षक विहीन पड़े हुए हैं। न शासन और न प्रशासन यहां तक कि राजनेताओं को भी अपने वोट बैंक की खातिर इस ओर देखने की फुर्सत नहीं है।एसा नहीं कि विभागीय उच्चाधिकारियों अथवा शासन में बैठे प्रमुख सचिव से लेकर सेक्शन के बाबू को इस बारे में माहिति न हो। जानते सभी हैं पर मजबूर हैं मोन रहने को। साल भर शालाओं का निरीक्षण चलता है, किन्तु रीते पद रीते ही रह जाते हैं। निरीक्षक की औपचारिकता कैसे पूरी होती हैं, यह बात सभी बेहतर तरीके से जानते हैं।यहां आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि मोटी फीस लेकर अध्यापन को पेशा बनाने वाले अशासकीय स्कूलों में परीक्षा परिणाम प्रभावित क्यों हुए? इस तरह की शालाओं को तो चुनाव और अन्य बेगार के कामों से मुक्त रखा गया है। फिर आखिर एसी कौन सी वजह है कि इन शालाओं मेें भी विद्यार्थियों का प्रदर्शन ठीक नहीं रहा।बहरहाल नतीजों के खराब रहने के लिए गठित जांच दल किन बिन्दुओं को आधार बनाकर अपनी रिपोर्ट पेश करता है, यह तो आने वाले दिनों में ही पता चल सकेगा, किन्तु जांच दल को चाहिए कि ग्रास रूट लेबल पर जाकर व्यवहारिक परेशानियों को आधार बनाकर अपना प्रतिवेदन दे ताकि प्रदेश के नौनिहालों के भविष्य के साथ खिलवाड़ न हो सके।
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आलेख 13 मई 2009
सर्वशिक्षा अभियान में भ्रष्टाचार की सड़ांध
(लिमटी खरे)

केंद्र सरकार द्वारा राजीव गांधी शिक्षा मिशन के रूप में एक बहुत ही अच्छी और जनकल्याणकारी योजना की शुरूआत की थी। बाद में अटल बिहारी बाजपेयी सरकार द्वारा इसका नाम बदलकर सर्वशिक्षा अभियान कर दिया था। इस योजना में शुरूआती दौर से ही भ्रष्टाचार की दीमक ने अपने घरोंदे बनाने आरंभ कर दिए थे।राज्य स्तर पर समन्वयकों की नियुक्ति हो या जिला समन्वयक दोनों ही नियुक्ति सरकारी मुलाजिमों के खाते में थीं, किन्तु इनमें राजनैतिक पहुंच संपन्न लोगा जैसे ही काबिज होना आरंंभ हुए वैसे ही लगने लगा था कि आने वाले समय में इसका भविष्य अंधकारमय ही होगा।शुरूआती दौर से अब तक सर्वशिक्षा अभियान में हर स्तर पर भ्रष्टाचार यहां तक कि महिला कर्मचारियों के शारीरिक शोषण की खबरें भी राजनैतिक संरक्षण में होने की खबरें जब तब समाचार पत्रों की सुिर्खयां बनी रहतीं हैं। इस योजना में पलीता इसलिए भी लगा क्योंकि अन्य विभागों के अधिकारी कर्मचारियों ने इस मलाईदार विभाग में प्रतिनियुक्ति पर आने का कभी समाप्त न होने वाला उपक्रम जो आरंभ कर दिया।मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में पदस्थ रहे जिला परियोजना समन्वयक डॉक्टर राकेश शर्मा जो मूलत: पशु चिकित्सा विभाग में पशु चिकित्सक थे, के कार्यकाल में महिलाओं के शारीरिक, और मानसिक शोषण की खबरें चरम पर हुआ करती थीं। बताते हैं कि किसी महिला कर्मचारी की सप्रमाण शिकायत के उपरांत डॉ.शर्मा को रातों रात अपना सामान समेटकर सिवनी से भोपाल भागना पड़ा था।