आलेख 16 अगस्त 2009
हिन्दी आजाद भारत की राष्ट्रभाषा है ममता जी,
(लिमटी खरे)
भारत की आजादी की 62 वीं वर्षगांठ पर भी हम आत्मनिर्भर न हो पाए हों तो आश्चर्य की बात है। 62 सालों के बाद एक बच्चा वृद्ध हो जाता है, और तो और सरकार भी 62 साल में अपने कर्मचारी को सेवानिवृत्त भी कर देती है। 62 साल का समय कम नहीं होता है।इन 62 सालों में हम देश की करंसी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं दिला सके, हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके। आज भी लोग मन से हिन्दी बोलने में शरम महसूस ही करते हैं। क्षेत्रों में हिन्दी के बजाए अंग्रेजी को ही लोग अधिक महत्व देते हैं। हालात देखकर कभी कभी लगने लगता है कि कहीं अंग्रेजी तो हमारी मातृ भाषा नहींर्षोर्षो वैसे भी आज औसत आयु 60 ही मानी जा रही है, फिर 62 सालों के बाद भी हिन्दी की चिंदी इस तरह उड़ाई जा रही है।हमारे देश में भी मीडिया ने हिन्दी के बजाए हिंगलिश (हिन्दी और अंग्रेजी का मिला जुला स्वरूप) को अंगीकार कर लिया है। अभी कुछ दिनों पहले फ्रांस ने एक सर्कुलर जारी कर फ्रांसिसी भाषा के अखबारों को ताकीद किया था कि अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग निश्चित प्रतिशत से ज्यादा न करे। विडम्बना ही कही जाएगी कि हिन्दुस्तान में हिन्दी के संरक्षण के लिए सरकार के प्रयास नाकाफी ही हैं।देश के कमोबेश हर बड़ी परीक्षाएं अंग्रेजी माध्यम में ही संचालित होती हैं। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायलय और देश की सबसे बड़ी पंचायत अर्थात संसद में भी अंग्रेजी का खासा बोलबाला है। देश के महामहिम राष्ट्रपति हों या प्रधानमंत्री सभी देश को संबोधित करते हैं, अंग्रेजी भाषा को ही प्रमुखता देते हैं।हिन्दी भाषी राज्यों से हटकर अन्य राज्यों में सूचना पटल या अन्य उदघोषणाएं भी या तो क्षेत्रीय भाषा में होतीं हैं, या फिर अंग्रेजी में। अधिकतर कांप्टीटिव एक्जाम्स का माध्यम अंग्रेजी ही होता है। क्या यही हैं हमारे द्वारा छ: दशकों में चुनी गई सरकारों की प्रतिबद्धताएं!अभी हाल ही में खबर है कि भारतीय रेल भी अंग्रेजी को ही अंगीकार करने जा रही है। कहा जा रहा है कि रेल मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे को संभालने के बाद ममता बनर्जी ने एक फरमान जारी किया है कि रेल्वे की परीक्षाएं या तो अंग्रेजी में संचालित की जाएं या फिर क्षेत्रीय भाषाओं में।अख्खड़पन, मनमानी और व्यक्तिवादिता के लिए मशहूर ममता बनर्जी देश की राष्ट्रभाषा के साथ संवैधानिक रूप से छेड़छाड़ करना चाह रही हैं, जो निंदनीय है। ममता बनर्जी को अपनी इस अवैध मंशा को लागू कराने के लिए मंत्रीमण्डल की बैठक (केबनेट) में इसे लाना होगा।इसके बाद बारी आएगी संसद की, फिर देश की अदालतें खुलीं हैं। कुल मिलाकर ममता अपनी मर्जी को आसानी से अमली जामा नहीं पहना सकती हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर ममता बनर्जी के दिमाग में इस तरह का ख्याल कौंधा भी तो कैसेर्षोर्षो ममता बनर्जी ने अपने इस फरमान को अमली जामा पहनाने के लिए बाकायदा एक समिति का गठन भी कर दिया है, जो अपने प्रतिवेदन के साथ रेल मंत्री के अनुमोदन के उपरांत इसे लागू करने की कवायद में जुट जाएगी।हिन्दी अंग्रेजी के साथ ही साथ संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान पा चुकी क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा कराने से कोई रोक नही रहा है, पर यह हमारे देश की राष्ट्रभाषा की अस्मत का सवाल है। अभी लोग क्षेत्रीयता को लेकर तरह तरह के जहर उगल रहे हैं। शुक्र है कि भाषा विवाद अभी शांत है, ममता बनर्जी का यह प्रयास भाषा विवाद को जन्म देकर एक नया बखेड़ा खड़ा करेगा।क्षेत्रीय भाषाओं को तरजीह देने की बात समझ में आती है, किन्तु हिन्दी के बजाए अंग्रेजी को महत्व देना समझ से परे ही है। सवाल यह उठता है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाष है, फिर हिन्दी की इस तरह दुर्दशा कोई कैसे कर सकता है। क्षेत्रीय भाषाओं को निश्चित तौर पर बढ़ावा मिलना चाहिए, किन्तु हिन्दी जो कि राष्ट्रभाषा है की इस तरह उपेक्षा करना संभव नहीं है, यह असंवेधानिक करार दिया जा सकता है, किन्तु आजाद भारत में वर्तमान परिस्थितियों में देश के नीति निर्धारक अपने अपने फायदों के लिए कानून की व्याख्या अपने हिसाब से करने में माहिर हैं।वर्तमान में रेल्वे की ग्रुप डी की परीक्षाएं हिन्दी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में होती हैं। ग्रुप सी की परीक्षाएं अंग्रेजी और हिन्दी में करवाई जाती हैं। ग्रुप सी में क्षेत्रीय भाषा को जोड़ने की मांग लंबे अरसे से की जा रही थी। क्षेेत्रीय भाषा को इसमें शामिल करने में कोई असहमत नहीं था, किन्तु जैसे ही हिन्दी को इससे प्रथक करने की बात आई वैसे ही खलबली मचना स्वाभाविक ही है।कितने आश्चर्य की बात है कि आजाद हिन्दुस्तान में जहां राजभाषा के विकास के लिए गृह मंत्रालय के अधीन अलग से राजभाषा विकास विभाग की स्थापना की है। आफीशियल लेंग्वेज को प्रोत्साहन देने के लिए केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय एक तरफ पूरा जोर लगा रहा है, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार की रेल मंत्री द्वारा इस मुहिम पर पानी फेरने की कवायद की जा रही है।प्रधानमंत्री को चाहिए कि अगर उनके अधीनस्थ कोई मंत्रालय इस तरह राष्ट्र की संपत्ति के साथ खिलवाड़ करता है तो उसे चेतावनी देकर इस तरह की परिपाटी को तत्काल रोकें। साथ ही साथ सरकार यह भी सुनिश्चित करे कि कोई भी सरकारी नुमाईंदा संविधान के साथ छेड़छाड़ की बात भी मन में न लाए, वरना आने वाले समय में संविधान की धज्जियां उड़ती नजर आएंगी।
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