इतना ही नहीं इसके बाद पदस्थ हुए डीपीसी अनिल कुशवाहा को गंभीर अनियमितताओं के आरोप में दो मर्तबा निलंबित कर दिया गया था, जो दोनों ही बार बहाल हो गए। शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्रित्वकाल में परियोजनाओं का इस तरह का सफल संचालन हो रहा हो तो फिर प्रदेश का बंटाधार सुनिश्चित ही है।कहा तो यहां तक भी जा रहा है कि अब तो राज्य समन्वयक से लेकर जिला समन्वयक और बीआरसी तक के पद बिक रहे हैं, जो जितनी ज्यादा बोली लगाएगा उसे वह पद मिल जाएगा। सच्चाई क्या है, यह तो प्रदेश सरकार के नुमाईंदे ही बता सकते हैं पर प्रदेश में जिस तरह परिवहन विभाग में पद बिकते हैं, और यातायात व्यवस्था पटरी से उखड़ चुकी है, ठीक उसी तरह प्रारंभिक शिक्षा की सांसे भी उखड़ ही चुकी हैं।विडम्बना ही कही जाएगी कि केंद्र सरकार द्वारा बच्चों विशेषकर ग्रामीण अंचलों के बच्चों को बेहतर शिक्षा मुहैया करवाने की गरज से इस पुनीत अभियान को चलाया गया है, वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश में सर्वशिक्षा अभियान अफसरों और कर्मचारियों के लिए बेहतर कमाई का जरिया बन गई है।एक ओर सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान द्वारा मध्य प्रदेश से भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने की बात कही जा रही है, वहीं उनकी नाक के नीचे ही उनके सूबे में इस अभियान में सबसे अधिक भ्रष्टाचार सड़ांध मार रहा है। पिछले साल इस अभियान हेतु केंद्र सरकार ने जहां 1843 करोड़ रूपए की इमदाद दी थी, वह इस साल बढ़कर 2222 करोड़ रूपए हो गई है।प्रदेश के हर जिले में केंद्र पोषित सर्वशिक्षा अभियान की मद में सामग्री की खरीदी, निर्माण कार्य, मुद्रण आदि में व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार हो रहा है। केंद्र सरकार या सूबे के मुख्यमंत्री अगर एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष एजेंसी के माध्यम से प्रदेश में चल रही सर्वशिक्षा अभियान में हो रही गफलतों की जांच करवाएं तो जो घोटाले सामने आएंगे वे अपने आप में एक रिकार्ड बना सकते हैं।
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व्हाट एन आईडिया सर!
0 आईडिया बना रहा है अपने उपभोक्ताओं को बेवकूफ
0 सचिन, जहीर और भज्जी की रिकार्डिड आवाज के एवज में लग रहा चूना
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनी आईडिया द्वारा अपने उपभोक्ताओं को देश के नामी गिरामी क्रिकेट खिलाड़ियों से बात कराने के लुभावने विज्ञापनों के माध्यम से सरेआम लूटा जा रहा है। मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर, जहीर खान और हरभजन से बात कराने के लिए तीन अलग अलग नंबर विज्ञापनों में दिए गए हैं।ज्ञातव्य होगा कि राम प्रसाद गोयनका (आरपीजी) कंपनी, बिरला, एटी एण्ड टी ने मिलकर 2001 मेें आईडिया कंपनी की स्थापना की थी। उस दौरान प्रबंधन की सख्ती के चलते कर्मचारियों के बीच यह आईडिया के बजाए बटाटा के नाम से मशहूर हो गई थी।मोबाईल सेक्टर में फैली गलाकाट स्पर्धा के चलते आईडिया द्वारा भी नित नए प्रयोग आरंभ किए गए। पहले तो विज्ञापनों में आईडिया द्वारा मध्य प्रदेश के अनेक जिलों में कव्हरेज होने की बात कहकर विज्ञापनों में प्रदेश के नक्शे पर उन जिलों में समूचे जिले को ही अलग रंग से चििन्हत कर उपभोक्ताओं को लुभाने का प्रयास किया था।इस मामले में कुछ जागरूक उपभोक्ताओं ने जिला उपभोक्ता फोरम भोपाल में परिवाद भी दायर किया था, जिसमें कहा गया था कि आईडिया का कव्हरेज महज जिला मुख्यालय में ही है, तो फिर समूचे जिले को इसमें शामिल कर लुभाने का क्या औचित्य है, यह उपभोक्ताओं के साथ सीधी धोखाधडी ही थी।वर्तमान में जब ट्वंटी ट्वंटी क्रिकेट का बुखार सर चढ़कर बोल रहा है, तब आईडिया द्वारा 09702700510 नंबर प्रदर्शित कर सचिन तेंदुलकर, 09702900534 पर जहीर खान और 09702900505 पर हरभजन सिंह से बात करने के लिए लुभावने विज्ञापन जारी किए हैं, जिसका शीर्षक है, करें अपने पसंदीदा क्रिकेटर से बात।गौरतलब होगा कि देश में क्रिकेट के दीवानों की तादाद में विस्फोटक वृद्धि दर्ज हुई है, इन परिस्थितियों में लाखों की तादाद में मोबाईल उपभोक्ता आईडिया की सेवाएं लेने आगे आएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, किन्तु जब वे सभी इन नंबर पर काल करते हैं तो उन्हें इन तीनों नंबरों पर सचिन, जहीर और भज्जी की रिकार्डिड आवाज सुनने को मिलती है, कि वे अभी मैच खेलन में व्यस्त हैं, आपसे बाद में बात करेंगे।मोबाईल उपभोक्ताओं ने कहा कि दिन हो या रात हर समय ही ये क्रिकेटर मैच खेलने में व्यस्त हैं, तो आम उपभोक्ताओं के पैसे की बबाZदी आखिर कहां तक उचित है। कुछ उपभोक्ताओं ने तो इस मामले में उपभोक्ता अदालतों और ट्राई में जाने का मन बना लिया है।

0 आलेख 14 मई 2009
बालाघाट में सर उठाने लगे नक्सली

(लिमटी खरे)

एक असेZ से शांत पड़े मध्य प्रदेश के नक्सलप्रभावित क्षेत्र मण्डला और बालाघाट में अब नक्सली सुगबुगाहटों ने पुलिस की नींद में खलल डाल दिया है। मध्य प्रदेश के नक्सल प्रावित क्षेत्र बालाघाट में एक बार फिर नक्सलियों की हरकत बढ़ने लगी हैं। नक्सली अब तक कोई बड़ी वारदात तो नहÈ कर पाए हैं लेकिन उनकी गतिविधियों ने पुलिस की नÈद जरूर उड़ा दी है। नक्सलियों के ठिकाने से मिले हेंड ग्रेनेड और अन्य सामग्री पुलिस को चिंता में डाल देने वाली है। नक्सलियों के प्राव क्षेत्र वाले बालाघाट में पिछले कुछ सालों से शांत पडे म़लाजखंड और टाडा दलम के सदस्य एक बार फिर सक्रिय हो चले हैं। इन संगठनों से जुड़े वे लोग हैं जिन्होंने दिसम्बर 1999 में तत्कालीन परिवहन मंत्री लिखीराम कांवरे की नृशंस हत्या की थी। इनकी सक्रियता का खुलासा लोकसा चुनाव के दौरान हुआ था जब उन्होंने चुनाव बहिष्कार का एलान किया था। बालाघाट जिले में 22 अप्रैल को लोकसा चुनाव के मतदान से एक दिन पहले देवरबेली पुलिस चौकी क्षेत्र में हर्रा डेही गांव में बारूदी सुरंग मिली थी। यह सुरंग नक्सलियों द्वारा बिछाई गई थी और वे चुनाव के दौरान बड़ी वारदात को अंजाम देना चाहते थे। मगर उनके मंसूबे कामयाब नहÈ हो पाए थे। पुलिस द्वारा घेराबंदी किए जाने से नक्सली बोरबन के जंगल में 15 हेंड ग्रेनेड, दो क्लोमोर माइन की प्लेट और एक बंदूक छोड़कर ाग खड़े हुए। बताते हैं कि पुलिस को नक्सलियों के पास से जो हेंड ग्रेनेड मिले हैं वे काफी शक्तिशाली हैं।संयुक्त मध्य प्रदेश में नक्सलियों के छुपने के लिए मण्डला, डिंडोरी और बालाघाट जिलों के आरण्य सबसे मुफीद हुआ करते थे। बालाघाट जिले में नक्सलियों ने अपना जबर्दस्त नेटवर्क बना लिया था, जिसके चलते सरकारी मशीनरी इनके दबाव में काम करने पर मजबूर हो गई है।पूर्व मुख्यमंत्री दििग्वजय सिंह के कार्यकाल में उनकी ही केबनेट के एक वरिष्ठ सदस्य लिखीराम कांवरे, के साथ ही साथ न जाने कितने पुलिस कर्मियों की बली चढने बाद वे हरकत में आए और पुलिस में नक्सल रेंज की स्थापना कर पुलिस महानिरीक्षक की पदस्थापना भी की। कितने आश्चर्य की बात है कि सुख सुविधाएं भोगने के आदि हो चुके अधिकारियों ने रेंज का मुख्यालय जबलपुर में बनवा दिया जहां पहले से ही पुलिस महानिरीक्षक की तैनाती थी एवं यहां से बालाघाट की दूरी सडक मार्ग से ढाई सौ किलोमीटर दूर थी। बाद में व्यवहारिक कठिनाईयों को देखकर इसका मुख्यालय बालाघाट स्थानांतरित किया गया।बालाघाट के पुलिस महानिरीक्षक सी.व्ही.मुनिराजू ने पिछले कुछ सालों में ग्रामीणों के बीच पुलिस की छवि को काफी हद तक सुधारा है, यही कारण है कि बालाघाट में ग्रामीण अंचलों में नक्सलियों को गांव वालों का समर्थन नहीं मिल पा रहा था। पिछले कुछ सालों से बालाघाट और मण्डला में नक्सली गतिविधियों पर विराम सा लग गया था। किन्तु नक्सलिकयों की चौथ वसूली निरंतर जारी थी।शासन को यह सोचने की महती जरूरत है कि आखिर नक्सलियों को उपजाउ आबोहवा कहां और कैसे मुहैया हो पाती है। दरअसल नक्सलियों ने ग्रामीण अंचलों जाकर बिगडैल व्यवस्था को पटरी पर लाने का हिंसक तरीका अिख्तयार किया है। भ्रष्ट और जंग लगी व्यवस्था से आजिज आ चुके ग्रामीणों को नक्सलियों का तरीका पसंद ही आया होगा वरना नक्सलवादी अपनी जडें जमाने में कामयाब नहीं हो पाते। नक्सलियों के निशाने पर पुलिस, वन और राजस्व विभाग के कर्मचारी होते हैं, क्योंकि ये सीधे सीधे जनता से जुडे होते हैं, एवं इन्हीं तीनों विभागों में भ्रष्टाचार की कभी न रूकने वाली गंगा बह रही है।बहरहाल बालाघाट में चुनावों के दौरान चुनाव के बहिष्कार की मुनादी पिटवाकर नक्सलवादियों ने सरकार को अपनी ताकत का एहसास करवा दिया था, इसके बाद भी सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। इसके अलावा बडी तादाद में खतरनाक विस्फोटक मिलना भी चिंताजनक ही माना जा सकता है।सरकार को चाहिए कि नक्सलवाद प्रभावित इलाके में पदस्थ कर्मचारियों विशेषकर पुलिस बल को निश्चित समय सीमा के उपरांत वहां से स्थानांतरित करे, अन्यथा काम के तनाव, परिवार से दूरी और नक्सलियों के खौफ के चलते उनकी मानसिक स्थिति भयावह हो सकती है।इसके अलावा सरकार को नक्सलप्रभावित क्षेत्रों में विशेष और इमानदार अधिकारियों की पदस्थापना भी करना होगा, ताकि सड चुके सरकारी तंत्र को पुर्नजीवित किया जा सके और नक्सलवाद जैसे खरपतवारों के लिए उपजाउ माहौल न पैदा हो सके, वरना आने वाले समय में सरकार को इससे निपटने में खासी मशक्कत करनी पड सकती है।
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0 आलेख 16 मई 2009
मतलब अपराधियों के लिए साफ्ट टागेट बन गया है सिवनी
(लिमटी खरे)

20 अप्रेल को मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र प्रदेश की सीमा पर अवस्थित सिवनी जिले में हुए एक अंधे कत्ल की गुत्थी पुलिस द्वारा जिस तरह आनन फानन सुलझाई गई है, उसके लिए सिवनी पुलिस निश्चित रूप से बधाई की पात्र है। पुलिस अधीक्षक श्रीमति मीनाक्षी शर्मा, अनुविभागीय अधिकारी पुलिस एन.डी.जाटव सहित आपरेशन में लगा समूचा स्टाफ इसके लिए साधुवाद का हकदार कहा जा सकता है।दरअसल 20 अप्रेल को जिले के लखनवाड़ा थाना क्षेत्र में ग्राम कारीरात के पास एक अज्ञात व्यक्ति का शव मिला था, जिसे देखकर प्रथम दृष्टया यह प्रतीत हो रहा था कि उक्त कत्ल किसी तार से गला घोंटकर किया गया था। मृतक के पास किसी भी तरह की पहचान न होने से यह कत्ल सुलझाना टेडी खीर ही प्रतीत हो रहा था।बकौल पुलिस अधीक्षक एसटीडी पीसीओ से हुए एक काल की वजह से मृतक के परिजन सिवनी पहुंचे और मृतक की शिनाख्त की। इसके बाद लखनवाडा थाने के प्रभारी अभिलाष धारू ने समय समय पर श्रीमति शर्मा एवं एन.डी.जाटव से दिशानिर्देश लेकर इस अंधे कत्ल की गुत्थी सुलझाई। इस मामले में पुलिस ने छ: व्यक्तियों को आरोपी बनाया है। इन सभी की गिरफ्तारी उत्तर प्रदेश से हुई है। पुलिस की कथासे यही लगता है कि आरोपियों का उद्देश्य वाहन को चुराकर बेचना ही था। आरोपियों में एक वृद्ध के अलावा पांच युवा ही हैं।पुलिस सूत्र बताते हैं कि इन आरोपियों के तार अपराध जगत में काफी गहरे जुडे हुए हैं। पुलिस विवेचना के उपरांत निश्चित रूप से काफी मात्रा में आश्चर्यजनक तथ्य अगर सामने आएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मुंबई में भी इनका कुनबा काफी बडा बताया जाता है।हमारी व्यवस्था को किस तरह जंग लग चुका है यह बात इससे साबित हो जाती है कि मुंबई से महाराष्ट्र पासिंग टेक्सी को उत्तर प्रदेश में जाकर बाकायदा नया नंबर आवंटित करवाकर आरोपियों ने इसे कथित तौर पर बनारस के एक व्यापारी को बेच दिया था। इस मामले में संबंधित परिवहन अधिकारी को भी आरोपी बनाए जाने की आवश्क्ता है।पत्रकार वार्ता में पुलिस अधीक्षक श्रीमति मीनाक्षी शर्मा ने सिवनी में इस तरह के अपराधों पर अपनी चिंता भी जाहिर की। श्रीमति शर्मा पहली एस पी हैं, जिन्होंने सिवनी में बाहर के अपराधियों के द्वारा किए जाने वाले अपराधों पर संजीदगी के साथ अपना मत रखा।हम श्रीमति शर्मा को बधाई देते हुए उनके इस कदम का पुरजोर समर्थन करते हैं जिन्होंने सिवनी में बाहर के अपराधियों के द्वारा आकर अपराध कर भाग जाने की बात कही थी। पुलिस का काम वैसे तो रियाया की जान माल की सुरक्षा का है, पर अगर महकमें में तैनाती ही कम होगी तो कोई क्या कर लेगा।दरअसल सिवनी जिला देश के सबसे लंबे और व्यस्ततम राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात पर मध्य प्रदेश सीमा पर अवस्थित है, इसके उत्तर में मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर है तो दक्षिणी मुहाने पर महाराष्ट्र प्रदेश की संस्कारधानी नागपुर। इसलिए सिवनी में वारदात कर भाग लेने के लिए अपराधियों को बेहद मुफीद मौके मुहैया होते हैं।अब तो खतरा और बढ़ता दिख रहा है, क्योंकि एनएच 7 का एक बडा हिस्सा स्विर्णम चतुभुZज के उत्तर दक्षिण गलियारे में समाहित कर दिया गया है। आने वाले दिनों में आंधी तूफान की गति से दौडने वाले वाहनों के चलते अपराधियों को पकडना और भी दुष्कर कार्य हो जाएगा।सिवनी में किसी बडी वारदात कोे अंजाम देकर अपराधियों को महज चंद घंटों में ही दो पांच सौ किलोमीटर दूर भाग जाना बहुत ही आसान है, वैसे भी सिवनी की भौगोलिक परिस्थितियां अपराधियों को वारदात के उपरांत छुपकर भागने के मार्ग प्रशस्त करतीं हैं।वैसे भी सिवनी जिले में पुलिस बल का अभाव सालों से बना हुआ है। हमारे जनप्रतिनिधियों को भी इस दिशा में ध्यान देने की फुर्सत नहीं प्रतीत हो रही है, यही कारण है कि जिला बाबा आदम के जमाने के स्वीकृत पुलिस बल से संचालित हो रहा है। हाईवे पर होने के बाद भी हाईवे पेट्रोलिंग के लिए अलग से न तो पुलिस बल है और न ही वाहन। पूर्व में कांग्रेस के शासनकाल में एक क्वालिस वाहन हाईवे पेट्रोलिंग के लिए जरूर स्वीकृत हुआ था, किन्तु बाद में दबाव के चलते इसे छिंदवाडा भेज दिया गया था।सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में जिले में हुआ धूमा डकैती कांड़, जनता मेडीकल स्टोर्स के संचालक की हत्या, संध्या जैन हत्याकांड, मोहगांव में मनीष कठल के घर पर पडी डकैती, खवासा में हुई डकैती, कुछ दिनों पूर्व कुरई घाट पर हुई जबर्दस्त लूट, आदि न जाने कितने कांड हैं, जो सिवनी जिले को असुरक्षित कहे जाने हेतु पर्याप्त कहे जा सकते हैं। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि एसटीएफ के जबलपुर जोन का मुख्यालय सिवनी को बनाया जाना चाहिए, क्योंकि कुछ मामलात में वैसे भी सिवनी जिला काफी संवेदनशील माना जाता है।हम जिला पुलिस अधीक्षक से अपील करते हैं कि वे अपने ही स्तर पर सिवनी जिले को सुरक्षित बनाने की दिशा में सरकार से मांग करें, क्योंकि अब तक निर्वाचित जनप्रतिनिधयों ने सिवनी को सुरक्षित बनाने की दिशा में न तो कोई कदम उठाया है और न ही कदम ताल देखकर उनके द्वारा भविष्य में इस तरह का कोई कदम उठाए जाने की आशा ही की जा सकती है।

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